हिन्दी नाटक का उद्भव और विकास | भारतेन्दु-पूर्व हिन्दी नाटक | हिन्दी नाटक के उद्भव और विकास पर प्रकाश डालिये

हिन्दी नाटक का उद्भव और विकास | भारतेन्दु-पूर्व हिन्दी नाटक | हिन्दी नाटक के उद्भव और विकास पर प्रकाश डालिये

हिन्दी नाटक का उद्भव और विकास

भारतेन्दु-पूर्व हिन्दी नाटक

वास्तविक हिन्दी नाटक का समारम्भ भारतेन्तु हरिश्चन्द्र (1907-1941) से हुआ। किन्तु उनसे पूर्व भी एक क्षीण नाट्य-परम्परा हिन्दी साहित्य के आदिकाल से चली आ रही थी। डा0 दशरथ ओझा के अनुसार “तेरहवीं शताब्दी में एक ओर तो कण्हपा-काल से चली आने वाली ‘स्वांग’ की नाट्य परम्परा थी, जिसके नाटक डोम और डोमनियों द्वारा अभिनीत होते थे, दूसरी परम्परा ‘रास’ की थी जिसका अभिनय बहुरूपिए अथवा जिनसेवक किया करते थे।

हिन्दी भाषा-भाषी क्षेत्र में दूसरी परम्परा का ही अधिक प्रचार था। इनके विषय में धार्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक, आध्यात्मिक और लौकिक प्रेम सम्बन्धी होते थे। वस्तुतः ये लोकधर्मी नाट्य परम्पराएँ थीं, जो विभिन्न नामों से विभिन्न प्रदेशों में प्रचलित थीं, किन्तु परम्पराएँ हिन्दी नाटक के विकास में विशेष योगदान न दे सकी।

हिन्दी को उत्तराधिकार रूप में संस्कृत से भास, कालिदास और भवभूति आदि की समृद्ध नाट्य- परम्परा मिली, पर जन्म से ही विदेशी मुस्लिम आक्रान्ताओं के नाटक के प्रति विरोधी रूख के कारण वह उसका कुछ लाभ न उठा सकी। स्वयं संस्कृत साहित्य में भी उस मसय नाटक रचना क्षीण हो चुकी थी। वस्तुतः यह काल आचार्यों का काल था। काव्यशास सम्बन्धी जितना मौलिक कार्य इस युग में हुआ उतना नाटक आदि क्षेत्र में नहीं। इसी से संस्कृत आचार्यों का जितना प्रभाव (रीतिकाल में) हिन्दी पर पड़ा उतना संस्कृत नाटक का नहीं, फलतः नाटक का उद्भव न हो सका। पूर्ववर्ती भाषा अपभ्रन्श में भी नाटकों का अभाव होने से हिन्दी को प्रत्यक्ष परम्परा प्राप्त न हुई। गद्य का अभाव भी इस सन्दर्भ में एक बड़ा कारण था। जातीय उत्साह के अभाव के कारण भी नाटक जैसा सामाजिक विकास हो सका।

फिर भी चौदहवीं शताब्दी से लेकर अठारहवीं शताब्दी के मध्य तक नाटकों के नाम पर विद्यापति कृत रूक्मणी हरण’ और ‘पारिजातहरण’ केशवदास कृत ‘विज्ञान गीता’ लच्छिराम कृत ‘करुणाभरण’, हृदयराम पंजाबी कृत ‘हनुमन्नाटक’, यशवन्त सिंह आदि दस लेखों द्वारा अनूदित ‘प्रबोधचन्द्रोदय’, प्राणचन्द्र चौहान कृत ‘रामायण महानाटक’ आदि पद्यात्मक नाटक उपलब्ध है, परन्तु इन्हें नाटकों की कोटि में नहीं रखा जा सकता।

इस शताब्दी का दूसरा महत्वपूर्ण नाटक का सैयद आगा हुसैन ‘अमानत’ का ‘इन्दर सभा’ (1853) है। यह रासलीला और स्वांग शैली में लिखा गया पद्यात्मक नाटक है। यह लखनऊ में नवाब वाजिद अली शाह के दरबार में खेला गया। कुछ विद्वान इसे हिन्दी का पहला नाटक मानते है।

