अर्थशास्त्र / Economics

निर्धनता का दुश्चक्र | निर्धनता का दुश्चक्र तोड़ने के उपाय

निर्धनता का दुश्चक्र | निर्धनता का दुश्चक्र तोड़ने के उपाय | The vicious circle of poverty in Hindi | Ways to break the vicious circle of poverty in Hindi

निर्धनता का दुश्चक्र

(Vicious Circle of Poverty)

‘निर्धनता का दुश्चक्र’ ऐसी वृत्ताकार प्रक्रिया है, जिसका प्रारम्भ भी निर्वतना से होता है। तथा अन्त भी निर्धनता के रूप में होता है। रागनर नर्से (Ragner) ने प्रत्यय का प्रयोग अल्पविकसित देशों की प्रमुख विशेषता के रूप में किया है। जिस प्रकार निर्धन व्यक्ति अपनी निर्धनता के कारण ही निर्धन बना रहता है, उसी प्रकार अल्पविकसित देश अपनी निर्धनता के कारण ही अल्पविकसित बना रहता है। उदाहरण के लिये, निर्धन व्यक्ति के पास खाने के लिये पर्याप्त नहीं होता है। अल्प-पोषण के कारण उसका स्वास्थ्य कमजोर रहता है। शारीरिक दृष्टि से दुर्बल होने के कारण उसकी कार्यक्षमता कम होती है, जिसका अर्थ यह है कि वह निर्धन ही रहेगा तथा उसे भविष्य में भी खाने के लिये पर्याप्त नहीं मिल पायेगा। रागनर नर्सो के शब्दों में, “निर्धनता का दुश्चक्र शक्तियों का ऐसा वृत्ताकार पुँज है, जो एक-दूसरे पर क्रिया ओर प्रतिक्रिया करने की प्रवृत्ति रखती है तथा जिनके फलस्वरूप निर्धन देश निर्धन ही बना रहता है। कोई देश इसलिये निर्धन रहता है, क्योंकि वह निर्धन है”।

नक्सें ने निर्धनता के दुश्चक्र की प्रमुख विशेषतायें इस प्रकार गिनाई हैं- 1. किस देश की निर्धनता का ‘कारण’ और ‘परिणाम’ स्वयं निर्धनता है। 2. निर्धनता की शक्तियाँ अपने प्रारम्भिक बिन्दु से अन्तिम बिन्दु तक वृत्ताकार ढंग से क्रिया और प्रतिक्रिया करती हुई आगे बढ़ती है। 3. निर्धनता के दुश्चक्र का प्रभाव संचयी होता है अर्थात् एक स्तर पर पाई जाने वाली निर्धनता अगले स्तर पर अधिक गहरी हो जाती है। 4. निर्धनता का दुश्चक्र ऐसी अनवरत प्रक्रिया हे, जो सम्बन्धित घटकों को सबैव नीचे की ओर ढकेलती है। 5. निर्धनता के दुश्चक्र की शुरुआत किसी ऋणात्मक घटक की उपस्थिति होती है, जो दूसरे ऋणात्मक घटकों का ‘करण’ और ‘परिणाम’ होता है। 6. निर्धनता का दुश्चक्र अल्पविकसित देशों में पूँजी निर्माण की स्थिति को ‘कारण’ और ‘परिणाम के रूप में स्पष्ट करता है। इन देशों में माँग और पूर्ति, दोनों पक्षों की ओर से पूँजी की न्यूनता बनी रहती है।

आधारभूत दुश्चक्र इस तथ्य से निकलता है कि अल्पविकसित देशों में पूँजी की न्यूनता, बाजार सम्बन्धी अपूर्णताओं, आर्थिक पिछड़ेपन और अल्पविकास के कारण कुल उत्पादकता का स्तर नीचा बना रहता है। ‘निम्न उत्पादकता’ निम्न वास्तविक आय के रूप में परिलक्षित होती है। नीची वास्तविक आय का अर्थ बचत की नीची दर होती है। ‘बचत का नीचा स्तर’ निवेश की नीची दर और पूँजी की न्यूनता को जन्म देता है। ‘पूँजी की न्यूनता’ बदले में उत्पादकता के निम्न स्तर को जन्म देती है। इस प्रकार पूर्ति-पक्ष की ओर से निर्धनता का दुश्चक्र पूरा हो जाता है, जिसे रेखाचित्र में दर्शाया गया है।

