अर्थशास्त्र / Economics

भुगतान संतुलन | प्रतिकूल भुगतान सन्तुलन के कारण | भुगतान-सन्तुलन की समस्या को हल करने के लिए भारत सरकार द्वारा उठाये कदम | भुगतान सन्तुलन का महत्त्व

भुगतान संतुलन | प्रतिकूल भुगतान सन्तुलन के कारण | भुगतान-सन्तुलन की समस्या को हल करने के लिए भारत सरकार द्वारा उठाये कदम | भुगतान सन्तुलन का महत्त्व | balance of payments in Hindi | Due to unfavorable balance of payments in Hindi | Steps taken by the Government of India to solve the problem of balance of payments in Hindi | importance of balance of payments in Hindi

भुगतान संतुलन/शेष

(Balance of payments)

व्यापार शेष- व्यापार शेष निर्यातित और आयातित वस्तुओं तथा सेवाओं के मूल्य का अन्तर होता है। इसमें भुगतान शेष चालू लेखा के क्रेडिट और डेबिट पक्षों की पहली मदें आती हैं। इसे ‘चालू लेखा का भुगतान शेष’ कहते हैं। कुछ अर्थशास्त्रियों ने व्यापार शेष की परिभाषा यह दी है व्यापार शेष व्यापारिक माल के निर्यात तथा आयात के मूल्य का अन्तर होता है। प्रो० मीड (Meade) के अनुसार, ‘देश की राष्ट्रीय आय के दृष्टिकोण से व्यापार शेष को पारिभाषित करने का यह ढंग गलत है और कम आर्थिक महत्त्व रखता है।’ समीकरण रूप में भुगतान शेष है- Y=C+I+G+ (X-M) जिनमें वे सभी लेन-देन शामिल हैं जो राष्ट्रीय आय को उत्पन्न अथवा समाप्त करते हैं। इसी समीकरण में Y राष्ट्रीय आय को, C उपभोग व्यय को, I निवेश व्यय को, G सरकारी व्यय को, X वस्तुओं तथा सेवाओं के निर्यात को और M वस्तुओं तथा सेवाओं के आयात को व्यक्त करते हैं। व्यंजक (X-M) व्यापार शेष को व्यक्त करता है। यदि X और M का अन्तर शून्य है, तो व्यापार शेष संतुलित हो जाता है। यदि M की अपेक्षा X बड़ा (X>M) है, तो व्यापार शेष अनुकूल है अथवा यों कहिए कि अतिरेक व्यापार शेष है। दूसरी ओर, यदि M से X कम (M>X) है, तो व्यापार शेष में घाटा है अथवा व्यापारशेष प्रतिकूल है।

विदेशी विनिमय की मांग = विदेशी विनिमय की पूर्ति

प्रतिकूल-भुगतान-सन्तुलन के कारण

आयातों में भारी वृद्धि- योजना काल में भारत के आयातों में भारी वृद्धि हुई है। आयातों में इस वृद्धि के निम्नलिखित प्रमुख कारण रहे हैं-

(i) औद्योगिक विकास की बढ़ती हुई आवश्यकताओं को पूरा करना तथा अर्थव्यवस्था की गति को बनाये रखने के लिए आवश्यक वस्तुओं की भारी मात्रा में विदेशों से मंगवाना। (ii) अनाज व खाद्यान्नों का भारी मात्रा में आयात करना। (iii) कच्चे माल का बड़ी मात्रा में आयात करना। (iv) आयात प्रतिस्थापन योजनाओं में विफलता।

निर्यातों में अपेक्षाकृत कम वृद्धि- भारत के निर्यात व्यापार में अपेक्षाकृत कम वृद्धि हुई है। वास्तव में निर्यात प्रोत्साहन की दिशा में हमारे प्रयत्न विशेष सफल नहीं रहे हैं। इसके प्रमुख कारण निम्नलिखित रहे हैं-

