मलिक मुहम्मद जायसी के पद्यांशों की व्याख्या | मलिक मुहम्मद जायसी के निम्नलिखित पद्यांशों की संसदर्भ व्याख्या

मलिक मुहम्मद जायसी के पद्यांशों की व्याख्या | मलिक मुहम्मद जायसी के निम्नलिखित पद्यांशों की संसदर्भ व्याख्या

मलिक मुहम्मद जायसी के पद्यांशों की व्याख्या

  1. चैत बसन्ता होइ धमारी। मोहि लेखे संसार उजारी।।

पंचम बिरह पंचसर मारै। रकत रोइ सगरौ बन ढारै।।

बूड़ि उठे सब तरिवर पाता। भीज मंजीठ टेहु बन राता।।

बौरे आम फरै अब लागे। अबहुँ सँवरि घर कंत सभागे।।

सहस भाव फूलीं वनसपी। मधुकर घूमहिं संवरि मालती।।

मो कहं फूल भए सब काँटे। दिस्टि परत जस लागहि चांटे।।

भर जोबन भए नारंग साखा। सुआ विरह अब जाइ न राखा।।

घिरिनि परेवा होइ पिउ, आऊ वेगि पिऊ टूटि।

नारि पराए हाथ है, तुम्ह बिनु पाव न छूटि॥13॥

सन्दर्भ- प्रस्तुत पद जायसी द्वारा रचित पद्मावत के नागमती वियोग खण्ड से उदघृत है।

प्रसंग- कविवर आयसी द्वारा विरचित महाकाव्य ‘पद्मावत’ के ‘नागमती वियोग-खण्ड से उद्धज प्रस्तुत अवतरण में चैत्र मास में नागमती के वियोग का वर्णन है। नागमती अपनी कल्पना में अपने पति रतनसेन को सम्बोधित करके कह रही है

व्याख्या- चैत के महीने में बसन्त ऋतु का धमार नामक राग गाया जा रहा है, पर मेरे लिए संसार उजड़ा हुआ है। कामदेव इस समय अपना वियोग रूपी बाण मेरे ऊपर चला रहा है, मार रहा है। मैं रक्त के आँसू रोज सारे में गिराती हूँ। उन आँसुओं में डूबकर वृक्षों के नवीन पत्ते अर्थात् वृक्ष लाल रंग के हो गये है। मंजीठ भी नहीं आँसुओं से भीग गया है और वन का टेसू उनसे भीगने के कारण ही लाल हो गया है। बौरे हुए आम फलने लगे हैं। हे कन्त! अब भी मेरा स्मरण करके घर जाओ। वनस्पतियों सहस्त्रों रूपों में पल्लवित हो रही है। मौरे मालती का स्मरण करके लौट आये हैं। मेरा प्रिय अर्थात् तुम पास नहीं लौटे, इसलिए मुझे फूल काँटे जैसे लग रहे है। उनके देखते ही मेरे शरीर में चाँटे- जैसे लग जाते हैं। इस नारंग वृक्ष को शाखा में यौवन भर गया है। इसी से उसमें स्तन-रूपी फल-फूल उठे हैं। विरह-रूपी तोता उन्हें खाना चाहता है। अब उनकी रक्षा नहीं हो सकता।

लौंटन कबूतर जैसे आता है, वैसे ही हे प्रिय! तुम भी आकर टूटो। तुम्हारी यह नारी पराये वश में है। तुम्हारे बिना यह वियोग से नहीं छूट पायेगी। दूसरा अर्थ यह है कि मेरी नाड़ी वैद्य के हाथ में है। तुम्हारे आये बिना मेरी नाड़ी छूट नहीं सकती, मैं मर भी नहीं सकती। मैं तुम्हें देखकर ही मरना चाहती हूं।

  1. भा भादों दूभर अति भारी। कैसे भरौं रैनि अँधियारी॥

मंदिर सून पिय अनतै बसा। सेज नागिनी फिरि-फिर डसा।।

रहौं अकेलि गहे एक पाटी। नैन पसारि मरौं हिय फाटी।।

चमक बीजु घन गरजि तरासा। विरह काल होइ जीउ गरासा।।

बरसै मघा झकोरि झकोरी। मोर दुइ नैन चुवहिं जस ओरी।।

पुरबा लाग पुहुमि जल पूरी। आक जवास भई तस झूरी।।

धनि सूखै भरि भादौं माहा। अबहूँ न आसन्हि सीचेन्हि नाहा॥

जल थल भरे अपूर सब, गगन धरति मिलि एक।

धनि जोबन औगाह महं, दै बूढ़त पिय टेक।।6।।

सन्दर्भ- पूर्ववत्।

प्रसंग- भक्तिकाल की निर्गुण धारा की प्रेममार्गी शाखा के प्रतिनिधि कवि मलिक मोहम्मद जायसी द्वारा विरचित ‘पद्मावत’ महाकाव्य के ‘नागमती वियोग खण्ड’ से उद्धृत प्रस्तुत अवतरण में विरह-विदग्धा नागमती भादों के महीने में व्याकुल होकर अपने पति को पुकारती हुई कहती है।

व्याख्या- भादों का महीना अत्यन्त दुःसह और भारी हो गया है। मैं अघियारी रात्रि को कैसे बिताऊँ? मन्दिर सूना करके प्रियतम अन्यत्र जा बसे हैं। सूनी सेज साँपिन बनकर मुझे बार-बार डसती है। मैं पलंग की एक पाटी पकड़े रात-भर अकेली पड़ी रहती हूँ। आंख फैलाकर यदि मैं सूनी शैया को देखू तो हृदय फटने से मर जाऊंगी। बिजली चमककर और मेघ गरजकर मुझे डराते हैं। विरह-काल होकर मेरे प्राण प्रसित किये ले रहा है। मघा नक्षत्र झकोर-झकोरकर बरस रहा है। इधर मेरे दोनों नेत्र छप्पर की ओलाती के समान चू रहे है। मघा नक्षत्र के बाद पूर्वा फाल्गुनी नक्षत्र लग गया है और पृथ्वी जल से आपूरित हो गयी है। मैं सूखकर ऐसे हो गयी, जैसे वर्षा में आक और जवास बिना पत्तों के हो जाते हैं। भरे भादों में भी आपकी पत्नी नागमती सूख रही है। हे स्वामी! तुम अब भी आकर उसे क्यों नहीं सींचते?