आलोचनात्मक समीक्षा- पी. टी. बौर (P.T. Bauer) के अनुसार, “निर्धनता के दुश्चक्र’ का विचार दोषपूर्ण है, क्योंकि इसमें ‘सन्निहित’ ‘प्राचल’ अथवा चर (Variables) या तो विकास के निर्धारकों के रूप में तुलनात्मक दृष्टि से कम महत्वपूर्ण हैं या वे बतलाये गये ढंग के अनुसार एक-दूसरे पर प्रतिक्रिया नहीं करते। यदि यह विचार ठीक होता, तब थनी और निर्धन देशों के असंख्य व्यक्ति निर्धनता की दशा से ऊपर उठकर धनवान कैसे बन जाते ?” अल्पविकसित देशों की दृष्टि से भी यह विचार अमान्य है। सभी अल्पविकसित देशों ने निर्धनता, प्रति व्यक्ति निम्न आय तथा पूँजी संचय के निम्न स्तर से विकास कार्य प्रारम्भ किया है। उन्होंने बड़ी मात्रा में विदेशी सहायता प्राप्त किये बिना ही अच्छी खासी प्रगति की है, जबकि नक्सें के मतानुसार बड़ी मात्रा में विदेशी सहायता प्राप्त किये बिना निर्धनता के दुश्चक्र को तोड़ना असम्भव है। यह विचार विकास की प्रक्रिया से असंगत ठहरता है, क्योंकि इसमें निम्न स्तर (निर्धनता) को परिवर्तन की शून्य दर के समान मान लिया गया है।

गुन्नार मिर्डल (Gunnar Myrdal) के मतानुसार, “नक्स ने निर्धनता के दुष्चक्र की प्रक्रिया को किसी फिल्म की कहानी और घटनाक्रम पर आधारित करने का प्रयास किया है, जिसमें प्रत्येक घटना निश्चित क्रम से और निश्चित समय पर घटित होती है। परन्तु किसी अर्थव्यवस्था की स्थिति इससे पूर्णतः भिन्न होती है। कौन-सा आर्थिक घटक कब और किस प्रकार मोड़ लेगा तथा उसे कौन से अन्य ज्ञात एवं अज्ञात घटक किस स्तर और किस रूप में  प्रभावित करेंगे, इसका अनुमान तो लगाया जा सकता है, किन्तु उसे स्वचालित मशीन का रूप नहीं दिया जा सकता।” नक्स के विचार का सबसे बड़ा दोष समय-तत्व की अवहेलना है।

निर्धनता का दुश्चक्र तोड़ने के उपाय-

निर्धनता के दुश्चक्र को माँग और पूर्ति दोनों पक्षों से तोड़ना आवश्यक है। यद्यपि पूँजी की मांग उत्पन्न करना और उसे बढ़ाना सरल कार्य है, किन्तु पूंजी की पूर्ति की न्यूनता पाटना सरल कार्य नहीं है। यह भी सम्भव है कि देश में प्राकृतिक साधनों की न्यनता हो। वस्तुतः आर्थिक विकास को अवरूद्ध करने वाले सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटक ‘बचत क्षमता की कमी’ तथा ‘निवेश-प्रेरणा की कमी है। यदि पूंजी निर्माण की समस्या को सफलतापूर्वक सुलझा लिया जाये, तव अन्य अभावों तथा प्राकृतिक बाधाओं को दूर करना अधिक सरलहोगा। आन्तरिक और विदेशी, दोनों ही साधनों से पूंजी की पूर्ति बढ़ायी जा सकती है। सरकार को ऐसी मौद्रिक एवं राजकोषीय नीतियाँ लागू करनी होंगी, जो निवेश के लिये प्रेरणादायक हों घरेलू क्षेत्र में पूँजी निर्माण को गति प्रदान करने के लिये वास्तविक बचत की दर बढ़ाना (कराधान, अल्पबचतों, सार्वजनिक उधार और हीनार्थ-प्रबन्धन द्वारा), वित्तीय संस्थाओं के विस्तार द्वारा बचतों को गतिशील बनाना तथा निजी उद्यमियों को लाभप्रद निवेश के अवसर प्रदान करना आवश्यक है। सार्वजनिक क्षेत्र के विस्तार द्वारा निजी उद्यम की न्यूनता पाटी जा सकती है। विदेशी ऋण एवं सहायता पाकर घेरेलू पूँजी की न्यूनता पाटी जा सकती है। उत्पादकता में वृद्धि हेतु कुछ क्षेत्रों में विकसित तकनीक लागू करना तथा परम्परागत तकनीक में यथासम्भव सुधर करना आवश्यक है। शिक्षा के प्रसार द्वारा सामजिक और संस्थागत ढाँचे में परिवर्तन करना भी आवश्यक है, ताकि देशवासी निर्धनता को जन्मजात वरदान न समझों तथा इसके निवारण हेतु प्रयत्नशील हों।

अर्थशास्त्र महत्वपूर्ण लिंक

Disclaimer: sarkariguider.com केवल शिक्षा के उद्देश्य और शिक्षा क्षेत्र के लिए बनाई गयी है। हम सिर्फ Internet पर पहले से उपलब्ध Link और Material provide करते है। यदि किसी भी तरह यह कानून का उल्लंघन करता है या कोई समस्या है तो Please हमे Mail करे- sarkariguider@gmail.com

About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

Leave a Comment

(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
close button
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
error: Content is protected !!