समाज शास्‍त्र / Sociology

जाति का अर्थ एवं परिभाषा | जाति प्रथा की विशेषतायें | जाति की सामान्य विशेषतायें | जाति वर्ग गठजोड़ की विशेषताएं

जाति का अर्थ एवं परिभाषा | जाति प्रथा की विशेषतायें | जाति की सामान्य विशेषतायें | जाति वर्ग गठजोड़ की विशेषताएं | Meaning and definition of caste in Hindi | Features of caste system in Hindi | General characteristics of caste in Hindi | Features of caste class alliance in Hindi

जाति का अर्थ एवं परिभाषा

जाति-प्रथा संस्थाओं में से सबसे प्राचीनतम एवं आधारभूत संस्था मानी जा सकती है। यदि यह कहा जाये कि भारतीय संस्कृति एवं समाज का इतिहास जाति प्रथा का ही इतिहास रहा है, तो कोई अतिश्योक्ति की बात नहीं होगी। पाश्चात्य विद्वान जाति शब्द की उत्पत्ति पुर्तगाली शब्द कास्टा (Casta) से मानते हैं जिनका अर्थ प्रजातिभेद से होता है। भारतीय संदर्भ में जाति की उत्पत्ति संस्कृति के जातः शब्द से मानी जाती है जिसका अर्थ जन्म से होता है। अर्थात् जाति से हमारा आशय एक ऐसे समूह से होता है जिसकी सदस्यता जन्म अर्थात् पैतृकता के आधार पर निर्धारित होती है। भारत में जाति की संस्था का विकास प्राचीन वर्ण व्यवस्था से माना जाता है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शुद्र चार वर्ण माने जाते थे किन्तु इस वर्ण वर्णव्यवस्था में यद्यपि विभिन्न वर्णों के अलग-अलग दायित्वों एवं कार्यों की व्याख्या की जाती है फिर भी इसमें खुलापन था अर्थात् किसी भी वर्ण का व्यक्ति अपनी बुद्धि एवं परिश्रम के सहारे किसी मी वर्ण के कार्यों को कर सकता था। धीरे-धीरे विभिन्न दायित्वों एवं कार्यों के बारे में वैचारिक रूढ़िवादिता का विकास हुआ और तब वर्ण व्यवस्था ने जाति व्यवस्था का रूप ले लिए। इसके पश्चात् तो व्यक्ति की एक जाति की सदस्यता, सामाजिक स्तर, कार्यों का निर्धारण वैवाहिक सम्बन्ध एवं सामाजिक सहवास आदि सभी का स्वरूप जातीय नियमों के द्वारा ही निर्धारित होने लगा। जाति हिन्दू सामाजिक संरचना का एक मुख्य आधार बन गया जिसने हिन्दुओं के सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक एवं राजनीतिक जीवन को पूर्णरूपेण अपने रंग में रंग दिया। इसलिए श्रीमती इरावती कार्वे (irawati Karve) ने कहा भी है, “यदि हम भारतीय संस्कृति के तत्वों को समझना चाहते हैं तो जाति प्रथा का अध्ययन नितान्त आवश्यक है।” इसी प्रकार भारतीय संदर्भ में जाति के विस्तार एवं महत्व को स्पष्ट करते हुए डी.एन. मजूमदार (D.N. Majumdar) ने लिखा है, “जाति व्यवस्था भारत में अनुपम है। सामान्यतः भारत जातियों एवं सम्प्रदायों की परम्परात्मक स्थली माना जाता है। ऐसा कहा जाता है कि यहां की हवा में भी जाति घुली हुई है और यहां तक कि मुसलमान तथा ईसाई भी इससे अछूते नहीं बचे हैं।“ विभिन्न विद्वानों ने जाति की अलग-अलग परिभाषायें दी हैं। इनमें से निम्न प्रमुख हैं-

चार्ल्स कूले (Charles Cooley) के अनुसार, “जब एक वर्ग पूर्णतया वंशानुक्रम पर आधारित होता है तो हम उसे जाति कहते हैं।“

“When a class is somewhat strictly hereditary, we call it a caste.”

केतकर (Ketkar) का कथन है, “जाति एक सामाजिक समूह है जिसकी दो प्रमुख विशेषतायें हैं- (1) सदस्यता केवल उन लोगों तक ही सीमित है जो सदस्यों से ही जन्म लेते हैं और इस प्रकार पैदा हुए व्यक्तियों को सम्मिलित करते हैं तथा (2) सदस्य एक कठोर सामाजिक नियम द्वारा समूह के बाहर विवाह करने से रोक दिये जाते हैं।”

“Caste is a social group having two characteristics – (i) Membership is confined to those who are born of members and includes all persons so born, (ii) Members are forbidden by an unexorable law to marry out side the groups.