अंग्रेजों और उनके साहित्य के सम्पर्क में आने पर भारतीयों में नवीन चेतना का संचार हुआ। ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने अंग्रेजों के मनोरंजन के लिए कलकत्ता, मुम्बई, चेन्नई, पटना आदि बड़े नगरों में अभिनय-शालाओं की स्थापना की। उनकी देखा-देखी भारतीय शिक्षितों की दृष्टि भी  अभिनय और नौटकी की ओर गई। फलस्वरूप हिन्दी में भी नाटय रचना का श्रीगणेश हुआ।

19वीं शताब्दी में रीवा नरेश महाराज विश्वनाथ सिंह ने ‘आनन्द रघुनन्दन’ (1821- 1854) नामक नाटक लिखा। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इसे हिन्दी का पहला नाटक माना है। इसमें ब्रजभाषा-गद्य का भी प्रयोग हुआ। राजतिलक के समय नाटककार ने अरबी और अंग्रेजों में गीत गवाए हैं। पात्रों की डील, धराधर तामल्ल, उदण्ड, जगकारी जैसे विचित्र नाम हैं। राम के राजतिलक के समय अप्सराएँ पूरा पूरा नायिक भेद कह उठती हैं। इस शताब्दी में तीसरा महत्वपूर्ण मोलिक नाटक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के पिता गोपालदास (गिरधरदास) ने सन् 1859 ई. में ‘नहुष’ लिया। अनेक आलोचकों के अनुसार यही हिन्दी का सर्वप्रथम आधुनिक ढंग का नाटक है। इसमें पद्य अपेक्षतया कम है। चौथा मुख्य नाटक ‘कृष्णचरित्रोपाख्यान’ है। | सितम्बर 1835 ई. को नेवारियों द्वारा ब्रिटिश रेजीडेंसी, काठमाडु, नेपाल में इन्द्रयात्रा के वार्षिकोत्सव पर इसका अभियन किया गया था। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि यह खड़ी-बोली गद्य में है।

संक्षेप में भारतेन्दु-पूर्व हिन्दी नाटक का यही विवरण है।

भारतेन्दु युग

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र हिन्दी नाटक के जन्मदाता और उन्नायक हैं। उन्होंने और उनके मित्र मण्डल ने हिन्दी साहित्य की उपन्यास और निबन्ध आदि विधाओं की तरह नाटक विधा का भी सृजन और उन्नयन दिया। भारतेन्दु ने सर्वप्रथम ‘विद्या सुन्दर’ (1868 ई.) का अनुवाद किया। डॉ. रामचन्द्र तिवारी इसे संस्कृत के चौर कवि की रचना मानते हैं और अन्य विद्वान बंगाल की कृति बतलाते हैं। इसकी द्वितीय आवृत्ति में स्वयं भारतेन्दु ने लिखा था- ‘विशुद्ध हिन्दी भाषा के नाटकों के इतिहास में यह ‘विद्या सुन्दर’ चौथा नाटक है। नेवाज कृत ‘शकुन्तला’ या ‘बजवासी’ दास कृत ‘प्रबोधचन्द्रोदय’ नाटक नहीं, काव्य है। इससे हिन्दी भाषा में नाटकों की गणना तो महाराज विश्वनाथ सिंह के ‘आनन्दरघुनन्दन’ और मेरे पिता के ‘नहुष’ नाटक से प्रारम्भ होती है। यही दो प्राचीन ग्रन्थ भाषा में वास्तविक नाटक के रूप में मिलते हैं। यों नाम को तो ‘देवमायाप्रपंच’, ‘समायासार’ इत्यादि कई भाषा ग्रन्थों के पीछे नाटक शब्द लगा दिया गया है। इसमें पीछे शकुन्तला का अनुवाद राजा लक्ष्मण सिंह ने किया है। यदि पूर्वोक्त दोनों ग्रन्थों में ब्रजभाषा मिश्रित होने के कारण हिन्दी न मानें तो ‘विद्या सुन्दर’ नाटक गुण में अद्वितीय न होने पर भी द्वितीय है। भारतेन्दु के वक्तव्य से स्पष्ट है कि उन्हें पूर्ववर्ती क्षीण नाट्य परम्परा की पूरी जानकारी न थी।