ऊंचे स्थल भी जल से ऊपर तक भर गए हैं। धरती-आकाश मिलकर एक हो गये हैं। हे प्रिय! यौवन के अगाध जल में डूबती हुई मुझ बाला को आकर तुम सहारा दो।

विशेष – (1) अलंकार भा-भादों-भारी, पुरवा-पुरी, भर-भादों में अनुप्रास, फिरि-फिरि झकोरि- झकोरी में पुनरुक्तिप्रकाश, धनि-सूखे……..नाहाँ में विशेषोक्ति और

  1. कुहुकि-कुहुकि जस कोइलि रीई। रकत् आँसु घुघुची बन बोई।।

भइ करमुखी नैन तन राती। को सिराव बिरहा दुख ताती।।

जहँ-जहँ ठाढ़ि होई बनवासी। तहँ-तहँ होइ घ्नुंघुचि कै रासी।।

बंद-बंद महँ जानहूँ जीऊ। कुंजा गूंजि करहिं पिउ नीऊ।।

तेहि दुख भये परास निपाते। लौहू बूड़ि उठे होइ राते।।

राते बिंब भए तेहि लोहू। परवर पाक फाट हिय गोहूँ॥

देखिअ जहाँ होइ सोइ राता। जहाँ सो रतन कहै। को बाता।।

ना पावस ओहि देसरा, ना हेबतं बसंत।

ना कोकिल न पपीहरा, जेहि सुनि आवै कंत।।19॥

सन्दर्भ- पूर्ववत्।

प्रसंग- प्रस्तुत अवतरण में महाकवि मलिक मोहम्मद जायसी विरह-विदग्धा नागमती का चारों ओर से परेशान, दुःखी-रूप में वर्णन कर रहे हैं।

व्याख्या- वह नागमती कोयल की भाँति कुहक-कुहककर रोई। रक्त के आँसुओं के रूप में मानो उसने घुघचियाँ वन में बो दीं। उसका मुंह निराशा के कारण काला हो गया, पर नेत्र और शरीर लाल अंगारे की तरह दहकते रहे। जो विरह दुःख में जलता है, उसे कौन बुझा सकता है? वन में रहती हुई वह जहाँ-जहाँ खड़ी हो जाती थी, वहीं-वहीं घुघुचियों का ढेर लग जाता था।ऐसा प्रतीत होता था, मानो एक- एक बूंद में उसका प्राण टपक रहा था। क्रौंच पक्षी ‘पिउ-पिउ’ की गूंज उठा रहा था। उसके दुःख से जलकर पलाश बिना पत्ते के हो गये। फिर उसके लोहू में डूबकर लाल रंग के हो गये। उसी रक्त से बिम्बाफल लाल हो गये। उसकी सहानुभूतिमें परवल पककर पीला हो गया और गेहूँ का हृदय फट गया। जहाँ-जहाँ नागमकती देखती थी, वहीं लाल हो जाता था। परन्तु जहाँ वह रत्न अर्थात् रतनसेन था, उसकी बात या पहचान कौन बताता?

उस देश में न पावस है, न हेमन्त है, न बसन्त है, न कोकिल है, न पपीहा है, जिनका शब्द सुनकर नागमती का कंत लौटकर आवे।

विशेष- (i) अलंकार – कुहुकि कुहुकि कोइलि, बन-बोई, बन-वासी, जानऊ जीऊ, कुंजा-करहिं, पिउ-पीऊ, पर-पाक में अनुप्रास, कुहुकि कुहुकि, जहँ-जह, तह-तह, बूंद-बूंद में पुनरुक्तिप्रकाश, कहै सो बाता में प्रश्न अलंकार है। प्रथम अलिी (पूर्वार्द्ध में) उपमा और (उत्तरार्द्ध में) विभावना अलंकार की योजना की गयी है। द्वितीय अधुली (पूर्वार्द्ध में) उत्प्रेक्षा, तृतीय अ‘ली में विमावना अलंकार का सौन्दर्य व्याप्त है।

(ii) सम्पूर्ण अवतरण में रहस्य-भावना व्यंग्य है।

(iii) यहाँ पर ‘विरह की ताप’ की अवस्था का प्रभावोत्पादक वर्णन किया गया है।

  1. लागेए माघ परै अब पाला। बिरहा काल भएउ जड़काला।।

पहल-पहल तन रूई झाँपै। हहरि-हहरि अधिकौ हिय कांपै।।

आइ सूर होइ तपु रे नाहा। तोहि बिनु जाड़ न छूटै माहा।।

एहि माह उपजै रस मूलू। तू सो भौरे मोर जोबन फूलू॥

नैन चुवहिं जस महवट नीरू। तोहि बिनु अंग लाग सर चीरू॥

टप-टप बूंद परहिं जस ओला। बिरह पवन होइ मारै झोला।।

केहिक सिंगार को पहिरु पटोरा। गिउ नहिं हार रही होइ डोरा।।

तुम्ह बिनु कंता धनि हिया,तन तिनउर भा डोल।

तेहि पर बिरह जराइ कै, चहै उड़ावा झोल।।11॥

सन्दर्भ- पूर्ववत्।

प्रसंग- जायसी द्वारा विरचित महाकाव्य ‘पद्मावत’ के ‘नागमति वियोग-खण्ड’ से अवतरित प्रस्तुत अवतरण में वियोगिनि नागमती की माघ मास की अधिक गहराती हुई विरह-वेदना का वर्णन है। नागमती अपने पति रतनसेन को संबोधित करके कह रही है

