शिक्षाशास्त्र / Education

माध्यमिक शिक्षा के पाठ्यक्रम के व्यावसायीकरण की आवश्यकता | शिक्षा के व्यावसायीकरण का महत्त्व

माध्यमिक शिक्षा के पाठ्यक्रम के व्यावसायीकरण की आवश्यकता | शिक्षा के व्यावसायीकरण का महत्त्व

माध्यमिक शिक्षा के पाठ्यक्रम के व्यावसायीकरण की आवश्यकता

(Need for Vocationalisation of Secondary Education Courses)

माध्यमिक शिक्षा का व्यावसायीकरण करने के लिए शिक्षा आयोग ने शिक्षा के दोनों ही स्तरों निम्न माध्यमिक स्तर तथा उच्चतर माध्यमिक स्तर पर विस्तार से विचार किया है। शिक्षा आयोग ने माध्यमिक शिक्षा के व्यावसायीकरण के लिए जो कल्पना की थी, उसके अनुसार कक्षा 8 से 10 तक 20 प्रतिशत छात्रों को व्यावसायिक शिक्षा प्राप्त होनी चाहिये। इसी प्रकार से कक्षा 11 तथा 12 में 50 प्रतिशत छात्रों को व्यावसायिक शिक्षा प्रदान करने की व्यवस्था होनी चाहिये।

शिक्षा आयोग ने माध्यमिक शिक्षा के दोनों स्तरों, निम्न माध्यमिक स्तर तथा उच्चतर माध्यमिक स्तर पर व्यावसायिक शिक्षा के सम्बन्ध में अपने विचार निम्न प्रकार प्रस्तुत किये हैं-

(1) निम्न माध्यमिक स्तर- वे विद्यार्थी जो कक्षा 7 व 8 के उपरान्त पढ़ाई बन्द कर देते हैं, वे पारिवारिक व्यवसाय में कार्य करते हैं। कुछ विद्यार्थियों का विचार होता है कि वे लघुस्तरीय उद्योग या व्यापार करेंगे। ऐसे व्यक्तियों के लिए अंशकालीन पाठ्यक्रमों की व्यवस्था होनी चाहिये, जिससे कि वे योग्यता प्राप्त कर सकें तथा अपने कौशल का विकास कर सकें। आयोग ने कहा है कि-

(i) “शिक्षा विभाग में अलग से एक अनुमान की स्थापना की जानी चाहिये जो युवकों के सम्पर्क में रहे हैं तथा उन्हें पूर्ण या अंशकाल के आधार पर सामान्य शिक्षा के साथ-साथ व्यावसायिक प्रशिक्षण का उचित अवसर प्रदान करें।”

(ii) अधिकांश लड़कियाँ विद्यालय छोड़ने के तुरन्त बाद या कुछ दिन पश्चात् विवाह कर लेती हैं उनके लिए गृह विज्ञान तथा सामान्य शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिये।

(iii) औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थानों में प्राथमिक शिक्षा के उपरान्त अन्य पाठ्यक्रम भी है। यदि इन पाठ्यक्रमों में प्रवेश की आयु 14 वर्ष कर दी जाये (जो कि 16 वर्ष है तथा इसे घटाकर 15 वर्ष कर दिया गया है), तो प्राथमिक पाठशाला से निकलने के उपरान्त विद्यार्थियों की एक बहुत बड़ी संख्या इन पाठ्यक्रमों में भाग लेगी।

(iv) ग्रामीण क्षेत्र के अधिकांश विद्यार्थी खेतों में काम करेंगे। उन्हें, भावी शिक्षा के साथ-साथ सामान्य शिक्षा तथा व्यावसायिक कुशलता का प्रशिक्षण प्राप्त करने के अवसर दिये जायें।

(2) उच्चतर माध्यमिक स्तर- आयोग द्वारा उच्चतर माध्यमिक स्तर पर बड़ी संख्या में व्यावसायिक पाठ्यक्रम की व्यवस्था की गयी है।