इसके बाद भारतेन्दु ने अनेक मौलिक नाटक लिखकर और संस्कृत तथा बंगला के नाटकों का छायानुवाद कर हिन्दी नाटक को नवीन धरातल प्रदान किया, मौलिक नाटकों में पहला ‘वैदिकी हिंसा-हिंसां न भवति’ (1873 ई.) जिसमें धर्म की आड़ लेकर मांसाहार करने वालों पर करारा व्यंग्य किया है। ‘प्रेमयोगिनी’ (1875 ई.) में काशी के पाखण्डपूर्ण जीवन पर छींटे हैं। यह रचना अपूर्ण है। ‘विषस्य विषभौ पधम’ (1876 ई.) में बड़ौदा में गायकवाड़ के गद्दी से उतारे जाने और उनके स्थान पर सयाजीराव के विठाए जाने की घटना में आधार पर तत्कालीन देशी रियासतों के षड़यन्त्रों की कलई खोली है। ‘चन्द्रावली’ (1876ई.) प्रेम नाटिका है। इसमें चन्द्रवली द्वारा नायक कृष्ण को प्राप्त करने का हृदयग्राही वर्णन है। भारतेन्दु की भक्ति भावना इसमें पूर्ण रूप से उजागर हो उठी है। सन् 1876 ई. में ही उन्होंने सुप्रसिद्ध ‘भारत दुर्दशा’ नाटक की रचना की यह भारतेन्दु के राजनीतिक सामाजिक विचारों का दर्पण है। नीलदेवो (1880 ई.) में मुस्लिम आक्रान्ताओं के सन्दर्भ में हिन्दू नारी के स्त्रीत्व गरिमा, निर्भीकता को चित्रित करने के साथ देशभक्ति के स्वर को भी मुखरित किया है। ‘अन्धेर नगरी’ (1881 ई.) प्रहसन में अव्यवस्थित राज्यव्यवस्था पर कटु व्यंग्य है। ‘सती प्रताप’ (1883 ई.) अपूर्व कृत पौराणिक नाटक है। अनूदित नाटकों में राजशेखर कृत ‘रत्नावली’, श्री कृष्णा मिश्र ‘प्रबोधचन्द्रोदय’ के तीसरी अक पर आधारित पाखण्ड विडम्बना कांचन कवि कृत ‘धनंजय विजय’ चण्ट कौशिक के आधार पर सत्य हरिश्चन्द्र’ विशाखदत्त कृत ‘मुद्राराक्षस’ (1875 ई.) शेक्सपिया कृत ‘मर्चेन्ट आफ वेनिस का ‘दुर्लभवन्धु’ या ‘वेनिस का बाँका’ मुख्य हैं।

उक्त नाटक-रचनाओं और उनकी विषय-वस्तु के विवरण से ही भारतेन्दु का महत्व स्पष्ट हो जाता है। उन्होंने नाट्य परम्परा का श्रीगणेश ही नहीं किया, अपितु उसे जहाँ अतीत के ऐतिहासिक  और पौराणिक प्रसंगों से जोड़ा वहाँ समसामयिक जीवन की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और नैतिक विडम्बनाओं को भी यथार्थवादी धरातल पर चित्रित किया। सामयिक विषयों में उनकी दृष्टि सामाजिक और राजनीतिक चेतना की ओर उन्मुख थी। रंग-मंच भी उनके सामने था। अतः बल हीनताओं के होने पर भी उनके नाटकों ने हिन्दी नाटकों को दिशा निर्देश किया।

