इतिहास / History

संगम संस्कृति | तमिल संस्कृति | संगम संस्कृति का प्रशासनिक संगठन तथा अवस्था

संगम संस्कृति | तमिल संस्कृति | संगम संस्कृति का प्रशासनिक संगठन तथा अवस्था

संगम संस्कृति

यद्यपि भारत देश का स्मरण करते समय हमारे मन मस्तिष्क में सम्पूर्ण उत्तरी तथा दक्षिणी एवं पूर्वी तथा पश्चिमी भारत का चित्र उभरता है तथापि इस देश को भौगोलिक रचना में प्राचीन काल में उत्तरी भारत को दक्षिणी भारत से इतना पृथक् किया हुआ था कि इन दोनों प्रदेशों की सांस्कृतिक गतिविधियाँ, लगभग अलग-थलग रहीं। बहुत समय तक दक्षिणी भारत का सांस्कृतिक विकास स्वतन्त्र रूप से होता रहा तथा उसका उत्तरी भारत से बहुत ही कम सम्पर्क रहा। राजनैतिक दृष्टि से दक्षिणी भारत में भी दो भाग बने रहे- दक्षिणापथ और सुदूर दक्षिण । कृष्णा नदी के उत्तर के प्रदेश को दक्षिणापथ कहा जाता है। इस प्रदेश में चालुक्यों तथा राष्ट्रकूटों ने शक्तिशाली राज्यों की स्थापना की। सुदूर दक्षिण में पाण्ड्यचेर, पल्लव आदि अपनी पृथक् तथा स्वतन्त्र सत्ता बनाये रहे। प्राचीन काल में सुदूर दक्षिण का उत्तरी भारत से तो बहुत ही कम सम्बन्ध रहा।

दक्षिणी भारत में द्रविड़ जाति बहुसंख्यक रही है तथा इनकी प्रमुख भाषायें तेलगू, तामिल, कन्नड़ तथा मलयालम हैं। इन भाषाओं का प्रयोग करने वालों को द्रविड़ जाति का माना जाता है। द्रविड़ जाति में तमिल भाषाभाषी बहुसंख्यक रहे हैं तथा उन्होंने जिस संस्कृति का विकास किया उसे तमिल संस्कृति की संज्ञा से विभूषित किया जाता है। यद्यपि द्रविड़ संस्कृति का इतिहास बहुत प्राचीन है तथापि वह तामिल साहित्य, जो हमें प्राप्त हो सका है, मौर्य युग के लगभग का है। तामिल साहित्य का सर्वप्रसिद्ध ग्रन्थ, तिरुवल्लुवर रचित ‘कुरल’ है। दो सौ ई०पू० में रचित इस ग्रन्थ का महत्व कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ से कम नहीं है। तामिल साहित्य के अन्य ग्रन्थों में ‘पत्युपात्तु’, ‘एत्तुथोकई’ तथा ‘पडिनेन्किल्कनक्कू’ विशेष उल्लेखनीय हैं। इस काल में अनेक तामिल महाकाव्यों की भी रचना हुई थी। इनमें ‘शिल्पाधिकारम’, ‘मणिमेखलाई’, ‘जीवकचिन्तामणि’, ‘वलयपति’ तथा ‘कुण्डल केशो’ प्रमुख हैं। उपरोक्त तमिल साहित्य तथा पुरातात्विक सामग्री आदि द्वारा तामिल संस्कृति के विषय में पर्याप्त जानकारी उपलब्ध होती है। इस सामग्री के आधार पर तामिल संस्कृति का वर्णन निम्नलिखित रूप से किया जा सकता है-

प्रशासनिक संगठन तथा अवस्था

शासन का स्वरूप

तामिल शासन प्रणाली का स्वरूप विशुद्ध राज्यतन्त्रात्मक सिद्धान्तों पर आधारित था। प्रतीत होता है कि तामिल नरेश राजनीतिक शासन प्रणालियों के महान ज्ञाता थे। उन्होंने राजनीति के सिद्धान्तों को अपूर्व व्यावहारिकता प्रदान की। राजकीय सेवाओं का संगठन, निरीक्षण तथा पर्यवेक्षण एवं विभिन्न विभागों के मध्य स्थापित संतुलन उनकी शासन की प्रणाली के वैज्ञानिक आधार स्तम्भ थे।

