समाज शास्‍त्र / Sociology

धर्म का अर्थ एवं परिभाषा | धर्म के गुण अथवा महत्व | धर्म की प्रमुख विशेषतायें

धर्म का अर्थ एवं परिभाषा | धर्म के गुण अथवा महत्व | धर्म की प्रमुख विशेषतायें | Meaning and definition of religion in Hindi | Qualities or importance of religion in Hindi | Main features of religion in Hindi

धर्म का अर्थ एवं परिभाषा

मानव संसार की समस्त घटनाओं या सृष्टि के रहस्यों को नहीं समझ पाता है। अपने जीवन के रोज के अनुभवों से वह यह सीखता है कि अनेक ऐसी घटनाएँ हैं जिन पर उसका कोई वश नहीं है। स्वभावतः ही उसमें यह धारणा पनपती है कि कोई एक ऐसी भी शक्ति है जो कि दिखाई नहीं देती, परन्तु वह किसी भी मनुष्य से कहीं अधिक शक्तिशाली है। यह शक्ति अलौकिक शक्ति है, इसे डरा धमकाकर या ऐसे अन्य किसी उपाय से अपने वश में नहीं किया जा सकता है। इस शक्ति को अपने पक्ष में लाने का एक मात्र उपाय इसके सम्मुख सिर झुकाकर पूजा, प्रार्थना या आराधना करना है। इस अलौकिक शक्ति से सम्बन्धित विश्वासों और क्रियाओं को ही धर्म कहते हैं।

धर्म किसी न किसी प्रकार की अतिमानवीय या अलौकिक या समाजोपरि शक्ति पर विश्वास है, जिसका आधार भय, श्रद्धा, भक्ति और पवित्रता की धारणा है और जिसकी अभिव्यक्ति प्रार्थना पूजा या अराधना है।

धर्म के गुण अथवा महत्व

लेवी का कथन है, “धर्म जीवन के अन्तिम लक्ष्यों से सम्बन्धित क्रियाओं की सम्पूर्णता का नाम है।” वास्तविकता यह है कि बाहरी तौर पर हम सामाजिक, राजनीतिक अथवा आर्थिक लक्ष्यों को बहुत महत्वपूर्ण मानते हैं, लेकिन यह लक्ष्य अन्तिम लक्ष्यों से अधिक महत्वपूर्ण नहीं है। यद्यपि धर्म में न तो सरकार के समान कोई शक्ति होती है, न ही आर्थिक संस्थाओं के समान यह वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन करने में सहायक हो सकता है और न इस संस्था के द्वारा व्यक्तियों के यौनिक सम्बन्धों को निर्धारित किया जाता है, लेकिन फिर भी सामाजिक जीवन में धर्म का महत्व सर्वव्यापी और शाश्वत है। अथवा सामाजिक प्रकार्य को इस प्रकार व्यक्त कर सकते हैं-

