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रीतिकाव्य का वर्गीरण | रीतिकाल की प्रमुख विशेषताएँ | रीतिबद्ध, रीतिसिद्ध एवं रीतिमुक्त काव्य धाराओं को सामान्य परिचय

रीतिकाव्य का वर्गीरण | रीतिकाल की प्रमुख विशेषताएँ | रीतिबद्ध, रीतिसिद्ध एवं रीतिमुक्त काव्य धाराओं को सामान्य परिचय

रीतिकाव्य का वर्गीरण

शुक्ल जी ने संवत् 1700 से 1900 तक के समय को ‘रीतिकाल’ नाम दिया है। इसके अतिरिक्त कुछ अन्य विद्वानों ने भी अपने-अपने मतानुसार इस काल का नामकरण किया है जिनमें से मिश्र-बंधु ने ‘अलंकृतकाल’ डॉ0 रमाशंकर शुक्ल ‘रसाल’ ने ‘कलाकाल’ तथा पं. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने ‘शृगारकाल’ कहना उचित समझा।

भक्तिकाल तक हिंदी काव्य प्रौढ़ता को पहुंच चुका था। भक्त कवियों ने अपने आराध्य व लीला-वर्णन में लौकिक रस का जो क्षीण रूप प्रस्तुत किया था, उत्तर मध्यकालीन राजनीतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक अनुकूल परिस्थितियाँ पाकर वह पूर्ण ऐहिकतापरक प्रधानतः श्रृंगाररस के रूप में विकसित हुआ। भक्तिकालीन कवियों में सर्वप्रथम नंददास ने नायिका-भेद पर रस मंजरी’ नाम की पुस्तक की रचना की। संस्कृत की काव्यशास्त्रीय परंपरा पर हिंदी काव्य में ‘रसिकप्रिया’ इनके प्रसिद्ध ग्रंथ हैं। इसके बाद हिंदी रीति ग्रन्थों की परंपरा निरंतर विकसित होती गयी। अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से इस युग के संपूर्ण साहित्य को ‘रीतिबद्ध’, ‘रीतिमुक्त’ और ‘रीतिसिद्ध’ वर्गों में बांटा गया है।

(1) रीतिबद्ध

रीतिबद्ध काव्य के अंतर्गत वे काव्य-ग्रंथ आते हैं जिनमें काव्य-तत्त्वों के लक्षण देकर उदाहरण रूप में काव्य रचनाएँ प्रस्तुत की गयी हैं। इस परंपरा में कतिपय ऐसे आचार्य थे, जिन्होंने काव्यशास्त्र की शिक्षा देने के लिए रीति-ग्रंथों का प्रणयन किया था। समस्त रसों के निरूपक आचार्यों में चिंतामणि का नाम सर्वप्रथम आता है। ‘रस विलास’, ‘छंदविचार पिंगल’, ‘श्रृंगार मंजरी’, ‘कविकुल कल्पतरू आदि इनके प्रसिद्ध ग्रंथ हैं। चिंतामणि की परंपरा के दूसरे महत्त्वपूर्ण कवि आचार्य कुलपति मिश्र, देव, भिखारीदास, ग्वाल आदि हैं। जिन कवियों के कृतित्व के कारण रीतिकाव्य प्रतिष्ठित हुआ, उनमें देव का नाम विशेष रूप से लिया जाता है। नव रसों का सफल निरूपण करने वाले आचार्यों में पद्माकर तथा यैयद गुलाम नवी ‘रसलीन’ आदि प्रसिद्ध हैं। श्रृंगाररस विषयक सांगोपांग विवेचन करने वाले आचार्यों में मतिराम का नाम सर्वप्रथम है। रीतिबद्ध काव्य-परंपरा के कवियों में कुछ ऐसे भी हैं जिन्होंने रीति-ग्रंथों की रचना न करके काव्य-सिद्धांतों या लक्षणों के अनुसार काव्य-रचना की है। ऐसे कवियों में सेनापति, बिहारी, वृंद, नेवाज, कृष्ण आदि की गणना की जाती है। सेनापति का प्रसिद्ध ग्रंथ ‘कवित्त रत्नाकर’ है। बिहारी रीतिकाल के सर्वश्रेष्ठ कवि माने जाते हैं।