शासन का विभाजन

चोल वंश के अन्तर्गत तामिल साम्राज्य अति विशाल था। केवल दक्षिणी भारत में ही नहीं, अपितु अनेक विदेशी द्वीपों में भी उनकी सत्ता स्थापित थी। फलतः प्रशासनिक महत्व को दृष्टिगत करते हुए साम्राज्य का शासकीय विभाजन किया गया। इस विभाजन के प्रमुख आधार थे सम्राट, केन्द्रीय शासन, प्रान्तीय शासन तथा स्थानीय शासन।

सम्राट

शासन व्यवस्था का केन्द्र बिन्दु सम्राट १ । सम्राट परम शक्तिशाली था। इस काल में, सम्राट का पद अपेक्षाकृत अधिक गौरवशाली था। मन्दिरों में राजा तथा रानी की मूर्तियाँ स्थापित की जाती थीं तथा अनेक मन्दिरों का नामकरण सम्राट के नाम पर किया जाता था। सम्राट की शक्ति अनियन्त्रित थीं। उसकी सत्ता को चुनौती अथवा उसकी आज्ञा का उल्लंघन नहीं किया जा सकता था। नरेश गौरवपूर्ण विरुद धारण करते तथा सदैव अनेकानेक अधीनस्थ राजाओं, मन्त्रियों तथा सामन्तों से घिरे रहते थे। वे जीवन काल में ही अपने उत्तराधिकारी को चुन लेते थे जिसे ‘युवराज’ कहा जाता था। सम्राट यथासमय साम्राज्य में निरीक्षण यात्राएँ करते तथा आत्म निवेदन, दान, भेंट आदि स्वीकार करते थे।

केन्द्रीय शासन

अभिलेखों में मन्त्रिमण्डल का उल्लेख नहीं मिलता, ‘औलेनायकम्’ ‘पेरुन्दरम’ तथा ‘विडैयाधिकारिन’ आदि पदाधिकारी सम्राट की सहायता के लिए नियुक्त किये जाते थे। ‘जिरुवाक्य केल्वी’ नामक पदाधिकारी सम्राट का निजी सचिव था। केन्द्रीय शासन विभिन्न विषयक विभागों में विभाजित था तथा इनके कार्यों का संचालन विभिन्न विभागाध्यक्षों द्वारा किया जाता था।

प्रान्तीय शासन

साम्राज्य की विशालता के कारण तथा प्रशासनिक सुविधा हेतु साम्राज्य अनेक प्रान्तों में विभाजित था। प्रान्तों को ‘मण्डल’ कहा जाता था। ‘मण्डल’ का प्रशासनिक अधिकारी सम्राट द्वारा नियुक्त किया जाता था। ये अधिकारी सामन्तों की भाँति कार्य करते थे। ये प्रायः राजवंश से सम्बन्धित होते थे। पूर्व निश्चित कर तथा सैनिक सहायता आदि की पूर्ति भी मण्डलों द्वारा की जाती थी। प्रत्येक मण्डल’ में अनेक कोहम होते थे जो पुनः ‘नाडुओ’ में विभाजित थे। प्रतीत होता है कि प्रत्येक इकाई के प्रशासन में वहाँ की जनता से भी सहयोग लिया जाता था। ‘मण्डल’ से लेकर ‘नाडुओं’ तक अनेक स्थानीय अथवा परिषदों का संगठन किया जाता था। नाडु की सभा का नाम ‘नाट्टर’ तथा नगर सभा का नाम ‘नगस्तर’ था। व्यवसायियों तथा शिल्पियों की श्रेणियाँ ‘पूग’ भी प्रशासन में सहायता देती थीं।

स्थानीय शासन

प्रशासन की श्रेष्ठता का सर्वाधिक श्रेय उनके स्थानीय शासन को प्राप्त है। यह एक आश्चर्यजनक संयोग है कि एक ओर शासन का उच्चतम केन्द्र बिन्दु सम्राट पूर्णतः निरंकुश था तो शासन की इकाई के रूप में स्थानीय प्रशासन जन्तन्त्र के सिद्धान्तों पर गठित था। स्थानीय शासन का कार्य कई सभाओं द्वारा संचालित किया जाता था। सभाओं के सदस्यों का चयन निर्वाचन द्वारा होता था। प्रत्येक सभा के अन्तर्गत अनेक समितियाँ होती थीं-जो आन्तरिक विषयों में पूर्ण स्वतन्त्र थीं। निर्वाचन के लिये ग्रामों को प्रायः तीस वार्डों में बाँटा जाता था। निर्वाचन के लिए खड़े होने वाले उम्मीदवार के लिये अनेक योग्यताओं का निर्धारण किया गया था।

