शिक्षाशास्त्र / Education

दूरस्थ शिक्षा का प्रादुर्भाव | दूरस्थ शिक्षा का अर्थ | दूरस्थ शिक्षा के लाभ | दूरस्थ शिक्षा की सीमाएँ | दूरस्थ शिक्षा का विकास | दूरस्थ शिक्षा में जनसंचार के साधन अथवा मास मीडिया

दूरस्थ शिक्षा का प्रादुर्भाव | दूरस्थ शिक्षा का अर्थ | दूरस्थ शिक्षा के लाभ | दूरस्थ शिक्षा की सीमाएँ | दूरस्थ शिक्षा का विकास | दूरस्थ शिक्षा में जनसंचार के साधन अथवा मास मीडिया | Emergence of Distance Education in Hindi | Meaning of Distance Education in Hindi | Benefits of Distance Education in Hindi | Limitations of Distance Education in Hindi | Development of Distance Education in Hindi | Means of mass communication or mass media in distance education in Hindi

दूरस्थ शिक्षा का प्रादुर्भाव-

मानव जन्म से जिज्ञासु होता है। वह नवीन ज्ञान की खोज में सदैव प्रयत्नशील रहता है। अतीत में दूरस्थ शिक्षा के विषय में सोचा भी नहीं जाता था। क्योंकि व्यक्ति को ज्ञान प्रदान करने के लिए शिक्षक उपलब्ध होते थे। परन्तु जबकि हम शीघ्र ही 21वीं शताब्दी में प्रवेश करने की तैयारी कर रहे हैं स्थितियाँ बिल्कुल परिवर्तित हो चुकी हैं। आज समय बड़ी शीघ्रता के साथ बदल रहा है। प्रतियोगिता अत्यन्त तीव्र है। व्यक्ति की महत्त्वाकांक्षाएँ द्रुत गति में ऊँची होती जा रही है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी जीवन शैली और रहन- सहन के तरीके को समुन्नत बनाना चाहता है। अतः सतत् शिक्षा हमारी शैक्षिक व्यवस्था का आवश्यक अंग बन गई है। वर्तमान औपचारिक शिक्षा व्यवस्था व्यक्ति को शैक्षिक आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर पाती। आज शिक्षा संस्था का स्थापित करना, शिक्षकों की नियुक्ति करना, संस्था की व्यवस्था करना तथा संस्थाओं के शिक्षार्थियों के निवास स्थान से दूर स्थित होने के परिणामस्वरूप शिक्षा के ऐसे वैकल्पिक रूप की आवश्यकता है जो शैक्षिक प्रसार एवं लोगों की शिक्षा की जरूरतों को पूरा कर सके। शिक्षार्थी को शिक्षण संस्थान तक जाने की अपेक्षा शिक्षण संस्थान को शिक्षार्थों की सुविधानुसार उसके पास पहुँचाने के उद्देश्य से दूरस्थ शिक्षा की संकल्पना को जन्म मिला।

इस शताब्दों के मध्य तक दूरस्थ शिक्षा से लोग परिचित नहीं थे यद्यपि उस समय डाक सेवा अधिक लोकप्रिय हो गई थी। इसके परिणामस्वरूप ही लोग शिक्षार्थी को डाक के माध्यम से मार्गदर्शन सन्देश भेजकर शिक्षा देते थे। दूरस्थ शिक्षा के बारे में पं० जवाहरलाल नेहरू ने नैनी जेल से अपनी सुपुत्री इन्दिरा गांधी को अनेक पत्र लिखकर उन्हें ज्ञान प्रदान किया। दूरस्थ शिक्षा का प्रारम्भ पश्चिम देशों में ही हुआ।

