समाज शास्‍त्र / Sociology

वर्तमान भारत में जाति का आधुनिक स्वरूप | वर्तमान भारत में जाति के आधुनिक हो रहे स्वरूप की आलोचनात्मक समीक्षा

वर्तमान भारत में जाति का आधुनिक स्वरूप | वर्तमान भारत में जाति के आधुनिक हो रहे स्वरूप की आलोचनात्मक समीक्षा | Modern form of caste in present India in Hindi | Critical review of the modernizing form of caste in present-day India in Hindi

वर्तमान भारत में जाति का आधुनिक स्वरूप

पाश्चात्य विद्वान जाति शब्द की उत्पत्ति शब्द कास्टा (Caste) से मानते हैं जिसका अर्थ प्रजातिभेद से होता है। भारतीय संदर्भ में जाति की उत्पत्ति संस्कृति के जातः शब्द से मानी जाती है। जिसका अर्थ जन्म से होता है। अर्थात् जाति से हमारा आशय एक ऐसे समूह से होता है जिसकी सदस्यता जन्म अर्थात् पैतृकता के आधार पर निर्धारित होती है। भारत में जाति की संस्था का विकास प्राचीन वर्ण व्यवस्था से माना जाता है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र चार वर्ण माने जाते थे। किन्तु इस वर्ण व्यवस्था में यद्यपि विभिन्न वर्णों के अलग-अलग दायित्वों एवं कार्यों की व्याख्या की जाती थी फिर भी इसमें खुलापन था अर्थात् किसी भी वर्ण का व्यक्ति अपनी बुद्धि एवं परिश्रम के सहारे किसी भी वर्ण के कार्यों को कर सकता था। धीरे-धीरे विभिन्न दायित्वों एवं कार्यों के बारे में वैचारिक रूढ़िवादिता का विकास हुआ और तब वर्ण व्यवस्था ने जाति व्यवस्था का रूप ले लिया। इसके पश्चात् तो व्यक्ति की एक जाति की सदस्यता, सामाजिक स्तर, कार्यों का निर्धारण, वैवाहिक सम्बन्ध एवं सामाजिक सहवास आदि सभी स्वरूप  जातीय नियमों के द्वारा ही निर्धारित होने लगा। जाति हिन्दू सामाजिक संरचना का एक मुख्य आधार बन गया जिसने हिन्दुओं के सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक एवं राजनीतिक जीवन को पूर्णरूपेण अपने रंग में रंग दिया। इसीलिए श्रीमती इरावती कर्वे (Irawarti Karve) ने कहा भी है, यदि हम भारतीय संस्कृति के तत्वों को समझना चाहते हैं तो जाति प्रथा का अध्ययन नितान्त आवश्यक है।” विभिन्न विद्वानों ने जाति की अलग- अलग परिभाषायें दी हैं इनमें से निम्न मुख्य हैं।

चार्ल्स कूले (Charles Cooley) के अनुसार, “जब एक वर्ग पूर्णतया वंशानुक्रम पर आधारित होता है तो हम जाति कहते हैं।“

जे. एच. हट्टन (J.H. Hotton) लिखते हैं, “जाति एक ऐसी व्यवस्था है जिसके अन्तर्गत एक समाज अनेक आत्मकेन्द्रित एक दूसरे से पूर्णतया पृथक इकाइयाँ (जातियों) में विभाजित रहता है। इन इकाइयों के बीच पारस्परिक सम्बन्ध ऊँच-नीच के आधार पर सांस्कृतिक रूप से निर्धारित होते हैं।”

ई. के. एच. ब्लन्ट (E.K.H. Blunt) जाति की परिभाषा देते हुए लिखते हैं, “जाति एक अन्तर्विवाही समूह अथवा अन्तर्विवाही समूहों को संकलन है जिसका एक सामान्य नाम है, जिसकी सदस्यता आनुवंशिक होती है, जो सामाजिक सहवास के क्षेत्र में अपने सदस्यों पर कुछ प्रतिबन्ध लगाता है, इसके सदस्य या तो एक सामान्य परम्परागत व्यवसाय की करते हैं अथवा किसी सामान्य आधार पर अपनी उत्पत्ति का दावा करते हैं और इस प्रकार एक समरूप समुदाय के रूप में मान्य होते हैं।”

