अर्थशास्त्र / Economics

माल्थस का जनसंख्या का सिद्धान्त | माल्थस के जनसंख्या सिद्धान्त की मान्यतायें

माल्थस का जनसंख्या का सिद्धान्त | माल्थस के जनसंख्या सिद्धान्त की मान्यतायें

माल्थस का जनसंख्या का सिद्धान्त संक्षेप में

(Malthusian Theory of Population Briefly Stated)

यों तो शरू से ही अर्थशास्त्रियों ने जनसंख्या की समस्या पर विचार प्रकट किए हैं, किन्तु उन्होंने कोई पूर्ण व निश्चित सिद्धान्त प्रस्तुत नहीं किया था। इसका श्रेय तो माल्थस का है।

माल्थस एक निराशावादी पादरी थे। इन्होंने कई वर्षों के अध्ययन के बाद अपने विचारों को एक पुस्तक के रूप में छपवाया, जिसका दूसरा संशोधित संस्करण 1803 में निकला। इसका नाम था An Essay on the Principle of Population इसको माल्थस के विचारों का आधार माना गया।

माल्थस के समय में यूरोप युद्धों, मसीबतों और निर्धनता के चक्र में फंसा था। खाद्यानों आदि के अभाव के कारण लोगों में आर्थिक असंतोष प्रबल था। तीव्र गति से बेकारी बढ़ रही थी। औद्योगिक क्रान्ति शुरू ही हुई थी, जीवन-निर्वाह के साधन बढ़ते हुए दिखाई नहीं देते थे। इन्हीं परिस्थितियों ने माल्थस के जनसंख्या सिद्धान्त के प्रतिपादन को प्रभावित किया, किन्तु माल्थस की पुस्तक के प्रकाशन का तात्कालिक कारण गोडविन (Godwin) की पुस्तक (An Enquiry into Political Justice) का प्रकाशित होना था, जिसमें लेखक ने मानव समाज के भविष्य का आशावादी चित्र खींचा था। माल्थस निराशावादी थे। उनकी पुस्तक इस पुस्तक के प्रत्युत्तर में लिखी गई।

मान्यतायें

माल्थस ने अपना सिद्धान्त निम्न मान्यताओं पर आधारित किया-(1) मनुष्य की प्रजनन शक्ति स्थिर रहती है और (2) जीवन-स्तर तथा जनसंर सीधा सम्बन्ध होता है। अन्य शब्दों में, जीवन स्तर बढ़ने पर जनसंख्या बढ़ेगी, क्योंकि तब अधिक बच्चों का पालन-पोषण सम्भव हो जायेगा। इसके विपरीत जीवन-स्तर गिरने पर जनसंख्या में कमी होगी, क्योंकि तब कम बच्चों का ही पालन सम्भव होगा।

नियम एवं व्याख्या-

माल्थस ने अपने जनसंख्या सम्बन्धी नियम को निम्न शब्दों में प्रस्तुत किया, “उत्पादन कलाओं की एक दी हुई दशा में जनसंख्या में जीवन-निर्वाह साधनों की सीमा को पार करने को प्रवृत्ति होती है।” इस नियम को समझने हेतु माल्थस के सिद्धान्त की मुख्य बातों पर ध्यान देना आवश्यक है, जो कि निम्नलिखित हैं-

  1. खाद्यान्न और जनसंख्या की वृद्धि में सम्बन्ध-

माल्थस ने अपने निबन्ध में अनियन्त्रित जनसंख्या के बढ़ने की भयंकर गति से खाद्य सामग्री के बढ़ने की मन्द गति के साथ तुलना की है। उनका विचार था कि जनसंख्या 1, 2, 4, 8, 16, 32, के क्रम से (अर्थात् geometrical progression में) बढ़ते हुए 25 वर्ष में लगभग दूनी हो जाती है जबकि खाद्य सामग्री 1, 2, 3, 4, 5, 6 के हिसाब से अर्थात् (arithmetical progression में) बढ़ती है। उनका कहना है कि जो जनसंख्या बढ़ने की दर से वृद्धि उन्होंने बताई है वह. तो न्यूनतम है, अर्थात् उससे ऊँची दर से होना भी सम्भव है, किन्तु खाद्य सामग्री के बढ़ने की दर पृथ्वी की वर्तमान औसत दशा को देखते हुए, मानवीय उद्योग के लिए सबसे अनुकूल परिस्थितियों के अन्तर्गत, गणित की दर से अधिक नहीं हो सकती है। उनके अनुमान के अनुसार दो शताब्दियों में जनसंख्या और खाद्य सामग्री का अनुपात 256 और 9 का एवं 3 शताब्दियों के बाद 4096 और 13 का हो जायेगा। दो हजार वर्ष के बाद तो दोनों में अन्तर का हिसाब लगाना भी असम्भव हो जायेगा।