व्याख्या- माघ का महीना लग गया और पाला पड़ने लगा है। जाड़े की ऋतु मे विरह मृत्यु के समान हो गया है। शरीर के अंग-अंग को जैसे-जैसे रुई से ढक रही हूँ, वैसे-वैसे ही हहर-हहरकर हृदय अधिक कांपता है। हे प्रिय! तुम सूर्य के समान आकर मेरे समीप तपो। तुम्हारे बिना माघ का जाड़ा दूर नहीं हो सकता। इसी मास में उस रस का मूल उत्पन्न होता है जो बसन्त में वनस्पतियों पर फूल के रूप में प्रकट होता है। मेरे यौवन-रूपी पुष्प का रस लेने वाले मौरे तुम ही हो। जल-वर्षा से भीग जाने पर शरीर जलता है और तुम्हारे बिना वस्त्र बाण के समान लगते हैं। बूंदें टूटकर ओले-जैसी गिरती है। विरह पवन बनकर उन ओलों का झोला मारता है। अब कौन शृंगार करे और कौन रेशमी वस्त्र पहने? मेरे कण्ठ में तो हार भी नहीं है। मैं स्वयं हार के डोरे के दुबली हो गई हूँ।

हे कान्त! तुम्हारे बिना बाला नागमती सूखकर हल्की हो गयी है। उसका शरीर तिनके की तरह इधर-डोलता है। उस पर विरह उसे जलाकर उसकी राख भी उड़ा देना चाहता है।

  1. कातिक सरद चंद उजियारी। जग सीतल हौं बिरहै जारी॥

चौदह करा चाँद परगासा। जनहु जरें सब धरति अकासा॥

तन मन सेज करै अणिदाहू। सब कहँ चांद मोहि होइ राहू॥

चहूँ खंड लागे अँधियारा। जौ घर नाहीं कंत पियारा।।

अवहूँ निठुर! आउ एहिं बारा। परब देवारी होइ संसारा॥

सखि झूमक गावहिं अंग मोरी। हौं झुरांव बिछुरी मोरि जोरी॥

जेहि घर पिउ सो मनोरथ पूजा। मो कहँ बिरह सवति दुख दूजा॥

सरिस मानहिं तिउहार सब, गाइ देवारी खेलि।

होहिइं खेलौं कंत बिनु, रही छार सिर मेलि॥8॥

सन्दर्भ- पूर्ववत्।

प्रसंग- जायसी द्वारा विरचित महाकाव्य ‘पद्मावत’ के ‘नागमती वियोग खण्ड’ से अवतरित है। प्रस्तुत अवतरण में कार्तिक मास में दीपावली के त्यौहार के कारण नागमती की विरह-वेदना गहराती जाने का वर्णन है। नागमती अपने पति रतनसेन को सम्बोधित करके कह रही है-

व्याख्या- कार्तिक में शरद ऋतु के चन्द्रमा की उजियाली छाई हुई है। उससे सारा जगत् शीतल हो रहा है, पर मैं विरह से जल रही हूँ। चौवह कलाओं से पूर्ण होकर अर्थात् पूर्णिमा के चन्द्रमा ने प्रकाश किया है। मुझे जान पड़ता है, जैसे धरती से आकाश तक सब कुछ जल रहा है। मेरे तन और मन में सूनी सेज अग्नि-दाह उत्पन्न करती है। सबके लिए जो चाँद है, वह मेरे लिए राहु हो रहा है। जब घर में प्यारा कन्त नहीं है तो चारों दिशाओं में अंधेरा लगता है। हे निष्ठुर प्रिय! अब भी अर्थात् इस समय तो घर आ जा, जबकि संसार में दिवाली का पर्व मनाया जा रहा है। मेरी सखियाँ अंग मोड़- मोड़कर झुमक रासग गा रही हैं। मेरी जोड़ी बिछुड़ गयी है, इसलिए मैं ही सूख रही हूँ। जिनका प्रियतम घर पर है, वे मनोरथ पूर्ण कर रही हैं। मुझे तो विरह और सौत का दोहरा दुःख है अर्थात् एक तो पति परदेश चला गया है, दूसरे वह मेरी सौत लाने हेतु गया है, इसलिए मुझे दोहरा दुःख है।

सब सखियाँ त्यौहर मना रही हैं और गीत गाकर दिवाली में क्रीड़ा कर रही है। मैं कन्त के बिना क्या खेलूं? इसी दुःख से मैं अपने सिर पर धूल डाल रही हूँ।

  1. नागमती चितउर पथ हेरा। पिउ जो गए फिरि कीन्ह न फेरा॥

नागर काह नारि बस परा। तेइ मोर पिउ मो सन हरा।।

सुआ काल होइ लै गा पीऊ। पिउ नहिं जात जात बरु जीऊ।।

भएउ नरायन बावन करा। राज करत राजा बलि छरा।।

करन पास लीन्हेउ कै छंदू। विप्र रूप धरि झिलमिल इन्दू॥

मानत भोग गोपिचंद भोगी। लै अपसवां जलंधर जोगी॥

लेइ कान्हहि भा गरुड़ अलोपी। कठिन बिछोह जिअहिं किमि गोपी।।

सारस जोरी कौन हरि, मारि बियाधा लीन्ह।

झुरि-झुरि पिंजर हौं भई, बिरह काल मोहि दीन्ह।।1।।

सन्दर्भ- पूर्ववत्।

प्रसंग- हीरामन तोता से पद्मावती का वर्णन सुनकर राजा रतनसेन उसे प्राप्त करने के लिए जोगी बनकर निकल गया। रानी नागमती उसके वियोग में बहुत व्याकुल हुई। यहाँ नागमती की चिन्ता का वर्णन है।

