इतिहास / History

हड़प्पा तथा वैदिक सभ्यता के मध्य अंतर्संबंध | Interrelationship between Harappan and Vedic civilization in Hindi

हड़प्पा तथा वैदिक सभ्यता के मध्य अंतर्संबंध | Interrelationship between Harappan and Vedic civilization in Hindi

हड़प्पा तथा वैदिक सभ्यता के मध्य अंतर्संबंध

हड़प्पा तथा वैदिक सभ्यताओं का अन्तर्सम्बन्ध भारतीय इतिहास के सबसे चर्चित विषयों में से एक है। विद्वानों के पूर्वाग्रहों से प्रसित यह विषय इतना जटिल हो गया है कि इसका उल्लेख सहज नहीं है, अतः हमें कुछ उन मान्यताओं पर भी पुनः विचार करना आवश्यक है जो आधुनिक पीढ़ी को विरासत में मिले हैं। वे इतने अधिक मान्य हो चुके हैं कि उन पर पुनर्विचार भी करना कठिन हो जाता है।

हड़प्पा सभ्यता के सम्बन्ध में प्रायः यह मान्य धारणा है कि हड़प्पा सभ्यता का उद्भव तथा विनाश 2300 से 1750 ईसा पूर्व के काल कोष्ठक में हुआ था। यदि हम इस कोष्ठक को और विस्तृत करें तो इसे 2500 से 1500 ई०पू० तक बढ़ा सकते हैं। यह धारणा थी कि ये लोग द्राविण (अनार्य) थे तथा इनका विनाश भारत में आर्यों के आगमन के फलस्वरूप हुआ, जिन्होंने इनके दुर्गों को नष्ट किया तथा उनको दक्षिण की ओर खदेड़ दिया।

उपर्युक्त धारणा का विकास कैसे हुआ उसे भी सम्पूर्ण समस्या के निराकरण के लिए समझना आवश्यक होगा।

हड़प्पा सभ्यता की खोज के बहुत पूर्व 1889 में ऋग्वेद का अनुवाद करते समय ग्रिफिथ महोदय ने एक पाद टिप्पणी में निम्नलिखित टिप्पणी की थी-

(i) आर्यों ने पश्चिमोत्तर से आकर भारत के मूल निवासियों के दुर्ग तोड़े, उनकी सम्पत्ति लूटी।

(ii) मूल निवासी अधिक सभ्य थे, वे दुर्गों में रहते थे।

(iii) आक्रान्ता आर्य पशुचारण स्थिति में ही थे।

उपर्युक्त उक्तियाँ तत्कालीन राजनीतिक परिवेश (उपनिवेशवाद) के आधार पर ऋग्वेद के आन्तरिक साक्ष्यों की समीक्षा के आधार पर की गई थी। यहाँ पर यह कहना असंगत नहीं होगा कि इतिहास की व्याख्या को समय-समय पर तत्कालीन राजनीतिक परिवेश प्रभावित करता रहा है।

यह उल्लेख्य है कि 1889 तक हड़प्पीय पुरास्थलों अथवा सभ्यता के सम्बन्ध में कुछ भी ज्ञात नहीं था। सर्वप्रथम 1920-21 में हड़प्पा तथा मोहनजोदडों के पुरास्थल प्रकाश में आए। वहाँ पर हुए उत्खननों से ज्ञात हुआ कि इनकी सभ्यता अत्यन्त विकसित थी। ये दुर्गों में रहते थे। इस ज्ञान ने ग्रिफिथ की दूसरी तथा तीसरी उक्ति को बल प्रदान किया। ग्रिफिथ की बात को ही प्रामाणिक मानकर तत्कालीन लगभग सभी पाश्चात्य विद्वान् तथा उनसे प्रभावित भारतीय विद्वान भी अपनी धारणायें बनाने लगे।

