भूगोल / Geography

वर्षण से तात्पर्य | अवक्षेपण की उत्पत्ति | वर्षा के प्रकार | पर्वतीय वर्षा की आवश्यक दशाएं | पर्वतीय वर्षा की विशेषताएँ | चक्रवातीय वर्षा

वर्षण से तात्पर्य | अवक्षेपण की उत्पत्ति | वर्षा के प्रकार | पर्वतीय वर्षा की आवश्यक दशाएं | पर्वतीय वर्षा की विशेषताएँ | चक्रवातीय वर्षा | Meaning of precipitation in Hindi | Origin of Precipitation in Hindi | Types of Rain in Hindi | Necessary conditions of mountain rainfall in Hindi | Characteristics of mountain rainfall in Hindi | cyclonic rain in Hindi

वर्षण से तात्पर्य

जब वायुमण्डल से तरलता अथवा ठोस रूप में जल गिरता है तो उसे वर्षण कहते हैं। जल, वर्षा, हिम वर्षा, फुहार तथा उपल वृष्टि वर्षण के सामान्य रूप है किन्तु कोहरा, ओस तथा तुषार को साधारण अर्थ में वर्षण के अंतर्गत नहीं माना जाता है।

अवक्षेपण की उत्पत्ति

वर्षा के लिए आवश्यक है कि वायु के आरोहण के कारण उसमें शीतलन को विभिन्न प्रक्रियाओं के फलस्वरूप संघनन की प्रक्रिया का आरम्भ तथा मेघ निर्माण हो। किन्तु मेघों की उत्पत्ति मात्र से वर्षा का होना अनिवार्य नहीं होता। कुछ विशेष प्रकार के मेघों द्वारा विशेष परिस्थितियों में ही वर्षा होती हैं ऐसा पाया जाता है कि मेघों से जल की बूँदे धरातल की ओर गिरती तो है किन्तु वायुमण्डल में ही वाष्पीकरण हो जाने से धरातल तक उनका पहुँचना कठिन हो जाता है। वैज्ञानिकों द्वारा किये गये परीक्षणों से कुछ तथ्य प्रकट हुए है। एक औसत मेघ कण का अर्द्ध व्यास 10 माइकान (1/100 मिलीलीटर) होता है जबकि वर्षा की 1 औरत बूद का अर्द्धव्यास 100 माइक्रान (1 मिमी) पाया गया है। इस प्रकार एक औसत आकार वाली बूँद के लिये कम से कम 10 लाख मेघ कणों की आवश्यकता होगी। अतः मेघों की वृद्धि होन के लिए आवश्यक है कि अधिक जल सीकरों का संलयन (Coalescence) होकर वर्षा की एक बूँद का निर्माण हो। जिन मेघों में जलसीकर जलवायु में तैरते रहते हैं तथा जिनमें सम्मिलन की प्रवृत्ति नही पायी जाती, उनमें कोलाइड स्थायित्व (colloidal stability) पाया जाता है। ऐसे मेघों से वृद्धि नहीं होती। इसके विपरित, जिन मेघों के जल कणों में सम्मिलन की प्रवृत्ति पायी जाती है तथा जिनमें वर्षा की बड़ी बूंदों (rain drops) का विकास होता है

वर्षा के प्रकार :