व्याख्या  रानी नागमती चित्तौड़ में अपने पति राजा रतनसेन की बाट देखती थी। उसके प्रियतम जो गये, तो फिर लौटकर न आये। नागमती अपने मन में सोच रही थी कि मेरा चतुर पति किसी नारी के वश में पड़ गया है। उसने मोहित करके मेरा पति मुझसे छीन लिया है। हीरामन तोता मेरे लिए मृत्यु बनकर मेरे पति को अपने साथ ले गया। हाय! वह प्रिय को न ले जाता, चाहे मेरे प्राण ले जाता। वह तोता बावन-रूप में नारायण बनकर आया और राज करते हुए राजा बलि को छलकर ले गया। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार लघु-बावन अंगुल-रूपधारी नारायण ने राजा बलि के साथ धोखा किया था, उसी प्रकार छोटे से तोते ने मेरे पति के साथ छल किया जो चित्तौड़ में राजसुख भोग रहा था। जिस प्रकार छन्द्र छल करके कर्ण के पास से कवच-कुण्डल ले गया, जिससे अर्जुन को आनन्द हुआ था। मायावती इन्द्र बाह्मण का रूप धारण करके कर्ण को धोखा देने आया था। भोगी गोपीचन्द भोगों में फंसे थे। जोगी जालन्धर नाथ उन्हें शिष्य बनाकर अपने साथ लेकर चले गये। कृष्ण को लेकर गरुड़ अदृष्ट हो गया। उनके कठिन बिछोह में गोपियाँ कैसे जीवित रहेंगी?

सारस की जोड़ी में से एक नर को बहेलिये ने मार डाला था। यदि उसे मारना ही था तो मादा को मार डालता। तात्पर्य यह है कि मेरी और रतनसेन की जोड़ी सारस की जोड़ी के समान थी। मैं अपने पति रतनसेन के वियोग में सूख-सूखकर हड्डियों का ढाँचा मात्र रह गयी हूँ। इस वियोग ने मुझे मरणासन्न बना दिया है।

  1. भई पुछारि लीन्ह बनबासू। बैरिन सवति दीन्ह चिल्हवांसू।

कै खर बान कसै पिय लोगा। जौ घर आवै अबहूँ कागा।

हारिल भई पंथ मैं सेवा। अब तहँ पठयौं कौन परेवा।

धौरी पंडुक कहु पिय ठाऊँ। जौ चित रोख न दोसर नाऊँ।

जाहि बया गहि पिय कंठ लवा। करै मेराउ सोई गौरवा।

कोइल भई पुकारत रही। महरि पुकारि लेहु रै दही।

पिअर तिलोर आव जल हंसा। बिरहा पैठि हिएँ कट नंसा।

प्रसंग- प्रस्तुत अवतरण में नायिका की बाह्य जगत में पशु-पक्षियों को देखकर अनुभव होने बाली विरह वेदना का वर्णन किया गया है।

व्याख्या- नागमती कहती है कि मैंने मोरनी बनकर प्रिय के लिए वनवास लिया, परन्तु बैरिन् सौत ने मेरे लिए फंदा लगा दिया है। मुझे विरह का तीक्ष्ण बाण लगा है। हे काग ! यदि पति आ रहे हों तो उड़ जा। मार्ग में प्रतीक्षा करते-करते मेरी स्थिति उस हारिल पक्षी की भाँति हो गयी है जो लकड़ी के सहारे के बिना जीवित ही नहीं रह सकता है। अब मैं वहाँ कौन पक्षी भेजूं। हे धौरी ! पंडुक। तुम प्रिय का स्थान बताओ। यदि चितरोख पक्षी मिले तो दूसरे का नाम न लूँ। हे बया ! तू जाकर पति को ले आ। गौरैया तेरा नाम गौरव वाली तभी सार्थक होया जब तू मुझे अपने पति से मिला दे। मैं कोयल बनी हुई पुकार रही हूँ। महर बनकर दही (जली) पुकार रही हूं। पेड़ पर तिलौरी और जलहंस गर्मी से व्याकुल हृदय में विरह का कण्ठनास बैठा है, जिस पक्षी के समीप होकर वह निकलती है और बात करती है वही पक्षी जल जाता है और वह वृक्ष भी बिना पत्ती का हो जाता है।

विशेष- (i) अलंकार – बनबासू’ में अनुप्रास अलंकार है। (ii) यहाँ प्रलाप, व्याधि, चिन्ता तथा प्रसाद नामक विरह दशाएँ हैं। (iii) वियोग शृंगार रस, मसनवी शैली, दोहा, चौपाई छन्द और व्यावहारिक अवधी भाषा है।