(i) कृषि का उत्पादन लगभग स्थिर रहा है।

(ii) घरेलू माँग में वृद्धि के कारण अधिकांश उत्पादन की खपत देश में ही हो गई है।

(iii) मुद्रा स्फीति के कारण उत्पादन लागतों में तेजी से वृद्धि हुई है।

(iv) हमारे परम्परागत निर्यातों की माँग में अधिक वृद्धि नहीं हो सकी हैं।

(v) हमारे निर्यातों में विविधता का अभाव रहा है।

विदेशी ऋणों पर ब्याज और ऋणों की अदायगी भारत के मिलने वाले ऋण की मात्रा निरन्तर घटती जा रही है और साथ ही साथ पहले के लिए गये ऋणों और उनके ऊपर भुगतान किये जाने वाले व्याज का उत्तरदायित्व निरन्तर बढ़ता जा रहा है।

आय-प्रभाव और कीमत प्रभाव- आय प्रभाव से आशय आय में वृद्धि के कारण व्यापार पर पड़ने वाले प्रभाव से है। देश में आय-वृद्धि के कारण एक ओर तो विलासिता की वस्तुओं की माँग बढ़ी है और दूसरी ओर घरेलू माँग में वृद्धि के कारण निर्यात योग्य वस्तुओं की मात्रा कम हो गयी है।

आय और उत्पादन के मध्य गर्भावधि काल लम्बा होता है जिससे वस्तुओं के मूल्य बढ़ जाते हैं। मूल्य वृद्धि के फलस्वरूप आयात तो प्रोत्साहित होते हैं और निर्यात हतोत्साहित।

विदेशी ऋण और व्यापार के बीच सम्बन्ध होना- भारत को प्राप्त अधिकांश विदेशी ऋण इस प्रकार के हैं जिनके भुगतान के उत्तरदायित्व को व्यापार से नहीं जोड़ा गया है। ऐसी स्थिति में भुगतान का दायित्व भुगतान के सन्तुलन का प्रतिकूल ढंग से प्रभावित करता है।

अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष से रुपयों की पुनः खरीद- गत वर्षों में भारत ने मुद्राकोष से बड़ी मात्रा में विदेशी मुद्रा ऋण के रूप में ली है। इनके अन्तर्गत रुपये देकर भारत मुद्रा कोष से विदेशी मुद्रा प्राप्त करता है और थोड़े समय के उपरान्त विदेशी मुद्रा देकर रुपये वापस खरीदे जाते हैं। अब रुपयों की पुनः खरीद के रूप में ऋणों की अदायगी की जा रही है।

भुगतान-सन्तुलन की समस्या को हल करने के लिए भारत सरकार द्वारा उठाये कदम

भारत सरकार ने भुगतान-सन्तुलन की समस्या को सुलझाने के लिए निम्न कदम उठाये हैं—

  1. आयात-निर्यात सन्तुलन- भारत सरकार ने गत वर्षों में यह प्रयत्न किया है कि आयातों को सीमित कर दिया जाये और निर्यातों को यथाशक्ति बढ़ाया जाये। 1957 ई० में आयातों के सम्बन्ध में अत्यन्त कड़ा रुख अपनाया गया है। तृतीय योजना के आरम्भ में आयात प्रतिस्थापन की नीति अपनाई गई है। इसके साथ ही, निर्यातों को प्रोत्साहित करने के लिए भरसक प्रयत्न किये जा रहे हैं और निर्यातक उद्योगों को अधिकाधिक सुविधायें दी जा रही हैं।
  2. पौण्ड-पावने का प्रयोग- युद्धोत्तर काल में भुगतान शेष की पूर्ति के लिए विदेशी- विनिमय (पौण्ड-पावने) का प्रयोग किया गया है और यह कोष नाम मात्र का रह गया है।
  3. विदेशी प्रतिभूतियों का प्रयोग- रिजर्व बैंक की विदेशी सम्पत्ति में विदेशों की प्रतिभूतियाँ होती हैं। 1957 ई० में अपने अधिनियम में संशोधन करके रिजर्व बैंक ने प्रतिभूतियों को प्रयोग करने का अधिकार प्राप्त कर लिया है और अब आवश्यकता पड़ने पर रिजर्व बैंक इन प्रतिभूतियों को बेचकर भुगतान सम्बन्धी कठिनाई दूर करता है।
  4. विदेशी ऋण तथा सहायता- भारत सरकार ने गत वर्षों में अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं (विश्व बैंक, अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, अन्तर्राष्ट्रीय वित्त निगम) और विदेशी सरकारों से ऋण लेकर भुगतान समस्या को हल किया है। भारतीय सहायता क्लब भारत को नियमित रूप से ऋण देता है। इस क्लब के सदस्य हैं—ब्रिटेन, संयुक्त राज्य अमेरिका, जापान, कनाडा, पश्चिमी जर्मनी, फ्रांस, आस्ट्रेलिया, बेल्जियम, नीदरलैण्ड, इटली आदि।
  5. अदृश्य निर्यात- अदृश्य निर्यात के अन्तर्गत मुख्यतः जहाजों व हवाई सेवा, बैंक व बीमा सुविधायें एवं प्रयत्न शामिल हैं। भारत सरकार इन सेवाओं को बढ़ाने के लिए प्रयत्नशील है। विदेशी लोगों को भारत में पर्यटन के लिए भी अधिकाधिक सुविधायें दी जाती है।
  6. रुपये का अवमूल्यन- भारत ने सितम्बर, 1949, जून, 1966 व जुलाई, 1991 ई० में रुपये का अवमूल्यन करके भी भारत के प्रतिकूल भुगतान-सन्तुलन को ठीक करने का प्रयास किया है।

