सामान्य ज्ञान / General knowledge

ऊर्जा संकट | Energy crisis in Hindi | ऊर्जा संकट के कारण | ऊर्जा संकट से बचने के उपाय

ऊर्जा संकट | Energy crisis in Hindi | ऊर्जा संकट के कारण | ऊर्जा संकट से बचने के उपाय

ऊर्जा संकट (Energy crisis) का आशय

ऊर्जा आर्थिक विकास का आधार है। कोई भी देश तब तक उन्नति नहीं कर सकता जब तक उसके पास ऊर्जा के पर्याप्त संसाधन न हों। मानव प्राचीन काल से ही ऊर्जा का प्रयोग कर रहा है। पहले जनसंख्या कम थी और मानव की आवश्यकताएं सीमित थीं परन्तु समय बीतने के साथ जनसंख्या में वृद्धि हुई और मानव आवश्यकताएं भी बढ़ने लगीं। 18वीं शताब्दी के अन्त तथा 19वीं शताब्दी के आरम्भ में इंग्लैण्ड के अन्दर औद्योगिक क्रान्ति आई जिसका प्रभाव शीघ्र ही विश्व के अन्य क्षेत्रों में फैल गया। परिणामस्वरूप विश्व के विभिन्न भागों में औद्योगिक विकास होने लगा और ऊर्जा की माँग बढ़ने लगी। औद्योगीकरण के साथ-साथ नगरीकरण तथा परिवहन के साधनों में वृद्धि हुई तथा ऊर्जा की माँग के विभिन्न प्रकार के ऊर्जा स्रोतों का प्रयोग किया गया है, जिन्हें निम्नलिखित दो मुख्य वर्गों में बाँटा जाता है।

(i) नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत

(ii) अनवीकरणीय ऊर्जा स्रोत

चूंकि हमारी निर्भरता मुख्यत: अनवीरणीय ऊर्जा स्रोत है अत: ऊर्जा संकट हो गया।

ऊर्जा संकट के कारण

आधुनिक युग में आर्थिक उन्नति तेजी कसे हो रही है और ऊर्जा की माँग में अभूतपूर्व वृद्धि हो रही है। अधिकांश क्षेत्रों में ऊर्जा की माँग उसकी आपूर्ति से कहीं अधिक है और विश्व भर में ऊर्जा संकट पैदा हो गया है।

भाप के इंजन के आविष्कार से कोयले की माँग बढ़ने लगी और 19वीं शताब्दी में विश्व की 90% ऊर्जा कोयले से ही प्राप्त होती थी परन्तु अब कोयले के बहुत-से भण्डार समाप्त हो गए हैं और पेट्रोलियम, प्राकृतिक गैस, जलविद्युत तथा परमाणु ऊर्जा का प्रयोग अधिक होने लगा है। इसके परिणामस्वरूप कोयले का सापेक्षिक महत्त्व कम हो गया है और अब यह विश्व की केवल 40% ऊर्जा ही प्रदान करता है। जिन क्षेत्रों में कोयले का बड़े पैमाने पर प्रयोग हुआ है वहाँ पर कोयले के भण्डार लगभग समाप्त हो चुके हैं या समाप्त होने वाले हैं। उनमें संयुक्त राज्य अमेरिका का अप्लेशियन क्षेत्र, ग्रेट ब्रिटेन के अधिकांश कोयला क्षेत्र, यूरोपीय महाद्वीप के रूर, सार, से क्सोनी क्षेत्र, डोनेट्स बेसिन, कुजनेट्स बेसिन, कारागंडा बेसिन, पेचोरा बेसिन, चीन व भारत के कुछ क्षेत्र, जापान के अधिकांश क्षेत्र आदि हैं। अत: आज के विश्व में कोयले की माँग इसकी आपूर्ति से कहीं अधिक है और कोयले की ऊर्जा का संकट पैदा हो गया है। आशंका है कि यदि इसी गति से कोयले का प्रयोग बढ़ता गया तो विश्व के समस्त कोयला भण्डार आने वाले सौ वर्षों में समाप्त हो जाएँगे।

