रीति कालीन काव्य के उद्भव एवं विकास | रीति युगीन काव्य के प्रमुख प्रवृत्तियाँ | रीतिकालीन काव्य की मूलभूत प्रवृत्तियाँ

रीति कालीन काव्य के उद्भव एवं विकास | रीति युगीन काव्य के प्रमुख प्रवृत्तियाँ | रीतिकालीन काव्य की मूलभूत प्रवृत्तियाँ

रीति कालीन काव्य के उद्भव एवं विकास

नामकरण-

रीतिकाल के नामकरण के संबंध में विद्वानों में मतैक्य नहीं। वे इसे विभिन्न नामों से संबोधित करते हैं। यथा- अलंकृत काल, कलाकाल, शृंगारकाल आदि। इस युग रीति शैली, अलंकार एवं गार का प्राधान्य था। रीतिकाल तत्कालीन लक्षण-उदाहरण शैली की प्रमुख प्रवृत्तियों को द्योतित करने में समर्थ हैं। इस प्रसंग में आचार्य द्विवेदी का विचार भी दृष्टव्य है- यहाँ आकर कतिवा को प्रेरणा देने वाली शक्ति अलंकार रस और नायिका भेद हो जाते हैं। यहाँ साहित्य को गति देने में अलंकार शास्त्र का ही जोर है जिसे उस काल में रीति कवित्त रीति या सुकवि रीति कहने लगे थे। संभावतः इनहीं शब्दों से प्रेरणा पाकर शुक्ल जी ने इस श्रेणी की रचनाओं को रीतिकाव्य कहा है। डॉ. नगेंद्र के अनुसार हिंदी में रीति का प्रयोग साधारणतः लक्षण ग्रंथों के लिए होता है। जिन ग्रंथों में काव्य के विभिन्न अंगों को लक्षण- उदाहरण सहित विवेचन होता है, उसे रीतिग्रंथ कहते हैं और जिस वैज्ञानिक पद्धति पर जिस विधान के अनुसार विवेचन होता है उसे रीतिशास्त्र कहते हैं। x x x  संस्कृत में उसका नाम अलंकार शास है। वहाँ उसे एक विशेष संप्रदाय के लिये-युक्त किया गया है। रीति का यहाँ अर्थ है एक विशिष्ट पद रचना। x x x संभव है आरंभ में हिंदी में रीति शब्द का मूल संकेत रीति संप्रदाय से ही लिया गया हो, परतु वास्तव में यहाँ काव्य रचना संबंधी नियमों के विधान को ही समग्रतः रीति नाम दे दिया है। जिस ग्रंथ में रचना संबंधी नियमों का विवेचन हो, वह रीति ग्रंथ और जिस काव्य की रचना इन नियमों से आबद्ध हो, वह रीति काव्य है। इस प्रकार सोलहवीं शती के मध्य भाग से लेकर उन्नीसवीं शती के मध्य भाग तक के हिंदी साहित्य के इतिहास को रीतिकाल नाम से पुकारा जाता है।

(1) नामकरण के अंतर्गत विस्तृत विवेचन-

हिंदी साहित्य का उत्तर मध्यकाल (लगभग सन् 1643 ई. से सन् 1843 ई. तक) जिसमें सामान्य रूप से शृंगारपरक लक्षण ग्रंथों की रचना हुई। नामकरण की दृष्टि से विद्वानों में पर्याप्त मतभेद का विषय रहा है।

मिश्रबंधुओं ने इसे ‘अलंकृत’ कहा है जबकि आचार्य रामचंद्र शुक्ल इसे ‘रीतिकाल’ और पं. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र’ ‘शृंगारकाल’ संज्ञा देते हैं इन अभिधानों में से प्रथम दो के लिए जहाँ रचना- पद्धति का आधार ग्रहण किया गया है, वहाँ अंतिम उस युग की रचनाओं के आधार पर है। किंतु इस युग के लिए ‘अलंकृत विशेषण अधिक समीचीन प्रतीत नहीं होता। कारण मिश्न महोदयों ने इसके समर्थन में जो यह तर्क दिया है कि इस युग की कविता को अलंकृत करने की परिपाटी अधिक थी, वह इसलिये मान्य नहीं हो सकता क्योंकि यह कविता केवल अलंकृत ही नहीं है, इतर काव्यांगों को भी इसमें यथोचित स्थान प्राप्त रहा है, कवियों की प्रवृत्ति भी केवल अलंकारयुक्त रचनाएँ करने की नहीं थी- उन्होंने इसकी अपेक्षा रस पर अधिक बल दिया है। हाँ, संस्कृत-काव्यशास्त्र में ‘अलंकार

