भाषा क्या है तथा भाषा की परिभाषा (What is language and definition of language)
भाषा क्या है तथा भाषा की परिभाषा (What is language and definition of language)
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प्रस्तावना (भाषा क्या है)
मनुष्य सामाजिक प्राणी है समाज में रहने के नाते उसे आपस में सर्वदा ही विचार-विनिमय करना पड़ता है। कभी वह शब्दों या वाक्यों द्वारा अपने आपको प्रकट करता है तो कभी सिर हिलाने से उसका काम चल जाता है । समाज के उच्च और शिक्षित वर्ग में लोगों को निर्मंत्रित करने के लिए निमंत्रण – पत्र छपवाये जाते हैं तो देहात के अनपढ़ और निम्नवर्ग में निर्मंत्रित करने के लिये हल्दी, सुपारी या इलायची बाँटना पर्याप्त समझा जाता रहा है। रेलवे गार्ड और रेल-चालक का विचार-विनिमय झंडियों से होता है तो बिहारी के पात्र’ भरे भवन में करता है नैनन ही सो बात।’ चोर अँधेरे में एक-दूसरे का हाथ छूकर या दबाकर अपने आपको प्रकट कर लिया करते हैं इसी तरह हाथ से संकेत, करतल-ध्वनि, आँख टेढ़ी करना, मारना या दबाना, खाँसना, मुँह बिचकाना तथा गहरी साँस लेना आदि अनेक प्रकार के साधनों से हमारे विचार-विनिमय का काम चलता है । ऐसे ही यदि पहले से निश्चित कर लिया जाए तो स्वाद या गंध द्वारा भी अपनी बात कही जा सकती है। उदाहरण के लिए, ‘यदि मैं कॉफी पिलाऊँ तो समझ जाना कि मेरे पास समय है, तुम्हारा काम करूँगा, किन्तु यदि चाय पिलाऊँ तो समझ जाना कि समय नहीं है, काम नहीं करुँगा, या ‘यदि मेरे कमरे में गुलाब की अगरबत्ती जलती मिले तो समझना कि तुम्हारा काम हो गया है, किन्तु यदि चंदन की अगरबत्ती जलती मिले तो समझ जाना कि काम नहीं हुआ है।’ आशय यह कि गंध-इंद्रिय स्वाद-इंद्रिय, स्पर्श-इंद्रिय, दृग-इंद्रिय तथा कर्ण-इंद्रिय इन पाँचों ज्ञान-इंद्रियों में किसी के भी माध्यम से अपनी बात कही जा सकती है। यों इनमें पहली तथा दूसरी का प्रयोग प्राय: नहीं होता, हाँ, किया जा सकता है, स्पर्श-इंद्रिय का भी प्रयोग कम ही होता है। इससे अधिक प्रयोग आँख का होता है, जैसे रेल का सिगनल गार्ड की हरी या लाल झंडी, सिर हिलाकर ‘हाँ’ या ‘नहीं’ करना, आदि। किन्तु इन सभी में सबसे अधिक प्रयोग कर्ण-इंद्रिय का होता है। अपनी सामान्य बातचीत में हम इसी का प्रयोग करते हैं। वक्ता बोलता है और श्रोता सुनकर विचार या भाव को ग्रहण करता है।
भाषा शब्द संस्कृत की भाष् धातु से निर्मित है । इसका शाब्दिक अर्थ है- व्यस्त वाणी अर्थात् बोलना या कहना।
भाषा की परिभाषा
किसी वस्तु या शब्द की पूर्ण स्पष्ट तथा वैज्ञानिक परिभाषा करना अत्यंत दुष्कर कार्य है। न्यायशास्त्र में आदर्श परिभाषा की अव्याप्ति, अतिव्याप्ति और असंभव दोषों से मुक्त होना आवश्यक कहा गया है। इन्हीं तथ्यों को ध्यान में रखकर समय-समय पर भाषा की परिभाषा की गई है।
(क) संस्कृत आचार्यों की परिभाषाएँ
- महर्षि पतंजलि ने पाणिनि की अष्टाध्यायी के महाभाष्य में भाषा की परिभाषा इस प्रकार दी गई है-
व्यक्ता वाचि वर्णां येषां त इमे व्यक्तवाच: ।
- भर्तुहरि ने शब्द उत्पत्ति और ग्रहण के आधार पर भाषा को परिभाषित किया है।
शब्द कारणमर्थस्य स हि तेनोपजन्यते।
तथा च बुद्धिविषयादर्थाच्छब्दः प्रतीयते।
बुद्धयर्थावेव बुद्धयर्थे जाते तदानि दृश्यते।
- अमर कोष में भाषा की वाणी का पर्याय बताते हुए कहा गया है-
ब्राह्मी तु भारती भाषा गीर वाकू वाणी सरस्वती।
(ख) आधुनिक भारतीय वैयाकरणों, भाषाविदों की परिभाषाएँ
आधुनिक युग में भाषा की परिभाषा पर कुछ नए ढंग से विचार करने के प्रयत्न किए गए हैं। इस संदर्भ की कुछ परिभाषाएँ इस प्रकार हैं-