(2) रीतिमुक्त

हिंदी साहित्य में रीतिकाल में रीति-परंपरा के साहित्यिक चंधनों और रूढ़ियों से मुक्त ऐसे भी कवि हुए हैं, जिन्होंने केशव, मतिराम, चिंतामणि के समान न तो कोई लक्षण- ग्रंथ लिखा और न बिहारी की भांति कोई रीतिबद्ध रचना लिखी। ऐसे कवियों की संख्या 50 के लगभग है। उनमें कुछ कवि ऐसे हैं जिन्होंने लक्षणबद्ध रचना नहीं की और जो अपने स्वच्छंद प्रेम की पीर जनता को सुनाते रहे। इनमें घनानंद, आलम, बोधा और ठाकुर आदि आते हैं। दूसरा वर्ग उन कवियों का है जिन्होंने कथा प्रबंध लिखे, जैसे- लाल कवि का प्रकाश, सूदन का ‘सुजान चरित’ आदि। तीसरे वर्ग में दानलीला, मानलीला आदि पर वर्णनात्मक प्रबंधकाव्य लिखने वाले आते हैं। चौथे वर्ग में रीति संबंधी पद्य और सूक्तियाँ लिखने वाले आते हैं- वृंद, गिरिधरदास आदि। पाँचवें वर्ग में ब्रह्मज्ञान, वैराग्य और भक्ति पर लिखने वाले कवि आते हैं। छठे वर्ग में वीररस के फुटकर पद्य लिखने वाले आते हैं। उपर्युक्त वर्गों के सभी कवि रीतिमुक्त धारा के अंतर्ग आयोगे, क्योंकि इन्होंने न तो कोई लक्षण ग्रंथ लिखा और न लक्षण ग्रंथों से प्रभावित या बँधकर काव्य-रचना की।

कुछ कवियों ने इस धारा को ‘स्वच्छंद काव्यधारा’ कहा है जिसमें श्रीधर पाठक, माखनलाल चतुर्वेदी, सियारामशरण गुप्त, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’, हरिवंश राय बच्चन’ आदि प्रमुख हैं। इससे यही सिद्ध होता है कि हिंदी के काव्य-संदर्भ स्वच्छन्दतावादी शब्द-परंपराओं और रूढ़ियों के त्याग के अर्थ में अधिक प्रयुक्त हुआ है- यूरोपीय काव्यधारा की समानता अथवा प्रभाव के अर्थ में नहीं। फलतः घनानंदवाली रीतिकालीन काव्य धारा को ‘स्वच्छंद काव्यधारा’ कहना अनुचित नहीं है।

(3) रीतिसिद्ध

रीतिसिद्ध कवि वे हैं जिनके ग्रंथ यद्यपि लक्षणबद्ध रूप में शास्त्रीय चर्चा तो प्रस्तुत नहीं करते किंतु पद्यों की रचना करते समय इन कवियों का ध्यान रीतिशास्त्रीय सिद्धांतों पर अवश्य गया होगा, इसमें संदेह नहीं है। इनके ग्रंथों में शास्त्रीय सिद्धांत-निरूपक लक्षण भले ही न हों, पर इनके पद्य किसी-न-किसी काव्यांग के किसी-न-किसी रूप में लक्ष्य अवश्य है। उदाहरणार्थ, बिहारी सतसई, रसनिधि का रतनहजारा, मतिराम सतसई, रामसहाय की राम सतसमई आदि ग्रंथ इसी कोटि के हैं। इसके अतिरिक्त रीतिकाल में रचे गये कतिपय नखशिख, षड्वस्तु बारहमासा आदि भी इसी कोटि के अंतर्गत आते हैं। इन्हें काव्य-कवि भी कहा जाता है।