जनसंख्या का 25 वर्षों में दुगुना हो जाने का अनुमान जीव विज्ञान के नियम के आधार पर है, जबकि खाद्य सामग्रो के (स्मरण रहे कि खाद्य सामग्री में माल्थस खेतों में उत्पन्न फसलों को ही गिनते हैं) बढ़ने का अनुमान उत्पत्ति हास नियम के अनुसार है। माल्थस की धारणा थी कि खेती में अधिक पूंजी लगाने से घटती हुई दर पर उपज प्राप्त होती है। इस सम्बन्ध में वह लिखते हैं- “कृषि सम्बन्धी विषयों से तनिक परिचय रखने वाले व्यक्तियों को भी यह बात स्पष्ट हो जानी चाहिए कि जैसे-जैसे कृषि का विस्तार किया जायेगा और फलस्वरूप पिछली औसत उपज में जो वार्षिक वृद्धियाँ सम्भव हो सकेंगी, वह शनैः शनैः (किन्तु नियमित रूप से) घटती जायेंगी।” इस प्रकार, ज्यामितिक और गणितीय श्रेणियों का उल्लेख माल्थस ने यह दिखाने हेतु किया कि जनसंख्या की वृद्धि खाद्य सामग्री की अपेक्षा बहुत तेजी से होती है।

  1. नैसर्गिक प्रतिबन्ध एवं माल्थूजियन- चक्र-

यदि जनसंख्या की वृद्धि निर्बाध जारी रहे, तो स्पष्ट है कि खाद्य सामग्री की अपेक्षा जनसंख्या का आधिक्य हो जायेगा। प्रकृति के नियम द्वारा, जिसने मनुष्य जीवन के लिए भोजन आवश्यक बनाया है, इन दोनों असमान शक्तियों में सन्तुलन रखा जाना चाहिए। यदि मनुष्य निवारक अवरोधों (preventive checks) के द्वारा अपनी जनसंख्या को कम नहीं करता है तथा समस्त जनसंख्या को न्यूनतम खाद्य सामग्री उपलब्ध नहीं हो पाती है, तो इस असन्तुलन को प्रकृति अपने तरीके से अर्थात् प्राकृतिक अवरोधों (positive checks) के द्वारा मृत्यु को बढ़ाकर जनसंख्या को पुनः खाद्य सामग्री की सीमा में ले आयेगी। माल्थस के शब्दों में, “यदि एक व्यक्ति ऐसे विश्व में जन्म लेता है जिसमें जनसंख्या खाद्य सामग्री की उपलब्धि के स्तर पर पहुँच चुकी है, यदि उसे अपने माता-पिता से निर्वाह सामग्री प्राप्त नहीं हो सकती है (यद्यपि उसे उन पर इनके पाने का उचित अधिकार है) और, यदि उसके श्रम की समाज को भी कोई आवश्यकता नहीं है, तो उसे खाद्य सामग्री में से कोई भी अंश पाने का अधिकार नहीं है। सच तो यह है कि उसका वहाँ होना जहाँ कि इस समय है अवांछित है, प्रकृति ने जो महान् भौज सजाया है, उसमें उसके लिए कोई स्थान रिक्त नहीं है। अत: वह उसे चले जाने की आज्ञा देती है।” संक्षेप में प्रकृति अपनी शक्ति द्वारा सन्तुलन कायम करती है।

किन्तु यह संतुलन अल्पकालीन ही होता है, क्योंकि मनुष्य के बढ़ने की स्वाभाविक इच्छा तेजी से कार्यशील हो जाती है और इस प्रकार जनसंख्या पुनः बढ़कर खाद्यान्नों की पूर्ति को पार कर जाती है। पुनः प्रकृति नैसर्गिक प्रतिबन्धों द्वारा जनसंख्या को कम करके खाद्यान्नों के साथ उसका सन्तुलन स्थापित कर देती है। इस प्रकार, एक चक्र-सा चलता रहता है। इसे ‘माल्थूजियन- चक्र’ कहा गया है।

माल्थस ने ‘निबन्ध’ के प्रथम संस्करण में केवल दो प्रकार के अवरोधों का वर्णन किया था- पाप (Vice) और आपत्तियाँ (miseries)। ये अवरोधक जनसंख्या को खाद्य सामग्री की उपलब्धता-सीमाओं के भीतर रखते हैं। दूसरे संस्करण में उन्होंने नैतिक अवरोधों को भी चर्चा की है। इस प्रकार, माल्थस ने जो अवरोध बताये हैं उन्हें विस्तृत रूप से दो वर्गों में विभक्त किया जा सकता है- (अ) प्राकृतिक अवरोध (Positive Checks) और (ब) निवारक अवरोध (Preventive Checks)!

