हिन्दी / Hindi

विद्यानिवास मिश्र की निबंध शैली | ललित निबन्ध किसे कहते हैं?

विद्यानिवास मिश्र की निबंध शैली | ललित निबन्ध किसे कहते हैं?

विद्यानिवास मिश्र की निबंध शैली

ललिता निबन्ध, साहित्य की एक कोटि है। निबन्ध में रचनाकार के व्यक्तित्व का रचना ही ललित निबन्ध की खास पहचान है। इस प्रकार के निबन्धों में निबन्धकार विषय को मात्र सहारा के लिये सामने रखता है, निबन्ध में जो कुछ बोलता है, वह उसका व्यक्तित्व है। वह अपने जीवन के अनुभव और पांडित्य के विषय को जीवन और जगत, साहित्य एव संस्कृति से जोड़ता हुआ मर्मस्पर्शी बनाता है।’ शैली की दृष्टि से ललित निबन्धकार स्वच्छन्द होता है, इसलिए ललित निबन्धों में एक तीव्र भावावेग मिलता है। जिसमें प्रतिपाद्य विषय के प्रति लेखक की संवेगात्मक प्रतिक्रिया होती है और लेखक विषय के सहारे अपने अन्तर के भावों को बड़ी सहजता से व्यक्त करता चलता है। परिणामतः लेखक और पाठक के मध्य एक आत्मिक वातावरण-सा निर्मित हो जाता है, और पाठक लेखक के ड्राइंग रूप में बैठा हुआ सीधे उससे बातचीत करता हुए महसूस करता है। इस तरह भावात्मकता, निजीपन की आभिव्यक्ति, शैलीगत लालित्य का आग्रह व्यंग्य विनोद की प्रकृति, अनौपचारिकता संस्कृति के प्रतिनिष्ठा, कल्पनाशीलता, पाठकों से आमीयता शैलीगत तथा विषयगत स्वच्छन्दता आदि ललित निबन्धों की मूलभूत विशेषतायें हैं, जो अपनी सौंदर्य निष्ठा के कारण आधुनिकतम विधाओं में अत्यधिक लोकप्रिय होता जा रहा है।

डॉ. विद्यानिवास मिश्र ललित निबन्धकारों में सर्वप्रमुख हैं। उनके निबन्ध अनेक रूपधारी होते हुए भी लालित्य और कमनीयता की दृष्टि से अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। पौराणिक, ऐतिहासिक और लौकिक गाथाओं को लोक संस्कृति के साथ तादात्म्य करके उसे गंभीरतापूर्वक प्रस्तुत  करने में मिश्र जी की कला बेजोड़ है। उनके ललित निबन्धों में धरती गन्ध और लोक संस्कृति की सरलता है। वे वर्तमान जीवन की विसंगतियों, कुरूपताओं और रूढ़ियों पर तीखा प्रहार करने में पूर्ण समर्थ हैं। मिश्र जी के निबन्धों में उनके उन्मुक्त मन की भटकन जो ललित निबन्ध के लिए आवश्यक है, शास्त्र लोक संस्कृति एंव लोकाचार का सम्मेलन कराती हुई प्रतीत होती है। भावातिरेक के कारण उनके निबन्धों शैली काव्यमय हो गयी है। अर्थ की गति और प्रगति तथा उत्कर्ष के साथ भाषा और विदेशी रूप से विभिन्न पट बाँध उत्कर्ष की ओर अग्रसर होते हैं और संस्कृति के ललित शब्दों को रुनझुन के समानांतर भावों की गूंज भी मुखर हो उठती है। एक नमूना देखिए-

‘छितवन के सौन्दर्य मे लपट नहीं, आँच नहीं छलकता हुआ मधुर रस नहीं, मंजरित कलकंठ नहीं और पुलक स्पर्श छितवन है।’ अथवा-

‘गौरैये में कोई रूप रंग की विशेषता नहीं , कण्ठ में कोई विशेष प्रकार की विह्वलता नहीं, उड़ान भरन की कोई विशेषता क्षमता नहीं, महज आंगन में फुदकने का उछाह है, उसी प्रकार तुलसी के पौधे में न तो सघन छाँह की शीतलता है, न गंध का जादू, न रूप का शृंगार, केवल आंगन का दुःख दर्द बंटाने की मन में बड़ी उत्कण्ठा है।’