  1. विचारों और समूहों का प्रभाव- सभी समाज में अधिदैविक तत्व व्यक्तियों के विचारों और व्यवहारों को सबसे अधिक प्रभावित करते हैं। धर्म प्रत्येक स्थिति को एक अलौकिक शक्ति के आधार पर स्पष्ट करता है। उदाहरण के लिए जन्म-मृत्यु, सुख-दुख, सफलता-असफलता, निराशा अथवा उत्साह आदि सभी परिस्थितियों को अलौकिक शक्ति की प्रसन्नता अथवा अप्रसन्नता के परिणाम के रूप में ही देखा जाता है। उसके फलस्वरूप वास्तविक संसार की अपेक्षा हम आध्यात्मिक जीवन को अधिक महत्वपूर्ण समझने लगते हैं और इस प्रकार समाज में नैतिकता का विकास होता है। प्रत्येक व्यक्ति यह समझने लगता है कि वह अच्छे व्यवहारों के द्वारा ही इस अलौकिक शक्ति को प्रसन्न कर सकता है। इसके फलस्वरूप समाज-विरोधी व्यवहारों को प्रोत्साहन नहीं मिल पाता।
  2. सामाजिक नियन्त्रण का शक्तिशाली साधन सम्पूर्ण मानव इतिहास में धार्मिक संस्थाएं, सामाजिक नियन्त्रण का सबसे प्रभावपूर्ण साधन रही हैं। यही कारण है कि सभी शासकों, नेताओं और समाज सुधारकों ने धर्म को सामाजिक नियन्त्रण का एक प्रमुख आधार मानकर उसका व्यापक रूप से प्रयोग किया है। धर्म के सानिध्य में जब कोई व्यक्ति अपराध करता है तो वह स्वयं को पापी समझने लगता है और अचेतन के रूप में उसके मन में यह विश्वास जम जाता है कि एक अंधिदैविक शक्ति उससे अप्रसन्न है। साथ ही व्यक्ति यह भी समझने लगता है कि वह शक्ति उससे या तो इसी जीवन में बदला लेगी अथवा आगाभी जीवन में।
  3. धर्म के द्वारा व्यक्तित्व का निर्माण- धर्म केवल समाज के संगठन में सहायक नहीं होता बल्कि व्यक्तित्व को संगठित रखने में भी धर्म ने महत्वपूर्ण योगदान दिया है। व्यक्तित्व का विघटन सांसारिक निराशाओं का परिणाम है, लेकिन धर्म एक सर्वोच्च लक्ष्य को सामने रखकर व्यक्ति को सांसारिक निराशाओं से बचाता है और इस प्रकार व्यक्तित्व को संगठित रखता है। डेविस का कथन है कि, “यदि हमारा लक्ष्य किसी विश्वास का प्रचार करना है तो राज-शक्ति उसे असफल बना सकती है, यदि हमारा लक्ष्य अपने देश को संसार का अगुआ बनाना है तो विनाशकारी युद्ध इस पर तुषारापात कर सकता है, यदि हमारा लक्ष्य प्रसिद्धि प्राप्त करना है तो एक छोटी-सी असफलता ही हमें निराश कर सकती है। इस प्रकार की सभी सांसारिक लक्ष्य तरह-तरह की निराशा को जन्म देकर व्यक्तित्व को विघटित कर सकते हैं, लेकिन कुछ लक्ष्य ऐसे भी हैं जिनको प्राप्त करने में असफलता की कोई भी गुन्जाइश नहीं होती। यह लक्ष्य ‘अधिदैविक लक्ष्य’ है तथा यह सामाजिक जीवन में उत्पन्न निराशा को दूर करने का भी प्रयत्न करते हैं, इस प्रकार पवित्र वस्तुओं की विद्यमानता और पवित्र संस्कारों में भाग लेना व्यक्ति को सुख ही प्रदान नहीं करता बल्कि उसके विश्वास को भी दृढ़ बनाता है।” धर्म व्यक्ति के जीवन के महत्व को भी स्पष्ट करता है और सभी परिस्थितियों में पवित्र भावना के द्वारा उसको मानसिक तनाव से बचाता है।