(i) औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थानों में अधिकतर पाठ्यक्रम ऐसे होने चाहियें जिनकी प्रवेश योग्यता मैट्रिक उत्तीर्ण हो।

(ii) पूर्णकालीन अध्ययन की सुविधाओं के प्रसार के साथ ही उच्चतर माध्यमिक स्तर पर अंशकालीन पाठ्यक्रम की भी व्यवस्था होनी चाहिये, चाहे वह प्रबन्धित उद्योगों, सन्ध्याकालीन, अंशकालीन या पत्राचार पाठ्यक्रमों द्वारा हो।

(iii) ये पाठ्यक्रम स्वास्थ्य, व्यापार, प्रशासन, लघु-उद्योगों तथा ऐसे कार्यों का प्रशिक्षण दें जिनकी अवधि 6 माह से तीन वर्ष तक की हो और छात्रों को प्रमाण-पत्र या डिप्लोमा दिया जाये।

शिक्षा आयोग ने माध्यमिक शिक्षा के व्यावसायीकरण पर अत्यधिक जोर दिया है कि इस अभियान को चलाने के लिए केन्द्र सरकार, राज्य सरकारों को सहायता दे।

यहाँ पर यह जानना अति आवश्यक है कि पाठ्यक्रम के विभिन्नीकरण की आवश्यकता क्यों हैं ? इसके मुख्यत: तीन आधार माने जाते हैं, जिनकों हम दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक तथा सामाजिक व आर्थिक आधारों में विभक्त कर सकते हैं-

(1) दार्शनिक आधार (Philosophical Basis)- स्वतंत्रता के पश्चात् देश ने प्रजातंत्र प्रणाली को अपनाया है। प्रजातंत्र का आधार शिक्षा है। शिक्षा द्वारा स्वस्थ्य नागरिकों का निर्माण होता है। इसमें प्रत्येक छात्र के व्यक्तित्व के विकास पर बल दिया जाता है। व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास में उसका शैक्षिक, मानसिक, बौद्धिक, नैतिक तथा शारीरिक आदि सभी प्रकार का विकास निहित है। ऐसा करने में पाठ्यक्रम के व्यावसायीकरण का विशेष महत्त्व है। भारतीय परिस्थिति में इसका महत्त्व और भी अधिक है, क्योंकि यहाँ अधिकतर छात्र माध्यमिक स्तर से आगे शिक्षा प्राप्त नहीं कर पाते। आर्थिक दृष्टिकोण से ऐसा होता है। अतः अधिकांश छात्रों के लिये माध्यमिक शिक्षा अंतिम सीमा है। केवल कुछ ही छात्र उच्च शिक्षा ग्रहण कर पाते हैं। माध्यमिक शिक्षा अपने में एक पूर्ण अवस्था (Complete Stage) के रूप में होनी चाहिये। इस विचार तथा दृष्टिकोण से माध्यमिक स्तर की शिक्षा में व्यावसायीकरण का होना आवश्यक है।

(2) मनोवैज्ञानिक आधार (Psychological Basis)- प्रजातंत्र प्रणाली में शिक्षा बाल-केन्द्रित होनी चाहिये। बालक उसका प्रमुख बिन्दु हो। इसके लिये शिक्षक को बाल मनोविज्ञान का ज्ञान होना आवश्यक है। प्रत्येक बालक की अपनी रुचि, क्षमता, योग्यता, प्रवृत्ति तथा सामर्थ्य होती है। उसे ध्यान में रखकर शिक्षा की व्यवस्था करना आवश्यक है। ऐसा करना मनोवैज्ञानिक तथ्य है।

