समाज शास्‍त्र / Sociology

भारतीय ग्रामीण समाज में जाति व्यवस्था में हो रहे परिवर्तन | जाति-प्रथा में नई प्रवृत्तियां एवं परिवर्तन | जाति प्रथा में परिवर्तन के कारण

भारतीय ग्रामीण समाज में जाति व्यवस्था में हो रहे परिवर्तन | जाति-प्रथा में नई प्रवृत्तियां एवं परिवर्तन | जाति प्रथा में परिवर्तन के कारण | Changes taking place in the caste system in Indian rural society in Hindi | Recent Trends and Changes in Caste System in Hindi | Causes Responsible for Changes in Caste System in Hindi

भारतीय ग्रामीण समाज में जाति व्यवस्था में हो रहे परिवर्तन

यद्यपि जाति प्रथा भारतीय सामाजिक व्यवस्था की एक अद्वितीय संस्था तथा संस्कृति की वाहक एवं रूढ़िवादिता की पोषक मानी जाती है, परन्तु फिर भी समाज के बदलते हुए मूल्यों और प्रतिमानों के कारण उसमें निरन्तर परिवर्तन की प्रक्रिया निहित रही है। प्राचीन काल में जाति-प्रथा वर्ण व्यवस्था के रूप में प्रचलित रही। व्यक्ति को कर्म करने की पूर्ण स्वाधीनता थी, किन्तु जातीय प्रतिबन्धों की कठोरता बढ़ने के कारण वर्ण व्यवस्था का लोप होता गया एवं उसके स्थान पर जाति व्यवस्था का सिक्का जम गया। व्यक्ति जिस परिवार में पैदा होता था उसकी वही जाति मानी जाती थी एवं उस जाति की समस्त निर्योग्यतायें एवं उत्तरदायित्व उसे निभाने पड़ते थे।

किन्तु जाति प्रथा का यह रूढ़िवादी स्वरूप भी अधिक टिकाऊ न रह सका। बौद्ध धर्म एवं जैन धर्म के आविर्भाव ने ब्राह्मणों की श्रेष्ठता को एक करारा धक्का दिया। मुगल काल में इस्लाम के कुप्रभाव के फलस्वरूप जातीय बन्धन पुनः कठोर हो गये तथा बाल विवाह, पर्दा प्रथा और सती प्रथा जैसी कुप्रथाओं का युग प्रारम्भ हुआ। उसके पश्चात् भारतवर्ष में ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना ने जाति प्रथा पर पुनः प्रहार किया। औद्योगीकरण, नगरीकरण, अंग्रेजी के माध्यम से शिक्षा का देना, ईसाई मिशनरियों के धर्म प्रचार कार्य, सामाजिक गतिशीलता में वृद्धि, भारत की स्वाधीनता संग्राम एवं अन्ततोगत्वा प्रजातांत्रिक शासन प्रणाली की स्थापना एवं धर्म निरपेक्ष राज्य की स्थापना आदि विभिन्न ऐसे कारक थे जिन्होंने रूढ़िवादी जाति-प्रथा की कठोरता एवं संकीर्णता को ढीला करने में महान योगदान दिया। इस प्रकार प्राचीन काल से लेकर अब तक जाति-प्रथा में निरन्तर परिवर्तन होते रहे हैं। आज तो उसका स्वरूप इतना बदल चुका है कि लोग जाति-प्रथा के भावी अस्तित्व के बारे में भी शंका व्यक्त करने लगे हैं।

जाति-प्रथा में नई प्रवृत्तियां एवं परिवर्तन

(Recent Trends and Changes in Caste System)

  1. संस्कृतीकरण और असंस्कृतीकरण (Sanskritization and desanskritization)

