हिन्दी / Hindi

जायसी के रहस्यवाद की विशेषताएँ | जायसी के रहस्यावाद की समीक्षात्मक विवेचना

जायसी के रहस्यवाद की विशेषताएँ | जायसी के रहस्यावाद की समीक्षात्मक विवेचना

जायसी के रहस्यवाद की विशेषताएँ

विषय-प्रवेश-

प्रस्तुत प्रसंग में रहस्य’ शब्द का भी व्युत्पत्तिपरक अर्थ जान लेना उचित होगा। रह धातु में ‘यत्’ प्रत्यय लगाकर ‘रहस्’ शब्द बनता है, जिसका अर्थ है-गुप्त, प्रचछन्न रहसि भाव:यत) संस्कृत-साहित्य में रहस्य’ शब्द के पर्याय के रूप में गुह्य, गोप्य आदि शब्द प्रचलित रहे हैं। सामान्यतः जो बात बुद्धि की सीमा से परे रही है, उसे ‘रहस्य’ कह दिया गया। कभी-कभी जब रहस्य बुद्धि के द्वारा बोध्य भी हुआ, तो भी उसे गुह्य या गोष्य रखा गया।”

मिस्टीसिज्म और रहस्यवाद दोनों के धातुगत अर्थों को देखकर यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या मिस्टीसिज्म का शुद्ध पर्याय रहस्यवाद है। प्रारम्भ में योरोप के गिरजाघरों में कनटेम्प्लेशन शब्द का प्रचलन बहुत दिनों तक रहा। इसी कन्टेम्लेशन से प्राप्त अनुभूति को आगे चलकर (Mystical experience) कहा गया। हिन्दी में इसे हम रहस्यमयी अनुभूमि कहेंगे। अत: रहस्यवाद मिस्टीसिज्म का शुद्ध पर्याय नहीं हो सकता। इसी आधार पर रहस्यात्मक रचनाओं के लिए जो रहस्वाद’ नाम प्रचलित है, उसके सम्बन्ध में निम्नलिखित आपत्तियों को होना स्वाभाविक है।

(1) रहस्यवाद-

आदिकाल से ही मानव स्वयं को तथा प्रकृति को समझने का प्रयत्न करता रहा है। इसी जिज्ञासा ने उसे दार्शनिक बना दिया है। इसके लिए अवर्ववेद का यह मन्त्र देखिये-

कव प्रेप्सन् दीप्यत ऊर्ध्वो अग्निः क्व प्रेप्सन् पवने-मातारिश्वा।

यत्र प्रेप्सन्तीरभियन्त्यावृतः स्कभं तं ब्रेहि कतमः स्विदेव सः।।

रहस्यवाद का आधार अज्ञात शक्ति के प्रति जिज्ञासा की भावना है। भारतीय वेदों और उपनिषदों में इस अज्ञात शक्ति के स्वरूप का वर्णन मिलता है। रहस्यवाद के अन्तर्गत जीवात्मा तथा परमात्मा के मिलन एवं उसके विविध सम्बन्धों और व्यापारों का वर्णन होता है। अस्तु, जब अद्वैतवाद का आधार लेकर कल्पना या भावना उठ खड़ी होती है, अर्थात जब उसका संचार भावक्षेत्र में होता है, तब उच्च कोटि के भावात्मक रहस्यवाद की प्रतिष्ठा होती है। रहस्यवाद का प्रारम्भ जिज्ञासा से और अन्त मिलन में होता है।

रहस्यवाद दो तरह का होता है- (1) भावात्मक, (2) साधनात्मक। साधनात्मक रहस्यवाद के अन्तर्गत हठयोग, मन्त्र, रसायन आदि की प्रक्रियाएँ होती हैं जिनके द्वारा साधक रहस्य को खोजने का प्रयास करता है। भावात्मक रहस्यवाद में साधक उस परम सत्ता के प्रति किसी सम्बन्ध विशेष की भावना में अटल विश्वास करता है। कोई उसे पिता के रूप में देखता है, कोई सखा के रूप में तथा कोई प्रियतम के रूप में देखता है। इन सम्बन्धों के बीच में अटल विश्वास अभिप्रेत है,अतः शुक्लजी के शब्दों में, “तर्क और ज्ञान में जो बुद्धिवाद के क्षेत्र में अद्वैतवाद है, वही कल्पना और भावना के क्षेत्र में रहस्यवाद है।”