पेट्रोलियम का उपयोग तब शुरू हुआ जब 1859 ई. में संयुक्त राज्य अमेरिका के टिटस्विले में तेल का उत्पादन शुरू हुआ। शीघ्र ही अप्लेशियन तथा संयुक्त राज्य अमेरिका के अन्य क्षेत्रों में तेल का उत्पादन शुरू हो गया औरऊर्जा के स्रोत में तेल का महत्त्व बढ़ गया। अब इस देश के बहुत-से तेल भण्डार प्रयोग किए जा चुके हैं। 20वीं शताब्दी के प्रारम्भिक चरणों में मध्य-पूर्व में तेल के भण्डारों की खोज हुई और प्रथम विश्वयुद्ध के बाद यह विश्व का ही सबसे महत्त्वपूर्ण उत्पादक क्षेत्र बन गया। कालान्तर में तेल ऊर्जा का महत्वपूर्ण एँ स्त्रोत बन गया और विश्व की राजनीतिक गतिविधियों में मध्य-पूर्व के देशों का महत्त्व बहुत अधिक हो गया| अब स्थिति यह है कि अरब राष्ट्रा के हाथ में खनिज तेल एक आश्चर्यजनक भू-राजनीतिक हथियार है जिसके द्वारा वे शक्ति प्रदर्शन करते हैं। ये देश स्वेच्छा से तेल के उत्पादन में कमी या वृद्धि करके तेल की कीमतें निश्चित करते हैं और विश्व की अर्थव्यवस्था को प्रभावित करते हैं। तेल की आपूर्ति के सन्दर्भ में संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे शक्तिशाली देश को भी इन देशों के आगे झुकना पड़ता है। ये देश किसी भी देश को तेल वेचना बंद करके उस देश के लिए ऊर्जा संकट पैदा कर सकते हैं।

1973 में पेट्रोलियम निर्यातक देशों के संगठन ने तेल का मूल्य 51.5 प्रति बैरल से बढ़ाकर 57 प्रति बैरल कर दिया। इसका कारण यह दिया कि अन्य वस्तुओं के दाम बढ़ गए हैं और सीमित भण्डारों के समाप्त होने तक ये देश अधिकतम लाभ कमाना चाहते हैं। इससे विश्व के कई देशों में ऊर्जा संकट पैदा हो गया और भारत जैसे विकासशील देशों को कुल आयात का तीन-चौथाई धन तेल के आयात पर खर्च करना पड़ा। 1981 में तेल की कीमतें 20 प्रति बैरल थीं परन्तु उससे पहले ये 34 तक पहुँच चुकी थीं। 1991 में फिर तेल की कीमतें बढ़ गईं और जुलाई, 2008 में तेल की कीमतें अपनी चरम सीमा 147 प्रति बैरल तक पहुँच गईं। इससे विश्व भर में ऊर्जा संकट जनित आर्थिक संकट पैदा हो गया क्योंकि बहुत-से विकासशील देशों के पास महँगा तेल खरीदने के लिए पर्याप्त विदेशी मुद्रा नहीं थी। इससे तेल की ब्रिकी में कमी आ गई। उत्पादक देशों के पास ब्रिकी योग्य तेल के भण्डार जमा हो गए और तेल की कीमतें 2009 में 37 प्रति बैरल तक गिर गईं।

उपरोक्त विवरण से यह स्पष्ट होता है कि विश्व में तेल की आपूर्ति तथा उसकी कीमतों में परिवर्तन आने से ऊर्जा संकट प्रायः पैदा होता रहता है। वैसे भी ऊर्जा की बढ़ती माँग तथा सीमित आपर्ति के कारण विश्व में ऊर्जा संकट भयानक रूप धारण कर गया है। अनुमान है कि विश्व में ऊर्जा की मॉँग तथा आपूर्ति में लगभग 15% का अन्तर रहता है। कुछ देशों की माँग इतनी अधिक हो गई है कि वहाँ पर उपलब्ध ऊर्जा संसाधन मॉँग का आधा भाग भी पूरा नहीं कर पाते। भारत में ऊर्जा की माँग, इसकी आपूर्ति से लगभग 14% अधिक है।

