समाज शास्‍त्र / Sociology

संयुक्त परिवार का अर्थ एवं परिभाषाएँ | संयुक्त परिवार की विशेषताएँ या लक्षण

संयुक्त परिवार का अर्थ एवं परिभाषाएँ | संयुक्त परिवार की विशेषताएँ या लक्षण | Meaning and definitions of joint family in Hindi | Characteristics or characteristics of joint family in Hindi

संयुक्त परिवार का अर्थ एवं परिभाषाएँ

परिवार समाज की आधारभूत इकाई होती है। परिवार एक ऐसी प्राकृतिक संस्था है जहाँ व्यक्ति का समाजीकरण भी होता है और व्यक्तित्व का निर्माण भी। परिवार दो प्रकार के होते हैं- (1) एकल परिवार (2) संयुक्त परिवार

भारत में संयुक्त परिवार शताब्दियों से चले आ रहे हैं समय और परिस्थितियों के अनुसार इसके ढांचे में अनेक प्रकार के परिवर्तन होते रहे हैं फिर भी यह भारतीय, दर्शन, आर्थिक जीवन, वर्ण और आश्रम, ये और इसी प्रकार के अन्य कितने ही तत्व हमारे सामाजिक इतिहास के महत्वपूर्ण प्रयोग कहे जा सकते हैं, पर सबसे सुलभ, सुखकारी एवं महत्वपूर्ण संस्था भारतीय परिवार है। भारतीय संस्कृति में ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की जो धारणा है, संयुक्त परिवार व्यवस्था उसी का प्रतीक है। पारस्परिक दायित्वों के निर्वहन, सुरक्षा एवं सहयोग की भावना स्वार्थ की संकुचित सीमाओं से मुक्ति, समूह कल्याण तथा आर्थिक उत्पादन की संघटित व्यवस्था के कारण संयुक्त परिवार एक सामाजिक संगठन है।

विभिन्न विद्वानों ने संयुक्त परिवार को परिभाषित करने का प्रयास किया है। जौली के अनुसार- “न केवल माता-पिता तथा संतानें, भाई तथा सौतेले भाई सामान्य सम्पत्ति पर रहते हैं, बल्कि कभी-कभी उसमें कई पीढ़ियों तक की सन्तानें, पूर्वज तथा समानान्तर सम्बन्धी भी सम्मिलित रहते हैं।” श्रीमती इरावती कार्वे ने इसकी परिभाषा इस प्रकार की है, “संयुक्त परिवार ऐसे व्यक्तियों का समूह है जो एक ही घर में रहते, एक ही स्थान पर बना भोजन करते, समान सम्पत्ति से सम्बन्धित होते, सामान्य पूजा में भाग लेते और किसी न किसी प्रकार रक्त सम्बन्ध द्वारा आपस में बँधे होते हैं।”

डॉ. आई.पी. देसाई के अनुसार, “उस परिवार को हम संयुक्त परिवार कह सकते हैं जिसमें अनेक पीढ़ियों के (तीन से अधिक सदस्य) एक साथ रहते हैं तथा सम्पत्ति, आय और पारस्परिक अधिकारों एवं दायित्व द्वारा एक-दूसरे से सम्बन्धित होते हैं।”

श्री मुल्ला ने संयुक्त परिवार की हिन्दू ला की दृष्टि से व्याख्या की है। “संयुक्त परिवार के अन्तर्गत वे सभी व्यक्ति आते हैं जो एक सामान्य-पूर्वज के वंशज हैं, इसमें उनकी पत्नियाँ और अविवाहित लड़कियाँ आती हैं।” इसके साथ ही साथ मुल्ला जी ने संयुक्त परिवार की विशेषताओं पर भी वित्तार किया है। ये निम्नलिखित हैं-

  1. हिन्दू परिवार को तब तक संयुक्त माना जाता है जब तक उसका बँटवारा न हो। एक पूर्वज के सभी वंशजों को संयुक्त परिवार की सदस्यता प्राप्त होती है।

सामान्यतया संयुक्त परिवार की सम्पत्ति भी संयुक्त होती है किन्तु कुछ अवस्थाओं में सम्पत्ति पृथक् भी रह सकती है।

सामान्यतया संयुक्त परिवार के सभी सदस्य एक साथ पूजा करते और भोजन करते हैं। ऐसे भी संयुक्त परिवार होते हैं जिनके सदस्य अलग-अलग भोजन और पूजा करते हैं।

उपरोक्त परिभाषाओं का विश्लेषण करने से स्पष्ट ज्ञात होता है कि संयुक्त परिवार में कई वंश के व्यक्ति चाहे वे रक्त सम्बन्धी हो अथवा विवाह द्वारा सम्बन्धी बने हों, एक साथ रहते हैं। एक साथ पूजा एवं भोजन करते हैं। इनकी सामान्यतः संयुक्त सम्पत्ति होती है। इस परिवार का सबसे बड़ा व्यक्ति कर्ता या मुखिया होता है जिसके आदेशों का सभी व्यक्ति पालन करते हैं।