‘शब्द विविध काव्यांगों का बोधक अवश्य रहा है। अतः इस अर्थ में यदि ‘अलंकार’ विशेषण इस युग की काव्यांग- निरूपण-प्रवृत्ति के लिए ग्रहण किया जाय, तो असंगत नहीं। पर चूँकि ‘अलंकृत’ शब्द (क्त प्रत्यय के कारण) इस युग की कविता का ही विशेषण हो सकता है- लक्षण ग्रंथों का नहीं, जो प्रचुर परिमाण में उपलब्ध होते हैं, इसलिये इस युग को किसी सीमा तक अलंकार काल कहना भी युक्त नहीं हो सकता है।

(2) रीति और श्रृंगार का प्रश्न-

जहाँ तक शेष दो विशेषणों-रीति और शृंगार’ का प्रश्न है, वे दोनों ही अपने-अपने स्थानों पर महत्वपूर्ण हैं। इस युग के लिए ‘रीति’ विशेषण का प्रयोग करने वाले आचार्य रामचंद्र शुक्ल तक ने इसे ‘शृंगारकाल’ कहे जाने से आपत्ति प्रकट नहीं की। किंतु इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि इस युग को ‘शृंगारकाल’ कहना सर्वथा उचित है। इस नाम के पक्ष में जो यह तर्क दिया जाता है कि इस युग के कवियों की व्यापक प्रवृत्ति शृंगार वर्णन की थी उसके स्वीकार किये जाने में आपत्ति की जा सकती है।

(3) ‘रीति’ विशेषण सहित प्रयोग का प्रश्न-

जहाँ तक इस युग को ‘रीति’ विशेष सहित प्रयोग में लाने का प्रश्न है उसके विषय में यह सहज ही कहा जा सकता है कि ‘श्रृंङ्गारकाल’ की अपेक्षा यह अधिक वैज्ञानिक और संगत है, कारण इनमें रीति संबंधी ग्रंथ ही अधिकांशतः नहीं लिखे गये अपितु इस युग के कवियों की प्रवृत्ति भी ऐसे ही ग्रंथ रचने की थी। इन कवियों ने यदि श्रृंगारिक छंद रचे भी तो वे सामान्यतः स्वतंत्र रूप से रचित न होकर श्रृंगार रस की सामग्री के लक्षणों के उदाहरण होने के कारण रीतिबद्ध ही थे। इतना ही नहीं, रीति-निरूपण की यह प्रवृत्ति अपनी विशिष्ट पृष्ठभूमि और परंपरा के साथ आयी थी। भक्तिकाल में ही काव्यशास्त्र लोगों की चर्चा का विषय बन चुका था। नंददास द्वारा ‘रस-मंजरी’ जैसा नायिका भेद संबंधी ग्रंथ लिख जाना तथा तुलसी द्वारा धुनि अवरेव कथित गुन जाती, मीन मनोहर ते बहु भाँति’ आदि कहा जाना इसकी पुष्टि के लिए पर्याप्त है। इसके साथ-ही-साथ केशव, रहीम, सुंदर आदि अनेक कवियों ने कवि-चर्चा के इस विषय को अग्रसर किया जो आगे चलकर साधारण कवियों तक का वर्ण्य विषय होने के कारण इस युग की प्रवृत्ति का द्योतक हो गया। दूसरे इस अभिधान को स्वीकार कर लेने में सबसे बड़ा लाभ यह है कि इसकी परिधि के भीतर केवल वे लक्षण और लक्ष्य ग्रंथ ही नहीं आ जाते जो श्रृंगारिक रचनाओं से युक्त हैं, अपितु वे ग्रंथ भी इसकी परिसीमा के बाहर नहीं पड़ते जो अन्य रसों में काव्यांग-विवेचन के निमित्त रचे गये।

राज्याश्रय प्राप्त साहित्य में जहाँ भोग-विलास एवं वासना की गंध थी वहीं लोक-साहित्य वीर-भावना से अनुप्राणित था। रीतिकालीन-काव्य की प्रमुख प्रवृत्तियाँ इस प्रकार हैं-