जाति वर्ग में परिवर्तित

सर्वप्रथम हमें यह देखना है कि जाति व्यवस्था की विशेषतायें क्या वास्तव में वर्ग की विशेषताओं को स्थान दे रही हैं। वास्तविकता यह है कि इस प्रश्न पर कोई भी अन्तिम निर्णय देना आसान नहीं है। सच यह है कि जाति-व्यवस्था में वर्ग व्यवस्था के लक्षण दिखाई पड़ रहे हैं, लेकिन दूसरी ओर यह भी स्पष्ट है कि जाति ने अपनी कुछ विशेषताओं को अब भी बनाए रखा है।

वर्तमान समय में सामाजिक मूल्यों में परिवर्तन हो रहा है। शहरीकरण और उद्योगीकरण तेजी से बढ़ रहे हैं और इसके साथ धर्म निरपेक्षतावाद मी बढ़ता जा रहा है, जिसने नई सामाजिक- आर्थिक शक्तियों को जन्म दिया है। इनके प्रभाव के कारण जाति-व्यवस्था के नियमों में शिथिलता आई है। नगरीय सामाजिक मूल्यों ने छुआछूत के नियमों और निम्न जातियों को सामाजिक तौर पर धार्मिक निर्योग्यताओं को काफी हद तक कमजोर किया है। नगरों के विभिन्न भोजनालयों को भिन्न-भिन्न जातियों के लोग एक साथ भोजन करते हुए देखे जा सकते हैं और कोई यह जानने का प्रयास भी नहीं करता कि भोजनाओं में किस जाति का व्यक्ति भोजन पका रहा है।

वर्तमान समय में कुछ समान्तर संगठन भी जन्म लेने लगे हैं, जिनकी सदस्यता किसी एक जाति में सीमित नहीं है। आज एक ओर जाति के भीतर वर्ग उत्पन्न हो रहे हैं और दूसरी ओर विभिन्न जातियों के लोगों के वर्ग बनने लगे हैं।

विभिन्न क्षेत्रों में अनेक संगठन हैं जिनका आधार व्यवसाय है। ग्रामीण क्षेत्रों में विभिन्न प्रकार के भूमिहीन मजदूर संगठनों की भिन्न-भिन्न जातियाँ हैं और ये आर्थिक हितों पर आधृत हैं। औद्योगिक क्षेत्रों के ट्रेड यूनियन आदि भी इसी प्रकार के संगठन हैं, जिनका मुख्य उद्देश्य आर्थिक हितों की रक्षा करना है।

उद्योगीकरण, नये कानून, आधुनिक शिक्षा व्यवस्था आदि के कारण व्यक्तियों की प्रस्थिति प्राप्त कर लेते हैं, फलतः उनके परिवार की स्थिति भी उच्च हो जाती है। इस प्रकार की उच्च सामाजिक स्थिति अर्जित है, न कि प्रदत्त ।

वर्तमान युग को प्रतिस्पर्धा का युग कहा जाता है। जो व्यक्ति जिस व्यवसाय में है वह उसी में अपनी कार्य कुशलता को संवारता है और बढ़ाता है। इस प्रकार, वह अपनी सामाजिक प्रस्थिति को ऊँचा उठाना चाहता है। प्रतिस्पर्धा वर्ग-व्यवस्था की विशेषता है।

ऊपर की बातों से यह स्पष्ट होता है कि जाति व्यवस्था वर्ग में परिवर्तित हो रही है। इस विचार के विपरीत दूसरा अध्ययन इस बात का संकेत करता है कि जाति-व्यवस्था वर्ग की ओर नहीं मुड़ रही है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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