संयुक्त परिवार की विशेषताएँ या लक्षण

संयुक्त परिवार की निम्नलिखित प्रमुख विशेषताएं या लक्षण पाये जाते हैं-

  1. रक्त सम्बन्ध संयुक्त परिवार में सगे भाइयों के मूल परिवारों अथवा एक ही रक्त- सम्बन्ध हो या दो से अधिक पीढ़ियों के मूल परिवारों के लोग रहते हैं। इस प्रकार के परिवार में ऐसे सगे भाई एक ही रक्त-सम्बन्ध की कई पीढ़ियों के लोग भी हो सकते हैं जो अविवाहित तथा जिनका मूल परिवार न हो।
  2. बड़ा आकार सगे भाइयों अथवा एक ही रक्त सम्बन्ध की कई पीढ़ियों के मूल परिवार के लोगों के इसमें रहने में इसका आकार बड़ा होता है। इस प्रकार ऐसे परिवार भी देखने को मिलते हैं जिनकी सदस्य संख्या सौ या उससे अधिक होती है।
  3. सामान्य निवास- संयुक्त परिवार के सदस्य साथ-साथ रहते हैं। इनका आवास अर्थात मकान एक ही होता है। जब तक एक ही रक्त सम्बन्ध में कई मूल परिवार के लोग एक ही मकान में नहीं रहते तब तक उस परिवार को संयुक्त परिवार नहीं कहा जा सकता है। परन्तु यदि परिवार के सदस्य बाहर रहते हों और उनमें सम्पत्ति का बँटवारा न हुआ हो तो ऐसे परिवार को संयुक्त परिवार कहा जा सकता है।
  4. सम्मिलित सम्पत्ति- संयुक्त परिवार में सभी भाइयों अथवा रक्त-सम्बन्धियों की सम्पत्ति सम्मिलित नहीं होती है। उनमें पैतृक तथा उसके द्वारा अर्जित दोनों प्रकार की सम्पत्ति होती है। उसमें संयुक्त परिवार के सभी सदस्य लाभ उठाते हैं तभी उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। सम्पत्ति के बँटवारे से परिवारों का विघटन हो जाता है। संयुक्त परिवार की अविभक्त सम्पत्ति पर सभी सदस्यों का अधिकार होता है।
  5. पारस्परिक अधिकार और कर्तव्य बोध- संयुक्त परिवार पारस्परिक अधिकार एवं कर्तव्य की भावना पर निर्भर करता है। ‘प्रत्येक से उनकी क्षमता के अनुसार और कर्तव्य का उसकी आवश्यकतानुसार’ का सिद्धान्त इस प्रकार के परिवार का आधार है। उसका प्रत्येक सदस्य यह समझता है कि उसमें उनका अधिकार है। इसके साथ ही सभी एक-दूसरे के प्रति कर्तव्य की भावना से ओतप्रोत होते हैं। प्रत्येक के लिए सब और सबके लिए प्रत्येक’ उसका आदर्श है। इस प्रकार परिवार में सभी की स्थिति और सभी का उत्तरदायित्व निश्चित होता है। कर्ता को छोड़कर किसी का भी विशेषाधिकार नहीं होता है।
  6. उत्पादक इकाई खेती- बारी तथा कुटीर उद्योग-धन्धों पर निर्भर रहने वाले संयुक्त परिवारों के सदस्य मिलकर परिवार का परम्परागत व्यवसाय करते हैं। कृषक समाज के सभी स्त्रियों और पुरुष मिलकर खेती का काम करते हैं। (आज परिस्थिति बदल गयी है। सभी परिवारों के लोगों का झुकाव नौकरी तथा व्यापार आदि की तरफ बढ़ता जा रहा है। फिर भी जो लोग घर पर रहते हैं। वे परिवार के परम्परागत व्यवसाय में हाथ बंटाते हैं।) इस प्रकार संयुक्त परिवार एक उत्पादक इकाई के रूप में होता है।
  7. मुखिया का शासन- परिवार में जो सबसे बड़ा होता है सामान्यतया वह परिवार का कर्ता-धर्ता होता है। उसके आदेश या आज्ञा के बिना परिवार में कोई सम्पन्न नहीं हो सकता है। परिवार के सभी व्यक्ति उसकी आज्ञा और आदेश का पालन करते हैं। वह परिवार के सदस्यों के असामाजिक और अनैतिक कार्यों पर भी नियन्त्रण रखता है। इसलिए ऐसे परिवार में कठोर अनुशासन होता है।
  8. सामान्य सामाजिक तथा धार्मिक कर्तव्य- संयुक्त परिवार में सामान्यतः सभी सदस्यों का एक धर्म होता है तथा परिवार के सामाजिक कार्यों-विवाह, पारिवारिक संस्कारों और त्यौहारों में लोग सम्मिलित रूप से भाग लेते हैं। धार्मिक तथा सामाजिक कार्यों में भाग लेना वे अपना कर्तव्य और उत्तरदायित्व समझते हैं। यही कारण है कि समय-समय पर उस नगर से अपने पैतृक निवास स्थान पर आते रहते हैं, जहाँ वे नौकरी अथवा व्यवसाय करते हैं।
  9. सांस्कृतिक निरन्तरता संयुक्त परिवार में सदस्य अपने बड़ों से आचार, प्रथा, परम्परा और धार्मिक कार्य सीखते हैं। वे परम्परागत रूप में चलते रहते हैं। इनमें अपने सांस्कृतिक प्रतिमान भी होते हैं। इनका भी एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पालन होता रहता है। इस प्रकार संयुक्त परिवार से संस्कृति की रक्षा होती तथा उसकी निरंतरता बनी रहती है।

इस प्रकार कहा जा सकता है कि संयुक्त परिवार निकट के सम्बन्धियों की वह सहयोगी संस्था है जिसमें सम्मिलित सम्पत्ति, सम्मिलित वास, एवं सम्मिलित कर्तव्यों एवं अधिकार पाये जाते हैं। यही उसकी विशेषता है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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