भारतेन्दु ने स्वयं जहाँ हिन्दी नाटक का विकास किया, वहाँ उनकी ‘मित्र मण्डली’ ने भी अपूर्व योग दिया। मित्र मण्डली के प्रमुख सदस्य लाला श्रीनिवासदास का ‘रणधीर-प्रेममोहनी’ (1877 ई.) अपने समय का अत्यन्त लोकप्रिय नाटक था, जिसका अनेक बार मंचन किया गया। इसमें एक कल्पित प्रेम कथा है। ‘संयोगिता स्वयंवर’ ‘प्रह्लाद चरिख’ और ‘तृप्ता-संवरण’ लालाजी अन्य नाटक हैं। भारतेन्दु जी के फुफुरे भाई राधाकृष्ण दास ने भी ‘दुखिनी वाला’, ‘धर्मालाप’, महारानी पद्मावती’ और ‘महाराजा प्रतापसिंह’ नाटक लिखे। अन्तिम नाटक यथेष्ट लोकप्रिय हुआ। किशोरीलाल गोस्वामी ने ‘नाट्य सम्भव’, ‘मयंक मंजरी’ नाटकों और चौपट चपेट नामक प्रहसन की रचना की। बदरीनारायण चौधरी ‘प्रेमधन’ कृत ‘भारत सौभाग्य’ बालकृष्ण भट्ट कृत ‘दमयन्ती स्वयंवर’, ‘रेल का विकट खेल’, प्रताप नारायण मिश्र कृत ‘भारत दुर्दशा’ आदि भी उल्लेखनीय नाटक हैं।

भारतेन्दु युग के नाटक साहित्य का परिणाम बहुत अधिक है। परन्तु उनमें से भारतेन्दु के अतिरिक्त किसी की भी रचनाएँ युग-प्रवर्तन या युग को प्रभावित करने वाली न बन सकीं। सबसे अधिक नाटक ऐतिहासिक और पौराणिक विषयों पर लिखे गए, परन्तु इसमें सामयिक समस्याओं का संस्पर्श कहीं भी न था, इसलिए वे महत्वपूर्ण स्थान न पा सके। केवल सामाजिक समस्याओं पर लिखे गये नाटकों में नवीन चेतना के स्वर फूटते दिखाई देते हैं। भारतेन्दु के समान अन्य नाटककारों ने भी सामाजिक कुप्रथाओं, अन्धविश्वासों और रूढ़ियों पर करारी चोट की है।

प्रसाद-पूर्व निष्क्रिय अन्तराल- महाकवि जयशंकर प्रसाद’ के ‘नाट्य-साहित्य में पदार्पण से पूर्व और भारतेन्दु के देहान्त के बीच के समय नाट्य-कला की दृष्टि में निष्क्रियता का युग है। इस युग में एक भी ऐसा नाटक नहीं लिखा गया, जिससे किसी नाट्य-प्रतिभा के उदय का अहसास होता। इसी बीच अंग्रेजी, संस्कृत और उर्दू से अनुवादों का क्रम जारी रहा। संस्कृत के कालिदास, भवभूति, अंग्रेजी के शेक्सपियर और बंगला के द्विजेन्द्रपाल राय और रवीन्द्रनाथ ठाकुर के नाटकों के अनुवाद हुए।

प्रसाद युग

हिन्दी नाट्य-साहित्य के उद्भव और विकास की दृष्टि से जैसे भारतेन्दु का स्थान अविस्मरणीय है, उसी प्रकार उसे उत्कर्ष तक पहुंचाने की दृष्टि से ‘प्रसाद जी’ का नाम अमर है। अभी तक वे हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ नाटककार हैं, इसी कारण उनके युग को प्रसाद युग की संज्ञा दी गयी।

जयशंकर प्रसाद ने छोटे-बड़े मिलाकर कुल 14 नाटक लिखे हैं। उनमें 8 ऐतिहासिक, 4 पौराणिक और भावनात्मक हैं। उन्होंने सबसे पहला नाटक ‘सज्जन’ लिखा, जो सन् 1911 ई0 में प्रकाशित हुआ। इसके बाद ‘कल्याण परिणय’ (1912) ‘करुणालय’ (1913), ‘प्रायश्चित’ (1914) और ‘राजश्री’ (1915) में प्रकाशित हुए। ये पाँचों नाटक नाट्यकला की दृष्टि से अपरिपक्व हैं। पर इसमें वे संकेत निहित हैं, जिनसे नाटककार के उज्ज्वल भविष्य की आशा बंधती है। लगता है प्रसाद जी को इनसे स्वयं संतोष न हुआ और वे अध्ययन-मनन की साधना में जुट गए।