  1. पिउ बियोग अस बाउर जीऊ। पपिहा तस बोलै पिउ पीऊ।

अधिक काम दगधै सो रामा। हरि जिउ लै सो गएउ पिय नामा।

बिरह बान तस लाग न डोली। रकत पसीजि भीजि तन चोली।

सखि हिय हेरि हार हिए मारी। हहरि परान तजे अब नारी।

खिन एक आव पेट महं स्वाँसा। खिनहि जाइ सब होइ निरासा।

पौनु डोलावहिं सींचहिं चोला। पहरक समुझि नारि मुख बोला।

प्रान पयान होत केइं राखा। को मिलाव चात्रिक कै भाखा।

प्रसंग पूर्वत।

व्याख्या- प्रिय के वियोग नागमती का जी ऐसा बावला हो गया था कि वह पपीहे की तरह ‘पिउ- पिउ’ रटने लगी थी। काम-भावना उस स्त्री को अत्यधिक सताने लगी। वह सुग्गा हीरामन प्रियतम के रूप में उसका प्राण ही हर ले गया। विरह का बाण उसे ऐसा लगा कि वह हिल-डुल भी न सकी और उसके शरीर से रक्त-प्रस्वेद जो निकला उससे उसकी चोली भीग गई। उसका हृदय सूख गया और उसे हार बोझिल मालूम पड़ने लगा और उसकी सब नाड़ियाँ काँप-कांपकर अपने प्राण छोड़ने लगी। उसकी सब सखियाँ निराश हो गयी थीं। वे हवा कर रही थीं और नागमती के शरीर पर जल-सिंचन कर रही थीं। एक पहर में वे सखियाँ नागमती के मुख से निकला बोल समझ पाती थीं। इसे कौन रखेगा ? कौन चातक की भाषा अर्थात् ‘पिउ’ से इसे मिलायेगा? इसके मुख से विरह की जो आह निकल रही है उससे ज्वाला जल उठी है, शरीर में जो जीव रूपी हंस था, उसके पंख जलने लगे हैं और वह उड़ने को हो गया है।

विशेष- (i) अलंकार – ‘चिड़-पीऊ’, ‘विरह-बान’, ‘हिय हेरि-हार’, ‘प्रान-पयान’ में अनुप्रास अलंकार तथा ‘बिरह बान तस लाग न डोली’, में उपमा अलंकार है।

(ii) वियोग वर्णन अतिशयोक्ति पूर्ण एवं फारसी साहित्य से प्रभावित है।

  1. पूस जाड़ थरथर तन काँपा। सुरुज जड़ाइ लंक दिसि तापा।

बिरह बाढ़ि भा दारुन सीऊ। कॅपि कॅपि मरौं लेहि हरि जीऊ।

कंत कहाँ हौं लागौं हियरें। पंथ अपार सूझ नहिं नियरें।

सौर सुपेता आबै जूड़ी। जानहूँ सेज हिवंचल बूड़ी।

चकई निसि बिछुरै दिल मिला। हौं निसि बासर बिरह कोकिला

रैन अकेलि साथ नहिं सखी। कैसे जिऔं बिछोही पँखी।

बिरह सैचान भंवै तन चौड़ा। जीयत खाइ मुएँ नहिं छाँड़ा।

प्रसंग- प्रस्तुत अवतरण में पूस के महीने में होने वाली नागमती की विरह व्यथा की व्यंजना की गई है।

व्याख्या- पौष में जाड़े से शरीर थर-थर काँप रहा है और सूर्य (पति, रतनसेन मी) शीत लगने से (काट पाकर) लंकी दिशा (दक्षिण) में आग ताप रहा है। विरह की वृद्धि से यह शीत और भी दारूण हो गया है। (जिसके परिणाम स्वरूप) मैं कॉप-कॉप कर मर रही हूँ और वे (दोनों शीत और विरह) मेरे जीव के हर ले रहे हैं। मेरे स्वामी न जाने कहाँ हैं? यदि, वे मेरे पास होते तो मैं उनके गले से चिपटकर मुक्ति पा लेती। उन तक पहुंचने का मार्ग भी अपार है। मुझे तो निकट की भी वस्तु नहीं दिखायी पड़ती। शैय्या पर पड़ी उज्जवल रजाई देखते ही शीत चढ़ जाती है। ऐसा लगता है कि, मानो वह शैय्या बर्फ में डूबी हुई हो। आशय यह है कि शैय्या बर्फ के समान ठण्डी लगती है। चकवी रात को बिछुड़ कर दिन में चकवे से मिल जाती है, परन्तु मैं रात-दिन विरह में जलती हुई तथा चकवी बनी हुई पुकार रही हूँ । मैं रात में अकेली रह जाती हूँ, सखी भी साथ में नहीं होती। मैं कैसे जिऊं? जब मेरी जोड़ी का पक्षी बिछुड़ा हुआ है। इस भयानक शीतकाल में विरह मुझे उसी प्रकार सता रहा है जैसे बाज चिड़िया को सताता है। यह शीत रूपी बाज जीतेजी तो मुझे खा ही रहा है लगता है, मरने पर भी नहीं छोड़ेगा। कहने का आशय यह है कि बाज जीवित चिड़िया पर झपट्टे मार-मारकर उसे व्याकुल कर देता है और मर जाने पर भी उसे छोड़ता नहीं, बल्कि उसके शरीर को नोंच-नोचकर खाता है। उसी प्रकार शीत भी नागमती को जीते जी तो व्याकुल कर ही रहा है, लगता है, मर जाने पर भी उसका पीछा नहीं छोड़ेगा अर्थात् उसके शरीर को भस्म कर उसके अस्तित्व को भी मिटा देगा।

विरह में नागमती का रक्त आंसू बनकर बह गया, मांस गल गयी, हड्डियाँ सूखकर शंख हो गयी। वह स्त्री सारस की जोड़ी की भांति रोती हुई मर गई है। हे प्रिय अब आकर उसके पंख समेट लो।

विशेष- (i) अलंकार-‘विरह-बाढ़ि’, ‘कंत-कहाँ’, ‘सौर-सुवेती’ ‘सब-शंख’ में अनुप्रास अलंकार है। सौर-सुपेती- बूड़ी में उत्प्रेक्षा , तथा ‘हाड़ भये सब संख’ में रूपक अलंकार है। (ii) शीत-ऋतु में सूर्य दक्षिणायन हो जाता है। दक्षिण दिशा में ठण्ड कम पड़ती है। कवि का आशय है कि शीत के भय के कारण ही सूर्य दक्षिण दिशा में भाग गया है। (iii) वियोग शृंगार रस, मसनवी शैली, लोकक प्रचलित अवधी भाषा है।