प्राकृतिक अवरोधों को माल्थस ने ‘आपत्ति’ की श्रेणी में रखा है। इसके अन्तर्गत युद्ध, रोग, दुर्भीक्ष और अन्य दैवी आपत्तियाँ सम्मिलित हैं। जब जनसंख्या खाद्य साधनों की सीमा से अधिक बढ़ जाती है, तब प्रकृति इन दुखमय उपायों से, अनिवार्य रूप में, जनसंख्या को काट-छाँट करती है, जिससे सन्तुलन फिर स्थापित हो जाता है।

दूसरे प्रकार के अवरोध निवारक अवरोध हैं। ये मानवकृत (man-made) होते हैं। इन्हें अपनाना या न अपनाना मनुष्य को इच्छा पर होता है। इन्हें भी दो उप-वर्गों में बाँटा जाता है- नैतिक अवरोध एवं अनैतिक अवरोध। दोनों प्रकार के उपाय बच्चों के जन्म को घटाते हैं। नैतिक अवरोध (Moral Restraints) के विषय में माल्थस लिखते हैं-“आत्म संथम से मेरा तात्पर्य बुद्धिमानी के उद्देश्यों से विवाह को स्थगित करने और इस स्थान की अवधि में अपने चरित्र को पूर्णतया नैतिक बनाये रखने से है और इसी अर्थ पर मैं सदा कायम रहा हूँ।”

स्पष्ट है कि नैतिक अवरोधी में आत्म संयम, बड़ी आयु में विवाह करना, नैतिक नियन्त्रण, ब्रह्मचर्य पालन आदि सम्मिलित हैं। इनके अतिरिक्त, अनैतिक अवरोध भी हैं, जिन्हें माल्थस ने ‘पाप’ की संज्ञा दी है। इस प्रकार के अवरोधों के उदाहरण हैं-मिश्रित समागम, अप्राकृतिक समागम, गर्भपात आदि।

निवारक अवरोधों को अपनाता सर्वश्रेष्ठ-

प्रकृति द्वारा लगाये गये अवरोध बहुत ही दुखमय होते हैं। इनके कारण मनुष्यों को घोर दुःखों का सामना करना पड़ता है। जब तक मनुष्य जाति अपनी प्राकृतिक प्रवृत्ति का अज्ञानतापूर्वक अनुकरण करती रहेगी, समाज में समय-समय पर प्राकृतिक अवरोधों की पुनरावृत्ति अनिवार्य रूप में होती रहेगी। माल्थस ने दुःखों और कष्टों से बचने के लिए मानव जाति को परामर्श दिया है कि वह निवारक अवरोधों को अपनाये। प्राकृतिक अवरोधों की तुलना में निवारक अवरोध श्रेष्ठ होते हैं, क्योंकि (i) ये एक उच्च मानवीय सभ्यता के द्योतक हैं और मनुष्य को प्रकृतिजन्य आपत्तियों से बचाते हैं। (ii) ये ऐसे तरीके हैं जिनका प्रयोग विवेकपूर्ण प्राणी स्वयं ही कर सकते हैं और ये केवल मनुष्य को ही उपलब्ध हैं। यह जानते हुए कि असंयमित जीवन बिताने पर परिवार में आर्थिक साधनों की सीमा से अधिक शिशु पैदा हो जायेंगे और समुचित भरण-पोषण के अभाव में उनकी मृत्यु हो जायेगी। मनुष्य स्वतः अधिक बच्चे पैदा करने से परहेज करेगा, इस हेतु संयम से चलेगा और विलम्ब से विवाह करेगा। (iii) जनसंख्या को रोकने का यह एक प्रभावशाली उपाय है, क्योंकि प्राकृतिक अवरोधों के द्वारा जनसंख्या को काट-छाँट उसकी वृद्धि को और अधिक तेज करती है। माल्थस चाहते हैं कि प्रत्येक मनुष्य निवारक अवरोध स्वेच्छा से अपनायें। वह इनमें सरकार का हस्तक्षेप नहीं करेगा।

इस प्रकार, स्पष्ट है कि विभिन्न प्रकार के निवारक-अवरोधों में माल्थस ‘नैतिक अवरोधों’ का समर्थन करते हैं, क्योंकि ये धर्म सम्मत, विवेक सम्मत एवं उद्योग को प्रोत्साहित करने वाले हैं। किन्तु वे अनैतिक अवरोधों का विरोध करते हैं। वे किसी भी दशा में सद्गुण के मार्ग से विचलित होने को तैयार नहीं हैं। कृत्रिम अवरोधों (Birth Control Measures) को अपनाना वह सन्मार्ग से विचलित होना मानते हैं।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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