इतिहास / History

प्राचीन भारत में श्रेणी-व्यवस्था | प्राचीन भारत में श्रेणी व्यवस्था की उत्पत्ति एवं विकास | प्राचीन भारत के आर्थिक जीवन में श्रेणियों की भूमिका | प्राचीन भारत में श्रेणियों का संगठन | श्रेणियों के कार्य या भूमिका

प्राचीन भारत में श्रेणी-व्यवस्था | प्राचीन भारत में श्रेणी व्यवस्था की उत्पत्ति एवं विकास | प्राचीन भारत के आर्थिक जीवन में श्रेणियों की भूमिका | प्राचीन भारत में श्रेणियों का संगठन | श्रेणियों के कार्य या भूमिका

प्राचीन भारत में श्रेणी-व्यवस्था

प्राचीन काल के उद्योग और व्यापार समूहों में संगठित थे जिन्हें विभिन्न नामों से पुकारते थे- जैसे श्रेणि, नैगम, पूग, संघ, ब्रात आदि। भारत के आर्थिक उत्थान और समृद्धिमइनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है।

सिन्धु घाटी की सभ्यता और वैदिक काल में आर्थिक संगठन

सिन्धु घाटी की सभ्यता के युग में व्यापार उन्नत अवस्था में था, यद्यपि यह कहना कठिन है कि उसका संचालन राज्य या किसी संगठित आर्थिक संस्था से होता था।

रमेशचन्द्र मजूमदार और राधाकुमुद मुखर्जी का मत है कि वैदिक काल में आर्थिक क्षेत्र में संगठन की प्रवृत्ति विद्यमान थी और संगठित आर्थिक संस्थाओं का उदय हो गया था। ऋग्वेद में पणि का उल्लेख मिलता है जो व्यापारी थे और सुरक्षा के लिए काफिले में चलते थे। यह प्रवृत्ति संगठन की व्यक्त करती है। वैदिक साहित्य में श्रेष्टि तथा गण शब्द का प्रयोग भी हुआ है। गण का अभिप्राय किसी नैगम संगठन से है तथा श्रेष्ठि का प्रयोग श्रेणि के मुखिया के रूप में होता था। वैश्य प्रायः गणशः कहलाए क्योंकि वे व्यक्तिगत प्रयास से नहीं अपितु सहकारिता के द्वारा संपत्ति उपार्जित करने में समर्थ थे। राधाकुमुद मुखर्जी के अनुसार भी वैदिक साहित्य में श्रेष्ठिन’ और ‘श्रेष्ठय’ शब्द का प्रयोग श्रेणि के मुखिया के लिए हुआ है।

ऋग्वैदिक काल में श्रेणियों का उदय संभव नहीं लगता। पणियों का समाज के आर्थिक क्षेत्र में प्रभाव था, किन्तु उनमें श्रेणियों के अस्तित्व का प्रमाण नहीं मिलता। गुण और श्रेष्ठि का प्रयोग वैदिक साहित्य में आर्थिक अर्थ में नहीं हुआ है। इस कारण वैदिक काल में इन, श्रेणियों के अस्तित्व के बारे में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता।

जातक साहित्य में श्रेणियाँ (ई० पू० छठी शती) : जातक अट्ठारह श्रेणियों का उल्लेख करते हैं, किन्तु यह संस्था रूढ़ मानी जाती है। श्रेणियों के नामों की संख्या इससे भी अधिक मिलती है। इनमें महाजनों की श्रेणि सबसे महत्वपूर्ण थी जो सेठि कहलाते थे। ये नगर में बसते थे तथा समृद्ध होने से समाज में इनका महत्वपूर्ण स्थान था। राज्य में भी सेठियों का बड़ा आदर-सत्कार था। इसके अतिरिक्त बढ़ई, दंतकार, बुनकर, चर्मकार, रंगरेज आदि श्रेणियों का उल्लेख भी जातकों में मिलता है।