  1. चढ़ा असाढ़ गँगन घन गाजा। साजा बिरह दुंद दल बाजा।

घूम स्याम धौरे घन धाए। सेत धुजा बग पाँति देखाए।

खरग बीज चमकै चहुँ ओरा। बुंद बान बरिसै घन घोरा।

अद्रा लाग बीज भुइं लेई। मोहिं पिय बिनु को आदर देई।

ओनै घटा आई चहुँ फेरी। कंत उबारू मदन हौं घेरी।

दादुर मोर कोकिला पीऊ। करहिं बेझ घट रहै न जीऊ।

पुख नछत्र सिर ऊपर आवा। हौं बिनु नाँह मंदिर को छावा।

प्रसंग- नागमती के वियोग वर्णन के अन्तर्गत बारहमासा यही से अर्थात् आषाढ़ से आरम्भ होता है। प्रस्तुत अवतरण में कवि आषाढ़ में होने वाले ऋतु सम्बन्धी परिवर्तनों के साथ-साथ नागमती की विरहावस्था का वर्णन भी करता है। नागमती कहती है-

व्याख्या- आषाढ़ का महीना आ गया। मेघ आकाश में गरजने लगे। विरह ने युद्ध की तैयारी की है और उसकी सेना आ पहुंची है। धुएँ जैसे रंग से काले तथा श्वेत बादल सैनिकों की भांति आकाश में दौड़ने लगे और उनके मध्य उड़ने वाले बगुलों की पंक्तियाँ श्वेतध्वजा के समान दिखाई देने लगीं। मेघों की बिजलियाँ तलवार सी चमकने लगीं। बिजली रूपी तलवार चारों ओर चमकने लगी और मेघ बूंद रूपी बाणों की घनघोर वर्षा करने लगे। घटा उमड़कर चारों ओर छा गयी- नागमती कातर स्वर में पुकार उठी- “हे प्रियतम! मेरी रक्षा करो, मुझे काम-सेना ने चारों तरफ से घेर लिया है चारों तरफ मेढ़क, मोर, कोयल और पपीहा शोर मचा रहे हैं। (ये ही काम सेना के सैनिक है। इन सभी के शब्दों को सुनकर मेरे हृदय पर बिजली सी गिरती है और प्राण व्याकल होकर शरीर को छोड़कर भाग जाना चाहते हैं। हे प्रिय ! अबपुष्प नक्षत्र सिर पर आ गया है। बिना स्वामी के हूँ। कौन मेरा मन्दिर छवायेगा? जिनके घर कंत हैं, वे सुखी हैं। उन्हीं को गौरव और गर्व है। मेरा प्यारा कंत बाहर गया है, इससे मैं सब भूल गई हूँ।

विशेष- (i) अलंकार –

‘दुद-दल’, ‘चमकै-चहुँ बुंद-बान बरिसै’, ‘घ-घोरा’ में अनुप्रास अलंकार है। ‘चढ़ा असाढ़ गगन घन’ में असंगति तथा ‘पिंड बिनु’ में विनोक्ति अलंकार है।

(ii) ऋतु वर्णन में कोई नवीनता नहीं है।

(iii) भाषा अवधी है तथा शृंगार रस मसनवी शैली है।

  1. अगहन देवस घटा निसि बाढ़ी। दूभर दुख सो जाइ किमि काढ़ी।

अब धनि देवस बिरह भा राती। जरै बिरह ज्यों दीपक बाती।

कांपा हिया जनावा सीऊ। तौ पै जाइ होई सँग पीऊ।

घर घर चीर रचा सब काहूँ। मोर रूप रंग लै गा नाहूँ।

पलटि न बहुरा गा जो बिछोई। अबहुँ फिरै फिरै रँग सोई।

सियरि अगिनि बिरहैं हिय जारा। सुलगि सुलगि दगधै भै छारा।

यह दुख दगध न जानै कंतू। जोबन जरम करै भसमंतू।

प्रसंग- प्रस्तुत अवतरण में जायसी ने अगहन के महीने में होने वाली नागमती की विरहानुभूति का चित्रण किया है। अगहन का महीना लगते ही ठण्ड पड़नी प्रारम्भ हो जाती है। इसी मास की ठण्ड प्रेमी और प्रेमिकाओं को अत्यधिक समीप ला देती है, परन्तु नागमती क्या करें? उसका प्रियतम तो है ही नहीं। इस महीने का शीत उसे शीतलता न देकर और भी दाहक बन जाता है। नागमती कहती है-

व्याख्या- अगहन का महीना आ गया है। दिन छोटा और रात बड़ी होने लगी है। रात बिरहिणियों के लिए असह्य हो उठती है। अब यह कैसे काटी जाय? बिरह के कारण मेरे लिए तो दिन भी रात ही के समान काटना कठिन हो गया है। जैसे दीपक में बत्ती जलती है, उसी तरह मैं विरह में जल रही हूँ। इस मास का गीत जब अपना प्रभाव दिखाता है तो मेरा हृदय काँप उठता है। यह शीत तो तभी आ सकती है, जब स्वामी साथ हों। घर-घर में सबने जाड़े के नये वस्त्र निकाले हैं। मेरा रूप रंग (साज- श्रृंगार) स्वामी के साथ चला गया। वह जो मुझे छोड़कर गया, वापस नहीं लौटा है। यदि अब भी वह वापस आ जाए तो मेरा वह पहले का रंग-रूप लौट आयेगा। इस विरहिणी को आग शीतल हो (लग) रही है, क्योंकि विरह से उसका हृदय जल रहा है। हृदय सुलग-सुलगकर राख हो रहा है। मेरा यह दुःख दाह मेरा पति नहीं जानता है, वह मेरे यौवन जन्य (जीवन) को भस्मान्त कर रहा है। हे भौंरा ! हे काग ! तुम मेरे पति से जाकर सन्देश कहना कि तुम्हारी पत्नी विरह में जलकर राख हो गई है, उसी का धुआँ लगने से हम काले हो गये हैं।