राजस्व

साम्राज्य की आय का प्रमुख साधन कृषिकर था। उपज का छठा भाग कर के रूप में देय था। भूमि का वर्गीकरण भी किया जाता था। अतिवृष्टि में करों की वसूली स्थगित कर दी जाती थी। खानों, वनों, चुंगी, स्थल तथा जल मार्ग से प्राप्त करों आदि एवं व्यापार-वाणिज्य पर लगाये गये करों से विपुल राजस्व प्राप्त होता था।

न्याय व्यवस्था

न्याय व्यवस्था न्याय के सैद्धान्तिक नियमों पर आधारित थी। स्थानीय संस्थाओं को न्यायिक अधिकार प्राप्त थे। ज्यूरी की प्रथा का प्रचलन था। राजा अन्तिम न्यायालय था। अपराध सिद्ध हो जाने पर अपराधी को सामाजिक रूप से अपमानित किया जाता था। चोरों तथा व्यभिचारों को गधे पर बैठा कर घुमाया जाता था।

सेना का संगठन

सेना विशाल, सुसंगठित, शक्तिशाली एवं प्रभावशाली थी। इस समय जल सेना को सेना का प्रमुख अंग माना जाता था। नौ सेना के आधार पर ही चोल नरेशों ने अनेक द्वीप समूहों पर विजय प्राप्त की। गजसेना, रथसेना, अश्वारोही तथा पदाति सेना भी पर्याप्त सुसंगठित थी। शत्रु सेना के साथ चोल सेना बर्बर व्यवहार करती थी। पश्चिमी चालुक्यों तथा पाण्ड्यों के विरुद्ध चोल सेना ने नग्न बर्बरता का प्रदर्शन करते हुए निरीह नागरिकों तथा स्त्रियों के साथ अमानुषिक व्यवहार किया था।

शासन व्यवस्था का मूल्यांकन

तामिल शासन व्यवस्था में हमें मौयों तथा हर्ष के शासन प्रबन्ध के गुणों का समन्वयी रूप दृष्टिगोचर होता है। वस्तुतः तामिल शासन व्यवस्था ने पुरातन अनुभवों का लाभ उठाकर एक मौलिक शासन प्रणाली की रचना की। उनकी शासन प्रणाली में राज्यतन्त्रात्मक सिद्धान्तों तथा जनतन्त्रात्मक सिद्धान्तों का समन्वय था। यह निश्चय ही एक अद्भुत तथा सफल प्रयोग था।

सामाजिक दशा

तामिल प्रदेश के निवासियों को उत्तरी भारत की वर्ण व्यवस्था का परिचय बाद में प्राप्त हुआ। इसके पूर्व का तामिल सामाजिक संगठन का आधार कार्य कुशलता तथा कर्म था। कृषक, आखेटक, उद्यम करने वालों के अतिरिक्त मछुआरों का वर्ग प्रमुख था। सागरतटीय प्रदेश होने के कारण मछुआरों की संख्या पर्याप्त थी परन्तु उन्हें समाज में निम्नतर स्थान प्राप्त था। कृषक काफी सम्माननीय थे तथा वे धर्म कर्म भी करते थे। आखेटक आखेट करने के साथ-साथ सैनिक कार्य भी करते थे। उत्तरी भारतीय वर्ण व्यवस्था से परिचित होने के उपरान्त, तामिल प्रदेश में भी वर्ण व्यवस्था को मान्यता प्राप्त हो गई तथा यहाँ पर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के समानान्तर वर्ण बन गये। उत्तरी भारत की भाँति यहां पर ब्राह्मण वर्ण ने सर्वोपरि स्थान प्राप्त कर लिया। तामिल प्रदेश में क्षत्रिय तथा वैश्य वर्ण का अभाव सा बना रहा। तामिल निवासियों का मुख्य आहार चावल था। वे मांस का भी प्रयोग करते थे। यहाँ पर मदिरा पान भी प्रचलित था। समृद्ध तथा विलासी व्यक्ति रोम और यूनान से आयातित मदिरा (Imported wine) पीते थे। तामिल प्रदेश में अधिक शीत नहीं पड़ता था अतः यहाँ के सामान्य लोग सूती वस्त्रों का तथा धनी वर्ग के व्यक्ति बहुमूल्य रेशमी वस्त्रों को धारण करते थे। धोती तथा पगड़ी प्रमुख वस्त्र प्रकार थे। स्त्रियों के सबसे प्रिय आभूषण नाक की लौंग, चूड़ियाँ, हार तथा भुजबन्ध थे। पुरुष प्रायः गले में हार धारण करते थे। तामिल स्त्रियों को विवाह में स्वेच्छा प्राप्त थी। स्त्रियों को समाज में पर्याप्त सम्मान प्राप्त था। यहाँ पर मातृसत्तात्मक परिवार प्रणाली भी प्रचलित थी। निकट रक्त सम्बन्धी से भी विवाह की अनुमति थी। बहु विवाह की प्रथा थी।