हड़प्पीय नगरों के आकस्मिक विनाश के कारणों की खोज के समय पुनः विद्वानों का ध्यान ग्रिफिथ महोदय की उक्ति ने आकर्षित किया। उन्होंने उल्लेख किया था कि आर्यों ने पश्चिमोत्तर से आकर भारत के मूल निवासियों के दुर्गों को ध्वस्त किया। 1934 में गार्डन चाइल्ड ने यद्यपि आर्यों के भारत में आने की बात तो स्वीकार की, किन्तु हड़प्पा के विघटन के लिए आर्य ही उत्तदायी थे वे इस सम्बन्ध में आश्वस्त नहीं थे। उनके अनुसार हड़प्पा के विनाश तथा आर्यों के भारत आगमन में अन्तराल था। पुनः मार्शल, जिनके निर्देशन में हड़प्पीय स्थलों पर उत्खनन हुआ था ने भी आर्यों के आगमन के तथ्य को स्वीकारा किन्तु  उनके विनाश के लिये आर्यों को उत्तरदायी नहीं बताया। उनके अनुसार आर्यों के प्रवेश के पूर्व ही उनका विघटन सम्पन्न हो चुका था। मैके भी आर्यों को हडप्पीय नगरों का विध्वंसक नहीं मानते थे। किन्तु व्हीलर, जो हड़प्पा के उत्खनन से सम्बन्धित थे, ने इन्द्र को हड़प्पीय दुर्गों एवं नगरों के विनाश के लिए उत्तरदायी बताया। उनके मत का आधार था-

(i) मोहनजोदड़ो में कुछ अस्त-व्यस्त कंकालों का मिलना,

(ii) सिमेन्टरी – H में ऐसे कब्रिस्तान का मिलना जो सिमेटरी – R-37 से भिन्न थे, सिमेटरी-H के कंकाल आक्रमणकारियों के कंकाल माने गए,

(iii) द्वितीय सहस्राब्दी ई०पू० में पश्चिमी एशिया में विभिन्न प्रजातियों का संचरण ।

व्हीलर का मत तत्कालीन परिप्रेक्ष्य में बहुत महत्वपूर्ण था, क्योंकि तत्कालीन अधिकांश भारतीय विद्वान व्हीलर के शिष्य थे और किसी में भी साहस नहीं था कि उनके मत का विरोध कर सकें। अधिकांश विद्वान व्हीलर के मत को मानकर उसकी पुष्टि के लिए.तथ्यों को जुटाने में लग गए, यद्यपि पुरातात्विक दृष्टि से व्हीलर का मत पुष्ट नहीं किया जा सकता था। हम यह देख चुके हैं कि बाह्य आक्रमण के द्वारा हड़प्पा के विनाश का मत सर्वथा अमान्य है। प्रथमतः मोहनजोदडों के कंकालों के अध्ययन से स्पष्ट है कि उन पर हताहत होने के कोई भी प्रमाण नहीं थे। दूसरे, तथाकथित हमलावर कभी भी हड़प्पीय लोगों के सम्पर्क में नहीं आए। तीसरे, सभी कंकाल हड़प्पा के अन्तिम स्तर में नहीं मिले थे। यह सहज बोधगम्य नहीं है कि व्हीलर सदृश पुरातत्त्ववेत्ता ने पुरातत्व के साधारण तथ्यों को कैसे अनदेखा कर दिया। इससे प्रतीत होता है कि वे निश्चित रूप से पूर्वाग्रहयुक्त थे।

व्हीलर के उपर्युक्त मत के फलस्वरूप अनेक गम्भीर परिणाम हुए :

(i) आर्यों का प्रजाति स्वरूप मान लिया गया तथा आर्य जिनका सम्पूर्ण अस्तित्व भाषा विज्ञान पर आधारित था और जो साहित्य ही में सीमित थे, उनके मूर्तिकरण का प्रयास होने लगा। उनके पुरातात्विक साक्ष्यों अथवा भौतिक अवशेषों को ढूढ़ने का प्रयास किया जाने लगा। फलतः जो भी आद्यैतिहासिक सभ्यताएँ प्रकाश में आ रही थीं उन सभी को समय- समय पर आर्यों से सम्बन्धित किया जाने लगा तथा ऐसा लगने लगा कि भारत में जो कुछ भी है वह विदेशी आक्रान्ताओं द्वारा ही लाया गया है