लगभग 6 वर्ष के अन्तराल के बाद उनका ‘विशाख’ नामक नाटक प्रकाशित हुआ। इसकी भूमिका में उनका दृढ़ स्वर बोल रहा था ‘इतिहास का अनुशीलन किसी भी जाति को अपना आदर्श संगठित करने के लिए अत्यन्त लाभदायक होता है। क्योंकि हमारी गिरी दशा को उठाने के लिए हमारे जलवायु के अनुकूल जो हमारी अतीत सभ्यता है, उससे बढ़कर उपयुक्त और कोई आदर्श हमारे अनुकूल होगा कि नहीं इसमें मुझे सन्देह है। मेरी इच्छा भारतीय इतिहास के अप्रकाशित अंश में से उन प्रकाण्ड घटनाओं का दिग्दर्शन कराने की है, जिन्होंने हमारी वर्तमान स्थिति को बनाने का बहुत प्रयत्न किया है। इस दृष्टिकोण को सामने रखकर प्रसाद जी ने एक के बाद एक ऐसे नाटक हिन्दी जगत को दिया, जिस पर कोई भी साहित्य गर्व कर सकता है। ये नाटक ‘अजातशत्रु’ (1922), ‘कामना’ (1923-24 में लिखित और 1927 में प्रकाशित) जनमेजय का नागयज्ञ'(1926), ‘स्कन्दगुप्त’ (1928), ‘एक पूंट’ (1929) ‘चन्द्रगुप्त मौर्य (1931) और ‘धुवस्वामिनी’ (1932-33 ) हैं। इन नाटकों द्वारा प्रसाद जी अपने उद्देश्य में सफल हुए। उन्होंने भारत के स्वर्णित अतीत की गौरवमयी झाँकी प्रस्तुत की। अन्धकार में लुप्त हमारी संस्कृति, भारत के उज्ज्वल अंश जिनसे भारत संसार का सिरमौर था, हमारे सामने ला प्रस्तुत किये। उन्होंने तत्कालीन वातावरण की सृष्टि इतने सजीव रूप में की कि वह हमारे सामने मूर्त हो उठा। इस कार्य में इतिहास कल्पना जैसा संयोजन उन्होंने किया है। वह अनुपम है। (1) इतिहास और कल्पना का मंजुल समन्वय, (2) ऐतिहासिक यथार्थ का अंकन, (3) अन्तर्द्वन्द्व पूर्ण सहज नारी चरित्रों की सृष्टि, (4) सांस्कृतिक गरिमा का प्रभावपूर्ण चित्रण, (5) राष्ट्रीयता की अभिव्यक्ति, (6) कवित्व, (7) यौवन सौन्दर्य और शक्ति का अपरूप आलेखन आदि ऐसी विशेषताएँ हैं जो प्रसाद जी के नाटकों में अनायास मुखर हो उठती हैं।

प्रसाद जी ने अपने नाटकों में पूर्वी-पश्चिमी नाट्य-कला का सहज समन्वय कर अपने स्वतन्त्र मार्ग का निर्माण किया था। वे नाटकीयता के मार्ग को पहचान चुके थे। इसी से उनके नाटकों में संघर्ष का महत्वपूर्ण स्थान है। वह संघर्ष उनके द्वारा चुनी हुई घटनाओं से तो व्यजित होता ही है, पात्रों के अन्तर्द्वन्द्व के रूप में भी मुखर हुआ है।

लक्ष्मीनारायण मिश्र का पहला नाटक ‘आधी रात’ सन् 1919 में प्रकाशित हुआ। उसके बाद ‘राक्षस का मन्दिर’, ‘मुक्ति का रहस्य’ (1932) ‘राजयोग’ (1934) और ‘सिंदूर की होली’ (1934) में प्रकशित हुए। इनमें से अधिकांश में मिश्र जी ने असन्तुष्ट वैवाहिक जीवन को समस्या बनाया। इससे हिन्दी में समस्या नाटका का सूत्रपात हुआ।