दूरस्थ शिक्षा का अर्थ-

दूरस्थ शिक्षा एक शिक्षण पद्धति है जिसमें शिक्षक विद्यार्थी को ज्ञान व कौशल मौखिक रूप से प्रदान करके विद्यार्थी को परिस्थितियों के अनुकूल दूर उसके निवास पर ही प्रदान करता है। प्रो० बोर्ज होमबर्ग (Borje Hoemberg) के अनुसार “दूरस्थ शिक्षा सभी स्तरों पर अध्ययन के विविध रूप हैं जो शिक्षक के निरन्तर व तात्कालिक पर्यवेक्षण में अपने छात्रों के साथ उपस्थित होकर कक्षा अथवा अन्य किसी एक ही स्थान पर प्रदान नहीं किए जाते हैं वरन् उसके विपरीत शिक्षण संगठन के नियोजन, निर्देशन एवं मार्गदर्शन में प्रदान किए जाते उसमें शिक्षक तथा शिक्षार्थी एक दूसरे की अनुपस्थिति में सीखने-सिखाने की क्रियाओं का संचालन करते हैं। कोगन (Kegan) के अनुसार दूरस्थ शिक्षा की निम्न प्रमुख विशेषताएँ हैं-

(i) इसमें किसी शैक्षिक संस्था/संगठन का होना आवश्यक है। (ii) शिक्षक व शिक्षार्थी के मध्य सम्पर्क स्थापित करने के लिए किसी माध्यम (अधिकांशतः मुद्रण) का प्रयोग (iii) द्विमार्गीय संचार साधनों का प्रावधान। (iv) सामूहिक के स्थान पर सीखने का वैयक्तिक आधार। (v) मितव्ययता।

अत: संक्षेप में कहा जा सकता है कि दूरस्थ शिक्षा वह शिक्षा की व्यवस्था है जिसमें शिक्षक व शिक्षार्थी शिक्षण क्रियाओं को एक-दूसरे के समक्षं उपस्थित न होकर प्रतिपादित करते हैं। उनके मध्य सम्पर्क का माध्यम पत्राचार, रेडियो वार्ता, अथवा दूरदर्शन होता है।

दूरस्थ शिक्षा के लाभ-

इस शिक्षा व्यवस्था के प्रमुख लाभ निम्नलिखित हैं-

(i) अत्यन्त लचीली शैक्षिक व्यवस्था है। इसमें समय व स्थान की बन्दिश नहीं होती। (ii) इसका प्रयोग प्राथमिक से उच्च शैक्षिक स्तर तक किसी भी स्तर पर किया जा सकता है। (iii) इस व्यवस्था के अन्तर्गत शिक्षार्थी अपनी गति से प्रगति कर सकता है। (iv) इसके द्वारा औपचारिक शिक्षा में सहायता प्राप्त होती है। (v) औपचारिक नियमित शिक्षा की अपेक्षा यह व्यवस्था अधिक मितव्ययी हैं। इस व्यवस्था से अतिरिक्त प्रयास न करके अधिक से अधिक लोगों को शिक्षित किया जा सकता है। (vi) इसके माध्यम से किसी भी दूरी पर स्थित क्षेत्र में शिक्षा दी जा सकती है। (vii) छात्रों को सर्वाधिक कुशल एवं योग्य शिक्षकों के शिक्षण का लाभ प्राप्त हो जाता है। औपचारिक शिक्षा व्यवस्था में ऐसा सम्भव नहीं है। (viii) इसका लाभ एसे सभी शिक्षार्थियों को प्राप्त हो जाता है जो किसी कारणवश औपचारिक शिक्षा का लाभ नहीं उठा पाए या.जो किसी व्यवसाय में कार्यरत हैं। उन्हें शिक्षा प्राप्त करने अन्य कहीं नहीं जाना पड़ता। (ix) इस व्यवस्था के माध्यम से स्व-अधिगम सम्भव होता है जो कि वास्तविक रूप से सांखना है तथा जो स्थाई अधिगम होता हैं।