गार्डन चाइल्ड तथा व्हीलर ने सिमेटरी H को आर्यों से सम्बन्धित किया, सांकालिया ने मालवा सभ्यता को तथा हेन गिल्डर्न ने ताम्रनिधियों को। इसी प्रकार से प्रोफेसर बी०बी०लाल तथा जी०आर०शर्मा ने चित्रित धूसर मृदभाण्डों (Painted Grey Ware) को आर्यों से सम्बन्धित किया। इस प्रकार इस मान्यता ने, भारत में पुरातात्विक शोध को दिग्भ्रमित करके अपूर्व हानि पहुंचाई, जिसका निराकरण अभी भी नहीं हो सका है। कालान्तर में शोधों से यह स्पष्ट हो चुका है कि ये सभी अवधारणायें अब गलत सिद्ध हो चुकी हैं। आर्यों के जाति स्वरूप की अवधारणा ही विद्वानों में मान्य नहीं है। भाषा विज्ञान के जिस सिद्धान्त पर यह आधारित थी अब वही आमान्य हो गया है। भाषा तथा प्रजाति वर्ग में कोई उत्पत्ति जन्य सम्बन्ध है, इसे अब कोई भी नहीं मानता।

(ii) व्हीलर के मत का दूसरा महत्वपूर्ण परिणाम यह हुआ कि इसने हड़प्पा सभ्यता तथा वैदिक सभ्यता के कालानुक्रम को भी निश्चित कर दिया अर्थात् अब यह निश्चित रूप से माना जाने लगा कि हड़प्पा सभ्यता से वैदिक सभ्यता पर्वर्ती है।

(iii) इसका तीसरा परिणाम यह हुआ कि वैदिक आर्यों की प्राचीनतम तिथि 1500 ई०पू० के लगभग निर्धारित कर दी गई। और हड़प्पा सभ्यता तथा वैदिक सभ्यता एक दूसरे से सर्वथा भिन्न मान ली गई।

उपर्युक्त बिन्दुओं पर यदि ध्यानपूर्वक देखा जाए तो ज्ञात होता है कि इन सबका आधार बिन्दु आर्य-प्रजाति की मान्यता है। इसलिए इस प्रश्न पर भी विचार करना आवश्यक हो जाता है कि आर्य कौन थे? ये वास्तविकता में कोई प्रजाति थे अथवा कल्पना मात्र हैं? इनकी क्या अवधारणा है? इन प्रश्नों पर स्थानाभाव के कारण यहाँ पर विचार करना सम्भव नहीं है। यह पहले ही संकेत किया जा चुका है कि आर्य जाति की अवधारणा अब मान्य नहीं है। उनके सम्बन्ध में ऐसे कोई भी पुरातात्विक साक्ष्य नहीं है जिनके द्वारा उन्हें किसी भी भारतीय आद्यैतिहासिक सभ्यता से सम्बन्धित किया जा सके। उनके भौतिक स्वरूप की जो परिकल्पना की गई थी उसकी पुष्टि भी यहाँ से प्राप्त कंकालों के अस्थि अवशेषों के अध्ययन से नहीं होती है। हड़प्पा सभ्यता के विघटन के लिए आर्य उत्तरदायी थे तथा निर्मिल सिद्ध हो चुकी है। इसके साथ ही साथ व्हीलर महोदय द्वारा प्रस्तावित अवधारणा के तथ्यहीन हो जाने पर वैदिक आर्यों तथा हड्प्पा सभ्यता के अन्तर्सम्बन्ध का प्रश्न पुनः उभकर सामने आता है। इस सन्दर्भ में राव (1973) अलचिन तथा अलचिन (1968) और केन्डी० बाजपेयी की विचारधारा भी विचारणीय है। राव तथा आलोचन हड़प्पा तथा वैदिक सभ्यता को एक ही सिक्के के दो पहलू मानते हैं। इधर अनेक विद्वानों की धारणायें भी इसी के पक्ष में बनने लगी हैं। इनमें लाल, बिष्ट, स्वराज प्रकाश गुप्त आदि के नाम प्रमुख है। बाजपेयी दोनों को देशज मानते हुए भी विभेद करते हैं। वे हड़प्पा सभ्यता को वैदिक सभ्यता से भिन्न मानते हैं।

उपर्युक्त मतों पर विचार करने के लिए वैदिक सभ्यता तथा हड़प्पा सभ्यता की कुछ प्रचलित अवधारणाओं पर पुनर्विचार एवं समीक्षा आवश्यक है

