भारत में अध्यापक शिक्षा की प्रगति

भारत में अध्यापक शिक्षा की प्रगति | शिक्षक शिक्षा क्या है | Describe in brief the progress of teacher education in India in Hindi

भारत में अध्यापक शिक्षा की प्रगति | शिक्षक शिक्षा क्या है | Describe in brief the progress of teacher education in India in Hindi

भारत में अध्यापक शिक्षा की प्रगति

(Progress of Teacher Education in India)

शिक्षा की उन्नति अध्यापकों पर ही निर्भर करती है। अत: शिक्षा के लिये योग्य तथा कशल शिक्षकों की आवश्यकता होती है। अध्यापक के अभाव में शिक्षा की कल्पना की जा सकती है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित शिक्षक संघ की कान्फ्रेस के अनुसार-“अच्छा अध्यापन अच्छे शिक्षकों पर निर्भर करता है, अध्यापक की गुणात्मक उन्नति करना हमारा लक्ष्य होना चाहिये।” श्री एम० सी० छांगला के अनुसार, “प्रशिक्षित तथा योग्य शिक्षकों की सहायता के अभाव में कोई भी शिक्षाक्रम उन्नति नहीं कर सकता है। योग्य शिक्षकों का देश एक उज्जवल भविष्य का देश है।”

शिक्षक शिक्षा क्या है

(Teacher Education)

अध्यापक शिक्षा की प्रगति का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित हैं-

(1) प्राचीन कालीन शिक्षा- भारत की प्राचीन युग की शिक्षा व्यवस्था में अध्यापक शिक्षा की उत्तम व्यवस्था थी। प्राचीन युग में आचार्य उच्च कक्षा के विद्यार्थियों की सहायता से अध्यापन कार्य करते थे। इन आचार्यों को पित्ति आचार्य कहते थे, जो आगे भविष्य में अध्यापक का कार्य करते थे।

(2) मुस्लिम कालीन शिक्षा- मुस्लिम कालीन शिक्षा में अध्यापक शिक्षा पर कोई विशेष जोर नहीं दिया गया। शिक्षक अपनी सहायता के लिए कुछ योग्य विद्यार्थियों को कक्षा का मानीटर बनाता था और ये मानीटर अध्यापन में शिक्षक की सहायता करते थे।

(3) ब्रिटिश कालीन शिक्षा- अध्यापक शिक्षा का विकास ब्रिटिश कालीन शिक्षा में ही प्रारंभ हुआ। सबसे पहले बम्बई, मद्रास तथा कलकत्ता की शिक्षा परिषदों में अध्यापकों की शिक्षा की आवश्यकता का अनुभव हुआ और कुछ समय के लिये प्रशिक्षण केन्द्र स्थापित किये गये। बम्बई में स्थापित शिक्षा परिषदों में 24 शिक्षकों को प्रशिक्षित किया गया। कलकत्ता में सन् 1819 में ‘कलकत्ता विद्यालय परिषद्’ की स्थापना की गयी और सन् 1826 में मद्रास में अध्यापकों के प्रशिक्षण के लिए एक विश्वविद्यालय खोलने का प्रस्ताव रखा गया। सन् 1845 और सन् 1859 में वुड के घोषणा-पत्र और लार्ड स्टेनले ने भी प्रशिक्षण विद्यालयों की स्थापना के आदेश दिये। बम्बई में सन् 1882 तक 9 प्रशिक्षण विद्यालयों की स्थापना की गयी, जिसमें 7 विद्यालय पुरूषों के लिए तथा 2 विद्यालय स्त्रियों के लिए थे। भारत में सन् 1882 तक मात्र दो प्रशिक्षण महाविद्यालय थे-

(i) मद्रास में-मद्रास में सन् 1856 में प्रशिक्षण महाविद्यालय की स्थापना की गयी।

(ii) लाहौर में-लाहौर में सन् 1881 में प्रशिक्षण महाविद्यालय की स्थापना की गयी।

भारतीय शिक्षा आयोग ने सन् 1882 में प्रारंभिक तथा माध्यमिक विद्यालयों के अध्यापकों के प्रशिक्षण हेतु अग्रलिखित सुझाव प्रस्तुत किये-

(i) इन विद्यालयों की स्थापना उन्ही स्थानों पर की जायें जहां पर प्राथमिक विद्यालयों की स्थापना अवश्य की जा सकें।

(ii) प्रशिक्षण विद्यालयों की स्थापना मुख्य स्थानों पर ही की जायें।

(iii) प्रांतीय सरकारों द्वारा इन विद्यालयों के लिए धनराशि प्रदान की जायें।

भारतीय शिक्षा आयोग द्वारा प्रस्तुत सुझावों के आधार पर 19 वीं शताब्दी के अन्त में सम्पूर्ण भारत में कुल 6 प्रशिक्षण महाविद्यालयों की स्थापना की गयी। ये 6 प्रशिक्षण महाविद्यालय इलाहाबाद, मद्रास, लाहौर, कुरुसंग, जबलपुर तथा राजमुंदरी में थे।

सन् 1904 में लॉर्ड कर्जन ने भारतीय शिक्षा सेवा विभाग के लिये अनुभवी तथा योग्य अध्यापकों के प्रशिक्षण की व्यवस्था की। लार्ड कर्जन द्वारा प्रस्तुत प्रस्ताव के आधार पर प्रशिक्षण विद्यालयों में स्नातकों और उपस्नातकों के लिए अलग-अलग पाठ्यक्रम की व्यवस्था की गयी और प्रशिक्षण विद्यालयों की संख्या में बढ़ोतरी हुई।

