शिक्षाशास्त्र / Education

शिक्षा का निवेश तथा उपयोग के रूप में वर्णन | Description of education as investment and use in Hindi 

शिक्षा का निवेश तथा उपयोग के रूप में वर्णन | Description of education as investment and use in hindi 

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अभी कुछ समय पूर्व तक शिक्षा अनुत्पादक क्रिया समझी जाती थी तब देश के आय-व्यय में निधियों का निर्धारण करते समय इसे कोई महत्व नहीं दिया जाता था जो धनराशि राष्ट्रीय आवश्यकताओं तथा अपेक्षाकृत अधिक महत्वपूर्ण समाज-सेवाओं में सरलता से बचाई जा सकती थी, उसे शिक्षा के लिए रख दिया जाता था। सरकार शिक्षा पर जो कुछ खर्च करती थी, उसे परमार्थ या धर्मार्थ का रूप दिया जाता था इसका परिणाम यह होता था कि धर्मार्थ के रूप में प्रदान की जाने वाली शिक्षा से न राष्ट्रीय चरित्र का विकास होता था न ही व्यक्ति का। परन्तु धीरे-धीरे शिक्षा के प्रति इस दृष्टिकोण में परिवर्तन हुआ। अब शिक्षा अन्य उत्पादक क्रियाओं के लगभग समान ही एक महत्वपूर्ण क्रिया मानी जाती है। प्रत्येक प्रकार के राष्ट्रीय स्तर के प्रयत्न के लिए देश की मानव योग्यता को संगठित करने हेतु शिक्षा को एक महत्वपूर्ण साधन मान जाता है। शिक्षा ‘मानव योग्यता/ संसाधन की गुणवत्ता पर प्रभाव डालती है जो कि आर्थिक विकास का एक साधन भी है और लक्ष्य भी। मानव मे संसाधन ज्ञान और योग्यताओं में कमी होने से त्वरित विकास की प्रक्रिया पिछड़ सकती है। राष्ट्रीय जीवन के सभी क्षेत्रों में विकास हेतु अनवरत प्रयत्न करना मानव-साधनों पर निर्भर करता है। यदि राष्ट्र मानव रूपी संसाधन को अधिकतम योग्य तथा दक्ष बनाने के लिए शिक्षा तथा तकनीकी प्रशिक्षण देने में धन व्यय नहीं करता, तो राष्ट्रीय प्रगति में गम्भीर रुकावटें पड़ सकती हैं। अतएव “अपने समस्त विविध रूपों में शिक्षा वह उपकरण है जिसके द्वारा राष्ट्र अपने वर्तमान रूप को आकांक्षित स्वरूप में बदल सकता है।”

निवेश का संक्षिप्त इतिहास (Brief History of Investment)

सन् 1950 से पूर्व निवेश के सभी सिद्धान्त इस पक्ष में थे कि यदि निवेश भौतिक पूँजी जैसे भवन, फैक्टरी और मशीन आदि में किया जाए तो आय अधिक होगी क्योंकि इससे माल तथा सेवाओं का उत्पादन ज्यादा होगा, किन्तु 1950 के दशक के अन्त में और 1960 के दशक में अमरीका में कुछ अर्थशास्त्रियों ने शिक्षा और अर्थशास्त्र मे सम्बन्ध स्थापित करके यह सिद्ध किया कि शिक्षा और प्रशिक्षण के द्वारा हम ज्ञान और कौशल परिसम्पत्ति की रचना कर सकते हैं जो ठीक उसी प्रकार मानव उत्पादन शक्ति को बढ़ाती है जिस प्रकार नई मशीन में निवेश से उसकी उत्पादकता बढ़ती है और यह भौतिक पूँजी क, बढ़ाती है। उन्होंने अवलोकन के द्वारा यह पाया कि शिक्षा का खर्च एक प्रकार का निवेश माना जा सकता है जिससे भविष्य में सुनिश्चित लाभ होगा। बोमेने (1968) ने मानव पूँजी में निवेश के सैद्धान्तिक और अनुभवजन्य कार्यों की समीक्षा करके इसे ‘आर्थिक विचारधारा में मानव निवेश क्रान्ति’ का नाम दिया।

आर्थिक विचारधारा के इतिहास में विशिष्ट नामों के कार्यों का सर्वेक्षण करने से पक्ष सामने आया कि अधिकांश अर्थशास्त्री निम्न तीन कारणों से इस बात से सहमत है कि मानव को पूँजी के रूप में सम्मिलित करना चाहिए।

  1. मनुष्य के लालन-पालन एवं शिक्षा में जो लागत आती है वही वास्तविक लागत है।
  2. मानव श्रम का उत्पादन राष्ट्रीय सम्पत्ति को बढ़ाता है।
  3. मानव पर किया गया वह खर्च जो इसकी उत्पादकता को बढ़ाता है, यदि अन्य बातें पूर्ववत् रहे तो राष्ट्रीय सम्पत्ति को बढ़ाता है।