आर्थिक दशा

खेती, पशुपाल तथा मत्स्य पालन प्रमुख व्यवसाय थे। बहुसंख्यक लोग ग्रामनिवासी थे। वस्त्र व्यवसाय की बड़ी उन्नत अवस्था थी। मलमल के बने वस्त्र विदेशों तक में प्रख्यात थे। मदुरा के बहुसंख्यक रोमन सिक्कों की प्राप्ति से यह संकेत मिलता है कि यहाँ से भारी मात्रा में व्यापारिक सामग्री निर्यात की जाती थी। व्यापार के लिए स्थल मार्गों का प्रयोग तो होता ही था, साथ ही सामुद्रिक मार्ग के लिये भी विशेष प्रबन्ध था। व्यापारी बड़े-बड़े जलपोतों में सामग्री भर कर विदेश ले जाते थे। दक्षिण पूर्वी एशिया के द्वीपों तथा राज्यों पर भारत का व्यापारिक प्रभुत्व था। इस प्रकार के व्यापार ने भारतीय संस्कृति के विस्तार में भी बड़ा योग दिया। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि आन्तरिक तथा बाह्य व्यापार काफी उन्नतावस्था में था। अनेक व्यवसाय प्रचलित थे तथा कुशल कारीगर समाज की आवश्यकता पूर्ति के साथ-साथ आर्थिक समृद्धता प्राप्त कर रहे थे।

धार्मिक दशा

यद्यपि तमिल प्रदेश में वैदिक धर्म का बड़ा प्रसार था तथापि इतिहासकारों का मत है कि वैदिक धर्म के तामिल प्रदेश में आगमन से पूर्व यहाँ पर बहुदेववाद का विशेष प्रचलन था। इस काल की धार्मिक मान्यताएँ लगभग सिन्धुघाटी के धार्मिक विश्वासों के समान थी। प्राचीन तामिल जन शिवोपासना में अधिक विश्वास रखते थे। जब वैदिक धर्म का प्रसार हुआ तो भी तमिल प्रदेश में शिवोपासना का प्राबल्य रहा। विद्वानों का अभिमत है कि आर्यों में शिवोपासना का प्रचलन तामिल प्रभाव के कारण हुआ। इसी तरह कार्तिकेय तथा गणेश पूजा को आर्यों ने तामिलों से ही ग्रहण किया था। तामिल धार्मिक सहिष्णु थे तथा उनके धार्मिक विश्वासों, पद्धतियों तथा मान्यताओं का स्वरूप वैदिक धर्म के समान जटिल या कर्मकाण्डी नहीं था। तामिल प्रदेश में वैदिक धर्म के साथ-साथ बौद्ध तथा जैन धर्म का भी प्रसार हुआ। जैन आचार्य भद्रबाहु ने दक्षिण भारत में जैन धर्म का बड़ा प्रचार किया। अशोक ने यहाँ पर बौद्ध धर्म का प्रचार करवाया। कांजीवरम बौद्ध धर्म का प्रबल केन्द्र था। ह्वेनसांग के अनुसार यहाँ पर एक सौ बौद्ध मठ तथा 90,000 बौद्ध भिक्षु थे। भारतीय इतिहास का मध्यकाल आने तक तामिल प्रदेश में हिन्दू धर्म को प्रमुख स्थान प्राप्त था। जैन धर्म के भी पर्याप्त अनुयायी थे परन्तु बौद्ध धर्म का कोई विशेष प्रसार नहीं था।