प्रारम्भिक धर्मसूत्रकाल में श्रेणि संगठन (ई० पू० 500-300)- गौतम धर्मसूत्र कृषकों, व्यापारियों, चरवाहों, महाजनों और शिल्पियों को अपने-अपने समूहों के लिए नियम निर्धारित करने का अधिकार देते हैं। यह भी कहा गया कि राजा आधिकारिक लोगों से वस्तुस्थिति की जानकारी प्राप्त करके कानूनी निर्णय देगा। यह श्रेणि संगठनों के विकास की अगली व्यवस्था का परिचायक है। अब ये संगठन संविधान द्वारा राज्य के एक आवश्यक अंग मान लिए गए और उन्हें कानून बनाने का अत्यन्त महत्वपूर्ण अधिकार प्रदान किया गया। उनका मुखिया राज्य दरबार में अपने वर्ग का प्रतिनिधित्व कर सकता था।

धर्मसूत्र तथा कौटिल्य के समय श्रेणियों की स्थिति- कौटिल्य ने सैनिकों के अन्तर्गत श्रेणिबल को भी रखा है। कभी-कभी यह श्रेणिबल रक्षा एवं आक्रमण इन दोनों कार्यों के लिए पर्याप्त होता था। वह इनकी शक्ति को पहचान गया था। इसी कारण उसका कहना था कि राजा को अन्य किसी लाभ की अपेक्षा इनकी मित्रता अधिक हितकर है। जो संघ एवं श्रेणियाँ शक्तिशाली हों, राजा को उनका आदर करना चाहिए और उनसे मित्रता भी, मगर कमजोर संस्थाओं को उसे अप्रत्यक्ष उपायों द्वारा नष्ट कर देना चाहिए।

स्मृतिकाल (ई० पू० दूसरी शती से ई० चौथी शती तक) में श्रेणि व्यवस्था का विकास-  मनुस्मृति में कहा गया है-“यदि कोई मनुष्य, जो ग्राम या देश-संघ से सम्बन्धित है, शर्त स्वीकार करके लोभवश उसे तोड़ देता है तो राजा उसे अपने राज्य से निकाल दे।’ याज्ञवल्क्य स्मृति में भी निर्देश है कि यदि कोई पुरुष किसी श्रेणि या अन्य किसी निगम की जायदाद चुराए या उनसे हुए अनुबन्ध को तोड़े तो उसे देश से निष्कासित किया जाए तथा उसकी पूरी जायदाद को छीन लिया जाए। इसी प्रकार का आदेश विष्णु स्मृति में भी मिलता है। इस प्रकार इसमें कोई सन्देह नहीं रह जाता कि ईस्वी सन् के शीघ्र बाद ही श्रेणि संगठन राज्य की राजनीति में एक अत्यन्त महत्वपूर्ण अंग के रूप में विकसित हुआ। न केवल यह राज्य के ढाँचे के एक निश्चित अंग के रूप में माना जाने लगा बल्कि उसका अधिकार शासन द्वारा स्वीकृत किया गया।

गुप्तकाल में श्रेणियों का विकास (400 ई०-700 ई०)- गुप्तकाल में विभिन्न उद्योगों तथा व्यापार का बड़ा विकास हुआ। भारत का पश्चिमी देशों, विशेषकर रोम, के साथ व्यापार बढ़ा हुआ था। गुप्तों का शासन-प्रबन्ध भी उच्चकोटि का था। कौटिल्य के समान इस समय न तो उन पर हम राज्य का विशेष नियन्त्रण देखते हैं और न उनका प्रयोग राज्य के लिए होता था। इसके विपरीत श्रेणियों को विशेष स्वायत्त अधिकार दिए गए। इनके स्वयं के रीति-रिवाज और नियम होते थे। इनके आपसी झगड़ों का निर्णय इनकी कार्यकारिणी करती थीं, किन्तु ये राज्य के न्यायालय के पास कम जाते थे। इनके पास स्वयं की सम्पत्ति और जायदाद होती थी। इस समय के लेखक भी इनके स्वायत्त अस्तित्व और अधिकारों पर जोर देते हैं।