ऊर्जा संकट से बचने के उपाय

ऊर्जा संकट को दूर करने के लिए निम्नलिखित सुझाव दिए जाते हैं।

  1. विश्व में अब अधिकांश ऊर्जा कोयले से प्राप्त होती है। कोयले के प्रयोग से पर्यावरण प्रदूषण होता है और निरन्तर प्रयोग से कोयले के भण्डारों का ह्यस होता है। अत: कोयले का प्रयोग करने से पहले उसे परिष्कृत किया जाए और कोयले का प्रयोग करने वाली प्रौद्योगिकी में सुधार किया जाए।
  2. कोयले के तरलीकरण के लिए अधिक उपयुक्त प्रौद्योगिकी का विकास किया जाए ताकि कम कोयले से अधिक लाभ उठाया जा सके।
  3. कोयला खदानों में आग लगने से बहुत-सा कोयला नष्ट हो जाता है। ऐसी दुर्घटनाओं को रोकने और कम करने की आवश्यकता है।
  4. ऊर्जा के स्त्रोतों के रूप में खनिज तेल तथा प्राकृतिक गैस का महत्त्व निरन्तर बढ़ रहा है। इनके भण्डार भी सीमित हैं। जिस गति से तेल के प्रयोग में वृद्धि हो रही है तथा उसके हिसाब से आने वाले लगभग 50 वर्षों में विश्व के तेल भण्डार समाप्त हो जाएँगे। अत: तेल के संरक्षण की आवश्यकता बहुत अधिक है। तेल के नए क्षेत्रों की खोज की जाए तथा अन्तरदहन इंजन में सुधार सहित तेल की चालक क्षमता को बढ़ाया जाए। विश्व की वाहन निर्माण कम्पनियाँ मोटर उद्योग में निरन्तर शोध कार्य कर रही हैं जिससे कम तेल की खपत करके अधिक दूरी तय करने वाले वाहनों का निर्माण हो सके।
  5. परमाणु ऊर्जा के स्रोत भी सीमित हैं हालाँकि इनका भविष्य उज्ज्वल है। इसके लिए उच्च कोटि की प्रौद्योगिकी की आवश्यकता होती है और प्राय: भयंकर दुर्घटनाएँ भी हो जाती हैं। 1986 में तत्कालीन सोवियत संघ के चेरनोबिल के परमाणु रिएक्टर में खराबी आ जाने से भारी क्षति हुई थी। अत: इसके उत्पादन में उच्च कोटि की प्रौद्योगिकी की आवश्यकता होती है जो काफी महँगी होती है।
  6. ऊर्जा के परम्परागत र्रोतों (कोयला, तेल, गैस) के स्थान पर गैर-परम्परागत स्रोत (सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, ज्वारीय ऊर्जा, भूतापीय ऊर्जा आदि) के प्रयोग को अधिक प्रोत्साहन देना चाहिए। ये ऊर्जा के असमाप्य संसाधन हैं और इनसे पर्यावरण का प्रदूषण भी नहीं होता। परन्तु इन संसाधनों का उपयोग करने के लिए सस्ती एवं उपयोगी प्रौद्योगिकी का विकास नहीं हो पाया। इस दिशा में प्रगति होने पर ऊर्जा संकट को काफी हद तक दूर किया जा सकता है।
  7. विकसित देशों द्वारा प्राकृतिक संसाधनों में समृद्ध विकासशील देशों को ऊर्जा संसाधनों के कुशल प्रयोग के लिए वित्तीय एवं तकनीकी सहायता देनी चाहिए। इससे प्राकृतिक संसाधनों का न्यायोचित उपयोग होगा, ऊर्जा संकट कम होगा और प्रादेशिक असन्तुलन को दूर करने में सहायता मिलेगी।
  8. आर्थिक विकास एवं जनसंख्या वृद्धि में असन्तुलन स्थापित करके भी ऊर्जा संकट की समस्या को काफी हद तक हल किया जा सकता है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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