अतः स्पष्ट है कि शिक्षा व्यवस्था द्वारा ऐसे प्रौढ़ों, पिछड़े वर्ग के लोगों, दूरस्थ ग्रामीण इलाकों में रहने वालों को शिक्षा का लाभ दिया जा सकता है जिन्हें अन्य किसी भी तरह इसका लाभ प्रात नहीं हो पाता। प्रौढ़ एवं सतत् शिक्षा की यह एक उत्तम व्यवस्था है। आज रेडियो, दूरदर्शन द्वारा शिक्षा प्रभावी ढंग से दी जा रही है। देश में खुले विद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों की संख्या निरन्तर बढ़ती जा रही है जो समाज के प्रत्येक व्यक्ति को विभिन्न स्तरों की शिक्षा प्रदान करने में कार्यरत हैं। इसके द्वारा सेवारत, विद्यालय छोड़ने वाले (Dropouts), सामाजिक व आर्थिक रूप से पिछड़े, दूर रहने वाले, सेवानिवृत्त व्यक्ति, विकलांग, जिज्ञासु आदि सभी को शिक्षा का लाभ प्रदान करने की दृष्टि से उपयुक्त है।

दूरस्थ शिक्षा की सीमाएँ-

उपरोक्त लाभ होते हुए भी इस व्यवस्था की कुछ सीमाएँ भी हैं। वे निम्नानुसार हैं-

(i) इस व्यवस्था में शिक्षार्थी को आवश्यकता व प्रगति की गति ने अनुकूल शिक्षण नहीं हो पाता है। वैयक्तिक आवश्यकताओं एवं अभियोग्यता के अनुरूप शिक्षण-विधि व विषय वस्तु को परिवर्तित नहीं किया जा सकता। अतः शिक्षण अधिक प्रभावी नहीं हो पाता। (ii) छात्र को शिक्षक का व्यक्तिगत मार्गदर्शन नहीं मिल पाता। वह अपनी समस्याओं को शिक्षक के समक्ष नहीं प्रस्तुत कर सकता। परिणामत: उसके मस्तिष्क में शंकाएँ व अस्पष्टीकरण बने रहते हैं। (iii) इसमें प्रायः फीड बैंक का भी अभाव रहता है। (iv) बहुमुखी व्यक्तित्व के विकास के लिए उपयुक्त मार्गदर्शन नहीं मिल पाता। (v) उपचारात्मक शिक्षा की व्यवस्था नहीं होती।

दूरस्थ शिक्षा का विकास-

दूरस्थ शिक्षा का विकास 19वीं शताब्दी के मध्य में योरोप के कुछ देशों में हुआ। यू० एस० ए० तथा यू० एस० एस० आर० में इसका प्रचलन 20वीं शताब्दी के मध्य से हुआ। भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद करोड़ों निरक्षरों को शिक्षित करने को समस्या थी। इस समस्या को हल करने के लिए बहुत बड़ी संख्या में विद्यालय, महाविद्यालय और विश्वविद्यालय खोले गए। परन्तु बढ़ती हुई जनसंख्या व सीमित आर्थिक साधनों के कारण देश की शैक्षिक आवश्यकता की पूर्ति करना सम्भव नहीं हो सका। अतः योजना आयोग, केन्द्रीय शिक्षा मन्त्रालय तथा यू० जी० सी० ने विचार कर डॉ० डॉ० एस० काठारा का अध्यक्षता में एक समिति नियुक्ति का जो पत्राचार पाठ्यक्रम को कुछ चुने विश्वविद्यालयों में प्रारम्भ करने की सम्भावना की जांच करे। परिणामतः सर्वप्रथम 1962 में दिल्ली विश्वविद्यालय में दूरस्थ शिक्षा प्रारम्भ की गई। बीसवीं शताब्दी के छठवें दशक में पत्राचार शिक्षा के 5 संस्थान स्थापित किए गए। वे संस्थान थे दिल्ली (1962), पंजाब (1968), राजस्थान (1969), मेरठ (1969) तथा मसूर (1969)। सातवें दशक में 17 विश्वविद्यालयों ने यह कार्यक्रम प्रारम्भ किया।

भारत का प्रथम खुला विश्वविद्यालय सन् 1982 में आन्ध्र प्रदेश में खोला गया। 1985 में इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय खुले विश्वविद्यालय का शुभारम्भ हुआ। इसके पश्चात् अन्य कई राज्यों में खुले विश्वविद्यालय का शुभारम्भ हो गया है।