– एम.एन. श्रीनिवास ने अपनी पुस्तक “Caste in Modern India and Other Essays” कहकर सम्बोधित किया है। आपने बतलाया है कि आज भारतवर्ष में निम्न कोटि की जातियां धीरे- धीरे उच्च जातियों के खान-पान, रहन-सहन, वेश-भूषा, आचार-विचार, विवाह, आदर्श एवं मूल्यों को स्वीकार कर कुछ वर्षों में जातीय संस्तरण में ऊपर उठने की चेष्टा कर रही हैं। धर्म, कर्म, पाप, पुण्य, माया, मोक्ष तथा संसार आदि शुद्ध संस्कृत के शब्दों को अब वे रोज की बोलचाल की भाषा में प्रयोग करने लगे हैं। अब निम्न कही जाने वाली जातियां भी बाल विवाह का विरोध करने लगी हैं तथा एक विवाह को बलवती बनाने में शिक्षा प्रणाली, यातायात एवं सन्देश वाहन के  साधन नवीन शासन प्रणाली, नौकरियों की सुविधा तथा लाउडस्पीकर ने बहुत योगदान दिया है।

परन्तु डी.एन. मजूमदार ने श्रीनिवास के उपरोक्त निष्कर्ष को एकपक्षीय बताया है। आपने कहा है कि संस्कृतिकरण की एक विरोधी प्रक्रिया भी भारतीय समाज में बड़ी तेजी से चल रही है। आपने इसकी नवीन प्रक्रिया को असंस्कृतिकरण (Disanskritization) की संज्ञा दी है। इसकी व्याख्या करते हुए आपने बताया है कि न केवल निम्नकोटि की जातियां ऊंचे उठ रही हैं बल्कि उच्च कही जाने वाली जातियां भी भौतिकवादिता में फंसकर जातीय संस्तरण में निम्न जातियों के खान- पान तथा व्यवसायों को स्वीकार करती जा रही हैं। इस उतार-चढ़ाव के कारण आज जाति प्रथा का परम्परात्मक स्वरूप पूर्णतया रूपान्तरिक हो गया है।

  1. ब्राह्मणों के प्रभुत्व में कमी (Decline in the dominance of Brahmins)- आज शिक्षा के प्रसार, नवीन मूल्यों के विकास, धर्म के प्रभाव में कमी, व्यावसायिक बहुलता के कारण तथा प्रजातांत्रिक मूल्यों के प्रसार के कारण ब्राह्मणों की श्रेष्ठता को एक करार धक्का लगा है। जाति-प्रथा अब धीरे-धीरे वर्ग व्यवसाय का रूप लेती जा रही है जिसमें जन्म एवं पैतृकता के बजाय भौतिक समृद्धि की महत्ता है। आज आर्थिक सम्पन्नता एवं भौतिक समृद्धि व्यक्ति की सामाजिक स्थिति का एकमात्र निर्धारण है।
  2. वैवाहिक प्रतिबन्धों में कमी (Decline in marriage restriction)- जाति व्यवस्था के अन्तर्गत अधिकतर अनुलोम एवं सजातीय विवाहों का प्रचलन रहा है किन्तु आधुनिक युग में औद्योगीकरण, नगरीकरण, उच्च शिक्षा एवं सहशिक्षा तथा औद्योगिक संस्थानों में साथ- साथ काम करने के कारण आज प्रेम, रोमान्स एवं अंतर्जातीय विवाहों के प्रचलन के कारण प्रचलित रूढ़ियां ढोली पड़ती जा रही हैं। बाल विवाह के स्थान पर आज विलम्ब विवाह का प्रचलन बढ़ता जा रहा है। विधवा पुनर्विवाह को भी आज सामाजिक मान्यता मिल गई है।