विशेष -(i) अलंकार -‘किमि-काढ़ी’, ‘रूप-रंग’, ‘दुख-दगध’, ‘जोबन-जनम’ में अनुप्रास अलंकार है। ‘विरह जरौ जस दीपक बाती’ में उपमा अलंकार है। ‘फिर-फिरै’ में वीप्सा अलंकार है।

(ii) इस छन्द में ‘ऋतु’ को और बाह्य प्रसाधन आदि को विरहोद्दीपन के रूप में चित्रित किया गया है। (iii) ‘दिवस विरह मा राती’ – बाला के विरह की आग से दि का रंग काला पड़ कर रात में मिल गया। वह जैसी रात में जलती थी, वैसी ही दिन में जलने लगी।

  1. फागुन पवन झंकौरै बहा। चौगुन सीउ जाइ किमि सहा।

तन जस पियर पात भा मोरा। बिरह न रहै पवन हो झोरा।

तरिवर झरैं झरैं बन ढाँखा। भइ ओनंत फूलि फरि साखा।

करिन्ह बनाफति कीन्ह हुलासू। मो कहँ भा जग दून उदासू।

फाग करहिं सब चाँचरि जोरी। मोहिं जिय लाइ दीन्हि जसि होरी।

जौ पै पियहिं जरत अस पावा। जरत मरत मोहिं रोस न आवा।

रातिहु देवस इहै मन मोरें। लागौं कंत छार जेउँ तोरें।

प्रसंग- प्रस्तुत अवतरण में फागुल महीने में अनुभव होने वाली विरहानुभूति का वर्णन किया गया है।

व्याख्या- फाल्गुन मास में पवन झकोरों में बह रहा है, जिससे शीत चौगुना हो गया है। वह किस प्रकार सहा जा सकता है? मेरा शरीर (वृक्षों के) पीले पत्तो के सदृश हो गया है, हे कन्त, अब यह तुम्हो विरह में शहर नहीं सकता है, क्योंकि विरह पवन बनकर इसको झकझोर रहा है। आशय यह है कि जैसे फाल्गुन के महीने में चलने वाली हवा पीले पत्तों को झकझोर कर गिरा देती है, वैसे विरह कहीं, नागमती के शरीर को झकझोर कर समाप्त न कर दे। वृक्षों के पत्ते झड़ रहे हैं और वन के ढाक भी झड़ रहे हैं। फूल-फल वाली शाखायें पत्तों से रहित हो गयी हैं। सम्पूर्ण वनस्पतियों में उल्लास भर गया है और उनके उल्लास के प्रतीक नवपल्लव निकल आये हैं, परन्तु मेरे लिए संसार सूना उदास हो गया है। सब सखियाँ चाँचर जोड़कर फाग गा रही है। इस आनन्दोत्सव को देखकर मेरे हृदय में विरहाग्नि इस प्रकार धू-धू करके प्रज्ज्वलित हो उठती है, मानो मेरे शरीर के अन्दर होली जल रही हो। यदि प्रिय को इस तरह जलना अच्छा लगता है तो मुझे जल भरने में भी कुछ रोष नहीं है। रात-दिन मेरे मन में यही भाव रहता है कि हे प्रियतम ! मैं तुम्हारे किस प्रकार काम आ जाऊँ ? दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि रात-दिन मेरे मन में यही है कि हे कंत ! तेरे हृदय से लग जाऊं।

मैं इस शरीर को जलाकर राख कर दूं और कहूँ-हे वायु इसे उड़ा ले जा। शायद मैं उस मार्ग में जा पई जहाँ मेरा पति कभी पांव रखे।

विशेष– (i) अलंकार – ‘पियर-पात’, ‘फूल-फर’, ‘मरत-मोहि’, ‘मन-मोरे’ में अनुप्रास अलंकार तन-जस मेरा’ में उपमा अलंकार है। (ii) प्रस्तुत अवतरण में विरह जनित अभिलाषा का बड़ा मार्मिक रूप चित्रित किया गया है। (iii) वियोग शृंगार रस, मसनवी शैली, दोहा चौपाई छन्द और व्यावहारिक अवधी भाषा है।

  1. चैत बासंता होइ धमारी। मोहिं लेखे संसार उजारी।

पंचम बिरह पंच सर मारै। रकत रोइ सगरौ बन ढारै।

बूड़ि उठे सब तरिवर पाता। भीजि मँजीठ टेसू बन राता।

मौरे आँब फरै अब लागे। अबहुँ सँवरि घर आउ सभागे।

सहस भाउ फूली बनफती। मधुकर फिरे संवरि मालती।

मो कहँ फूल भए जस काँटे। दिस्टि परत तन लागहिं चाँटे।

भर जोबन एहु नारंग साखा । सुवा बिरह अब जाइ न राखा।

प्रसंग- प्रस्तुत अवतरण में चैत में होने वाली नागमती की विरहानुभूति का वर्णन है।

व्याख्या- चैत में बसन्त की धूमधाम है। परन्तु मेरे लिए संसार उजाड़ है। कोयल पंचम राग गाकर काम के पाँच बाण मारती है और रक्त के आँसू रोकर बन में बहाती है। उन आँसुओं में डूबकर वृक्षों के नये पते ताम्र वर्ण के हो गये हैं। मंजीठ भी उनसे भीग गया है और वन का टेसू उनसे लाल हो गया है। बौरे हुए आम फलने लगे हैं। नागमती कहती है कि – हे सौभाग्यशाली कंत ! अब तो घर लौट आओ। कहने का भाव यह है कि इस मास में वृक्ष भी फलवान हो उङ्गे हैं, एक मैं ही अभागिनी हूँ जिसकी मनोकामना फलवती नहीं हो रही है। तुम आकर उसे अब तो फलवती बना दो। वनस्पतिया सहस्त्रों रूपों में फैली हुई है। भौरे मालती का स्मरण करके घूम रहे हैं। शाखाओं पर खिले हुए फूल मेरे लिए काँटे बन गये हैं इनको देखते ही शरीर में चींटे से लगते हैं। नारंग वृक्ष की शाखाओं में यौवन फल गया है। भाव यह है शरीरलता नारंग वृक्ष के समान है और दो कूच उसमें लगे हुए नारंगी के फल हैं।