मनोवैज्ञानिक हमें बताता है कि छात्रों में व्यक्तिगत विभिन्नतायें (Individual Differences) पाई जाती है। उनकी अपनी शारीरिक तथा मानसिक क्षमतायें होती हैं व विभिन्न रुचि, इच्छा तथा योग्यता रखते हैं। कोई भी दो बालक समान नहीं होते। अत: मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से कोई एक निश्चित शिक्षा व्यवस्था सब बालकों के लिये उपयुक्त नहीं हो सकती। शिक्षा की पुस्तकीय तथा पंरपरागत रीति अपनाकर हम छात्रों के सर्वांगीण विकास की आशा नहीं कर सकते। इसके लिए पाठ्यक्रम को एक मार्गी के स्थान पर बहुमार्गी अथवा उसका विभिन्नीकरण करना आवश्यक है। हम इस मनोवैज्ञानिक तथ्य की अवहेलना नहीं कर सकते। ज्ञान प्राप्ति में सैद्धांतिक के स्थान पर क्रियात्मक तथा व्यावहारिक पक्ष का भी बहुत अधिक महत्त्व है। अत: माध्यमिक शिक्षा की व्यवस्था में मनोवैज्ञानिक पक्ष को उचित स्थान मिलना चाहिये। छात्र का सर्वागीण विकास पाठ्यक्रम की विभिन्नता के आधार पर ही संभव है।

(3) सामाजिक व आर्थिक आधार (Social and Economic Basis)- दार्शनिक तथा मनोवैज्ञानिक पक्ष के अतिरिक्त शिक्षा के व्यावसायीकरण में सामाजिक पक्ष का भी विशेष महत्त्व है। शिक्षा का उद्देश्य केवल छात्रों का व्यक्तिगत विकास करना ही नहीं, अपितु उन्हें समाज का एक उपयोगी सदस्य बनाना भी है। शिक्षा का सामाजिक मूल्य है। उसके द्वारा समाज की आवश्यकता की पूर्ति संभव होती है। समाज की विभिन्न प्रकार की आवश्कतायें होती है। शिक्षा उनकी पूर्ति में सहायक होती है। इसमें उद्योगों, व्यापार, व्यवसायों तथा कृषि आदि का विकास महत्त्वपूर्ण है। अत: शिक्षा का व्यावसायीकरण इस प्रकार किया जाये कि वह समाज की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति में सहायक हो। इसके अतिरिक्त शिक्षा का आर्थिक पक्ष भी है। वह छात्र के जीवन में बहुत उपयोगी है। उसका सम्बन्ध लोगों के जीवन, आवश्यकताओं तथा आकांक्षाओं से स्थापित करना आवश्यक है। वह जीविकोपार्जन में सहायक हों। भारतीय संदर्भ में इसका और भी अधिक महत्त्व है।

उपरोक्त दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हुए मुदालियर कमीशन, 1952 ने माध्यमिक स्तर पर विभिन्न पाठ्यक्रम की रूपरेखा प्रस्तुत की थी। उसने समस्त शिक्षा विषयों की अनिवार्य तथा ऐच्छिक में विभक्त किया। अनिवार्य विषयों में भाषाओं का ज्ञान व गणित प्रमुख हैं। वैकल्पिक में, विषयों को अलग-अलग वर्गों में विभाजित किया गया है, जिनमें मानव अथवा व्यावहारिक विज्ञान, प्राविधिक, कृषि, वाणिज्य, गृह-विज्ञान तथा ललित कला (Fine Arts) वर्ग प्रमुख हैं। इसके अतिरिक्त बहुउद्देशीय विद्यालयों की स्थापना कमीशन की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि रही है।

शिक्षा के व्यावसायीकरण का महत्त्व

(Importance of Vocationalisation of Education)