सुझाव-

प्रतिकूल भुगतान-सन्तुलन की समस्या को हल करने के लिए निम्नलिखित सुझाव दिये जा सकते हैं-

  1. आयात प्रतिस्थापन की नीति को आर्थिक विकास की दृष्टि से दीर्घकालीन नीति के रूप में अपनाना चाहिए।
  2. निर्यातों में वृद्धि करने के लिए हर प्रकार के प्रयत्न करने चाहिए।
  3. वस्तुओं की घरेलू माँग को सीमित करके ‘निर्यात अतिरेक’ में वृद्धि की जानी चाहिए।

भुगतान सन्तुलन का महत्त्व

(Importance of balance payment)

यदि किसी देश के भुगतान-सन्तुलन के वितरण का निष्पक्षता से अध्ययन किया जाये तो उससे देश की आर्थिक परिस्थितियों का विश्लेषण किया जा सकता है। किसी देश की अर्थव्यवस्था में भुगतान सन्तुलन का महत्व निम्नलिखित तथ्यों से स्पष्ट हो जाता है-

  1. देश की अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक स्थिति का ज्ञान- भुगतान-सन्तुलन के विवरण से सरकारी अधिकारियों को देश की अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक स्थिति के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त होती है। इससे उन्हें मौद्रिक व वित्तीय नीतियों, विदेशी व्यापार तथा विदेशी विनिमय सम्बन्धी निर्णय लेने में सहायता मिलती है।
  2. चलन तथा विदेशी विनिमय की स्थिति तथा मौद्रिक व विनिमय नियन्त्रण सम्बन्धी नीतियों की सफलता का अनुमान- भुगतान-सन्तुलन की स्थिति से इस बात का अध्ययन किया जा सकता है कि एक देश ऋणी है अथवा ऋणदाता, इसके चलन तथा विदेशी विनिमय साधनों की दशा कमजोर है या सुदृढ़ तथा इसके द्वारा अपनाई गई मौद्रिक व विनिमय नियन्त्रण की रीतियाँ कहाँ तक सफल रही है।
  3. अवमूल्यन के प्रभाव का ज्ञान- भुगतान-सन्तुलन के विवरण के आधार पर यह ज्ञात किया जा सकता है कि किसी देश द्वारा अवमूल्यन की नीति अपनाने के फलस्वरूप उसके आयातनिर्यातों पर क्या प्रभाव पड़ा है अर्थात् उसके निर्यातों में वृद्धि तथा आयातों में कमी हुई है। अथवा नहीं।
  4. देश की राष्ट्रीय आय पर विदेशी व्यापार के प्रभाव की माप- भुगतान-सन्तुलन लेखे का प्रयोग देश की राष्ट्रीय आय पर पड़ने वाले विदेशी व्यापार तथा व्यवहारों के प्रभाव को मापने के लिए किया जा सकता है।
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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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