  4. भावनात्मक सुरक्षा में सहायकप्रत्येक व्यक्ति का भावनात्मक रूप से सुरक्षित होना उसके विकास के लिए आवश्यक है। मनुष्य अपने जीवन में अनेक प्रकार की अनिश्चितता, निर्बलता और अभाव को महसूस करता है। उसका जीवन इस अर्थ में अनिश्चित है कि वह केवल दूसरों को ही दुःख अथवा मृत्यु के शिकंजे में नहीं देखता बल्कि वह विपत्तियाँ किसी भी क्षण उसके सामने आ सकती है। व्यक्ति निर्बल है, क्योंकि वह अधिकांश प्राकृतिक विपत्तियों को किसी भी प्रकार अपने वश में नहीं कर पाता। मनुष्य के जीवन में सुविधाओं के अभाव की समस्या भी निरन्तर बनी रहती है। अमरोंका और जर्मनी जैसे समृद्ध सगाज भी इन विपत्तियों से सबको बचा नहीं सके हैं। हिप्पी-जीवन इस स्थिति का उत्कृष्ट प्रमाण है। धर्म एकमात्र ऐसी संस्था है जो व्यक्ति को अपनी परिस्थितियों से अनुकूलन करने में सहायता देती है। विज्ञान में सिद्धान्त जरूर होते हैं, लेकिन इन पर ही कोई व्यक्ति जीवित तो नहीं रह सकता। जीवन के समुचित विकास के लिए अनेक व्यावहारिक और अनुभवातीत लक्ष्यों को पूरा करने की आवश्यकता होती है। यह लक्ष्य केवल धर्म के द्वारा ही प्राप्त हो सकते हैं।
  5. सामाजिक परिवर्तन पर नियन्त्रण – धार्मिक संस्थाएँ सामाजिक परिवर्तन पर नियन्त्रण लगाकर समाज को विघटित होने से बचा लेती हैं। सामाजिक परिवर्तन हमेशा समाज में बुराइयाँ ही पैदा नहीं करता बल्कि इससे अनेक लाभ भी होते हैं, लेकिन इसके साथ ही परिवर्तन के फलस्वरूप समाज के विघटित होने की भी सम्भावना पैदा हो जाती है। धर्म इस आशंका से समाज की रक्षा करता है।
  6. स्वस्थ्य मनोरंजन – सामाजिक नियन्त्रण में धर्म इसलिए भी एक महत्वपूर्ण संस्था है कि वह लोगों को स्वस्थ मनोरंजन प्रदान करके उन्हें भावनात्मक सुरक्षा प्रदान करता है। धार्मिक संस्थाएं यह कार्य अनेक उत्सवों, पौराणिक गाथाओं, उपाख्यानों, कर्मकाण्डों और संस्कारों के माध्यम से करती हैं। वास्तविकता यह है कि धर्म के अन्तर्गत बहुत से उत्सवों और संस्कारों का विकास केवल इसलिए हुआ जिससे मनुष्य की विनोदी प्रकृति और उसकी सामूहिक की प्रकृति को संरक्षण मिलता रहे। विनोदी प्रकृति के अभाव में मनुष्य का जीवन उसी प्रकार यन्त्रवत् और जड़ हो जाता है, जैसे कि वर्तमान युग में कम्प्यूटर कार्य तो कर सकते हैं, लेकिन मनुष्य और समाज को एक स्वस्थ जीवन प्रदान नहीं कर सकते। धार्मिक संस्थाएँ मनुष्य में विनोद-प्रियता को प्रोत्साहन देकर उसे सच्चे अर्थों में एक ‘मानव-प्राणी’ अथवा नैतिक प्राणी बनाता है।
  7. मोक्ष के दर्शन का कुप्रभाव – हमारे शास्त्रों में मानव जीवन के उद्देश्यों में चार पुरुषार्थों-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की व्याख्या की गई है। इनमें अर्थ एवं काम को विशेष महत्व नहीं दिया गया। धर्म को प्रमुख साधना के रूप में मानकर मोक्ष के उद्देश्य को प्राप्त करने की बात की गई है। मोक्ष के साथ स्वर्ग एवं नर्क की धारणाओं को जोर दिया गया। मोक्ष की अवधारणा ने व्यक्ति को संसार से विरक्त कर अपनी सारी क्रियाओं को इसी को प्राप्त करने की ओर मोड़ने की बात की गई है। अनावश्यक धार्मिकता, अकर्मण्यता एवं आध्यात्मिकता ने व्यक्ति की तर्क शक्ति को निरुत्साहित कर धर्म का अन्धानुकरण करने की प्रेरणा मिली जो कि इसकी प्रगति में बाधक सिद्ध हुई।
  8. वैज्ञानिक एवं तकनीकी विकास में बाधक- जिस समाज भी धर्म का बोलबाला होता है उस समाज में परम्परागत एवं रूढ़िवादिता का महत्व अधिक होता है। वह समाज नवीनता का विरोधी होता है जिससे कि वहाँ वैज्ञानिक और तकनीकी विकास कम होता है। समाज में विभिन्न प्रकार के कर्मकाण्डों एवं अन्धविश्वासों का प्रसार ज्यादा होता है तथा वैज्ञानिक विकास कम।
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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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