(ii) जायसी का रहस्यवाद-

रहस्यवाद का स्वरूप समझ लेने के पश्चात् जायसी की रहस्य-भावना पर विचार कर लेना उचित होगा। जायसी भारतीय सूफी थे, अतः उन पर नाथ आदि सम्प्रदायों का पूरा प्रभाव था। सूफियों के अनतर्गत आत्मा और परमात्मा की एकता अनिवार्य होती है। सूफी कवि परमात्मा के प्रति अपना आकर्षण उसी प्रकार का मानते हैं जिस प्रकार का प्रेमी का प्रियतमा के प्रति होता है।

जायसी संसार के कण-कण में अपने प्रेममय प्रभु की सत्ता का अनुभव करते हैं। वे अत्यन्त भावुक और संवेदनशील हैं। पक्षियों के गुंजन में, झरनों की झर-झर ध्वनि में और सरिताओं की कल- कल ध्वनि में उन्हें प्रभु की मनमोहक मूर्ति का ही गुणगान सुनाई पड़ता है। उन्होंने विभिन्न रूपकों के द्वारा असीम सर्वशक्तिमान की अखण्ड ज्योति की आत्मानुभूति को व्यक्त किया है। जायसी की विरहिणी आत्मा अपने प्रियतम से मिलने के लिए सदैव तड़पती रहती है। इसी कारण हिन्दी सुविख्यात निबन्धकार और आलोचक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल को कहना पड़ा-

सूफी मत में गुरु को बहुत महत्व प्रदान किया है, क्योंकि गुरु ही शिष्य के हृदय में उस परम सत्ता के विरह की चिनगारी लगाता है। जायसी ने भी गुरु को अत्यन्त महत्त्व प्रदान किया है-

को गुरु अगवा होइ सखि ! मोहि लावै पथ मांह।

तन-मन-धन बलि-बलि करौं, जो रे मिलावे नांह॥

(iii) रहस्यवाद की विशेषताएँ-

रहस्यवाद में निम्नलिखित विशेषताएं हैं-

(अ) आत्मा का परमात्मा के प्रति वैसा ही आकर्षण होता है, जैसा कि एक प्रेमी का अपनी प्रेयसी के प्रति। प्रेमी निरन्तर कठिनाइयों को झेलता हुआ अन्त में अपनी प्रेमिका से मिलकर आनन्द-विभोर हो जाता है।

(आ) जिज्ञासु या साधक को ज्यों ही अपने प्रेमी (ईश्वर) का संकेत मिलता है, वह उससे शीघ्रातिशीघ्र मिलने को व्याकुल हो उठता है। उसकी मोहकता उसे आकृष्ट करती है। विरह की यह जलन और तड़पन मिलन के प्रयत्न के लिए प्रोत्साहित करती है।

(इ) जायसी का प्रेम अत्यन्त शुद्ध, सात्विक और पवित्र है। उसमें अशलीलता और वासना नहीं है।

(ई) आत्मा, परमात्मा के न मिल पाने का कारण इनके बीच की अनेक कठिनाइयाँ और रुकावटें हैं साधक निरन्तर इन बाधाओं से जूझता हुआ अन्त में अपने साध्य से मिलता है।

(उ) प्रत्येक का परम लक्ष्य उस परमात्मा तक पहुँचना है जो ‘एकमात्र सत्य’ है और केवल ‘एक’ है।

(iv) जायसी के काव्य में भावात्मक सूफी रहस्यवाद का पूर्ण उत्कर्ष-

जायसी का भावात्मक रहस्यवाद अत्यन्त उत्कृष्ट कोटि का है। इससे पहले की प्रेम कहानियों में भी इस रहस्य- भावना के दिग्दर्शन होते हैं। जायसी ने भारतीय पद्धति के अनुरूप ही प्रकृति के रूपों एवं व्यापारों को देखा और उनमें बड़े सुन्दर और स्वाभाविक ढंग से उस अज्ञात और रहस्यमयी सत्ता का ज्ञान कराया। देखिए उस परोक्ष ज्योति ओर सौंदर्य सत्ता की फैली लौकिक दीप्ति और सौन्दर्य के द्वारा जायसी इंगित करते हैं-

जेहि दिन दसन जोति निरमई, बहुतै जोति-जोत ओहि भई।

रवि ससि नखत दिपहिं ओही जोती, रतन पदारथ मानिक मोती।

जहँ-जहँ बिहँसि सुभाबहिं हँसी, तहँ-तहँ छिटकि जोति परगसी।

नयन जो देखा कमल भा, निरमल नीर सरीर।

हँसत जो देखा हँस भा, दसन जोति नग हीर।

कवि की दृष्टि में प्रत्येक व्यापार केवल उसी के सामीप्य की प्राप्ति का प्रयत्न है-