प्रचलित धारणाओं के अनुसार दोनों सभ्यताओं की कुछ विभिन्नतायें हैं। हड़प्पा नगरीय तथा वैदिक ग्रामीण सभ्यता मानी जाती है, जिसके फलस्वरूप दोनों ही जीवन पद्धति एवं अर्थव्यवस्था में अन्तर था। वैदिक आर्य भारत में आने के पूर्व बर्बर तथा संचरणशील थे। वे मध्य एशिया, इरान के पठारी प्रदेशों में चरागाह की खोज में विचरण करते थे। उनके जीवन का मूलाधार पशुपालन, खेती तथा लूटपाट था। उनकी सभ्यता में घोड़े का विशेष स्थान था। सिंधु क्षेत्र में प्रवेश के बाद उन्होंने इन्द्रदेव, के दैवी निर्देशन में अनार्यों के समृद्धशाली नगरों को ध्वस्त कर दिया। उनके लिए दास, दस्यु, पणि, असुर, अमित्र, शत्रु आदि विशेषणों का प्रयोग किया गया है। उन्हें, कृष्ण, त्वचा, अनास कहा गया है। इसी प्रकार से उन्हें शिश्नदेव, देवनिद, अनिन्द्र आदि नामों से अभिहित किया गया है। हड़प्पा के लोग किसी प्रकार के मन्दिर तथा मूर्ति का पूजन करते थे। वे मातृ देवी तथा लिंग और योनि को भी पूजते थे। पुनः ऐसी धारणा थी कि आर्य नगर जीवन से अनभिज्ञ थे। वे विशाल किलेबन्दी, विशाल वास्तु शिल्पीय संरचनाओं, जटिल वाणिज्य व्यापार, समुद्रीय यात्राओं से भी अपिरिचित थे। आर्यों की धार्मिक विचारधारायें भी बहुत साधारण थीं। वे प्रकृति पूजक थे। प्राकृतिक शक्तियों में ही उन्होंने देवत्व की अवधारणा की थी। इसके विपरीत हड़प्पीय सभ्यता अत्यन्त विकसित थी। उनकी प्रत्येक वस्तु में मानकीकरण (Standardization) था। उनकी नगर योजना अत्यन्त उन्नत, विशालकाय भवन, मुहरें, लिपि बाट-बटखरें, मृदभाण्डकला, कला, आभूषण आदि में मानकीकरण दिखाई पड़ता है। उनकी सभ्यता अत्यन्त विकसित थी किन्तु वे घोड़े से अपिरिचित थे। इसके अतिरिक्त उनके विशाल  साम्राज्य में लगभग सभी महत्वपूर्ण क्षेत्रों में समरूपता, वाणिज्य व्यापार का देशीय तथा बाह्य क्षेत्रों में प्रसार, समुद्रीय व्यापार का विकास तथा बाह्य देशों से सम्पर्क आदि इस सभ्यता को एक विशिष्टता प्रदान करते हैं जो तत्कालीन किसी भी सभ्यता को प्राप्त नहीं था।

उपर्युक्त धारणायें जिस समय बनी थीं, उस समय तक हड़प्पा तथा वैदिक सभ्यताओं के स्वरूप की सम्यक् जानकारी नहीं थी। व्हीलर की इस अवधारणा ने कि हड़प्पा के विनाश के लिए आर्य आक्रान्ता उत्तरदायी थे, सम्पूर्ण परिप्रेक्ष्य को ही बदल दिया और सभी दिक्भ्रमित हो गए। हम यह पहले ही देख चुके हैं कि व्हीलर के उपर्युक्त मत को मानने के लिए किसी भी प्रकार का पुरातात्विक साक्ष्य नहीं है। भाषा एवं प्रजाति के उत्पत्ति जन्य सम्बन्ध भी निराधार सिद्ध हो चुके हैं। इसके अतिरिक्त पंजाब क्षेत्र से तथा अन्य हड़प्पीय क्षेत्रों से प्राप्त जो कंकालों के अवशेष प्राप्त हुए हैं, उनके अध्ययन से भी इस तथ्य की पुष्टि नहीं होती है कि भारत में किसी नवीन प्रजाति वर्ग का प्रवेश हुआ था। द्रविण तथा मेडीटरेनियन प्रजाति वर्गो की कल्पना, कल्पना से अधिक कुछ भी नहीं थी। इसकी पुष्टि गंगाघाटी, तथा गुजरात के मध्यपाषाण युगीन कंकालों के अध्ययन से भी होता है। इस समय से लेकर अब तक प्रजाति वर्गों में कोई अन्तर नहीं मिलता।