  3. व्यावसायिक प्रतिबन्धों में कमी (Decline in occupational restrictions) – परम्परात्पक जाति व्यवस्था के अन्तर्गत व्यक्ति को केवल अपनी जाति द्वारा निर्दिष्ट एवं मान्यता प्राप्त व्यवसायों को स्वीकार करना पड़ता था। किन्तु आज के इस भौतिकवादी युग में व्यावसायिक बाहुल्यता पैदा कर दी है। जजमानी प्रथा के विघटन के साथ ही व्यक्ति लाभ एवं हानि की मात्रा को ध्यान में रखकर ही व्यवसाय का चयन करने लगा है। जाति नहीं बल्कि आज व्यक्ति की रुचि, क्षमता एवं आर्थिक सम्पन्नता व्यक्ति के व्यावसायिक चयन में अधिक सशक्त है।
  4. खान-पान सम्बन्धी प्रतिबन्धों में कमी- जाति प्रथा अपने सदस्यों पर खान-पान सम्बन्धी विभिन्न प्रतिबन्ध कठोरता से लगाती रहती है जैसे, व्यक्ति शाकाहारी होगा या मांसाहारी, किसके यहां कच्चा खाना खायेगा तथा किसके यहां पक्का। किन्तु आज ये सभी प्रतिबन्ध व्यर्थ ही नहीं बल्कि हास्यास्पद भी माने जाने लगे हैं। केवल सफाई का ध्यान रखा जाता है। उद्योगों में साथ-साथ नौकरी करने तथा ट्रेन, बस आदि में यात्रा करने से जातीय दूरी दिन पर दिन कम होती जा रही है।
  5. जातीय पंचायतों का विघटन भारतवर्ष में ग्राम पंचायतों के साथ ही जातीय पंचायतों का भी अस्तित्व रहा है। ये जातीय पंचायतें जाति सम्बन्धी विवादों एवं मामलों का निर्णय करती रही है, किन्तु आज जातीय पंचायतें लुप्तप्राय सी हो गई है।
  6. ऊंच-नीच की भावना का अन्तजाति व्यवस्था में प्रत्येक जाति के सदस्यों का जातीय संस्तरण में एक विशिष्ट स्थान था। उच्च जाति के लोग निम्न जातियों से एक विशेष सामाजिक दूरी मान कर व्यवहार करते थे। अछूत जातियां निम्नतम जीवन बिताती थी। अब हुआछूत की भावना को अवैध एवं दण्डनीय घोषित किये जाने के कारण, संवैधानिक सुरक्षा, शिक्षा के प्रसार एवं सामाजिक सहवास के कारण ऊंच-नीच की भावना दिन प्रति दिन कम होती जा रही है।
  7. जातीय निर्योग्यताओं की समाप्तिजातीय बन्धन तथा ऊंच-नीच की भावना के कारण निम्न समझी जाने वाली जातियां अभी तक विभिन्न निर्योग्यताओं का शिकार रही हैं। न तो उनका निवास सवर्णों की बस्ती के पास हो सकता था, और न ही उन्हें कुओं से पानी भरने तथा मंदिर तथा पवित्र समझे जाने वाले स्थानों में प्रवेश करने की अनुमति थी।