मजूमदार एवं मदान (Majumbar and Madan) ने अति संक्षेप में जाति को परिभाषित किया है। आप लिखते हैं, “जाति एक बन्द वर्ग है।” “Caste is a closed class” अर्थात् जाति के परम्परात्मक संस्मरण में चढ़ाव-उतार की प्रविष्टियाँ मान्य हैं।

रिजले (Risley) ने जाति की परिभाषा देते हुए लिखा है “जाति परिवारों या परिवारों के समूहों का एक ऐसा संकलन है, जिनका कि सामान्य नाम है, जो एक काल्पनिक पूर्वज नामक या देवता से सामान्य उत्पति का दावा करता है एक ही परम्परात्मक व्यवसाय करने पर बल देता है और एक सजातीय समुदाय के रूप में उनके द्वारा मान्य होता है जो अपना ऐसा मत व्यक्त करने के योग्य हैं। A Caste may be defined as a collection of families or groups of families, bearing a common name which usually denotes or is associated with specific occupation, claiming a common descent from a mythical ancestor, human or divine, professing to follow the same professional calling and are regarded by those who are competent to give their opinion as forming a single homogeneous community.”

किन्तु सर रिजले की परिभाषा कुछ प्रामक सी लगती है क्योंकि आप जाति की उत्पत्ति एक काल्पनिक पूर्वज से बताते हैं जबकि हट्टन आदि विद्वानों का मत है कि एक काल्पनिक पूर्वज से उत्पत्ति का दावा एक गोत्र के लोग अवश्य करते हैं पर जाति के लोग ऐसा नहीं मानते।

जे.एच. हट्टन, (J.H. Hutton) लिखते हैं, “जाति एक ऐसी व्यवस्था है जिसके अन्तर्गत एक समाज अनेक आत्मकेन्द्रित एवं एक-दूसरे से पूर्णतया पृथक् इकाइयों (जातियों में विभाजित रहता है। इन इकाइयों के बीच पारम्परिक सम्बन्ध ऊंच नीच के आधार पर सांस्कृतिक रूप से निर्धारित होते हैं।

ई.के.एच. ब्लन्ट (E.K.H. Blunt) जाति की परिभाषा देते हुए लिखते हैं, “जाति एक अन्तर्विवाही समूह अथवा अन्तर्विवाही समूहों का संकलन है जिसका एक सामान्य नाम है, जिसकी सदस्यता आनुवांशिक होती है, जो सामाजिक सहवास के क्षेत्र में अपने सदस्यों पर कुछ प्रतिबन्ध लगाता है, इसके सदस्य या तो एक सामान्य परम्परागत व्यवसाय को करते हैं अथवा किसी सामान्य आधार पर अपनी उत्पत्ति का दावा करते हैं और इस प्रकार एक समरूप समुदाय के रूप में मान्य होते हैं।”

“A Caste is an endogamous group or a collection of endogamous groups, bearning a common name, membership of which is hereditary imposing on its members certain restrictions in the matter of social intercourse, either following a common traditional occupetion of claiming a common origin and generally regarded as forming a single homogeneous community,”

ब्लन्ट महोदय द्वारा प्रस्तुत परिभाषा पर्याप्त रूप से विस्तृत और स्पष्ट होते हुए भी कुछ दोषपूर्ण प्रतीत होती है। ब्लन्ट जाति की उत्पत्ति को किसी एक सामान्य पूर्वज से जोड़ने की बात करते हैं जबकि कोई भी जाति अपनी उत्पत्ति किसी एक सामान्य पूर्वज से नहीं मानती। वास्तव में जाति की उत्पत्ति विभिन्न कारकों एवं नियमों के आधार पर ही समझाई जा सकती है।

इरावती कार्वे (Irawati Karve) ने जाति को एक अन्तर्विवाही समूह के रूप में देखा। आप लिखती हैं, “जाति वस्तुतः एक नातेदारी समूह है।” (Caste is am extended Kin group).

