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छायावाद के आविर्भाव के कारण | छायावाद की प्रवृत्तियाँ | छायावावदी कविता की शिल्पगत विशेषताएँ

छायावाद के आविर्भाव के कारण | छायावाद की प्रवृत्तियाँ | छायावावदी कविता की शिल्पगत विशेषताएँ

छायावाद के आविर्भाव के कारण

वास्तव में हिंदी की छायावादी कविता का उद्भव तत्कालीन राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक एवं साहित्यिक परिस्थितियों के परिणामस्वरूप हुआ है। डॉ. शिवनंदन प्रसाद के शब्दों में छायावाद के जन्म का इतिहास समझने के लिए हमें तत्कालीन परिस्थितियों को समझना होगा। कोई भी प्रबल साहित्यिक प्रवृत्ति मात्र अंग्रेजी प्रभाव से उद्भूत नहीं हो सकती और न किसी विदेशी प्रवृत्ति की नकल में ही किसी भाषा में कोई नवीन प्रवृत्ति पनप सकती है।’ विगत युग की साहित्यिक प्रवृत्ति की प्रतिक्रिया के रूप में ही कोई प्रवृत्ति खड़ी नहीं रह सकती। जब तक उनकी जड़ें तत्कालीनसामाजिक परिस्थितियों की गहराई में न प्रविष्ट हों। छायावाद ईसाई संतों या रवींद्र की कविताओं का अंग्रेजी के रोमांटिक कवियों की नकल नहीं। वह मात्र द्विवेदीयुगीन इतिवृत्तात्मक शैली की प्रतिक्रिया भी नहीं। वह देश की तदयुगीन सामाजिक जीवन और उसकी परिस्थितियों की युग की काव्य-चेतना पर प्रतिक्रिया है।’ डॉ0 नगेंद्र का भी यहीं मत है। उनके अनुसार ‘राजनीति में ब्रिटिश साम्राज्य को अचल सत्ता और समाज में सुधार की दृढ़ नैतिकता, असंतोष और विद्रोह (बंधन मुक्ति) की इन भावनाओं को बहिर्मुखी अभिव्यक्ति का अवसर देती थी, निदान वे भावनाएँ अंतर्मुखी के लिए छायाचित्रों की सृष्टि कर रही थीं, आशा के इन्हीं स्वप्नों और निराशा के छाया चित्रों की समष्टि का ही नाम ‘छायावाद’ है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि छायावाद विद्रोह का परिणाम है किंतु इस विद्रोह का बीजारोपण कलाकारों ने वैयक्तिक सर्जनाओं के माध्यम से किया है। इनकी वाणी ने वैयक्तिक वेदना को मुखरित किया है। जीवन की शुष्कता, कठोरता, खोखलापन एवं नैराश्य से ऊबकर कलाकारों ने एक अलग ही संसार की कल्पना की फलतः द्विवेदी जी ने युगीन नैतिकतावादी साहित्यिक मान्यताओं को तिलांजलि देकर एक नूतन दृष्टि एवं नूतन शैली लेकर काव्य-क्षेत्र में पदार्पण किया और उन्होंने कविता के भावक्षेत्र में वैयक्तिकता, नैराश्य, अतृप्त प्रेम, रहस्यवाद, प्रकृति का मानवीकरण तथा सर्वथा सूक्ष्म घावों के चित्रण का श्रीगणेश किया। भावपक्ष की ही भाँति कविता के कला पक्ष में भी लाक्षणिक शब्दावली, नये प्रतीक, नव्य उपमान योजना, नूतन छंद विधान और नवीन अलंकारों का प्रयोग प्रारंभ किया।

