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जायसी के पद्मावत में समाज की मनोदशा | पद्मावत की प्रेम-पद्धति

जायसी के पद्मावत में समाज की मनोदशा | पद्मावत की प्रेम-पद्धति

जायसी के पद्मावत में समाज की मनोदशा

मलिक मोहम्मद जायसी ने अपने महाकाव्य ‘पद्मावत’ में चित्तौड़ के राजा रत्नसेन और सिंहलगढ़ की राजकुमारी ‘पद्मावती’ के विवाह का वर्णन किया है। चित्तौड़ पर अलाउद्दीन खिलजी का आक्रमण ऐतिहासिक घटना है। जायसी ने ‘पद्मावत’ में जिस समाज का वर्णन किया है, उस समय के समाज की दशा इस प्रकार की थी-

(i) बहुविवाह-

उस समय के समाज में बहुविवाह प्रचलित था। एक पुरुष बहुत-सी स्त्रियों से विवाह कर सकता था। रत्नसेन अपनी रानी नागमती के होते हुए पद्मावती से विवाह करके उसे चित्तौड़ ले आया थां जायसी ने रत्नसेन की पत्नी नागमती का स्पष्ट शब्दों में उल्लेख किया है-

दिन दस पाँच तहाँ जो भये, राजा कतहुँ अहेरै गये।

नागमती रूपवंती रानी, सब रनिवास पाट परधानी।

(ii) सती प्रथा-

जिस समय का वर्णन जायसी ने किया है, उस समय भारत में सती प्रथा चल रही थी। पति के मरने पर उसकी पत्नी अथवा पलियाँ भी उसके साथ चिता में जल जाती थी। राजा रत्नसेन के मर जाने पर उसकी दोनों पत्नियां-पद्मावती और नागमती उसके साथ सती हो गयी थीं। जायसी ने दोनों रानियों के सती होने का वर्णन इन शब्दों में किया है-

नागमती पद्मावति रानी, दुबौ महासत सती बखानी।

दुवौ सवति चढ़ि खाट बईठीं, औ सिव लोक परा तिन्ह दीठीं।

चंदन अगरु काठ सर साजा, और राति देइ चले लेइ राजा।

लागी कंठ लागि देइ होरी, छार भई जरि अंग न मोरी॥

(iii) घरों में पक्षी पालना-

जिस समय का वर्णन जायसी ने अपने ‘पद्मावत’ में किया है, उस समय के सम्पन्न लोगों के घरों में पक्षी पाले जाते थे। पालतू पक्षियों में तोता सबसे प्रमुख था। सिंहलद्वीप की राजकुमार पद्मावती का पालतू होता हीरामन था-

पद्मावति तहँ खेल दुलारी, सुआ मँदिर महँ देखि मजारी।

(iv) राजाओं में शिकार खेलने का शौक-

जिस समय का वर्णन जायसी ने अपने महाकाव्य ‘पद्मावत’ में किया है, उस समय के राजाओं को शिकार का बहुत शौक था। राजा रत्नसेन के शिकार पर जाने का वर्णन जायसी ने इस प्रकार किया है-

दिन दस पाँच तहाँ जो भए, राजा कतहुँ अहेरै गए।

(v) जोगियों का सारंगी बजाना-

जायसी ने अपने ‘पद्मावत’ में जिस समय का वर्णन किया है, उस समय के जोगी सारंगी बजाकर गाते थे और सिंगी फूंकते थे। राजा रत्नसेन हीरामन तोता से पद्मावती के सौन्दर्य का वर्णन सुनकर घर से निकल पड़ा और जोगी बन गया। जायसी ने राज रत्नसेन के जोगी-रूप का वर्णन विस्तार से किया है-

तजा राज, राजा भी जोगी, और किंगरी कर गहेउ वियोगी।

तन बिसँभर मन बाउर लटा, अरुझा पेम, परी सिर जटा।

(vi) शुभ कार्य में उत्तम मुहुर्त देखना-

जिस समय का वर्णन जायसी ने ‘पद्मावत’ में किया है, उस समय लोगों द्वारा सभी मंगल-कार्य शुभ मुहूर्त में किये जाते थे। पंडितजन ज्योतिष के आधार पर शुभ मुहूर्त बताते थे। ‘पद्मावती’ से विवाह करके रत्नसेन बहुत दिनों तक ससुराल (सिंहलगढ़) में रहा। जब उसने अपने घर चित्तौड़ जाने की इच्छा प्रकट की जो पद्मावती के पिता ने अपनी पुत्री की विदाई के लिए शुभ मुहूर्त पूछा-