गुप्तकाल में भी श्रेणियों में धन जमा कराया जाता था। स्कन्दगुप्त के राजत्व काल के इन्दौर ताम्रपत्र-लेख में इन्द्रपुर की तैलिक श्रेणि में धन जमा करने का उल्लेख है जिसके ब्याज से सूर्य मन्दिर में एक दीपक प्रचलित रखने हेतु तेल की स्थायी व्यवस्था की गई थी। श्रेणि के सदस्य मिलकर मन्दिर भी बनवाते थे। मन्दसौर के अभिलेख से पता चलता है कि लाट के रेशम बुनने वाले लोग दशपुर में आकर बसे और 436 ई० में उन्होंने अपनी संचित धनराशि से सूर्य का एक विशाल मन्दिर बनवाया। कुछ समय बाद मन्दिर का एक भाग जीर्ण-शीर्ण हो गया, जिसकी मरम्मत उसी श्रेणि ने ई० सन् 472 में करवाई।

बसाढ़र (प्राचीन वैशाली) से प्राप्त मिट्टी की 274 मोहरें गुप्तकाल में श्रेणि व्यवस्था पर महत्वपूर्ण प्रकाश डालती है। इस समय इसका व्यापक स्वरूप हो गया था। मोहरों के लेख के अध्ययन से पता चलता है कि यह एक सम्मिलित संगठन था जिसमें श्रेणिन, सार्थवाह और कुलिक भी सम्मिलित थे तथा उत्तरी भारतवर्ष के अनेक नगरों में इसकी शाखाएं और इसके सदस्य फैले हुए थे। इसकी तुलना हम आधुनिक वाणिज्य मण्डल से कर सकते हैं।

इन मोहरों पर पिछले किस प्रकार पढ़े गए हैं-(1) श्रेणी-सार्थवाह-कुलिक-निगम (2) गोष्ठि-कुलिक निगम, (3) श्रेष्टि-निगम और (4) कुलिक निगमा डी०ओ० भांडारकर का कहना है कि “निगम” शब्द का अभिप्राय यहाँ नगर लेना चाहिए। मिट्टी की टिकड़ी पर केवल इस विशाल और श्रेणी की ही मोहर नहीं मिलती किन्तु इसके साथ व्यक्ति-विशेष की भी मोहरें मिलती हैं।

पूर्व-मध्यकाल में श्रेणियों की स्थिति (800 ई०-1200 ई०)

पूर्व मध्यकाल में श्रेणियों के आपसी सम्बन्ध ढीले होते जा रहे थे और इन पर विशेष नियन्त्रण नहीं रहा था। कमजोर संगठन के कारण इनकी प्रतिष्ठा कम होती गई और ये पहले के समान समृद्ध भी नहीं रही। राजाओं और सामंतों के आपसी झगड़ों तथा मुसलमानों के आक्रमण से अराजकता फैल गई और इसका भी इन पर प्रभाव पड़ा! सामंतवाद और ग्रामीण आर्थिक व्यवस्था के कारण भी इनका पतन हुआ। पहले इनमें आर्थिक सहयोग होने से इनकी शक्ति, समृद्धि और प्रतिष्ठा बढ़ी किन्तु अब ये जातियों में परिणत हो गईं और इनका आर्थिक ध्येय गौण हो गया।

इस समय के लेखकों ने भी इन श्रेणियों का उल्लेख किया है। मेधातिथि से हमें वणिक और शिल्पकारों के संघों के बारे में जानकारी मिलती है। शिल्पकारों की श्रेणियों में बुनकरों, कुम्हारों, मालियों तथा दस्तकारों के नाम मिलते हैं। श्रेणियाँ स्वयं अपने कानून बनाती थी और उनको सदस्यों पर थोपती थीं। स्मृति चन्द्रिका से ज्ञात होता है कि समूहों को कानून बनाने का अधिकार था।