प्रसाद जी का अनुकरण संभव नहीं- प्रसाद जी के नाट्य पक्ष का अन्य नाटककार अनुकरण नहीं कर पायें। क्योंकि प्रसाद जी अपने नाटकों के ऐतिहासिक कथानकों के निर्माण के लिए जितना अध्ययन और मनन करते थे उतना सबके लिए सहज संभव न था। प्रसाद जी ने ‘यशोधरा क्षेत्र’ नामक लिखा-लिखाया बड़ा नाटक इसलिए नष्ट कर लिया कि इतिहासकारों ने उन घटनाओं को असत्य ठहराया था। फिर जैसी प्रतिभा, कवित्व शक्ति और नाटकीयता की पहचान उनमें थी, वैसी सब में न थी। फिर भी उदयशंकर भट्ट, जगदीश चन्द्र माथुर और डॉ0 रामकुमार वर्मा आदि ने उनके पथ के अनुगमन का प्रयत्न किया है।

अन्य नाटककार – प्रसाद युग के अन्य नाटककारों में गोविन्द वल्लभ पन्त (वरमाला, राजमुकुट, अंगूर की बेटी, अन्तःपुर का छिद्र) बेचन शर्मा उग्र (महात्मा ईसा) और लक्ष्मी नारायण मिश्र प्रमुख हैं।

प्रसादोत्तर युग

प्रसाद के बाद नाटक-साहित्य का बहुविध विकास हुआ, परन्तु उन जैसी प्रतिभा का विकास न हो सका। बहुविध विकास की झांकी निम्न प्रकार है-

(1) ऐतिहासिक और पौराणिक नाटक- प्रसादोत्तर युग में ऐतिहासिक नाटक ही सबसे अधिक लिखे गये। इस दिशा में महत्वपूर्ण कार्य करने वालों में हरिकृष्ण प्रेमी, वृन्दावनलाल वर्मा, सेठ गोविन्ददास, उदयशंकर भट्ट, लक्ष्मीनारायण मिश्र प्रमुख हैं।

ऐतिहासिक नाटककारों में प्रसाद जी के बाद हरिकृष्ण प्रेमी को सबसे अधिक ख्याति मिली। उनका प्रथम नाटक ‘रक्षाबन्धन’ (1934) प्रसाद जी के सामने ही प्रकाशित हो गया था। उसके बाद ‘प्रतिशोध’ ‘शिवा साधना’ आदि लगभग 14 नाटक प्रकाशित हुए। इन्होंने मुस्लिम युग को अपना विषय बनाया और उनके परिप्रेक्ष्य में सफलतापूर्वक आधुनिक समस्याओं का निरूपण किया।

ऐतिहासिक, पौराणिक और भावनाट्यों के क्षेत्र में उदयशंकर भट्ट का योगदान प्रमुख हैं, इन्होंने ‘अम्बा’ और ‘राधा’ आदि एक दर्जन से अधिक नाटक लिखे हैं। आचार्य शुक्ल के अनुसार भट्ट जी की कला का पूर्ण विकास उसके पौराणिक नाटकों में मिलता है। पौराणिक क्षेत्र के भीतर वे ऐसे पात्र ढूंढ़ लाये हैं, जिनमें चारों ओर जीवन की रहस्यमयी विशेषताएँ बड़ी गहरी छाया डालती आई है- ऐसी विशेषताएँ जो वर्तमान को भी क्षुब्ध करती हैं। समस्या नाटकों की असफलता के बाद लक्ष्मीनारायण मिश्र भी ऐतिहासिक नाटकों की ओर मुड़े और ‘गरुणध्वज’, ‘नारद की वीणा’ ‘जगद्गुरु शंकराचार्य’ आदि दो दर्जन से ऊपर नाटक लिखे। मिश्र जी अपने को प्रसाद जी का प्रतिद्वन्द्वी घोषित करते हैं, परन्तु वे अभी उस कोटि तक नहीं पहुंचे हैं, जहाँ प्रसाद जी हैं। सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक उपन्यासकार वृन्दावन लाल वर्मा ने भी ‘पूर्व की ओर’, ‘ललित विक्रम’ आदि अनेक नाटकों की रचना की। नाटकों की बड़ी संख्या में रचना करने वालों में सेठ गोविन्ददास का भी नाम है। जगदीश चन्द्र माथुर की कलात्मक दृष्टि से इस क्षेत्र में यथेष्ट सफलता मिली है। ‘कोणार्क’ और ‘पहला राजा’ इस दृष्टि से उल्लेखनीय रचनाएँ हैं।