साहित्य

प्राचीन तामिल साहित्य का सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ तिरुवल्लुवर रचित कुरल । 123 परिच्छेद वाले इस ग्रन्थ में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष सम्बन्धी विषयों का वर्णन है। इस ग्रन्थ का अनुवाद अनेक भारतीय तथा विदेशी भाषाओं में किया गया है। तामिल साहित्य का विकास ‘संगम’ नाम से प्रसिद्ध शिक्षा केन्द्रों में हुआ। तामिल अनुश्रुति के अनुसार प्राचीन समय में तीन संगम थे। इनमें से प्रथम दो के विषय में तो कोई जानकारी प्राप्त नहीं हुई है। तीसरा संगम मदुरा में था। इसका काल 500 ई०पू० से 500 ई० माना जाता है। ‘संगम’ को पाण्ड्य नरेशों का संरक्षण प्राप्त था। ‘संगम’ द्वारा मान्यता प्राप्त रचना को ही साहित्यिक स्थान प्राप्त होता था। तामिल साहित्य के प्रमुख ग्रन्थ पत्युपात्तु, एत्तुथोकई, पडिनेन्किल्कनक्कु, मणिमेखलाई, जीवक चिन्तामणि, वलयपति तथा कुण्डलकेशी आदि हैं।

कला

संगम साहित्य के अनुशीलन से विदित होता है कि तामिल प्रदेश में वास्तुकला का विकास बहुत पहले हो चुका था। बड़े नगरों में कई मंजिलों के घर होते थे। नगरों के चारों ओर ऊंची दीवार होती थी। इन दीवारों में नगर प्रवेश के लिये द्वारों का निर्माण किया जाता था। इन्हें ‘गोपुरम’ कहते थे। मदुरा नगर का ‘गोपुरम’ इतना चौड़ा था कि उसमें तीन हाथी एक साथ प्रवेश कर सकते थे। वैदिक, जैन तथा बौद्ध धर्म का प्रसार होने पर यहाँ पर अनेक स्तूपों, चैत्यों, गुफाओं तथा विहारों का निर्माण हुआ। चैत्य तथा विहार ईंटों के तथा पहाड़ काट कर भी बनाये जाते थे। तामिल साहित्य से विदित होता है कि प्रारम्भ में यहाँ पर लकड़ी, मिट्टी, चूने तथा हाथी दाँत की मूर्तियाँ बनाई जाती थीं। मूर्तिकला के ये उदाहरण मन्दिरों में प्राप्त हुए हैं। देवी देवताओं की मूर्तियाँ बनाने में उनके रूप, वेशभूषा तथा मुद्रा अंकन करने के लिए नियम नियत थे। पाषाण मूर्तियाँ पहाड़ काट कर भी बनाई जाती थीं। अनेक मूर्तियों में मथुरा, कुषाण तथा गुप्त शैली का प्रभाव भी दृष्टिगोचर होता है। तामिल मूर्तिकार की कला में अंगविन्यास, सूक्ष्म छवि चित्रण, चित्र सामंजस्य का अद्भुत समन्वय देखने को मिलता है। डा० कुमार स्वामी के अनुसार यहाँ की मूर्तिकला ‘भारत की सूक्ष्मतम तथा सरसतम कला थी।’ यद्यपि संगम साहित्य में चित्रकला के अनेक प्रसंग हैं तथापि दुर्भाग्यवश हमें इसका कोई उदाहरण प्राप्त नहीं हो सकता है फिर भी अजन्ता की गुफा संख्या नौ और दस में इस काल की चित्रकला के कतिपय चित्र उपलब्ध हुए हैं। इनके आधार पर यह कहा जा सकता है कि तामिल चित्रकार ने अपनी चित्रकला में कल्पना, आदर्श तथा स्वाभाविकता आदि गुणों का समन्वय किया हुआ था। तामिल क्षेत्र में ‘पल्लव चोल कला’ नामक नवीन शैली का भी जन्म हुआ। इस शैली के प्रयोग द्वारा जिन मन्दिरों तथा प्रतिमाओं का निर्माण हुआ, उनको आज भी कलाविदों की प्रशंसा प्राप्त है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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