दक्षिण भारत में श्रेणियाँ

दक्षिण भारत में व्यापारी भी अपने सामूहिक संगठनों के लिए प्रसिद्ध थे। द्वितीय तैलप के निडगुन्यि अभिलेखों में 505 व्यापारियों के एक संगठन के द्वारा धार्मिक प्रयोजन के लिए विविध वस्तुओं के दान में दिए जाने का उल्लेख है। व्यापारियों के एक संघ का स्पष्ट उल्लेख तिरुमुरूगनपुण्डि के एक मन्दिर में उत्कीर्ण विक्रम चोल के काल के एक अभिलेख में प्राप्त होता है। यह संगठन प्रायः, सारे दक्षिण भारत में फैला हुआ था और इसके सदस्यों की संख्या 500 थीं। पश्चिमी चालुक्य राजा जगदेकमल्ल द्वितीय के काल (ई० सं० 1178) के एक अभिलेख के अनुसार ऐहोल पाँच सौ वणिजों का निवास स्थान था। जिला तिन्नेवाली के एक ग्राम में प्राप्त दसवीं शती ई० के एक पाण्ड्य अभिलेख में अथ्यपोलिल 500 श्रेखि का उल्लेख है।

इन व्यापारिक संगठनों में “नानादेशतिशैयारतु ऐन्नुवर” सबसे प्रसिद्ध था। भिन्न-भिन्न वर्गों के व्यापारी इसके सदस्य थे। दसवीं से बारहवीं सदी के अभिलेखों में इसके नाम का उल्लेख मिलता है जिससे यह सिद्ध होता है कि यह संगठन अपना कार्य करीब 300 वर्ष तक करता रहा। इसका नानादेशी नाम इस बात का द्योतक है कि इसका सम्बन्ध विविध देशों से था। स्थल और जल मार्ग से विभिन्न प्रदेशों में जाकर ये घोड़े, हाथी, रत्न, गंध, औषधि तथा अन्य वस्तुओं का थोक और खुदरा व्यापार करते थे। लंका, बर्मा, जावा और सुमात्रा के साथ इनके व्यापारिक सम्बन्धों के प्रमाण मिले हैं। इनके पास रक्षा के लिए सैनिक भी होते थे। इनके अभिलेखों में अनेक प्रकार के दान का उल्लेख भी मिलता है। इसी प्रकार मणिग्रायम् व्यापारिक निगम का इतिहास नवीं से तेरहवीं सदी तक मिलता है। इसमें भी सभी वर्गों के लोग सम्मिलित थे और इसका भी प्रभाव दक्षिण भारत के अनेक नगरों में फैला हुआ था। अञ्जवम्णम् और वीरवनजुस व्यापारिक निगमों के नाम भी उल्लेखनीय हैं।

श्रेणियों का संगठन

ई० पू० छठी शती में श्रेणियों के संगठन के बारे में हमें जातकों से पता चलता है। प्रत्येक शिल्प समूह का नेतृत्त्व प्रमुख अथवा ज्येष्ठक के द्वारा होता था। ऐसे शिला प्रमुखों के नाम हमें जातकों में मिलते हैं। प्रायः एक ही व्यवसाय के व्यक्ति श्रेणि के रूप में अपना संगठन करते समय अपने नेता का चुनाव भी कर लेते थे। इन शिल्प-प्रमुखों की स्थिति बड़ी महत्वपूर्ण प्रतीत होती है। समृद्ध होने के साथ वे राजा के कृपापात्र भी होते थे। वणिज श्रेणियों के मुखिया सेठि कहलाते थे। वणिज श्रेणियों के संघ का अध्यक्ष महासेठि कहलाता था जिसके नीचे अनुजसेठि होते थे। जब दो श्रेणियों में मतभेद हो जाता था तो उसका निर्णय महासेठि करता था। एक महासेठि को काशी राज्य के भाण्डागारिक होने का उल्लेख मिलता है। कौटिल्य के अनुसार श्रेणि का अध्यक्ष ‘मुख्य’ कहलाता था। श्रेणि के अध्यक्ष का नाम प्रधान, प्रमुख, महत्तर, महर, पट्टकलि (पटेल) आदि भी मिलते हैं। यूरोप में नगर की विशेष शिल्प व्यवसाय में श्रेणि के सब सदस्य होते थे, किन्तु नासिक में जुलाहों को दो श्रेणियाँ थीं।

याज्ञवल्क्य स्मृति और नारद स्मृति में श्रेणियों के संगठन और उनके संविधान पर महत्वपूर्ण प्रकाश डाला गया है। श्रेणि का एक प्रधान या अध्यक्ष होता था जिसकी सहायता के लिए दो-तीन या पाँच प्रबन्ध अधिकारी होते थे। संभवतः ये अधिकारी सदस्यों द्वारा चुने जाते थे। ये अधिकारी ईमानदार, आत्म संयमी तथा वेदों के ज्ञाता होते थे।