(क) श्रृङ्गारी प्रवृत्ति- राधा कृष्ण का लोक-रंजक रूप रीतिकाल में आकर विलासी नायक- नायिकाओं का हो गया। रीतिकालीन कवियों ने राधा-कृष्ण को आलंबन मानकर अपनी उत्कृष्ट श्रृंगारिक भावना का परिचय दिया है। इतना ही नहीं श्रृंगार की सरस धारा से सिक्त होकर कविगण सुरा-सुंदरी का आह्वान करने लगे। उनकी चेष्टाओं, हावों एवं भावों का निरूपण करने में तल्लीन हो गये। उनकी भ्रूभंगियों, अरूण कपोलों, उन्नत वक्षों और कदली-खंभ को तिरस्कृत करने वाली जंघाओं पर रीझ कर, उनके ही सौंदर्य-सागर में डूबकर उनके ही गुणानुवाद करने लगे। किंतु उनका यह श्रृंगार वर्णन भी रूढ़ ही बनकर रह गया क्योंकि इन क्षेत्रों में भी वे नवीन उपमानों की खोज न कर सके। प्राचीन उपमानों पर ही उनका श्रृंगार आश्रित रहा। रीतिकालीन कवियों में आयी यह श्रृंगार भावना के तीन मूल कारण थे। जो इस प्रकार हैं-

  1. संस्कृत के सप्तशती साहित्य का प्रभाव- आर्या सप्तशती एवं अमरूक-शतक के श्रृङ्गारात्मक चित्रण ने इन रीतिकालीन कवियों को अत्यधिक प्रभावित किया।
  2. कृष्णोपासना का प्रभाव- जयदेव के ‘गीतगोविंद’ विद्यापति की ‘पदावली’ तथा सूर की श्रृंङ्गारिक भक्ति पद्धति का भी इन कवियों पर व्यापक प्रभाव पड़ा ओर इन कवियों ने राधा कृष्ण की पावन मूर्ति को लम्पट एवं विलासी नायक-नायिकाओं के रूप में परिणत कर दिया।
  3. कामशास्त्र का प्रभाव- नायिका भेद, नखशिख वर्णन एवं काम-क्रीड़ा आदि के चित्रण इसी कामशास्त्र के प्रभाव के द्योतक हैं।

(क) लाक्षणिक ग्रंथों का निर्माण- इसके पूर्व भामह, उद्भट, विश्वनाथ, पंडितराज जगन्नाथ आदि काव्यांगों का विविध विवेचन कर चुके थे। इन ग्रंथों का प्रभाव हिंदी के रीतिकालीन कवियों पर पड़ा। नयदेव के चंद्रालोक’ विश्वनाथ, के ‘साहित्यदर्पण’ तथा मम्मट के ‘काव्य प्रकाश ने रीतिकाल में में विशेष रूप से प्रभावित किया। फलतः यही ग्रंथ हिंदी के लक्षण ग्रंथों के मूलाधार बन गये। केशव ने सर्वप्रथम शास्त्रीय पद्धति पर रस एवं अलंकारों का निरूपण किया। किंतु लक्षण ग्रंथों की अखंड परंपरा का सूत्रपात चिंतामणि त्रिपाठी से गतिशील हुआ। रीति परंपरा का प्रभाव हिंदी कवियों पर इतना ग्रहरा पड़ा कि वे हृदय की मार्मिक अनुभूतियों को तिलांजलि न देकर छंद नायिका- भेद, शब्द-शक्ति एवं अलंकारों का प्रदर्शन करने लगे।

(ख) कलापक्ष का प्रभाव- रीतिकालीन कवियों ने भावपक्ष की अपेक्षा कलापक्ष पर विशेष ध्यान दिया। उक्ति वैचित्र्य ही उनके लिए सर्वस्व बन गया। चमत्कार प्रदर्शन की भावना ने उनकी हृदयगत अनुभूतियों की एक प्रकार से उपेक्षा ही कर दी। रीतिकालीन कवियों द्वारा काव्य की आत्मा ‘रस’ उपेक्षित हो गया और उसके स्थान पर छंद, अलंकार आदि का सम्यक निर्वाह होने लगा। फारसी की ऊहात्मक प्रवृत्ति से प्रभावित होकर इन कवियों ने कल्पना की ऊंची उड़ाने भरी, चमत्कारिक उक्तियों का पल्लूथामा। भाषा-विषयक कलात्मकता इन कवियों ने संस्कृत -साहित्य से ग्रहण की। उस समय संस्कृत का अलंकार विशेष समुन्नत था। उसका विशेष प्रभाव हिंदी पर पड़ा। भाषा में अवधी और ब्रज का मिश्रण था। छंदों में दोहा, कवित्त और सवैया अधिक प्रचलित हुए। साहित्यकार एक साथ कवि और आचार्य दोनों की पूर्ति करने लगे।

(ग) मुक्तकों का बाहुल्य- इस काल का प्रायः संपूर्ण काव्य मुक्तकों में रचा गया। मुक्तकों की रचना के दो कारण हो सकते हैं। प्रथम कारण यह हो सकता है कि या तो इन कवियों में जीवन के सगुण चित्रण की क्षमता न नहीं हो या दूसरे आश्रयदाताओं को लंबे प्रसंग सुनने का अवकाश ही न रहा हो।

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