दूरस्थ शिक्षा में जनसंचार के साधन अथवा मास मीडिया (Mass Media)—

दूरस्थ शिक्षा का सशक्त माध्यम जनसंचार के साधन हैं। ये साधन जितने प्रभावी व कुशल होंगे उतनी ही दूरस्थ शिक्षा प्रभावी होगी। ये साधन दूरस्थ शिक्षा की रोड़ की हड्डी के समान है। ये साधन ही शिक्षण के लिए गतिशील परिवेश तैयार करते हैं। लक्ष्यों, विषय वस्तु तथा स्वरूप को विविधता संचार माध्यमों पर ही निर्भर करती है।

इन माध्यमों का प्रमुख लक्ष्य शिक्षार्थी को प्रभावपूर्ण ढंग से सोखने में अधिकतम सहायता प्रदान करना होता है। दूरस्थ शिक्षा के लिए निम्नलिखित साधनों का प्रयोग किया जाता है।

(1) परम्परागत माध्यम- इसके अन्तर्गत मुद्रित सामग्री आती है। उदाहरणार्थ- मुद्रित व्याख्यान, पैम्फलेट, हैण्डबुक्स, मैनुअल्स तथा पुस्तकें। भारत में अधिकांशत: इनका प्रयोग किया जाता है। इनका प्रयोग अधिक मितव्ययी होता है। (2) आधुनिक जनसंचार के साधन- इनमें आधुनिक संचार प्रौद्योगिकी का प्रयोग किया जाता है। इनको निम्न दो वर्गों में विभाजित कर सकते हैं –

(अ) शिक्षक द्वारा निर्मित तथा स्वसंचालित- इसके अन्तर्गत स्लाइड्स, संश्लेषित स्लाइड्स तथा टेप्स, स्लाइड टिप्पणी, अभ्यास पुस्तिका, श्रव्य कैसेट्स, ट्रान्सपरेन्सीज तथा टेलीफोन टीचिंग सम्मिलित होते हैं।

(ब) विद्वानों तथा तकनीकी विशेषज्ञों द्वारा निर्मित- इसके अन्तर्गत रेडियो प्रसारण, मोशन पिक्चर्स दूरदर्शन के कार्यक्रम, वीडियो कैसेट्स, इलेक्ट्रॉनिक पुस्तकें आदि आतो हैं।

जनसंचार के साधनों के प्रयोग में समस्याएँ- जनसंचार के साधनों की व्यवस्था देश में की जाती रही है परन्तु उपलब्ध साधनों का उपयोग उचित ढंग से नहीं हो पा रहा है। इसके भाग निम्नलिखित समस्याएँ हैं-

(1) भाषा समस्या – दूरदर्शन के अधिकांश कार्यक्रम अंग्रेजी व हिन्दी में आते हैं। बहुत बड़ी संख्या में छात्र इन भाषाओं को नहीं समझ पाते। (2) रेडियो व दूरदर्शन का शैक्षिक प्रयोग अधिकांश प्रभारी कार्यकर्त्ता नहीं कर पाते। उन्हें समुचित प्रशिक्षण प्रदान नहीं किया जाता है। (3) रेडियो तथा दूरदर्शन के कार्यक्रमों में अपर्याप्त पाठ्य-वस्तु का समावेश होता है। इनमें समावेशित विषय-वस्तु अत्यन्त निम्न स्तर की होती है। (4) भारतीय छात्रों का सामाजिक-आर्थिक स्तर अत्यन्त निम्न होता है। वे दृश्य-श्रव्य कैसेट्स की व्यवस्था नहीं कर पाते। (5) बहुत कम संख्या में छात्रों को रेडियो व दूरदर्शन की सेवाएँ उपलब्ध हो पाती है। (6) जब तक इन समस्याओं को हल नहीं किया जाएगा तब तक दूरस्थ शिक्षा का लाभ छात्रों को प्राप्त नहीं हो सकता।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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