भाषा-

मिश्र जी की भाषा संस्कृतनिष्ठ होते हुए भी भोजपुरी शब्दों, कहावतों लोकथाओं से प्रयुक्त है। उर्दू तथा अंग्रेजी के भी प्रचलित शब्दों का प्रयोग है। उपाख्यानों एंव कथानकों का रोचक वर्णन है। डॉ. शिवप्रसाद सिंह के अनुसार ‘इनकी भाषा में आपकी भोजपुरी संस्कारिता, ताप्ती की प्रखर धारा, हिमालय की तलहटी से रहने वाले व्यक्तित्व के उतुंग भंग और संस्कृत में पले एक खीरी ब्राह्मण की वदान्यता से पुष्ट वैदुष्य और सबके ऊपर एक आधुनिक बुद्धिजीवी को अपने भीतर के देवता और दैत्य के निरन्तर युद्धरत रहने की सरगर्मी भी मिलेगी। मिश्रजी की भाषा के कुछ उद्धरण उदाहरणार्थ प्रस्तुत है-

संस्कृतनिष्ठ भाषा-

मिश्र जी ने जहां संस्कृतनिष्ठ भाषा का प्रयोग किया है, वहाँ तत्सम शब्दों की अधिकता तो है, परन्तु भाषा में नीरसता एवं दुरूहता नहीं आ पायी है यथा-

‘पारिवारिक साहचर्य भाव ही हमारे साहित्य की सबसे बड़ी थाती है। वह कुटुम्ब भाव ही हमें चर-अचर, जड़ चेतन जगत् के साथ कर्त्तव्यशील बनाता है। ग्रहों की गति से अपने जीवन को परखने का विश्वास कोई अर्थ शून्य और अंधविश्वास नहीं है, कुटुम्ब भावना का ही हमारे विराटदर्शी भाव जगत पर प्रतिक्षेप है। जैसे परिवार में छोटे से छोटे और बड़े-से-बड़ा एक सा ही समझा जाता है, वैसे सृष्टि में हम ‘अणीरणीयन् और महतोमहीयात्, को एक सी नजर से देखने के आदी हैं।

उर्दू तथा अंग्रेजी के प्रचलित शब्दों का प्रयोग-

अपने विषय वस्तु को स्पष्ट करने तथा उसे प्रभावशाली बनाने के लिए मिश्र जी ने कथा के बीच-बीच में उर्दू तथा अंग्रेजी शब्दों का भी प्रयोग किया है। यथा-

“तुम अपने घर आने वाली खुशी के लिए फरमान निकालकर गर्मी मनाओ, पर तुम मेरे घर की खुशी मेरी मिनी और उसके सहेली गोरैयों की खुशी पर गर्मी की गैस क्यों छिड़क रहे हो।?”

मुहावरों का प्रयोग-

अपने कथन कोचमत्कारपूर्ण तथा प्रभावोत्पादक बनाने के लिए मिश्र जी ने मुहावर्ग एंव लोकोक्तियों का भी स्पष्ट प्रयोग किया है।

यथा- ‘वे भूल जाते हैं कि भारतवर्ष का शौर्य एक पिपासा नहीं है, यह ‘भेडिये की भूख’ नहीं है, झूठ-मूठ बादल को गरजते देखकर “शेर की गरज उठने का उत्साह नहीं है। यह उदात्त गुणों की कसौटी है।’

शैली-

मिश्र जी एक ललित निबन्धकार ही नहीं एक सफल कवि भी हैं, इसलिए उनके निबन्धों में कवि-हृदय की झलकता है जो निबन्धों की शैली को सरस एवं भावात्मक बना देता है। विषय के अनुरूप इन शैलियों का पर्याप्त अन्तर है। फिर भी, आवश्यकता के अनुसार इनके एक ही निबन्ध में विभिन्न शैलियों का प्रयोग दृष्टिगोचर होता है। इनकी प्रमुख शैलियाँ निम्नलिखित हैं।

(1) वर्णनात्मक शैली- मिश्रजी के सामान्य भावों की व्यंजना में इस शैली का प्रयोग हुआ है, जिसमें वाक्य सामान्य रूप में रहते हैं और भाषा सरल एंव सुबोध होती है। एक उदाहरण देखिए-