- पं, कामताप्रसाद गुरु ने अपनी पुस्तक हिंदी-व्याकरण’ में भाषा की परिभाषा इस प्रकार दी है “भाषा वह साधन है जिसके द्वारा मनुष्य अपने विचार दूसरों पर भली-भाति प्रकट कर सकता है और दूसरों के विचार आप स्पष्टतया समझ सकते हैं।”
- दुनीचंद ने हिंदी-व्याकरण’ में भाषा की परिभाषा को इस प्रकार लिपिबद्ध किया है-“हम अपने मन के भाव प्रकट करने के लिए जिन सांकेतिक ध्वनियों का उच्चारण करते हैं, उन्हें भाषा कहते हैं ।
- आचार्य किशोरीदास वाजपेयी के अनुसार “विभिन्न अर्थों में सांकेतिक शब्द-समूह ही भाषा है जिसके द्वारा हम अपने विचार या मनोभाव दूसरों के प्रति बहुत सरलता से प्रकट करते हैं।”
- डॉ. राम बाबू सक्सेना के मतानुसार “जिन ध्वनि-चिह्नों द्वारा मनुष्य परस्पर विचार विनिमय करता है उसे भाषा कहते हैं।”
- श्यामसुन्दर दास ने ‘भाषा-विज्ञान’ में भाषा के विषय में लिखा है “मनुष्य और मनुष्य के बीच वस्तुओं के विषय में अपनी इच्छा और मति का आदान-प्रदान करने के लिए व्यक्त ध्वনি-संकेतों का जो व्यवहार होता है, उसे भाषा कहते हैं।”
- डॉ. भोलानाथ तिवारी ने भाषा को परिभाषित करते हुए ‘भाषा-विज्ञान’ में लिखा है ” भाषा उच्चारण अवववों से उच्चारित मूलत: प्रायः यादृच्छिक ध्वनि-प्रतीकों की वह व्यवस्था है, जिसके द्वारा किसी भाषा समाज के लोग आपस में विचारों का आदान-प्रदान करते हैं।”
- आचार्य देवेन्द्रनाथ शर्मा ने भाषा-विज्ञान की भूमिका’ में लिखा-“उच्चारित ध्वनि-संकेतों की सहायता से भाव या विचार की पूर्ण अभिव्यक्ति भाषा है।”
- ৪. डॉ. सरयूप्रसात अग्रवाल के अनुसार “भाषा वाणी द्वारा व्यक्त स्वच्छंद प्रतीकों की वह रीतिबद्ध पद्धति है, जिससे मानव समाज में अपने भावों का परस्पर आदान प्रदान करते हुए एक दुसरे को सहयोग देता है।”
- डॉ. वेवीशंकर द्विवेती के मतानुसार “भाषा यादृच्छिक वाक्यप्रतीकों की वह व्यवस्था के, जिसके माध्यम से मानव समुदाय परस्पर व्यवहार करता है।”
भाषा की प्रकृति (विशेषताएँ) – यहाँ पर 18 प्रकृतियों का वर्णन किया गया है
(ग) पाश्चात्य विद्वानों की परिभाषाएँ
पाश्चात्य विद्वानों ने भी भाषा को परिभाषित करने का प्रयत्न किया है। कुछ प्रमुख परिभाषाएँ इस प्रकार हैं-
- प्लेटो ने विचार को भाषा का मूलाधार मानते हुए कहा है “विचार आत्मा की मुक बातचीत है, पर वही जब ध्वन्यात्मक होकर होंठों पर प्रकट है, तो उसे भाषा की संज्ञा देते हैं।”
- मैक्समूलर के अनुसार-“भाषा औरकुछ नहीं है, केवल मानव की चतुर बुद्धि द्वारा आविष्कृत एसे उपाय है जिसकी मदद से हम अपने विचार सरलता और तत्परता से दूसरों पर प्रकट कर सकते हैं और चाहते हैं, कि इसकी व्याख्या प्रकृति की उपज के रूप में नहीं बल्कि मनुष्यकृत पदार्थ के रूप में करना उचित है।”
- ब्लाक और ट्रेगर के शब्दों में “A language is a system of arbitrary vocal symbols by means of which a social group co-operates” अर्थात् भाषा, मुखोच्नरित यादृन्छिक ध्वनि-प्रतीकों की वह व्यवस्था है, जिसके माध्यम से एक समुदाय के सदस्य परस्पर विचार विनिमय करते हैं ।
- हेनरी स्वीट का कथन है-“Language may be defined as expression of thought by means Of speech-sound.” अर्थात् जिन व्यक्त ध्वनियों द्वारा विचारों की अभिव्यक्ति होती है, उसे भाषा कहते हैं ।
- ए. एच. गार्डिबर का मंतव्य है-“The common definition of speech is the use of articulate sound symbols for the expression of thought.” अर्थात् विचारों की अभिव्यक्ति के लिए जिन व्यक्त एवं स्पष्ट भ्वनि-संकेतों का व्यवहार किया जाता है, उनके समूह को भाषा कहते हैं।
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