सरवर रूप विमोहा, हिए हिलोरहि लेइ।

पाँव छुवै मकु पावौं, ऐहि मिस लहरहिं लेइ॥

संसार में जो कुछ दिव्य है, जिसमें कुछ भी चमक है, उन सब पदार्थों में जायसी को उसी आभा की झलक दिखाई देती है-

जेहि दिन दसन जोति निरमई, बहुतै जोति-जोति ओहि भई।

रवि ससि नखत दीपहिं ओहि जोती, रतन पदारथ मानिक मोती॥

(v) जायसी के रहस्यवाद में फारस और भारतीय दोनों ही परम्पराओं का समन्वय

जायसी सूफी सन्त थे। उन्होंने फारस की मसनवी शैली को अपने काव्य में स्थान दिया है, परन्तु भारतीय पद्धति का भी प्रयोग किया है। इस प्रकार जायसी के रहस्यवाद में फारसी और भारतीय दोनों ही परम्पराओं का समन्वय है।

जायसी केवल अपने हृदय में ही उस ब्रह्म के दर्शन नहीं करते, अपितु प्रकृति के कण- कण में उसका आभास पाते हैं। जगत् के कण-कण को वे उसी के प्रेम में बंधा पाते हैं। यहाँ तक कि पृथ्वी, सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र आदि सभी उसके प्रेम से बिद्ध हैं। देखिए-

उन बानन्ह अस को जो न मारा, बेधि रहा सगरौ संसारा।

गगन नखत जो जाहिं न गने, वे सब बान ओहिं के हने।

धरती बान बेधि-सब राखी, साखी ठाढ़ देहि सब साखी।

रोवं-रोवँ मनुस तन ठाढ़े, सूतहि-सूत बेधि जस गाढ़े॥

जायसी की दृष्टि में संसार का प्रत्येक व्यापार केवल उसी के सामीप्य की प्राप्ति का प्रयत्न है। बादल भी उसी के अनुराग में रंगे हुए हैं, सूर्य भी उसी के प्रेम में लाल प्रतीत होता है। बसन्त और वनस्पति उसी प्रेम में रंगीन हो रही हैं जायसी अपनी रहस्यानुभूति में डूबकर कहने लगते हैं-

सूरज बूड़ि उठा होइ राता, औ मजीठ टेसू बन राता।

भ बसन्त राते वनस्पती, औ राते सब जोगी जती।।

भूमि जो भीजि भयो सब गेरू, और राते सब पंख पखेरू।

राती सती अगिनि सब काया, गगन मेघ राते तेहि छाया।

प्रतीकात्मकता – जायसी ने ‘पद्मावत’ के अन्त में समस्त काव्य को अन्योक्ति कहा है। इस प्रकार उनके सभी पात्र प्रतीक रूप में हैं यह शरीर चित्तौड़गढ़ है। रत्नसेन का मन और हृदय सिंहलद्वीप हैं। पद्मावती ब्रह्म का रूप है, अलाउद्दीन माया हैं नागमती इस दुनियाँ का धन्धा है तथा राघव चेतन शैतान है। गुरु हीरामन सुआ है। इस प्रकार समस्त ‘पद्मावत’ काव्य अन्योक्ति है।

निष्कर्ष-

उपर्युक्त विवेचन के आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि जायसी की रहस्य- भावना बहुत उच्च कोटि की है। वह सृष्टि के प्रत्येक प्राणी में, प्रत्येक व्यापार में और प्रत्येक घटना में उसी की झलक देखते हैं।

जायसी का रहस्यवाद अद्वैतवाद की पृष्ठभूमि पर आधारित है। कवि इस अद्वैतवादी रहस्यवाद में पूर्ण सफल रहा है। इसी कारण केवल प्रेममार्गी सूफी कवियों में ही नहीं, अपितु हिन्दी-साहित्य के सुप्रसिद्ध रहस्यवाद कवियों में भी जायसी का प्रमुख स्थान है। वे ‘सर्व खल्विदं ब्रह्म’ की स्थापना में पूर्ण सफल रहे हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं कि जायसी रहस्यवादी कवियों में अपना शीर्ष स्थान रखते हैं।

हिन्दी – महत्वपूर्ण लिंक

Disclaimer: sarkariguider.com केवल शिक्षा के उद्देश्य और शिक्षा क्षेत्र के लिए बनाई गयी है। हम सिर्फ Internet पर पहले से उपलब्ध Link और Material provide करते है। यदि किसी भी तरह यह कानून का उल्लंघन करता है या कोई समस्या है तो Please हमे Mail करे- sarkariguider@gmail.com

About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

Leave a Comment

(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
close button
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
error: Content is protected !!