इस प्रकार विभिन्न विद्वानों द्वारा दी गई जाति की परिभाषाओं के आधार पर यह स्पष्ट होता है। कि जाति को एक ऐसे समूह के रूप में समझा जा सकता है जिसकी सदस्यता आनुवंशिक होती है, जो अन्तर्विवाही होता है तथा जो कि अपने सदस्यों पर खान-पान, व्यवसाय के चयन तथा सामाजिक सहवास के सम्बन्ध में अपने सदस्यों पर विभिन्न प्रकार के प्रतिबन्ध लगाता है।

जाति प्रथा की विशेषतायें

(Characteristics of Caste System)

ग्रह सत्य है कि जाति भारतीय समाज की सबसे प्रमुख प्राचीन एवं आधारभूत संस्था रही है किन्तु यह इतनी विभिन्नता लिए हुए है कि इसकी कोई सर्वमान्य परिभाषा देना एक कठिन कार्य है। इसीलिए कुछ विद्वानों ने जाति की अवधारणा को उसमें अन्तर्निहित विशेषताओं के आधार पर समझाने की कोशिश की है। इस संदर्भ में दत्ता, धुरिये, हट्टन एवं केतकर के नाम प्रमुख हैं।

केतकर (Katker) ने जाति की दो प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख किया है-

  1. जाति की सदस्यता केवल उन लोगों तक ही सीमित होती है जो कि सदस्यों से ही जन्म लेते हैं अर्थात् सदस्यता आनुवांशिक देती है।
  2. जाति के सदस्य एक कठोर सामाजिक नियम द्वारा समूह के बाहर विवाह करने से रोक दिये जाते हैं अर्थात् जाति एक अन्तर्विवाही समूह होता है।

डॉ. घुरिये (Dr. GS. Ghurya) ने जाति को संरचनात्मक एवं सांस्कृतिक विशेषताओं के आधार पर समझाने की चेष्टा की है। ये विशेषतायें हैं

  1. समाज का खण्डात्मक विभाजन,
  2. जातीय संस्तरण,
  3. भोजन तथा सामाजिक सहवास एवं प्रतिबन्ध,
  4. नागरिक एवं धार्मिक निर्योग्यतायें, एवं विशेषाधिकार,
  5. व्यावसायिक चुनाव पर प्रतिबन्ध,
  6. वैवाहिक प्रतिबन्ध

एन.के. दत्त (N.K. Datta) ने भी जाति को उसकी विशेषताओं के आधार पर ही समझाने की चेष्टा की है। ये विशेषतायें निम्न हैं।

  1. एक जाति के सदस्य जाति के बाहर विवाह नहीं कर सकते हैं।
  2. दूसरी जाति के सदस्यों के साथ खान-पान पर प्रतिबन्ध होता है।
  3. कुछ जातियों के निश्चित पेशे हैं।
  4. जातियों में उतार-चढ़ाव की प्रणाली है जिसमें ब्राह्मण जाति की स्थिति सर्वश्रेष्ठ है।
  5. जाति का निर्णय जन्म से होता है और वह जीवन भर के लिए होता है। यदि वह व्यक्ति जाति के नियमों को तोड़ता है तो जातीय सदस्यता से वंचित एवं दण्डित भी किया जा सकता है।
  6. सम्पूर्ण प्रणाली ब्राह्मणों की प्रतिष्ठा पर केन्द्रित एवं आधारित है।

जाति की सामान्य विशेषतायें

(Common Characteristics of Caste)

जाति की उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर हम उसकी निम्नलिखित विशेषताओं का उल्लेख कर सकते हैं-