अतः प्रत्येक दृष्टि से शिक्षा पर किया जाने वाला व्यय, उत्पादकता पर दृष्टि गड़ाए हुए हैं।

शिक्षा में निवेश की अवधारणा  (Concept of Investment in Education)

स्पष्ट है कि मानव-पूँजी के अर्थशास्त्र की जाँच केवल औपचारिक शिक्षा के प्रभाव तक ही सीमित नहीं है बल्कि इसमें अंत: कार्य प्रशिक्षण और कुशलता प्राप्त करने के तरीकों तथा वैज्ञानिक शोध और तकनीकी विकास को भी शामिल किया गया है।

दूसरे शब्दों में आप कह सकते हैं कि देश, समाज एवं परिवार के विकास की प्रत्येक प्रविधि शिक्षा के विकास पर आधारित है और शिक्षा ही विविध प्रकार की उत्पादकता को जन्म देने में सार्थक है अत: शिक्षा पर किया गया पूँजीगत व्यय ही निवेश के रूप में जाना जाता हैं।

प्रायः मनुष्य के जन्म से मृत्यु तक जो गतिविधियाँ सीखने की प्रक्रिया में सहायक होती है उनकी एक विस्तृत सूची बनाना असम्भव है। लेकिन औपचारिक शिक्षा और प्रशिक्षण का महत्व अनुपम है क्योंकि केवल यह ही एक संगठित सीखने की प्रक्रिया है और सरलता से इसका व्यापक प्रशिक्षण दिया जा सकता है। यहाँ औपचारिक शिष्षा के संगठित रूप से अभिप्राय यह है कि वह सम्पूर्ण प्रास जो निर्धारित ज्ञान को प्रदान करने के लिए व्यवस्थित तरीके से किये जाते हैं। शिक्षा प्रदान करने का यह कार्य मान्यता प्राप्त व्यावसायिक शिक्षकों के समूह द्वारा नियमित ढंग से किया जाता है। यह कार्य उन शिक्षक संस्थाओं के परिसर में किया जाता है जिन्हें सरकार तब मान्यता प्रदान करती है जब वह कुछ उद्देश्य मानव पूरे करते है। स्पष्ट हैं कि ध्यान का केन्द्रीकरण इस प्रकार की औपचारिक शिक्षा की क्रियाओं पर करने से शिक्षा कार्य पूर्णतः सक्रिय हो जाता है। परन्तु जहाँ तक मानव पूँजी का विषय है, व्यय को निवेश और उपभोग में अलग करना अत्यधिक कठिन है। इंस व्यावहारिक समस्या के साथ साथ यह एक धारणात्मक समस्या भी पैदा करती है। शुल्ज के अनुसार शिक्षा खर्च को हम तीन भागों में बाँट सकते हैं-

  1. उपभोग (Consumption)- वह व्यय जो उपभोक्ता की प्राथमिकताओं को सन्तुष्ट करता है और किसी भी प्रकार से उसकी क्षमताओं को नहीं बढ़ाता ।
  2. निवेश (Investment)- वह खर्च जो केवल क्षमताओंको बढ़ाता है और किसी प्रकार के उपभोग सम्बन्धी प्राथमिकताओं को सन्तुष्ट नहीं करता है।
  3. वह खर्च जिसमें उपर्युक्त दोनों का समावेश हो ।

यहाँ पर यह विवाद का विषय नहीं है कि अधिकांश शिक्षा खर्च उपर्युक्त तीन वर्गों में अन्तिम वर्ग से ज्यादा सम्बन्धित है अर्थात् शिक्षा के खर्च आंशिक रूप से उपभोग है और आंशिक रूप से निवेश। वास्तव में मतभेदों के होते हुए भी शिक्षा उपभोग मूल्य को शायद ही कभी अस्वीकार किया गया होगा। वैजे ने यह दावे से घोषित किया कि, ‘शिक्षा चाहे और कुछ भी हो मगर यह उपभोग तो है ही।’ मसग्रेव ने शिक्षा के उपभोग पहलू को स्वीकार करते हुए इसे दो भागों में विभाजित किया है-

(क) वर्तमान उपभोग शिक्षा संस्थान में पढ़ने जाने का उल्लास,

(ख) भविष्य उपभोग – भविष्य में पूरे जीवन को खुशी से उपभोग-शिक्षा की योग्यता, जो शिक्षा ने प्रदान की है। लेकिन वह उपभोग पहलू को यह मानकर कम महत्ता देते हैं। भविष्य में जीवन को सराहने की योग्यता में वृद्धि के कारण शिक्षा उपभोग की दृष्टि से टिकाऊ बन गई है। जिसे एक प्रकार का निवेश समझा जाने लगा है और जिससे भविष्य में सुनिश्चित आय प्राप्त करने की क्षमता है।

शिक्षा और अर्थ व्यवस्था (Education & Economic System)