पत्रा काढ़ि गवन दिन देसहिं, कौन दिवस दहुँ चाल।

दिसा सूल चक जोगिनी, सोंह न चलिए काल।।

(vi) कन्या को दहेज देना-

जिस समय का वर्णन जायसी ने ‘पद्मावत’ में किया है, उस समय विवाह के अवसर पर पिता अपनी पुत्री को दहेज देता था जो उसके ससुराल जाने के साथ जाता था। रत्नसेन पद्मावती से विवाह करके वहीं सिंहलद्वीप में रह गया। जब बहुत समय बाद पद्मावती और रत्नसेन चित्तौड़ जाने लगे तो पद्मावती के पिता गन्धर्वसेन ने उन्हें दहेज के रूप में बहुत-सी सम्पत्ति दी। जायसी ने उसका वर्णन इस प्रकार किया है-

भले पंटोर जराव सँवारे, लाख चारि एक भरे पिटारे।

रतन पदारथ मानिक मोती, काढ़ि भंडार दीन्ह रथ जोती।

परखि सो रतन पराखिन्ह कहा, एक-एक दीप एक-एक लहा।

सहसन पाँति तुरय कै चली, औ सौ पाँति हस्त सिंघली।

लिखानी लागि जो लेखौ, कहै न पारै जोरि।

(viii) ससुराल में बहु के कष्ट-

जायसी ने अपने महाकाव्य ‘पद्मावत’ में जिस समय का वर्णन किया है, उस समय ससुराल में बहुओं पर अनेक प्रकार के बंधन लगाये जाते थे। ससुर उन्हें घर से बाहर नहीं निकलने देता था और सास तथा ननद ऐसे कठोर वचन बोलती थीं, जिन्हें सुनकर प्राण निकलते जान पड़ते थे। बहुओं को ससुराल से अपनी इच्छानुसार पीहर आने की भी सुविधा नहीं थी। जायसी ने मानसरोदक पर स्नान करने गयीं पद्मावती की सखियों के माध्यम से उन कष्टों का वर्णन किया है-

झूलि लेहु नैहर जब ताई, फिरि नहिं झूलन देइहि साईं।

पुनि सासुर लेइ राखिहिं वहाँ, नैहर चाह न पाउब जहाँ।

कित यह धूप कहाँ यह छाहाँ, रहब सखी बिनु मन्दिर माहाँ।

(ix) ‘पद्मावत’ में मनोदशा-

मनोदशा का तात्पर्य मानसिक चिन्तन अथवा अन्तर्द्वन्द्व से होता है। व्यक्ति जब परेशान होता है, संघर्ष का सामना करता अथवा विषम परिस्थितियों से गुजरता है, तभी उसकी मनोदशा ध्यानादि के योग्य होती है। पद्मावत में मनोदशा चित्रण के अनेक स्थल हैं, जिनमें से प्रमुख स्थल प्रस्तुत हैं-

(अ) पानी का खेल- पद्मावती अपनी सखियों के साथ मानसरोवर पर स्नान करने गयीं। स्नान करते-करते वे खेल-खेलने लगी कि जो हार जाये, उसे अपना हार देना पड़ेगा। एक सखी खेलना नहीं जानती थी, वह अचेत हो गई और उसका मणियों का हार चला गया। उसकी मनोदशा का चित्रण जायसी ने इस प्रकार किया है-

कित खेलैं आठउँ इकसाथा, हार गँवाइ चलिउँ लेइ हाथा।

घर पैठत् पूछब यह हारू, कौन उतर पाउब पैसारू।

नैन सीप आँसू तस भरे, जानो मोति गिरहिं सब ढरे।

(आ) नागमती की चिन्ता- हीरामन तोता एक ब्राह्मण के पास था। एक दिन राजा रतनसेन शिकार को गये थे, तब नागमती ने तोते से पूछा कि मैं सुन्दर हूँ अथवा तेरी सिंहली नारियाँ सुन्दर हैं ? तोते ने सिंहल द्वीप की नारियाँ को दिन और नागमती को रात्रि बताया। यह सुनकर रानी नागमती सोचने लगी-

जौ यह सुआ मँदिर महँ रहई, कबहुँ बात राजा सौं कहई।

सुनि राजा पुनि होइ वियोगी, छाँडै राज चले हुई जोगी।

बिख राखिय नंहि होई अंकूरू, सबद न देइ भोरतम चूरू।

पद्मावती ने जो आशंका की थी, वह सत्य सिद्ध हुई है। तोते से पद्मवती का सौन्दर्य वर्णन सुनकर राजा रतनसेन जोगी बनकर चला गया।

जायसी के ‘पद्मावत’ की प्रेम-पद्धति का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।