छायावाद की परिभाषा एवं स्वरूप के विषया में विद्वानों में मतैक्य नहीं। आचार्य शुक्लकी मान्यतानुसार छायावाद शब्द का प्रयोग दो अर्थों में समझना चाहिए। एक तो रहस्यवाद के अर्थ में जहाँ उसका संबंध काव्य वस्तु से होता है। छायाबाद का दूसरा प्रयोग काव्य शैली या पद्धति विशेष के व्यापक अर्थ में है। किंतु इसके ठीक विपरीत डॉ. रामकुमार वर्मा के अनुसार परमात्मा की छाया आत्मा में पड़ने लगती है और आत्मा की छाया परमात्मा में, यही छायावाद है। इसी प्रकार श्री रामकृष्ण शुक्ल की मान्यतानुसार छायावादी प्रकृति में मानव -जीवन का प्रतिबिम्ब देखना है, रहस्यवाद समस्त सृष्टि में ईश्वर का अव्यक्त है और मनुष व्यक्त है। इसलिए छाया मनुष्य की, व्यक्त की ही देखी जा सकती है, अव्यक्त की नहीं। अव्यक्त रहस्य ही रहता है। इसी प्रकार डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने छायावाद को एक सांस्कृतिक परंपरा का परिणाम मानते हुए इस काव्य को विषय प्रधान  कहा है। डॉ. सुधीन्द्र छायावाद को प्रेम प्रकृति, सर्वचेतनवाद, निगूढ़ वेदना, विस्मय भावना, सूक्ष्म तत्त्वबोध, नवीन अभिव्यंजना प्रणाली आदि कई विशिष्टताओं से युक्त मानते हैं।

छायावाद की प्रवृत्तियाँ (छायावावदी कविता की शिल्पगत विशेषताएँ)

छायावादी काव्य की कुछ अपनी प्रमुख विशेषताएँ हैं जो इसे अपनी पूर्ववर्ती एवं तत्कालीन काव्यधाराओं से सर्वथा अलग करती हैं। हिंदी के छायावादी काव्य में निम्न विशेषताएँ हमें देखने को मिलती हैं-

(क) वैयक्तिता-

छायावादी काव्य में वैयक्तिकता का प्राधान्य देखने को मिलता है। इसीलिए विचारकों ने इसे व्यक्तिवाद की कविता कहा है। आलोचकों के अनुसार छायावादी कवि को अपने व्यक्तित्व के प्रति अगाध विश्वास है और उसने बड़े उत्साह से काव्य के भाव और कला पक्ष में निजी व्यक्तित्व का प्रदर्शन किया। अहं भावना छायावादी काव्य की प्रमुख विशेषता बन गयी और इस प्रकार छायावादी काव्य में वैयक्तिक सुखःदुःख की अभिव्यक्ति खुलकर हुई। जयशंकर प्रसाद का ‘आँसू तथा पंतजी के ‘उच्छवास’ और ‘आँसू’ में व्यक्तिवादी अभिव्यक्ति में निजत्व की अपेक्षा प्रबुद्ध भारतीयों की मर्मवेदना की भी अभिव्यक्ति मिली है। छायावादी प्रत्येक कवि का ‘मैं’ प्रत्येक प्रबुद्ध भारतवासी का ‘मैं’ है। निराला की कविता का एक उदाहरण देखिए-

मैंने ‘मैं’ शैली अपनाई देखा दुखी जन भाई।

दुख की छाया पड़ी हृदय में और उमड़ वेदना आई।

(ख) श्रृंगारिकता-

छायावाद की दूसरी प्रधान प्रवृत्ति है श्रृंगारिकता की। डॉ0 नगेंद्र के शब्दों में छायावाद का अनिन्दित श्रृंगार दो प्रकारसे व्यक्त होता है। एक तो प्रकृति के प्रतीकों द्वारा, प्रकृति पर नारी भाव के आरोप द्वारा। दूसरे नारी के अनिन्दित सौंदर्य द्वारा अर्थात् उनके मन और आत्मा का सौंदर्य देखते हुए उसके शरीर के अमांसल चित्रों द्वारा। इस प्रकार छायावाद का श्रृंगार उपभोग की वस्तु न होकर विस्मय और कौतूहल का विषय है। किंतु कहीं पर श्रृंगार का मांसल चित्रण भी देखने को मिलता है। ‘बच्चन’ की कविता की एक बानगी लीजिए-

तब तक समझूं कैसे प्यार,

अधरों से जब तक न कराये

प्यारी उस मधु-रस का पान।

(ग) सौंदर्य भावना-

सौंदर्य भावना छायावादी काव्य का प्राण है। छायावादी कवि प्रत्येक सुंदर वस्तु के साथ अपने हृदय के रागात्मक संबंध को स्थापित करने के लिए सदैव उत्सुक रहता है किंतु उनका यह सौंदर्य चित्रण बाह्य एवं आंतरिक दोनों प्रकार का है। छायावादी काव्य में सौंदर्य अपने में पूर्ण कला के साथ सुशोभित होता हुआ दिखाई देता है। एक उदाहरण लीजिए-

अरूण अधरों का पल्लव प्रात, मोतियों सा हिलता हिम हास,

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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