अधिकारी का सदस्यों पर नियन्त्रण रहता था। गलत आचरण करने वाले को दण्ड दिया जाता था। उसका जुर्माना किया जाता था, उसकी जायदाद छीन ली जाती थी और नगर से बहिष्कृत भी कर दिया जाता था। साधारण अपराध करने पर केवल डॉट-डपट कर दी जाती थी। यदि किसी संस्था का प्रधान व्यक्तिगत द्वेष के कारण किसी सदस्य को हानि पहुँचाता था, तो वह राजा के पास अपील कर सकता था। यदि यह प्रमाणित हो जाता कि अध्यक्ष का व्यवहार नियमानुमोदित न होकर व्यक्तिगत रागद्वेष से प्रभावित रहा है तो राजा उसके प्रस्तावों को रद्द कर सकता था।

परिषद् का एक कार्यालय होता था जहाँ श्रेणि के सदस्य समय-समय पर एकत्र होकर सार्वजनिक कार्य सम्पादित करते थे। ढोल या अन्य वाद्ययंत्रों को बजाकर सदस्यों को सूचित किया जाता था। वे श्रेणि भवन में उपस्थित होकर जनसमुदाय के मामलों पर विचार करें। सभा में सदस्यों के नियमित भाषण होते थे। यदि प्रबन्ध अधिकारी वक्ता के युक्तिसंगत बात बोलने में रुकावट डालता या अनुचित बात कहता, तो वह ‘पूर्व साहस दण्ड’ का भागी होता था।

श्रेणी के निश्चित नियम और परम्पराएँ कानून के रूप में थीं जिनको जहाँ तक सम्भव होता, राजा मानता था। उसको अपने सदस्यों पर न्यायिक शक्ति भी प्राप्त थी और चार सामान्य न्यायालयों में उसको दूसरा स्थान प्राप्त था। श्रेणि को सामूहिक अचल सम्पत्ति-जैसे खेत, बगीचा आदि पर स्वामित्व का अधिकार प्राप्त था। प्रबन्ध अधिकारी श्रेणि की ओर से ऋण ले सकता था। यदि वह इस धन को श्रेणि के हित में न लगाकर निजी कार्यों में खर्च करता तो उसे दण्ड मिलता और साथ में उसे धनराशि को पूरा करना पड़ता था। संगठन की ओर से दान और धर्म कार्य किए जाते थे और प्रत्येक सदस्य उनके पुण्यफल का भागी माना जाता था। नये सदस्यों का लिया जाना तथा पुराने सदस्यों का हटाया जाना श्रेणि की साधारण सभा के ऊपर निर्भर करता था।

प्रबन्ध अधिकारी अन्तिम रूप से समूह के प्रति उत्तरदायी माने जाते थे। समूह ऐसे किसी भी प्रबन्ध अधिकारी को हटा सकता था जो किसी बड़े अपराध के लिए उत्तरदायी होता, फूट डालता अथवा जो आणि की सम्पत्ति का नाश करता था। राजा को निष्कासन की सूचना मात्र देना आवश्यक था, उसकी अनुमति प्राप्त करना नहीं। जब समूह अपने आपको असमर्थ पाता था, राजा तभी हस्तक्षेप करता था।समूहों में पारस्परिक अगड़ों को सुलझाने में राजा की आवश्यकता पड़ती थी। वह उनको ऐसे कर्म करने से रोक सकता था जो राज्य के हिचों के प्रतिकूल हो अथवा निन्दनीय और अनैतिक हो।

श्रेणियों के कार्य या भूमिका

श्रेणियों का मुख्य कार्य अपने उद्योग और व्यवसाय को भलीभाँति संगठित कर उन्नतिशील बनाना था। इसके लिए उन्होंने अनेक नियम बनाये। आवश्यकता पड़ने पर ये दूसरे को सहायता देते थे। अपने व्यवसाय और उद्योग के अतिरिक्त उन्होंने अनेक कार्य किए।