‘पद्मावत’ की प्रेम-पद्धति

जायसी का ‘पद्मावत’ एक प्रेम-गाथा है। यह प्रेम-गाथा पारिवारिक जीवन की है। जायसी ने इसमें फारसी मसनवियों की परम्परा का अनुसरण करके प्रेम का निरूपण किया है। जायसी धर्म से सूफी और जन्म से भारतीय थे। इस कारण वे एक ओर तो फारस से सम्बन्धित हैं और दूसरी ओर भारत से। सूफियों में काव्य की रचना छन्द की मसनवी पद्धति पर की जाती है। जायसी ने भी मसनवी शैली को अपनाया है, किन्तु वे भारतीय संस्कृति से भी प्रभावित रहे हैं। इस कारण जायसी के काव्य में भारतीय तथा मसनवी दोनों शैलियों का समन्वय हुआ है।

दाम्पत्य-प्रेम वर्णन की अनेक रीतियाँ-

दाम्पत्य-प्रेम का वर्णन करने की कई पद्धतियाँ प्रचलित हैं-(i) प्रथम प्रकार का प्रेम विवाह-सम्बन्ध हो जाने के पश्चात् कर्मक्षेत्र में विकसित होता है। इसका आदर्श रूप रामायण में है।

(ii) दूसरे प्रकार का प्रेम विवाह से पूर्व होता है। इसी प्रेम के परिणामस्वरूप विवाह होता हैं ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्’ तथा ‘विक्रमोर्वशीयम्’ आदि का प्रेम इसी श्रेणी का है।

‘पद्मावत’ में प्रेम का रूप-

जहाँ तक ‘पद्मावत’ की प्रेम-पद्धति का प्रश्न है, वहाँ यह स्वीकार करना पड़ेगा कि ‘पद्मावत’ में अन्तिम प्रकार की प्रेम-पद्धति है।पद्मावत का प्रेम उद्दीपन विभाव के अन्तर्गत आता है। जहाँ गुण-श्रवण, चित्र-दर्शन, आनन्द तथा प्रसन्नता आदि को देखकर बैठ-बिठाये ही प्रेम हो जाता है। भारतेन्दुजी ने इस प्रेम को इस प्रकार से स्पष्ट किया है-

पायन में छाले परे, लाँघिवे को नाले परे, तऊ लाल लाले परे, राबरे दरस के।

हीरामन तोता ही वह माध्यम है, जिससे रत्नसेन और पद्मावती परस्पर प्रेम-सूत्र में आबद्ध होते हैं इस प्रेम में प्रथम प्रयास करने वाला रत्नसेन है। वह कठिन से कठिन परिस्थितियों का सामना करने के लिये तत्पर हो जाता है। पद्मावत का प्रेम ‘लैला-मजनू’, ‘शीरी-फरहाद’ के प्रेम के आदर्श के समकक्ष है। नायक का यह आदर्श अरबी-फारसी कहानियों के आदर्श से मिलता- जुलता है। फारस के प्रेम में नायक के प्रेम वेग तीव्र होता है, परन्तु भारतीय प्रेम में नायिका के प्रेम का वेग तीव्र होता है।

‘पद्मावत’ में भारतीय तथा मसनवी शैलियों का समन्वय-

मलिक मुहम्मद जायसी धर्म से सूफी थे तथा जन्म से भारतीय थे। इस कारण उन पर फारस तथा भारत दोनों का प्रभाव पड़ा। मसनवी शैली के अन्तर्गत प्रेम का रूप एकान्तिक होता है। वहाँ प्रेम का लक्ष्य नायक की रूपलिप्सा की तृप्ति मात्र होता है, वहाँ सामाजिक या पारिवारिक प्रेम का रूप देखने को नहीं मिलता है। जायसी ने ‘पद्मावत’ में मसनवी पद्धति को अपनाया है, परन्तु भारतीय संस्कृति से प्रभावित होने के कारण भारतीय काव्य-पद्धति की भी कुछ बातें उन्होंने ग्रहण कर ली। मसनवी पद्धति के अनुसार-(i) काव्य मसनवी छन्द में होता है।

(ii) कथावस्तु का विभाजन मुख्य-मुख्य घटनाओं तथा प्रसंगों के आधार पर किया जाता है।

(iii) कथा के प्रारम्भ में कवि ईश्वर की स्तुति, पैगम्बर की वन्दना, ‘शाहवक्त’ की प्रशंसा करने के पश्चात् अपना तथा अपने सम्प्रदाय का परिचय देता है। वह उसके पश्चात् ही कथा का प्रारम्भ करता है।