वर्षा को विभिन्न आधार पर तीन भागों में बाँटा जा सकता है।

संवहनीय वर्षा (Convectional Rain): दिन में अत्यधिक ऊष्मा के कारण धरातल गर्म हो जाता है। जिस कारण वायु गर्म होकर फैलती है तथा हल्की होने के कारण ऊपर ऊठती है शुष्क एडियाबेटिक दर से प्रति 1000 फीट पर इस वायु का 5.5°F तापक्रम कम होने लगता है जिस कारण वायु ठंडी हो जाती है और सापेक्षिक आद्रता बढ़ने लगती है शीघ्र ही संतृप्त हो जाती है तथा पुनः ऊपर उठने पर संघनन प्रारम्भ हो जाता है जिससे वायु की गुप्त ऊष्मा वायु में  मिल जाती है। इससे वायु पुनः ऊपर उठने लगती है और उस सीमा तक पहुँच जाती है जहाँ पर स्थित वायु का तापक्रम इसके बराबर हो जाता है। इस अवस्था में संघनन के बाद कपासी वर्षा मेघ (Cumulonimbus) का निर्माण हो जाता है तथा तीव्र वर्षा प्रारम्भ हो जाती है। ऊपर उठती वायु शीघ्र ठंडी होती है अतः संवाहनीय वर्षा मूसलाधार रूप में होती है। चूँकि कपासी वर्षा आकाश में सीमित क्षेत्र में होते है अतः उनके शीघ्र छँट जाने पर वर्षा जल्दी रूक जाती है परन्तु न्यूनतम समय में अधिकतम वर्षा होती है। वर्षा बिजली की चमक तथा बादलों की गरज के साथ होती है। इस प्रकार की वर्षा मुख्य रूप से भूमध्य रेखीय भागों में होती है। जहाँ पर प्रतिदिन दोपहर तक धरातल के गर्म होने के कारण संवहन धाराएं उठने लगती हैं तथा 2 – 3 बजे (सांय) तक वर्षा होती है। समशीतोषण भागों में भी संवहनीय वर्षा होती है परन्तु यहाँ पर मूसलाधार रूप में नहीं बल्कि सामान्य रूप में होती है जिस कारण अधिकांश जल मिट्टियों में समाविष्ट हो जाता है। यहाँ पर वषार्स गर्मियों में होती है।

पर्वतीय वर्षा (Orographic rain fall) : आर्द्रता से बोझिल उद्यण हवाएं जल पर्वतीय अवरोधी के सहारे ऊपर उठती है तो इस प्रक्रिया से वर्षा को जन्म देती है। इस प्रकार की वर्षा को पर्वतीय वर्षा कहते है। पर्वतों के सहारे चढ़ने वाली आर्द्र वायु ऊंचाई पर विकर्ण हो जाती है। यहाँ शीत पर्वतस्थल और वायु के सम्पर्क के कारण हवा का सम्पृक्त स्तर प्राप्त हो जाता है और वाष्पजल या हिम कणों में परिवर्तित हो जाता है।

पर्वतीय वर्षा की आवश्यक दशाएं

पर्वतीय वर्षा के लिए निम्न दशाओं का होना आवश्यक है।

(1) सागर से दूरी

(2) वायु की आर्द्रता

(3) पर्वतों की स्थिति

(4) पर्वतों की ऊँचाई

पर्वतीय वर्षा की विशेषताएँ

दृष्टि क्षेत्र, वर्षा की मात्रा, वितरण तथा स्वभाव के दृष्टिकोण से पर्वतीय वर्षा की निम्नलिखित विशेषताएं होती है।

(1) पर्वतीय ढालों के पास सर्वाधिक वर्षा होती है तथा उससे दूर हटने पर वर्षा की मात्रा में तीव्रता से कमी होने लगती है।

उदाहरण के लिए हिमालय के द. ढाल पर स्थित शिमला में 152 सेमी नैनीताल में 200 सेमी तथा दिल्ली में 50 सेमी वर्षा होती है।

(2) पर्वतीय वर्षा के समय पवनमुखी ढाल पर कपासी बादल तथा विमुखी ढाल पर स्तरीय बादल होते है।

पर्वतीय भागों के वृष्टि ढाल के सहारे ऊँचाई के साथ वर्षा की मात्रा बढ़ती जाती है परन्तु हवा में नमी की एक निश्चिम मात्रा होती है इसलिए ऊँचाई के साथ वर्षा बढ़ने की एक सीमा होती है, क्योंकि अधिक वर्षा के कारण नमी कम होती चली जाती है। इसे वर्षा का प्रतिलोमन कहते है। प्रत्येक स्थान पर वर्षा की वृद्धि सीमा समान नहीं होती, सागर से दूरी, वायु में आर्द्रता की मात्रा, पर्वत का ढाल तथा मौसम आदि का वर्षा की वृद्धि सीमा पर पर्याप्त प्रभाव होता है। जिस सीमा के बाद वर्षा में ऊँचाई के साथ कमी होने लगती है, उसे सर्वोच्च वर्षा रेखा कहते है।