धार्मिक कार्य- व्यापार और व्यवसाय की उन्नति के कारण ये श्रेणियाँ बड़ी समृद्ध थी। अभिलेखों से पता चलता है कि वणिकों और शिल्पियों ने व्यक्तिगत और संयुक्त रूप में अनेक प्रकार के दान दिए। कर्लि के महाचैत्य का निर्माण वैजयंती के सेठी ने किया। साँची के स्तूपों के अभिलेखों से ज्ञात होता है कि महाजनों और शिल्पकारों ने ई० पू० तीसरी शती से पहली शती तक अनेक प्रकार के उपहार दिये। कन्हेरी की गुफाओं के अभिलेखों में भी इनकें दान का उल्लेख मिलता है। जुन्नर के एक अभिलेख में अनाज के व्यापारियों द्वारा एक गुफा और एक कुण्ड का दान अंकित है। मन्दसौर के एक अभिलेख से पता चलता है कि रेशम बुनने वालों की श्रेणि ने ई० स० 436 में अपनी संचित धनराशि से सूर्य का एक विशाल मन्दिर बनवाया। कुछ समय बाद मन्दिर का एक भाग जीर्ण-शीर्ण हो गया जिसकी मरम्मत उसी श्रेणि ने ई० सं० 472 में कराई। कई अभिलेखों में इनके द्वारा धार्मिक संस्थाओं को नगद धन दान देने का उल्लेख मिलता है। कभी-कभी वस्तु में भी दान किया जाता था।

जनकल्याण के कार्य- प्राचीन समय में श्रेणियाँ जनकल्याण के कार्य भी करती थी। बृहस्पति के अनुसार श्रेणियों के कार्य-कलापों में जनोपयोगी विभिन्न बातें सम्मिलित थीं। वे सभागृह या यात्रियों के लिए विश्रामगृह का निर्माण करती थीं। वे मन्दिर बनवाती, सरोवर खुदवाती तथा उद्यान लगवाती थीं। वे दीनजनों को शास्त्रों के अनुसार संस्कार या यज्ञ-कार्य करने के लिए भी सहायता देती थीं। इसकी पुष्टि कुछ अभिलेखों के प्रमाण से भी होती है। श्रेणियों का सम्बन्ध अनेक प्रकार के आर्थिक कार्यों से भी था।

आर्थिक कार्य- प्राचीन समय में विशेष वणिक-श्रेणियाँ सिक्के भी चलाती थीं। भारत के सबसे प्राचीन सिक्के आहत मुद्राएँ (Panch-marked coins) हैं। इनमें से कुछ को तो इन श्रेणियों ने अवश्य ही आरम्भ किया था। तक्षशिला से प्राप्त कुछ सिक्कों पर ई० पू० तीसरी सदी की लिपि में  “नैगम” लेख मिलता है। इससे यह सिद्ध होता है कि तक्षशिला के नैगम ने इनको प्रचलित किया था। प्राचीन समय में सिक्कों को बनाने या चलाने पर राजा का एकाधिकार नहीं माना जाता था। इस कारण श्रेणियाँ भी प्रायः सिक्के बनाती थीं।

ये श्रेणियाँ आधुनिक बैंकों का कार्य भी करती थीं। इनमें धन जमा कराया जाता था जिस पर ये ब्याज देती थीं। ये धन उधार भी देती थीं। नासिक के 120 ई० के लेख से ज्ञात होता है कि शकराज नहपान के जामाता उपवदात ने गोवर्धन की जुलाहों की एक श्रेणि में 2000 कार्षापण तथा दूसरी में 1000 क्रमशः 12 और 9 प्रतिशत ब्याज की दर से जमा कराये। इस ब्याज से बौद्ध भिक्षुओं को वस्त्र दिए जाते थे। नासिक के तीसरी शताब्दी के एक अन्य लेख से ज्ञात होता है कि वहाँ को श्रेणियों में कुछ धन जमा कराया गया जिसके व्याज से संघाराम में रहने वाले भिक्षु संघ के रोगियों की दवा का प्रबन्ध होता था।