हड़प्पीय सभ्यता के प्रसार क्षेत्र के सम्बन्ध में पुरातात्विक साक्ष्यों से प्रकाश पड़ता है तथा उसके आधार पर हम निश्चित रूप से उनके अधिकार क्षेत्र का निरूपण कर सकते हैं। हम यह देख चुके हैं कि पश्चिम में इनका प्रसार मकरान तट तथा पूर्वी बलूची पर्वत श्रृंखलाओं से लेकर पूर्व में ऊपरी यमुना के मैदानी क्षेत्रों तक तथा उत्तर में शिवालिक की पाद पहाड़ियों से लेकर दक्षिण में अरब सागर तक था। इसमें गुजरात का कच्छ तथा महाराष्ट्र की तापी घाटी तथा डेक्कन में ऊपरी गोदावरी घाटी भी सम्मिलित थी।

इसी प्रकार से वैदिक साक्ष्यों के आधार पर वैदिक सभ्यता के प्रसार क्षेत्र का यदि निरूपण करें तो दोनों का प्रसार क्षेत्र लगभग समान था। नदी सूक्त, में नदियों का उल्लेख पूर्व से पश्चिम दिशा के आधार पर किया गया है। इसी गणना में गंगा तथा यमुना के बाद सरस्वती शुतद्री, परसुणी, असिकनी, मरुवदवृद्धा, वितस्ता, आर्जिकीय, सुसामा, तृष्टमा, रसा, श्वेत्या, सिंधु, कुभा, गोमती क्रम, तथा मेहतनु का उल्लेख आता है। इसमें गंगा, यमुना, सरस्वती के बाद पंजाब की नदियों का उल्लेख है तथा उसके बाद अफगानिस्तान का। उसके बाद मूजवंत पर्वत तथा वाल्हीक प्रदेश रेगिस्तान के दूसरे छोर पर है। सभी नदियाँ समुद्र तक जाती हैं। गोविन्द चन्द्र पाण्डे (पाण्डे जी०सी० 1999 पृ0 557) का मत है कि पूर्व वैदिक काल का भौगोलिक क्षेत्र तथा सिंधु सभ्यता का भौगोलिक क्षेत्र लगभग समान था। यह उल्लेख्य है कि इस सम्पूर्ण क्षेत्र में (जिसका उल्लेख वैदिक साहित्य में मिलता है) हड़प्पा सभ्यता के अतिरिक्त किसी अन्य सभ्यता के अवशेष नहीं मिलते हैं।

पूर्ववर्ती विद्वानों ने ऋग्वैदिक सभ्यता को समझने तथा उसको निरूपित करने में भयंकर भूल की थी। उसके ग्रामीण परिवेश को आवश्यकता से अधिक महत्व दिया गया था। वैदिक लोगों को मात्र खेतिहर पशुचारण अवस्था में रहने वाले, बर्बर एवं संचरणशील कहा, जो उचित नहीं था। वैदिक साहित्य में पुर, दुर्ग समुद्र-यात्रा, व्यापार आदि के अनेक विवरण मिलते हैं जो नगरीय सभ्यता का संकेत करते हैं। ऋग्वेद में विविध प्रकार के समुद्रीय जहाजों ‘तिरवनधुर’- तीन पालोंवाले तथा 10 अथवा 100 चप्पू वाले जहाजों का उल्लेख मिलता है। कारीगरों को वैदिक समाज में उन्नत स्थान प्राप्त था। कुछ व्यवसायों का तो दैवीकरण (Deification) कर दिया गया था जैसे अश्विन (Surgeon), त्वस्ता (Carpenter), रूद्र (Physician), वरुण (Nevigator), विश्वरूप (Potter/fabrication) आदि। इसी प्रकार से ऋग्वैदिक वांगमय में तकनीकी शब्द भरे पड़े हैं। इसी प्रकार से राजनैतिक संगठन से सम्बन्धित शब्द राष्ट्र, राजा, ज्येष्ठ राज, सम्राट, संसद, सभा समिति, दूत निधापति आदि शब्द अनेक सन्दर्भो में मिलते हैं जिनसे स्पष्ट है कि न तो वे पूर्णतः पशुचारण व्यवस्था में थे और न पूर्णतया ग्रामीण ही थे।