सर्वाधिक वर्षा पवन मुखी ढाल पर होती है तथा पवन विमुखी ढाल पर न्यूनतम वर्षा होती है। उदाहरण के लिए पश्चिमी घाट के प. ढाल पर मंगलौर में 208 सेमी तथा पूर्व में वृद्धि छाया प्रदेश में स्थित बंगलौर में केवल 50 सेमी वर्षा होती है। मावसिनसाम (चेरापूँजी के समीप) में संसार की सर्वाधिक वर्षा होती है। हिमालय के दक्षिणी ढालो पर 200 सेमी से अधिक वर्षा होती है जबकि उ. ढाल पर 5 सेमी वर्षा हो पाती है।

चक्रवातीय वर्षा

पृथ्वी की गति के कारण तथा गर्म व शीत हवाओं के परस्पर सम्मेलन से वायुमण्डल में एक शक्ति का संचार होता है अतः विस्तृत न्यून दाब वाला केन्द्र जाता है जिसमें चारों ओर से हवाये आकर मिलती है, इसे चक्रवात कहते हैं। चक्रवात की गति और हवाओं के वेग के कारण उष्ण वायु मध्य भाग से ऊपर उठ जाती है और चक्रवातीय वर्षा होती हैं चक्रवातीय वर्षा इनमें पाये जाने वाले दो सीमान्त प्रदेशों में अधिक होती है। शीत एवं उष्ण सीमान्त प्रदेशों में उष्ण वायु ऊपर उठती है और शीत वायु नीचे पायी जाती है।

चक्रवात जन्य वर्षा पछुवा हवाओं की पेटी में मुख्य रूप से शीत ऋतु में और व्यापारिक हवाओं के अद्योभाग में प्रायः गर्मियों में होती है, मध्य अक्षांशों में शीत ध्रुवीय हवा और उष्ण  पछुआ पवन के संयोग से चक्रवातों की उत्पत्ति होती है। ये प. से पूर्व की ओर चलते हैं। इनका निर्माण उष्ण कतिबंध में नम व्यापारिक हवाओं और आर्द्र उष्ण शान्त हवा की पेटी की वायु के परस्पर मेल से होता है।

वायुदाब की पेटियों की भाँति वर्षा का वितरण भी कुछ सुनिश्चित मेखलाओं में पाया जाता है।

(1) मध्य अक्षांशीय अधिक वर्षा पेटी- सेमी रहता है। ये क्षेत्र 400-600 अक्षांश के मध्य दोनों गोलार्द्धों में फैला है। महाद्वीपों के प. भागों में वर्षा अधिक होती है तथा भीतर भागों की ओर घटती

(2) व्यापारिक हवाओं की वर्षा वाली पेटी- मानसूनी वर्षा भी इसी पेटी को कहते हैं। इसका विस्तार 100 से 200 तक अंक्षाशों में दोनों गालार्द्ध में पाया जाता है। यहाँ व्यापारिक हवाओं द्वारा महद्वीपों के पूर्वी भाग में वर्षा होती है।

(3) इस पेटी में वार्षिक वर्षा का औसत 0 सेमी तक पाया जाता है। यह उच्च दाब पेटी है जिसका विस्तार 200 से 300 अक्षांशों के मध्य दोनों गोलाद्धों में पाया जाता है। यहाँ अधिकतर मरूस्थल स्थित है।

(4) भूमध्य सागरीय वर्षा पेटी –इसका विस्तार 300-400 अक्षांशों में पाया जाता है। यहाँ वर्षा का वार्षिक औसत 100 सेमी तक रहता है। यहाँ ग्रीष्म ऋतु शुष्क तथा सर्दियों में वर्षा होती है। शीतकाल में पछुआ पवनों तथा चक्रवातों से वर्षा होती है।

(5) अत्यधिक वर्षा वाली भूमध्य रेखीय पेटी- यहाँ संवाहनिक वर्षा होती है। इसका विस्तार 100 उत्तर एवं द. अक्षांशों के मध्य पाया जाता है। यहाँ प्रतिदिन दोपहर के बाद वर्षा होती है। वर्षा का औसत 175 सेमी से 200 सेमी तक है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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