इन श्रेणियों को राज्य की भूमि की देखभाल का कार्य भी सौंपा गया था। बंगाल श्रेणियों से 533 ई० के अभिलेख मिले हैं जिनमें नगर श्रेष्ठिन, सार्थवाह प्रथम कुलिक और प्रथम कायस्थ कुमारामात्य के साथ राजकीय भूमि की व्यवस्था की देखभाल करते थे।

श्रेणियाँ अपने आर्थिक कार्य भी करती थीं। लोगों के हित के लिए ये बाजारों पर भी नियन्त्रण रखती थी। वस्तुओं का क्रय, विक्रय और धन के लेन-देन के निश्चित नियम थे। कई बार ये आन्तरिक और बाह्य व्यापार भी मिलकर करती थीं। एक स्थान से दूसरे स्थान को ये संघ बनाकर जाती थीं। उन्होंने वस्तुओं की बिक्री पर कर लगा रखे थे जिसका प्रयोग वे जनहित के लिए करती थी।

इन श्रेणियों की एक विशेषता यह भी थी कि इनके सदस्य कभी-कभी साझेदारी से भी कार्य करते थे। कूटवाणिज्य जातक, बावेरु जातक और महावणिज जातक में व्यापार के लिए, वणिओं का साझेदारों में सम्मिलित होने का वर्णन है। कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में इस पद्धति का उल्लेख किया है।

वैधानिक कार्य- कालान्तर में श्रेणियों का प्रभाव और प्रतिष्ठा बढ़ गई। समाज में उनका एक स्वतन्त्र अस्तित्व हो गया। उन्होंने अपने रीति-रिवाजों के आधार पर अलग कानून बना लिए जिनको राज्य ने भी मान्यता दे दी। गौतम का कहना है कि श्रेणि के रीतिरिवाज धर्म के विरुद्ध नहीं हों तो वे मान्य हैं। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में कहा गया है कि लेखाध्यक्ष को नियमित रूप से निर्धारित रजिस्टरों में निगमों की प्रधाओं सम्बन्धी बातों को भरना पड़ता था। मनु का मत है कि राजा को श्रेणि के कानूनों का आदर करना चाहिए। याज्ञवल्क्य, नारद और अन्य स्मृतिकारों के अनुसार राजा को इनके कानून तथा समझौते को लोगों पर थोपना चाहिए और उल्लंघन करने वालों को दण्ड देना चाहिए।

श्रेणियाँ साधारण न्यायालय के रूप में- श्रेणि को सामूहिक रूप में अपने सदस्यों पर न्यायिक अधिकार प्राप्त थे। नारद के अनुसार श्रेणि का चार सामान्य न्यायालयों में दूसरा स्थान था। कुल, श्रेणि, गण और राजा अन्य धर्मशास्त्रकार जैसे बृहस्पति और याज्ञवल्क्य ने भी इनका उल्लेख किया है। इनमें से प्रत्येक के निर्णय के विरुद्ध उसकी अपेक्षा उच्चतर न्यायालय में अपील की जा सकती थी। श्रेणि के न्यायिक कार्य केवल उनके सदस्यों तक सीमित थे।

सैनिक कार्य- आवश्यकता पड़ने पर ये श्रेणियाँ सैनिक कार्य भी करती थीं। कौटिल्य के अर्थशास्त्र से यह स्पष्ट है कि उस समय की श्रेणियाँ प्रभूत सैनिक शक्तिशाली थी। उसने सेना की विभिन्न शाखाओं में श्रेणि-बल को भी रखा है। इसका प्रयोग रक्षा एवं आक्रमण दोनों के लिए होता था। अपनी शक्ति में वृद्धि करने के लिए राजा को इस प्रकार से सैनिकों को भी भरती करना पड़ता था। महाभारत के कुछ श्लोकों से स्पष्ट है कि राजा श्रेणिबल का उपयोग कर सकता था। यह श्रेणिबल भृर्त (भाड़े के सैनिक) के समान ही महत्व वाला कहा गया है। श्रेणि द्वारा सैनिक कार्य किये जाने का स्पष्ट उल्लेख मन्दसौर शिलालेख में उपलब्ध है। रेशम बुनने वाले श्रेणि के कुछ लोग धनुर्विद्या सीखकर अच्छे योद्धा बन गये थे।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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