विद्वानों ने आर्यों को केवल दुर्गों को ध्वंस करने वाला ही दर्शित किया है। इसका दूसरा पक्ष कि उनके पास स्वयं दुर्ग तथा नगर थे, इसको किसी ने उजागर नहीं किया। बिष्ट (बिष्ट, आर०एस० 1999 पृ० 410) ने ऋग्वेद से कई उदाहरणों का उल्लेख किया है जिससे ज्ञात होता है कि आर्यों के भी अनेक प्रकार के दुर्ग थे। वे विश्वे देवा तथा अग्नि से धातु के समान मजबूत तथा अभेद्यपुर के लिए प्रार्थना करते हैं। इन्द्र अनेक ‘आयसी पुरों’ से सुरक्षित था। उसे पुरपति कहा गया है। इसी प्रकार से अग्नि से अनेक प्रार्थनायें की गई हैं जो इसका प्रमाण हैं कि तथाकथित आर्यों के पुर तथा नगर दोनों ही थे। पुरों के लिए 27 विशेषण मिलते हैं जिसमें से 15 केवल आर्यों के पुरों के लिये प्रयुक्त किए गए हैं। बिष्ट ने यह भी दर्शाने का प्रयास किया है कि ऋग्वेद में ऐसे शब्दों का भी प्रयोग मिलता है जिससे ज्ञात होता है कि आर्य नगर नियोजन से भी पूर्णतया परिचित थे। ऋग्वेद की एक ऋचा में ‘आपथिस’ ‘विपथिस’ अन्तस्पथा, अनुपथा तथा ‘शुभ्रावता पथा- ‘ज्योतिष्मतः पथो’ आदि का उल्लेख मिलता

साथ में चलने वाली सड़कें, शुभ्रावता पथा स्वच्छ अथवा ज्योतिष्मतः प्रकाश युक्त सड़कों का बोध होता है। इसी प्रकार से वैसे शब्द भी मिलते हैं जिससे ज्ञात होता है कि उनके नगर दो, तीन या उससे अधिक सुरक्षा प्राचीर युक्त खण्डों (‘एकल द्विका’ तथा त्रिका’) में विभाजित होते थे जैसा कि हमें हड़प्पीय नगरों के उत्खनन से ज्ञात होता है। ये पकी ईंटों से परिचित थे जिनसे यज्ञ कुण्डों का निर्माण करते थे यह भी उल्लेखनीय है कि कालीबंगा से अनेक अग्नि वेदिकायें प्राप्त हुई थीं तथा उन्हीं के पास कुछ इस प्रकार के प्रमाण भी मिले थे जिनसे पशुबलि प्रथा के प्रचलन का संकेत मिलता है। वैदिक आर्यों के कर्मकाण्ड में अग्नि तथा होम का महत्व सर्वविदित है। वैदिकी लोग, जैसा कि उल्लेख किया जा चुका है नगर नगर जीवन, समुद्रीय वाणिज्य व्यापार आदि सभी से परिचित थे। यद्यपि वे वाणिज्य के निन्दक भी थे। वैदिक ऋषियों को प्रो० पाण्डे (पूर्वाद्धरित पृ० 557) की धारणा है कि जंगल का शांतमय वातावरण अधिक प्रिय था। उनका ध्यान यद्यपि नैतिक तथा आध्यात्मिक मूल्यों पर भौतिक मूल्यों की अपेक्षा अधिक केन्द्रित था तथापि भौतिक सुख सुविधाओं से उन्हें विरोध नहीं था। यह विचारणीय है कि हड़प्पीय नगर सुरक्षा प्राचीर युक्त तो हैं किन्तु युद्ध से सम्बन्धित अस्त्र-शस्त्रों का नितान्त अभाव है जो उनकी शान्तिप्रियता का परिचायक है।

ऋग्वेद समाज भी हड़प्पीय समाज के समान ताबें तथा कांसे से ही परिचित था। उन्हें भी लोहे का ज्ञान नहीं था। ये लोग भी पशुपालन करते थे तथा ग्रामों, सुनियोजित सुरक्षा प्राचीर युक्त नगरों से परिचित थे। प्राक् लौह ताम्र पाषाणिक सांस्कृतिक तथा तकनीकी आधार पर इन्हें 3500 ई०पू० से 1200 ई०पू० के काल कोष्ठक में रखा जा सकता है। खगोलीय गणना (Astronomical Calculations) के आधार पर भी अनेक विद्वान ऋग्वेद का काल चतुर्थ सहस्राब्दि ईसा पूर्व में ले जाते हैं। मैक्समूलर ने ऋग्वेद की रचना की तिथि 1200 ई०पू० के लगभग प्रारम्भ में निर्धारित की थी किन्तु वे स्वयं इस तिथि के सन्दर्भ में पूर्णतया आश्वस्त नहीं थे। उनके अनुसार यह 1000 से 3000 ई०पू० के मध्य कुछ भी हो सकता है।