शिक्षा के व्यवसायीकरण का महत्त्व निम्न प्रकार हैं-

(1) देश के आर्थिक विकास के लिए (For Economic Development of the Country)- हमारे देश में प्राकृतिक साधनों के होते हुए भी प्रशिक्षित मानव शक्ति की कमी है। इसी कारण हमारे देश की आर्थिक स्थिति बहुत कमजोर है। हमारे छात्रों में व्यावहारिक तथा व्यावसायिक कुशलता में सुधार लाने की आवश्यकता है ताकि बच्चे प्रौद्योगिक तथा तकनीकी उन्नति की योजनाओं में अपना हाथ बंटाकर देश की आर्थिक खुशहाली के लिए काम कर सकें। हमारी वर्तमान शिक्षा केवल पुस्तकीय ज्ञान ही प्रदान करती है, जिसके परिणामस्वरूप शिक्षित लोग हमारे प्राकृतिक साधनों के विकास में योगदान देने और लोगों का जीवन स्तर ऊँचा करने में असमर्थ रहते हैं। शिक्षा के मुख्य लक्ष्यों में से “उत्पादन वृद्धि’ को एक लक्ष्य समझकर, भारतीय शिक्षा आयोग ने इस लक्ष्य की प्रगति के लिए माध्यमिक शिक्षा को व्यावसायिक स्वरूप देने का सुझाव दिया है।

(2) छात्रों की विभिन्न योग्यताओं, रुचियों तथा गुणों की संतुष्टि के लिए (For Satisfying the Varying Abilities, Interests and Talents of the Students)- स्वतंत्रता के पश्चात् भारत सरकार ने माध्यमिक शिक्षा के विस्तार की ओर ध्यान दिया है। परिणामस्वरूप, विभिन्न योग्यताओं, रुचियों तथा गुणों की ओर ध्यान दिया है। परिणामस्वरूप विभिन्न योग्यताओं, रुचियों तथा गुणों वाले बालक विद्यालयों में प्रवेश ले रहे हैं। इन बालकों की रुचियों की संतुष्टि व्यावहारिक विषय (Pratical Subjects) ही कर सकते हैं। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये माध्यमिक शिक्षा आयोग तथा इससे पूर्व की कई अन्य समितियों तथा आयोगों आदि ने व्यावसायिक आधार वाले विविध पाठ्यक्रमों का सुझाव दिया है। यही व्यावसायिक विषय ही विद्यार्थी के गुणों तथा क्षमताओं को पूर्ण रूप से विकास करने में सहायता कर सकते हैं।

(3) माध्यमिक शिक्षा को आत्मनिर्भर पाठ्यक्रम बनाने के लिये (For making secondary education a self-sufficient course)– वर्तमान माध्यमिक शिक्षा केवल शैक्षिक होने के कारण विश्वविद्यालयों और इनसे सम्बन्धित कालेजों में प्रवेश पाने वाला कदम ही है। साधारणत: 25 से 30 प्रतिशत तक ही विद्यार्थी उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए विश्वविद्यालय या कालेजों में प्रवेश पाने का प्रयास करते हैं। शेष विद्यार्थी तो अपनी आजीविका कमाने के लिए ही प्रयत्न करते हैं, इसलिए शिक्षा कार्यक्रम को व्यावसायिक स्वरूप देकर इस दिशा में कुछ प्रशिक्षण अवश्य दिया जाना चाहिए, ताकि छात्रों में आत्मनिर्भरता की भावना का विकास हो सकें।

(4) शिक्षित वर्ग की बेरोजगारी की समस्या समाप्त करने के लिए (For Solving the Problem of Unemployment among the Educated)- एक ओर तो शिक्षित लोगों के लिये काम नहीं है और दूसरी ओर काम करने के लिये उपयुक्त प्रशिक्षित लोग उपलब्ध नहीं है। इसका कारण यह है कि हमारी शिक्षा प्रणाली ऐसी है कि जिन कामों के लिये मानव शक्ति चाहिए, उन कामों के लिये हमारे बच्चों की प्रशिक्षण नहीं दिया जाता है। शिक्षा के माध्यमिक स्तर पर व्यावसायिक प्रशिक्षण की कमी ही हमारे छात्रों को बेरोजगारी है। अत: यदि हम माध्यमिक स्तर पर शिक्षा के व्यावसायीकरण पर जोर देंगे तो शिक्षित वर्ग में बेरोजगारी (Unemployment) की समस्या हल करने में पर्याप्त सहायता मिलेगी।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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