शिक्षा निम्नलिखित रूप से उपार्जित की जा सकती है-

  1. एक अटिकाऊ उपभोग वस्तु अर्थात् शिक्षा वर्तमान उपभोग के लिए।
  2. एक टिकाऊ उपभोग वस्तु अर्थात दिशा भविष्य के उपभोग के लिए।
  3. एक पूँजी वस्तु अर्थात् शिक्षा उन कौशल और ज्ञान के लिए जो आर्थिक कार्य में महत्वपूर्ण है और इस प्रकार भविष्य की आय के लिए एक निवेश है।

व्यक्तिगत एवं राज्य की नीति निर्माण करने वाले अधिकतर शिक्षा में व्यय को एक साधारण उपभोग समझते हैं। अर्थात् उपभोग केवल उपभोग के लिए। शिक्षा में निवेश को योजनाओं का उतना धन नहीं मिला जितना कि भौतिक पूँजी निर्माण को। इसके मुख्य कारण है। कि सन् 1955- से 1965 के दशक में आर्थिक विकास के समय भौतिक पूँजी के निवेश को

ज्यादा मान्यता दी गई और शिक्षा पर किया गया खर्च एक प्रकार कल्याण व्यय समझा गया जो कि राज्य के वित्त विकास पर एक भार था। वास्तव में यह एक बहुत बड़ी भूल थी जैसा की शुल्ज ने कहा, ‘शिक्षा पर किये गये सार्वजनिक खर्च को कल्याण खर्च समझना भ्रामक है।”

सामान्यतः उपभोग के कई रूप हो सकते हैं- जैसे आडम्बरी व्यय, अनुत्पादक, उत्पादक आदि। शौप ने उत्पादक उपभोग को लाभव उपभोग में अन्तर इस प्रकार दिया- उत्पादक उपभोग वह है जो निर्गत को बढ़ाकर अपनी कीमत पूर्ण या आंशिक रूप से अदा करे। लाभकारी उपभोग इस प्रकार है कि यदि यह घटती है तो अर्थव्यवस्था का निर्गत भी कम हो जाता है। यह कमी उपभोग में कमी से ज्यादा होगी वर्तमान या भविष्य में। इस प्रकार प्रत्येक स्थिति में उपभोग एवं निवेश में सामंजस्य स्थापित रखने का प्रयास करना चाहिए।

स्मरण रहे कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 45 में दी गई परिभाषा प्रस्तुत निःशुल्क सन्दर्भ में बिल्कुल भिन्न है। यदि शिक्षा उपभोग गोचर है और यदि यह बिलकुल नि:शुल्क होती तो शायद मनुष्य इसका उपभोग तब तक करता रहता जब तक की उसकी पूर्ण तृप्ति न होती और इसमें निवेश से उसकी भविष्य की आय में वृद्धि न होती। यदि शैक्षिक व्यय का कुछ भाग सार्वजनिक लेखा से किया जाता है तो शिषक्षा की प्रत्यक्ष निजी लागत शिक्षा की कुल लागत से कम होती । इस प्रकार शिक्षा को उपभोग करने और उसमें निवेश करने की निजी प्रेरणा पर सार्वजनिक शैक्षिक खर्च का प्रभाव पड़ता है लेकिन कुछ ऐसे निजी खर्च हैं जिनका इस बात पर प्रभाव नहीं पड़ता कि शिक्षा एक निवेश या उपभोग है। क्योंकि शिक्षा प्रतिभा का विकास करती है।

अतः मानव पूँजी में निवेश के दृष्टिकोण के आलोचकों में शैफर ने तीन कारणों की ओर संकेत किया जिनसे मानव-पूँजी के सिद्धान्त को सामान्य तौर पर लागू करने से आर्थिक लाभ कम और नुकसान ज्यादा होगा। यह कारण इस प्रकार है-

(1) आदमी में निवेश और अमानवीय पूँजी में निवेश में अन्तर अधिकतर इस बात से आता है कि मानव का सुधार के लिए, कम से कम, किसी एक प्रत्यक्ष व्यय का एक भाग सिर्फ मुद्रा प्रतिफल की उम्मीद के अलावा भविष्य के निर्गत पर कोई प्रभाव नहीं डालता और यह जरूरतों को प्रत्यक्ष रूप से सन्तुष्ट करता है।

(2) जहाँ पर भी उपभोग खर्च और मानव में निवेश को अलग करना सम्भव है वहाँ पर भी एक विशिष्ट प्रतिलाभ को मानव में एक विशिष्ट निवेश के, साथ जोड़ना असम्भव है।

(3) यदि उपभोग खर्च को मानव में निवेश से अलग किया जा सकता और यदि मनुष्य की आय के उस भाग को अलग करना सम्भव होता जो मानव में निवेश व्यय के कारण हुई हैं, तब भी सामाजिक और आर्थिक कल्याण की दृष्टि से इस जानकारी को सार्वजनिक या निजी नीति-निर्माण में एकमात्र या प्राथमिक धार मानना उचित नहीं होगा।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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