  1. जन्मजात सदस्यता व्यक्ति जिस जाति में जन्म लेता है उस जाति में वह स्वतः सदस्य बन जाता है और जीवन-पर्यन्त वह उसी जाति का सदस्य बना रहता है। धन सम्पत्ति की प्राप्ति एवं गुणों के विकास के पश्चात् भी व्यक्ति की अपनी जातीय सदस्यता में परिवर्तन नहीं आता है।
  2. निश्चित सामाजिक स्थिति जन्म के साथ ही व्यक्ति की एक विशेष जाति की सदस्यता ही नहीं बल्कि एक निश्चित सामाजिक स्थिति भी प्राप्त हो जाती है, जैसे ब्राह्मण परिवार में जन्म लेने वाले व्यक्ति की सामाजिक स्थिति अन्य जातियों के सदस्यों की स्थिति से ऊँची मानी जाती है। अपनी सामाजिक स्थिति के अनुरूप ही व्यक्ति का कार्य क्षेत्र, विशेषाधिकार, सुविधाओं व निर्योग्यताओं का निर्धारण होता है।
  3. जाति अन्तर्विवाही समूह है – प्रत्येक जाति के व्यक्ति को अपनी ही जाति के सदस्यों के साथ ही विवाह करना होता है। जाति अन्तर्विवाह के नियमों का पालन करती है। रिजले और वेस्टर मार्क ने अन्तर्विवाह को जाति की आत्मा की संज्ञा दी है। गेल का मत है कि अन्तर्विवाह के प्रचलन का मुख्य उद्देश्य जातीय मिश्रण एवं उपजातियों की संख्या में वृद्धि को रोकना था।
  4. पूर्व निश्चित व्यवसाय – प्रत्येक जाति के सदस्यों के व्यवसाय भी पूर्व निश्चित होते हैं। उदाहरणार्थ- बढ़ई अपना बढ़ईगीरी का ही व्यवसाय करेगा और लोहार, लोहारी का आधुनिक युग में जब जाति संदर्भ में व्यावसायिक चयन में पर्याप्त छूट मिलने लगी है। भारत में प्रचलित रही जजमानी प्रधा व्यावसायिक निश्चितता एवं विविधता का सबसे सुन्दर उदाहरण है।
  5. खान-पान पर प्रतिबन्ध – जाति के सदस्यों पर खान-पान के बारे में विशेष प्रतिबन्धों का पालन किया जाता है। सभी जाति के सदस्य अन्य सभी जातियों के यहाँ भोजन नहीं कर सकते। केवल ब्राह्मणों के यहां ही सभी जाति के लोग खाना खा सकते हैं। इनमें कच्चे एवं पक्के खाने के बारे में भी निश्चित नियम हैं। अछूत कही जाने वाली जातियों के यहां किसी प्रकार का भोजन करना तो दूर था उनके हाथ से या उनके बर्तनों में पानी पीना भी निषिद्ध था।
  6. ऊँच-नीच की भावना जाति का अपना एक निश्चित खण्डात्मक एवं संस्तरणात्मक विभाजन होता है। इस जातीय संस्तरण में ब्राह्मणों का स्थान सबसे ऊंचा एवं शूद्रों का स्थान सबसे नीचा होता है। इतना ही नहीं एक जाति की उपजातियों में भी ऊंच-नींच की भावना होती है। यह ऊंच-नीच की भावना ही विभिन्न जातियों के बीच सामाजिक सहबास एवं सामाजिक दूरी का निर्धारण करती रही है।
  7. सामाजिक एवं धार्मिक निर्योग्यतायें – विभिन्न जातियों के सदस्यों को उनकी जातीय स्थिति के आधार पर इन्हें सामाजिक एवं धार्मिक सुविधाओं एवं निर्योग्यताओं का सामना करना पड़ता है। जैसे शूद्ध एवं निम्न जाति के सदस्यों को सवर्णों के मंदिरों एवं कुओं के प्रयोग करने की छूट नहीं होती। खान-पान एवं व्यवसाय के चयन तथा सामाजिक सहवास के मामले में भी मैसूर तथा पंजाब के कुछ भागों में अछूतों को सार्वजनिक स्थानों एवं सड़कों पर निकलने की मनाही थी। इन्हें कुछ सीमाओं के अधीन रहकर ही जीवन व्यतीत करना पड़ता था। यही कारण था कि अछूतों के आवास सवर्णों से दूर होते थे। प्रसन्नता की बात यह है कि आज आधुनिक प्रजातंत्रीय स्वतंत्र भारत में सभी जातियों को समान अधिकार मिल गये हैं।
  8. विभिन्न जातियां में अन्तः सम्बन्ध – यह सत्य है कि विभिन्न जातियों में ऊँच-नींच की भावना के आधार पर एक निश्चित संस्तरण पाया जाता है पर इसका यह अर्थ नहीं कि उनमें आपस में कोई सम्बन्ध नहीं। विभिन्न जाति के सदस्य भले ही अलग-अलग पेशों को क्यों न करते हों उनमें भी पारस्परिक अन्तःनिर्भरता एवं अन्तःसम्बन्ध पाया जाता है। इसका सबसे सुन्दर स्वरूप हमें जजमानी प्रथा के रूप में देखने को मिलता रहा है। हा आज इसमें कुछ परिवर्तन अवश्य आ रहे हैं।

लीच ने जाति प्रथा की प्रमुख विशेषतायें बतलाई हैं

  1. कोई भी जाति अन्य जातियों से पृथक नहीं रह सकती।
  2. जातियों के संस्तरण एवं पृथकता पर अधिक विचार करना उचित नहीं।
  3. जाति प्रणाली की दो विशेषतायें हैं –

(अ) बाहरी सम्बन्ध यह राजनैतिक, आर्थिक एवं कार्य सम्बन्धी हो सकते हैं। इस प्रकार के सम्बन्ध परस्पर विभिन्न जातियों के द्वारा स्थापित हो सकते हैं।

(ब) आन्तरिक सम्बन्ध – एक जाति के व्यक्ति अपनी ही जाति के व्यक्तियों से अन्तः सम्बन्ध स्थापित करते हैं जिसे हम नातेदारी की संज्ञा देते हैं।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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