पश्चिमी एशिया में स्थित बोगाजकुई के अभिलेख में वैदिक देव समूह के इन्द्र, मित्र, नासत्य, वरुण आदि का उल्लेख मिलता है। इस अभिलेख की तिथि 1400 ई०पू० मानी गई है। मूल प्रश्न यह है कि यह अभिलेख इन्द्र, वरुण आदि के पूर्वजों ने कब लिखा । इसकी दो स्थितियाँ हो सकती हैं – प्रथम इस अभिलेख को लिखे के बाद वे भारत आए हो और दूसरा यदि वे भारत में कहीं बाहर से नहीं आए तो भारत से निकलकर पश्चिमी एशिया पहुँचे हो। प्रथम स्थिति के सम्बन्ध में हम देख चुके हैं कि कोई भी पुरातात्विक साक्ष्य इस बात की पुष्टि नहीं करते कि वैदिक लोग कहीं बाहर से आए हों। ऐसी स्थिति में दूसरी सम्भावना ही अधिक बलवती प्रतीत होती है। इसके आधार पर भी वेदों की रचना काल द्वितीय सहस्राब्दी ईसा पूर्व से पहले की ही होनी चाहिए।

वैदिक साहित्यिक साक्ष्यों के अनुशीलन से यह स्पष्ट है कि घोड़ा उनके लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण पशुओं में से था। कुछ समय पूर्व तक ऐसी धारणा थी कि हड़प्पा के लोग इस पशु से अपरिचित थे। उसके अस्थिपंजरों के प्राप्ति का उल्लेख अधिकांश स्थलों के उत्खनन विवरणों में नहीं मिलता और न ही अभी तक कोई ऐसी सील किसी स्थान से प्राप्त हुई है जिस पर घोड़े का चित्रण किया गया हो। इस सम्बन्ध में भी अनेक स्थलों से अब नवीन सामग्री प्राप्त हो रही है। मोहनजोदडो के उत्खनन में मैके को घोड़े की एक टेराकोटा आकृति मिली थी। लोथल से भी घोड़े की आकृति तथा दांत प्राप्त हुआ है।

सुरकोटडा में घोड़े की अनेक अस्थियाँ मिली हैं। कालीबंगा से भी घोड़ा प्रतिवेदित है। पाकिस्तान में नौशारों नामक स्थल से जारिज ने घोड़े की मृणमूर्ति प्रतिवेदित की है। इन तथ्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि हड़प्पा के लोग घोड़े से परिचित थे। यद्यपि, घोड़े के प्रमाण उतने प्रभूत मात्रा में नहीं हैं जितने होने चाहिए। चूँकि इस पक्ष पर विद्वानों का ध्यान अब आकर्षित हुआ अतः यह अनुमान किया जाता है कि इस सम्बन्ध में अब अधिक सूचनायें प्राप्त होगी।

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि हड़प्पीय सभ्यता का विस्तार क्षेत्र तथा वैदिक जनों का प्रभाव क्षेत्र लगभग समान था। वैदिक लोग भी सुनियोजित सुरक्षा प्राचीरयुक्त नगरों से न केवल परिचित थे अपितु उनके भी पुर थे। वे पुरन्दर के साथ-साथ पुरपति भी थे। दोनों का काल कोष्ठक भी लगभग समान था। इन सभी तथ्यों को दृष्टिगत रखकर इस सम्भावना को नकारा नहीं जा सकता कि वे एक ही सभ्यता के दो स्वरूपों का प्रतिनिधित्व करते हैं अथवा एक ही सभ्यता के भिन्न अंग थे। प्रो० के०डी० बाजपेयी दोनों को देशज मानते हुए एक को आर्य तथा दूसरे को अनार्य (वर्मा, आर०के० (सम्पा०) Aryans – A Myth or Reality) मानते थे। बिष्ट तथा गुप्त दोनों को एक ही मानते हैं। प्रो० पाण्डे इस सम्भावना को नकारते नहीं (प्रो० पाण्डे, जी०सी० 1999 40 558) हैं, किन्तु उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर प्रश्न को प्रायः अनिर्णीत ही मानते हैं।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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