सन् 1913 में सरकारी प्रस्ताव में भी अध्यापक प्रशिक्षण को महत्त्व प्रदान किया गया। सन् 1919 में कलकत्ता विश्वविद्यालय आयोग ने यह सुझाव प्रस्तुत किया-

(i) ढाका तथा कलकत्ता विश्वविद्यालयों में शिक्षा विभागों की स्थापना की जायें।

(ii) समस्त प्रशिक्षण महाविद्यालयों में एक प्रदर्शनात्मक विद्यालय सम्बद्ध किया जाये।

(iii) शिक्षित अध्यापकों की संख्या में वृद्धि की जायें।

सन् 1929 में हर्टाग समिति ने भी प्राथमिक विद्यालयों के अध्यापकों के प्रशिक्षण पर जोर दिया और शिक्षकों के प्रशिक्षण के लिए अभिनवन पाठ्यक्रम का प्रबन्ध किये जाने पर बल दिया।

उपरोक्त विभिन्न समितियों द्वारा प्रस्तुत सुझावों के फलस्वरूप अध्यापक प्रशिक्षण के क्षेत्र में अनेक सुधार किये गये। सन् 1922 तक 12 प्रशिक्षण महाविद्यालयों तथा 1072 नॉर्मल स्कूल थे। सन् 1937 तक नार्मल विद्यालयों की संख्या बढ़कर 1346 हो गयी और सन् 1941 में 25 प्रशिक्षण महाविद्यालय थे। भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के समय निम्न चार प्रकार की प्रशिक्षण संस्थायें कार्यरत थी-

(1) नार्मल विद्यालय- इनमें प्राथमिक विद्यालयों के अध्यापकों को प्रशिक्षण दिया जाता था।

(2) सेकेण्डरी प्रशिक्षण विद्यालय- इनमें मिडिल विद्यालय के शिक्षकों को प्रशिक्षण दिया जाता था।

(3) ट्रेनिंग महाविद्यालय- इनमें हाईस्कूल के छात्रों को पढ़ाने के लिए अध्यापकों को प्रशिक्षण दिया जाता था।

(4) स्वतंत्र भारत में शिक्षा-स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत में अध्यापक प्रशिक्षण के संदर्भ में विभिन्न आयोगों द्वारा प्रस्तुत सुझाव निम्नलिखित हैं-

(अ) विश्वविद्यालय आयोग-सन् 1949 में विश्वविद्यालय आयोग द्वारा प्रस्तुत सुझाव निम्नलिखित हैं-

(1) एम० एड० के अध्ययन के लिए केवल उन्हीं व्यक्तियों को प्रोत्साहित किया जायें, जिन्हें 6 वर्ष का शिक्षण अनुभव हों।

(2) इन विद्यालयों का पाठ्यक्रम लचीला और स्थानीय वातावरण के अनुकूल होना चाहिये।

(3) प्रशिक्षण संस्थाओं के पाठ्यक्रम में सुधार किया जायें।

(ब) मुदालियर आयोग- सन् 1954 में मुदालियर आयोग द्वारा प्रस्तुत सुझाव निम्नलिखित हैं-

(1) प्रशिक्षण महाविद्यालय दो प्रकार के होने चाहियें-

(i) माध्यमिक स्तर की शिक्षा प्राप्त व्यक्तियों हेतु उनका प्रशिक्षण काल दो वर्ष का होना चाहिये।

(ii) स्नातक की शिक्षा प्राप्त व्यक्तियों हेतु इनका प्रशिक्षण काल दो वर्ष का होना चाहिये।

(2) अध्यापिकाओं के अभाव की पूर्ति के लिए, अंशकालीन प्रशिक्षण पाठ्यक्रम का प्रबन्ध किया जाना चाहिये।

(3) इन विद्यालयों में लघुगहन पाठ्यक्रम तथा अभिनवन पाठ्यक्रम का भी प्रबन्ध किया जाना चाहिये।

(4) छात्रा अध्यापिकाओं को निःशुल्क प्रशिक्षण दिया जाना चाहिये।

(5) व्यावहारिक प्रशिक्षण की सुविधा प्रदान की जानी चाहिये।

(स) कोठारी आयोग- सन् 1966 में कोठारी आयोग द्वारा प्रस्तुत सुझाव निम्नलिखित है-

(1) माध्यमिक शिक्षा के स्नातक शिक्षकों का प्रशिक्षण काल एक वर्ष तथा कुछ समय पश्चात् दो वर्ष किया जाना चाहिये।

(2) प्राथमिक शिक्षा के शिक्षकों का प्रशिक्षण काल दो वर्ष का होना चाहिये।

(3) प्रत्येक राज्य में ‘अध्यापक शिक्षा स्टेट बोर्ड’ की स्थापना की जानी चाहिये।

(4) अंशकालीन प्रशिक्षण का प्रबन्ध किया जाना चाहिये।

(5) प्रशिक्षण संस्थाओं में अध्ययन करने वाले प्रशिक्षणार्थियों को निःशुल्क पढ़ाया जाना चाहिये।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अध्यापक शिक्षा की उन्नति बड़ी तेजी से हुई। सन् 1949 में प्रशिक्षण विद्यालयों की कुल संख्या 48 थी, जिनमें 4761 छात्र तथा छात्रायें अध्ययनरत थे। सन् 1981 तक इन 46,808 हो चुकी थी। सन् 1975 तक समस्त भारत में सभी प्रकार के प्रशिक्षण विद्यालयों की संख्या महाविद्यालयों की संख्या बढ़कर 331 हो गयी और छात्र संख्या में भी वृद्धि हुई। अब तक छात्र संख्या लगभग 3000 हो गयी।

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