“गौरैया मेरे लिये छोटी नहीं, बहुत बड़ी है, वैसे ही जैसे मेरी दो सालों की मिनी छोटी होती हुई भी मेरे लिए बहुत बड़ी है। ‘बालसखा’ के सम्पादक मित्रवर सोहनलाल द्विवेदी ने एक बार मुझसे बालपयोगी रचना मांगी है। मैंने उन्हें मिनी का फोटोग्राफ भेज दिया और लिखा कि इससे बड़ी रचना में आज तक नहीं कर पाया हूँ।

(2) भावात्मक शैली- जहाँ लेखक भावुकता के क्षणों में आत्मविभोर होकर अपनी निश्छल अनुभूतियों को प्रकट करता है, वहाँ उसकी शैली भावात्मक हो जाती है। ऐसे स्थान पर वाक्य छोटे तथा लम्बे भी, सरल, प्रवाहपूर्ण एवं काव्यात्मक हो जाते हैं। देखिये-

“गौरैयों ने विवश किया, मिनी ने विवश किया, तब मुझे रहना पड़ा। इन तीनों में मुझे सीता की सुधि आती है। इन तीनों में मुझे धरती दुलार छलकता नजर आता है। इसलिए मुझे दुलार के नाम पर यह गुहार लगानी पड़ती है कि धरतीवादियों धरती वहीं नहीं है जो तुम्हारे पैरों के नीचे है, धरती तुम्हें अपार और असंख्य शिशुओं के साथ अपनी गोद भरने वाली व्यापक सत्ता है।”

(3) गवेषणात्मक शैली- जब निबन्धकार चिंतन गम्भीर क्षणों में तर्क के सहारे अपनी मान्यताओं को स्पष्ट करता है, तब उसकी शैली गवेषणात्मक हो जाती है और निबन्धों की भाषा संयत गम्भीर और दुरूह हो जाती है वाक्य लम्बे हो उठते हैं। विद्यानिवास मिश्रजी के भी निबन्धों में शैली की यह विशेषता लक्षित होत है। यथा-

लोगों ने दृष्टि मोड़नी चाही, ऊपर देखिए, ऊंचे बिड़ला मंदिर के दोनों ओर लगी रोशनी की कतार कैसी सुहावनी लगती है पर कतार में मुझे एक कराल अंधकार के उभड़े हुए दांत ही नजर आये और भीतर की घबड़ाहट और बढ़ गयी। नास्तिक न होते हुए भी में उस रोशनी की कतार में अंधकार से उबरने का कोई सहारा पाने की कल्पना नहीं कर पाया।

व्यंग्यात्मक शैली-

मिश्रजी जब सामाजिक व्यवस्थाओं, साहित्यिक तथा विविध परम्पराओं एंव मान्यताओं पर तीखे प्रहार करते हैं तो उनकी शैली व्यंग्यात्मक हो जाती है और हृदय के तार को सीधे झंकृत कर देती है जिससे एक हल्का एंव शिष्ट हास्य भी उभर उठता है। देखिए-

‘मैं न जाने कितने गांवों, कस्बों, शहरों, महानगरों का धुआँ, गर्द-गुबार घुटन भरा धुहाँसा एवं पेट्रोल का गन्ध भरा कुहासा और झकमुक रोशनी टहकती चाँदनी घुप्प अंधेरा, टिमटिमाहट, झिलमिली चकमकाती रोशनी अन्तगर्ग नीली प्रसूत विद्युत ज्योति, सभी झेल चुका हूँ, पी चुका हूँ, पर औद्योगीकरण की नंगी रोशनी में आदमियत की अधेरी रात की उधरी हुई जाँघ पहली बार देख रहा हूँ।

अन्ततः कहा जा सकता है कि मित्र जी के निबन्धों में धरती की गन्ध, लोक संस्कृति की आर्द्रता एंव मांगलिकता के साथ जीवन की कुरूपताओं एंव रूढ़ियों के प्रति क्षोभ की व्यंजना लक्षित होती है। भाषा-शैली की दृष्टि से भी उनके निबन्ध हृदय को स्पर्श करने वाले मनमोहक तथा प्रभावपूर्ण हैं।

हिन्दी – महत्वपूर्ण लिंक

Disclaimer: sarkariguider.com केवल शिक्षा के उद्देश्य और शिक्षा क्षेत्र के लिए बनाई गयी है। हम सिर्फ Internet पर पहले से उपलब्ध Link और Material provide करते है। यदि किसी भी तरह यह कानून का उल्लंघन करता है या कोई समस्या है तो Please हमे Mail करे- sarkariguider@gmail.com

About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

Leave a Comment

(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
close button
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
error: Content is protected !!