किन्तु अब बदलते परिवेश एवं दशाओं के कारण वे सवर्णों के साथ ही नौकरी या व्यापार करते हैं तथा उन्हीं के साथ खाते-पीते, शिक्षा प्राप्त करते एवं उठते बैठते हैं।

जाति प्रथा में परिवर्तन के कारण

(Causes Responsible for Changes in Caste System)

भारतीय जाति प्रथा यद्यपि अत्यन्त जटिल एवं रूढ़िवादी रही है किन्तु फिर भी समय के परिवर्तन के साथ आज इसके स्वरूप में भी अभूतपूर्व परिवर्तन हो रहे हैं। जाति प्रथा में होने वाले परिवर्तनों के पीछे एक नहीं बल्कि अनेक कारक उत्तरदायी रहे हैं। इनमें से प्रमुख निम्न माने जा सकते हैं-

  1. औद्योगीकरण का प्रभावऔद्योगीकरण ने नये-नये कल कारखानों को बढ़ावा देकर, लोगों को भौतिकवादी एवं व्यक्तिवादी बना दिया है। आज इन औद्योगिक संस्थाओं में सभी जातियों के लोग एक साथ मिलकर उत्पादन करते एवं जीविका कमाते हैं। बढ़ते सामाजिक सहवास के कारण जाति के बन्धन ढीले पड़ गये हैं।
  2. व्यावसायिक बहुलता – आज व्यक्ति के लिए अपने पैतृक एवं जातीय व्यवसायों को स्वीकार करना आवश्यक नहीं रहा है। वह अपनी रुचि एवं आर्थिक स्थिति के आधार पर मनचाहा व्यवसाय करके अधिक धन कमा सकता है।
  3. नगरीकरण का प्रभाव – नगरी मूल्यों एवं सांस्कृतिक प्रसार ने भी जाति प्रथा की जड़ों को हिलाने में पर्याप्त योगदान दिया है।
  4. आवागमन एवं संदेशवाहन के साधनों में वृद्धि आवागमन एवं संदेशवाहन के साधनों ने क्षेत्रीय दूरी समाप्त कर दी है। आज अन्तर्राष्ट्रीयता का युग है। विभिन्न धर्मों एवं जातियों का आपस में सम्पर्क हो रहा है जिससे आपस में समझ बढ़ रही है और जातीय बन्धन ढीले पड़ते जा रहे हैं।
  5. शिक्षा का प्रसार (Spread of Education) – आज वैज्ञानिक, तकनीकी एवं पाश्चात्य शिक्षा के प्रसार के फलस्वरूप एक ओर व्यक्ति की कूपमंडूकता समाप्त हुई है तो दूसरी ओर अंधविश्वास, रूढ़िवादिता पर भी प्रहार हुआ है। आज शिक्षित वर्ग जाति के प्रति अन्धभक्ति न दिखलाकर, पारस्परिक समानता एवं भाईचारे की भावना को अधिक महत्ता प्रदान करता है।
  6. विज्ञान का प्रभाव (Impact of Science) – विज्ञान के बढ़ते प्रभाव ने भी जाति प्रथा को विघटित करने में पर्याप्त योगदान दिया है।
  7. स्वतंत्रता संग्राम एवं स्वाधीनता की प्राप्ति स्वतंत्रता संग्राम के दौरान देश का प्रत्येक नागरिक आपसी भेदभाव को भूलकर महात्मा गाँधी के नेतृत्व में जुट गया था। इससे भी जातीय भेदभाव समाप्त हुआ। स्वाधीनता प्राप्ति के पश्चात् भारत में धर्मनिरपेक्ष गणराज्य की स्थापना एवं नवीन संविधान ने रही सही जातीय कटुता एवं ऊँच-नीच की भावना को समाप्त कर दिया। जातीय भेदभाव एवं छुआछूत की भावना को बढ़ावा देना दण्डनीय अपराध घोषित किया गया।
  8. सामाजिक एवं धार्मिक सुधारों का प्रभाव – स्वामी दयानन्द सरस्वती, राजाराम मोहन राय, विवेकानन्द तथा गाँधी जी ने अनेक सामाजिक एवं धार्मिक सुधार किये। जैसे-सभी समान हैं एवं सभी धर्मों का एक मात्र उद्देश्य मानव-मात्र का कल्याण है। इन ज्ञान की बातों ने जाति प्रथा को विघटित करने में काफी योग दिया है।
  9. धन का महत्व (Impact of Wealth) – आज के भौतिकवादी युग में धन का महत्व बढ़ जाने तथा आर्थिक सम्पन्नता के आधार पर व्यक्ति की प्रस्थिति का निर्धारण होने के कारण भी जातीय मान्यताओं को करारा धक्का लगा है।
  10. देशी राज्यों की समाप्ति (Abolition of Feudal States) – देशी राज्य, महन्थों, पुरोहितों एवं योगियों के प्रभाव में होने के कारण राजा उनका अन्धानुकरण करते थे। इन राज्यों के विलय के पश्चात् आज इनका प्रभाव भी कम हो गया है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि जाति प्रथा के विघटन के पीछे एक नहीं बल्कि अनेक कारकों का योगदान रहा है। एक ओर संयुक्त परिवारों के विघटन, धर्म के प्रभाव में कमी तथा मूल्यों में परिवर्तन ने तो दूसरी ओर औद्योगीकरण एवं उसके प्रभावों जैसे-सामाजिक गतिशीलता में वृद्धि, भौतिकवादिता, व्यक्तिवादिता, पश्चिमीकरण, शहरी भीड़-भाड़, मकानों की समस्या, व्यावसायिक बहुलता, मनोरंजन के व्यापारिक साधनों तथा यातायात एवं सन्देशवाहन ने भी जाति को विघटित  करने में सक्रिय योगदान दिया है। भारत में प्रजातांत्रिक शासन एवं धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना ने भी इस संदर्भ में सक्रिय भूमिका निभाई है। जाति का भविष्य क्या होगा इसका निर्धारण तो आने वाले समय में ही करेगा।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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