रीतिकाल की प्रमुख विशेषताएँ

रीतिकालीन कवियों के प्रमुख वर्ण्य-विषय प्रायः एक से थे जिनमें राज्य विलास, राज्य प्रशंसा, दरबारी कला विनोद, मुगलकालीन वैभव, अष्टयाम, संयोग-वियोग वर्णन, ऋतु वर्णन, किसी सिद्धांत के लक्ष्य लक्षणों का वर्णन, शृंगार के अनेक पक्षों के स्थूल एवं मनोवैज्ञानिक चित्रों की अवतारणा आदि विषय प्रायः सभी कवियों के किसी न किसी रूप में वर्ण्य हुआ करते थे। इस काल की सामान्य विशेषताओं को इस प्रकार देखा जा सकता है-

(1) श्रृंगारिकता- यह प्रवृत्ति रीतिकाल में सर्वत्र प्रचुरता के साथ दृष्टिगोचर होती है। नायिकाभेद और भारी-सौंदर्य को अत्यधिक प्रश्रय देने के कारण रीतिकालीन साहित्य का प्रमुख रस श्रृंगार था श्रृंगार को इस युग में रसराज की संज्ञा दी गयी थी। शृंगार रस के दो भेद हैं- संयोग और वियोग। रीतियुग में श्रृंगार के इन दोनों अंगों का चरम सौंदर्य देखा जा सकता है। दर्शन, श्रवण और संलाप संयोग श्रृंगार में पाये जाते हैं। संयोग संयोग पक्ष के रूप-चित्रण में रीतिकालीन कवि विशेष सिद्ध हैं।

(2) नायिका-भेद वर्णन-रीतिकालीन कवियों को भारतीय कामशास्त्र से बड़ी प्रेरणा मिली थी। कामशास्त्र में अनेक प्रकार की नायिकाओं के वर्णन हैं। युग की श्रृंगारी मनोवृत्ति ने वहाँ से प्रेरणा पाकर तथा युग के सम्राटों, राजाओं और नवाबों के हरम में रहने वाली कोटि-कोटि सुंदरियों की लीलाओं काम चेष्टाओं आदि से प्रभावित होकर साहित्य में नायिका-भेद के रूप में उनकी अवतारणा की थी।

(3) नख-शिख वर्णन- रीतिकालीन कवियों के सामने नारी का एक ही रूप था और वह था विलासिनी प्रेमिका का। नारी उनके लिए एकमात्र गोग-विलास का उपकरण थी। सौंदर्य वर्णन में रीतिकालीन कवियों ने नारी के उत्तेजक रूप और अंगों का वर्णन अधिक किया है, जिससे उनकी वासना वृत्ति की तृप्ति होती थी। इस एकाकी दृष्टिकोण के कारण वह नारी-जीवन के सामाजिक महत्त्व उसके श्रद्धामय रूप और उसकी मातृशक्ति को देख नहीं सका।

(4) अलंकरण की प्रवृत्ति- रीतिकालीन कवि अपनी अलंकार योजना के लिए प्रसिद्ध हैं। उन्होंने अलंकारों का प्रयोग दोनों दृष्टियों से किया है। अलंकार या चमत्कारप्रियता के लिए तथा अलंकार रस-विधान के लिए। इस आलंकारिकता का एक अन्य कारण था- अलंकारशास्त्र के अनुसार अपनी कविता कामिनी को साँचों में ढालना। अलंकारशास्त्र के ज्ञान के बिना उस समय के कवि को सम्मान मिलना कठिन था, इसलिए आलंकारिकता इस युग में खूब फूली-फली और यहाँ तक कि अलंकार साधन से साध्य बन गये और कविता कामिनी की शोभा बढ़ाने की अपेक्षा उसके सौंदर्य के विधातक बन गये। इस काल की कविता की आलंकारिकता को देखकर ही मिश्रबंधुओं ने इस काल का नाम ‘अलंकृतकाल’ रखा तथा डॉ0 रमाशंकर शुक्ल ‘रसाल’ ने इस काल का नामकरण ‘कलाकाल’ किया है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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