जिस प्रकार घिरिन परेवा (आकाश से टूटकर) आ जाता है, तुम भी हे प्रिय ! टूटकर आ पड़ो, क्योंकि नारी पराए (विरह) के वंश में हो रही है और तुम्हारे बिना उस परवशता से छूट नहीं सकती है।

विशेष– (i) अलंकार – ‘रक्त रोहू’, ‘परहु-पिय’ में अनुप्रास अलंकार है। ‘फूल भये जस काँटे’, ‘दिस्टि परत तन लागहिं चौटे’ में उपमा अलंकार है।

(2) यहाँ पर विरह वर्णन की व्यंजनात्मक शैली का अनुसरण किया गया है।

(3) वियोग शृंगार रस, मसनवी शैली, दोहा, चौपाई छन्द तथा लोक प्रचलित अवधी भाषा है।

  1. रतनसेनि कै माइ सुरसती। गोपीचंद जस मैनावती।

आँधरि बूढ़ि सुतहिं दुख रोवा। जोबन रतन कहाँ भुइं टोवा।

जोबन अहा लीन्ह सो काढ़ी। मैं बिनु टेक करै को ठाढ़ी।

बिनु जोबन भौ आस पराई। कहाँ सपूत खाँभ होइ आई।

नैनन्ह दिस्टि त दिया बराहीं। घर अँधियार पूत जौं नाहीं।

को चलाव सरवन के ठाऊँ। टेक देहि ओहि टेकौं पाऊँ।

तुम्ह सरवन होइ कांवरि सजी। डारि लाइ सो काहे तजी।

प्रसंग- अपने स्वयं के दुःख का विवरण देने के बाद नागमती पक्षी से रतनसेन की माँ की दु:खावस्था का वर्णन करती हैं। उसका विचार है कि रतनसेन उसके दुःख से न भी प्रभावित हो तो अपनी माँ के ही दुःख को सोचकर घर आ जाये।

व्याख्या- राजा रतनसेन की मां सरस्वती पुत्र के वियोग में उसी प्रकार दुःखी है, जिस प्रकार गोपीचन्द्र के वियोग में उसकी माँ मैनावती दुखी रहा करती थी। उसकी बूढ़ी माँ दुःख के आवेग से रोते-रोते अन्धी हो गयी है, न जाने उसका जीवन-रत्न’ अर्थात् प्राणों से भी मूल्यवान पुत्र कहाँ खो गया है। जीवन अर्थात् प्राणों के समान उसके प्रिय-पुत्र को किसी ने निकाल लिया है। पुत्र के न होने से वह असहाय हो गयी है, अब उसे कौन खड़ी करे अर्थात् सहारा दे। अपने प्राणप्रिय पुत्र के न रहने पर वह पराश्रिता हो गयी है। उसका पुत्र कहाँ है जो आकर खम्भे के समान उसे सहारा दे। यदि आँखों में प्रकाश नहीं है तो घर में दीपक जलाना व्यर्थ है। यदि घर में पुत्र न हो तो सर्वत्र अन्धकार ही रहता है। श्रवण कुमार के समान अब कौन उसे सहारा देगा और उसके पाँवों को पृथ्वी पर टिकायेगा। हे पुत्र! तुमने वृद्धावस्था में श्रवणकुमार के समान मेरी कांवरि सजाई थी अर्थात् सेवा करने की प्रतिज्ञा की थी। अब उस कांवरि को वृक्ष पर लटकाकर क्यों चले गये अर्थात् मुझे छोड़कर क्यों चले गये। तात्पर्य यह है कि श्रवणकुमार के समान मातृ-भक्ति की प्रतिज्ञा करके भी तुम मुझे छोड़कर क्यों चले गये?

इस प्रकार राजा की माँ सरस्वती ‘श्रवण-श्रवण’ अर्थात् अपने पुत्र का नाम रटते-रटते तथा कांवरि के लिए विलाप करती-करती अर्थात् पुत्र का सहारा पाने के लिए रोती हुई मर गयी। तुम्हारे बिना वह पानी नहीं पी सकती अर्थात् तुम्हारे बिना उसका श्राद्धकर्म कौन करेगा, दशरथ को तो आग देने वाला है। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार श्रवणकुमार के मात-पिता पुत्र के लिए तड़पकर मर गये, उनका पुत्र न उनकी चिता में आग ही लगा सका और न उनका श्राद्धकर्म ही कर सका, वही स्थिति रतनसेन की माँ सरस्वती की भी है, अतः रसनसेन को तुरन्त घर लौट आना चाहिए।

विशेष- (i) अलंकार- सरवन-आगि-यहाँ पर सारूप्य निबन्धता अप्रस्तुत प्रशंसा अलंकार है। ‘सुरसती, करै को, पानि न पीवै’ में अनुपास, ‘सरवन-सरवन’ में पुनरूक्तिप्रकाश, ‘जीवन-रतन’ में रूपक तथा गोपी-मैनावती’ में उपमा अलंकार है। (ii) जायसी भारतीय हिन्दू परम्पराओं के भी सुष्ठु ज्ञाता थे। माता-पिता के मरने के बाद यदि पुत्र उनका श्राद्धकर्म करता है, तभी उनकी आत्मा को शान्ति मिलती है। रतनसेन के लिये यह एक निन्दास्पद बात होगी कि उसके जीवित रहते भी, उसकी मां का श्राद्ध कोई अन्य सम्बन्धी करे। (iii) इस अवतरण में वात्सल्यमूलक वियोग का चित्र खींचा गया है।

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