इनमें कोई सन्देह नहीं कि ‘पद्मावत’ में मसनवी छन्द के प्रयोग को छोड़कर शेष दोनों विशषताएँ विद्यमान हैं। जायसी ने मसनवी छन्द के स्थान पर दोहा और चौपाई का प्रयोग किया है। जायसी ने सात-सात अर्द्धालियों के पश्चात् एक दोहे अथवा सोरठे के क्रम रखा है। इस प्रकार जायसी ने ‘पदमावत’ में भारतीय तथा मसनवी शैलियों का सुन्दर समन्वय किया है।

लोबा दरस आइ देखराई।

इसी प्रकार के अनेक स्थल ‘पद्मावत’ में देखे जा सकते हैं जो भारतीय समाज और पारिवारिक जीवन की स्पष्ट झाँकी प्रस्तुत करते हैं।

‘पद्मावत’ में प्रेम-वर्णन-

प्रेम के दो पक्ष होते हैं- (1) संयोग (2) वियोग। जायसी के ‘पद्मावत’ में संयोग और वियोग दोनों पक्षों का सुन्दर वर्णन हुआ है। जायसी का वियोग-वर्णन तो हिन्दी-साहित्य में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखता है। नागमती के अश्रुओं से सम्पूर्ण सृष्टि गीली है। जायसी ने ‘पद्मावत’ में संयोग पक्ष का भी सांगोपांग चित्रण किया है। लौकिक प्रेम में रत्नसेन- नागमती, रत्नसेन-पद्मावती, पद्यावती-अलाउद्दीन हैं पारलौकिक प्रेम के क्षेत्र में जीवात्मा का प्रतीत रत्नसेन तथा ब्रह्म की प्रतीक पद्मावती का प्रेम दिखाई देता है।

लौकिक प्रेम द्वारा अलौकिक प्रेम का संकेत-

जायसी ने लौकिक प्रेम द्वारा अलौकिक प्रेम का संकेत किया हैं इसके परिणामस्वरूप ‘पद्मावत’ के प्रेम में कुछ अस्वाभाविकता भी प्रतीत होती है। इसमें जायसी ने अन्योक्ति अथवा समासोक्ति शैली का प्रयोग किया है, जिसके आधार पर वे एक ओर तो इस लोक की बात करते हैं, पर दूसरी ओर परोक्ष सत्ता की ओर संकेत करते हुए दिखाई देते हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का कथन है- “हिन्दी के कवियों में यदि कहीं रमणीय और शुद्ध अद्वैतवाद, रहस्यवाद पाया जाता है तो जायसी में, जिनकी रमणीयता और भावुकता बहुत ही उच्च कोटि का है।”

जायसी ने रत्नसेन को जीवात्मा तथा पद्मावती को ईश्वर का प्रतीक बताया हैं। गुरु के माध्यम से ही ब्रह्म का आभास हुआ है। हीरामन तोता साधक रत्नसेन का गुरु बनकर ब्रम्हा का आभास कराने के बाद उसे पथ बतलाने वाला है। जायसी के प्रेम में मानसिक तत्व प्रधान और शारीरिक तत्व गौण हैं। साधक को जब गुरू से ब्रह्म का आभास मिल जाता है तो वह सब कुछ त्यागकर उसकी खोज के लिए निकल पड़ता है। यही दशा रत्नसेन की हो गयी है। जब वह पद्मावती का नख-शिख-वर्णन सुनता है तो मूर्छित हो जाता हैं। मूर्छा दूर होने पर वह पागल की भाँति हो जाता है और योगी के समान बोलता है-

सोवत रहा जहाँ सुख साखा, कस न तहाँ सोबत विधि राखा।

अब जिउ जहाँ इहाँ तस सूना, कब लगि रहै पराग बिहुना॥

निष्कर्ष-

उपर्युक्त वर्णन से स्पष्ट होता है कि जायसी ने प्रेम का स्वाभाविक चित्रण किया है। ‘पद्मावत’ में फारसी के एकान्तिक प्रेम एवं भारतीय जीवन के पवित्र प्रेम की झलक मिलती है। फारसी प्रभाव से उसमें कहीं-कहीं अस्वाभाविकता आ गयी है, परन्तु भारतीयता के आवरण से अस्वाभाविकता का शमन हो जाता है। सूफी विचारधारा की कसौटी पर ‘पद्मावत’ खरा उतरता है। लौकिक दृष्टि से उसमें रून-लिप्सा और एकान्तिक प्रेम की अधिकता है। अन्त में यही कहा जा सकता है कि प्रेम-वर्णन की दृष्टि से ‘पद्मावत’ खरा उतरता है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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