अन्य ऐतिहासिक पौराणिक नाटककारों में चन्द्रगुप्त विद्यालंकार (रेवा) सत्येन्द्र (मुक्तियज्ञ) जगन्नाथ प्रसाद मिलिन्द (गौतम नन्द) देवराज दिनेश (यशस्वी भोज) रांगेयराघव (रामानुज) धर्मवीर भारती (अन्धा युग) प्रमुख हैं।

सामाजिक समस्या नाटक- प्रसादोत्तर युग के सामाजिक नाटककारों में उपेन्द्र नाथ अश्क विशेष महत्वपूर्ण हैं। अश्क ने एक दर्जन से अधिक नाटकों की रचना की है, जिनमें ‘कैद’ ‘उड़ान’, ‘भंवर’, ‘अलग-अलग रास्ते’, ‘अंजो दीदी’ और अंधीगली’ विशेष चर्चा के विषय बने हैं। इन नाटकों में उन्होंने मध्यमवर्गीय जीवन की विवाह, दहेज, मनचाहे विवाह और आर्थिक कठिनाइयों आदि को अपना विषय बनाया है। किन्तु मूलतः नाटकों में असन्तुष्ट वैवाहिक जीवन को अनायास प्रमुखता मिल गई समस्या नाटककारों में दूसरा महत्वपूर्ण नाम डा. लक्ष्मी नारायण लाल का है। इन्होंने अपने नाटकों में शिल्पगत प्रयोग किये हैं। रंगमंच से समन्वय होने के कारण इनके नाटक अभिनेय हैं। ‘अंधा कुआँ’, ‘मिस्टर अभिमन्यु’, ‘दर्पण’ इस दृष्टि से सफल नाटक हैं। वृन्दावन लाला वर्मा (राखी की लाज, खिलौने की खोज, देखा-देखी आदि), सेठ गोविन्ददास (कुलीनता’, ‘त्याग या ग्रहण’ आदि) उदयशंकर भट्ट(कमला क्रान्तिकारी) भी प्रमुख सामाजिक नाटककार हैं। अन्य नाटककारों में पृथ्वीनाथ रार्मा, जयनाथ नलिन आदि मुख्य हैं।

प्रतीकवादी नाटक- प्रतीक नाटकों में प्रसाद जी की कामना’ के बाद ‘ज्योत्सना'(सुमित्रानन्दन पन्त), ‘छलना’ (भगवती प्रसाद वाजपेयी) ‘नाटक तोता मैना’ (लक्ष्मीनारायण लाल) महत्वपूर्ण कृतियाँ हैं।

नवलेखन युग- नवलेखकों में मोहन राकेश को नाट्य जगत में नया मोड़ लाने का श्रेय है। उनके ‘आषाढ़ का एक दिन’ (1959) ‘लहरों के राजहंस’ (1963) और ‘आधे-अधूरे’ हिन्दी नाटक के मील के पत्थर माने गये हैं। उनके असमय महाप्रयाण कर जाने से हिन्दी नाटक को बड़ी हानि हुई है। अन्य नवलेखकों में विष्णु प्रभाकर, नरेश मेहता, मन्नू भण्डारी और रंगमंच के पत्रकारों, नाटककारों में विनोद रस्तोगी, सर्वदानन्द, विमल रैना और सन्तोष नारायण नौटियाल आदि का योगदान महत्वपूर्ण है।

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