मुद्रित माध्यम के लिए समाचार लेखन का प्रारूप | मुद्रित माध्यम के लिए समाचार लेखन की प्रविधि
मुद्रित माध्यम के लिए समाचार लेखन का प्रारूप | मुद्रित माध्यम के लिए समाचार लेखन की प्रविधि
मुद्रित माध्यम के लिए समाचार लेखन का प्रारूप
“समाचार पत्रों का लेखन जीवन के उन दृश्यो को चित्रित करता है जिनमें साहित्यिक लेखन उसके आदर्शों की खोज करता है।” इस उक्ति को यदि ध्यान में रखा जाय तो समाचार-पत्रों के लेखन तत्त्वों की छानबीन बड़ी सरलता से कर सकते हैं। अनेक लोगों का अपने बचपन का ध्यान होगा, जब वह अपनी माता या उन्हें दुलारने वाली बड़ी-बूढ़ियों से कहानियाँ सुनाने का आग्रह किया करते रहे होंगे और कुछ बच्चे ऐसी कहानियाँ सुनने का सौभाग्य प्राप्त करते होंगे। निश्चय ही यह कहानियाँ ऐसी भाषा में ही कही जाती रही होंगी, जो बच्चों की समझ में आती होगी। इसी बात को यदि हम समाचार पत्रों की भाषा पर लागू करें तो यह समझने में देर न लगेगी कि समाचार पत्र में ऐसी भाषा अपेक्षित होती है जो लोक-जीवन में प्रचलित हो और लोग सरलता से समझ सकें और सहज ही ग्रहण कर सकें। अतः लोग यही अपेक्षा करते हैं कि समाचार-पत्र उनसे उनकी भाषा में बात करे, उनमें प्रकाशित सामग्री उनसे उनकी ही भाषा में बोले। अतः समाचार-पत्रों के लिये रचा जाने वाला लेखन, लोक-लेखन होना चाहिये।
समाचार लेखन के सिद्धान्त यों तो न जटिल हैं, न दुरूह। अच्छे लेखन का ही सामान्य सिद्धान्त है कि वाक्य छोटे और स्पष्ट होने चाहिये। यही सिद्धान्त विशेष रूप से समाचार-लेखन के लिये तो बहुत उपयुक्त सिद्धान्त है। टेलीवीजन और रेडियो के लिये लिखे गये समाचारों में तो इस सिद्धान्त का बहुत कड़ाई से पालन करना ही श्रेयस्तर होता है। परन्तु जहाँ तक समाचार-पत्र के लिये इस सिद्धान्त का पालन करने का प्रश्न है, तो उस पर प्रायः प्रश्न-चिह्न लगा दिखाई दे तो आश्चर्य नहीं करना चाहिये। समाचार लेखन के इस सिद्धान्त के साथ अन्य सिद्धान्तों की भी व्यूहबद्धता ऐसी है कि उसके परकोटों में घूमते रहकर भी अनेक लेखक उनके दरवाजों पर दस्तक नहीं दे पाते, किन्तु दूसरे लेखक सिद्धान्तों के महत्त्व को बाहर खड़े-खड़े रहकर ही उसकी शोभा का आनन्द लेते हैं और बिखेरते हैं और समाचार के कथा नाम को सार्थक करने में सफल होते हैं। सचमुच ही पाठक यदि उनके समाचार की एक भी पंक्ति पढ़ लेता है तो वह उसे अन्तिम पंक्ति तक खींच ले चलते हैं।
ऐसी दशा में भी जब समाचार छोटा भी होता है और सरल भाषा में भी, तो यह आवश्यक नहीं कि पाठक उसे पूरा ही पड़े। वस्तुतः पाठकों की रुचि समान नहीं होती। पाठकों की रुचि सबसे पहले उन समाचारों को पढ़ने की होती है, जिनकी विषय-वस्तु या तो उनकी रुचि के अनुकूल हो या फिर वह उस बात से सम्बन्धित हो, जिसके बारे में वह जानकारी चाहता है। प्रायः समाचार-पत्र. को आद्योपान्त या उसके दो-तिहाई कलेवर तक बहुत कम पाठक समाचार-पत्र को पढ़ते हैं। ऐसे समाचार-पत्र पाठकों के लिये समाचारों के शीर्षक ही उनकी अखबार पढ़ने की क्षुधा को शान्त कर देते हैं इसलिए आवश्यक यह हो जाता है कि समाचारों के शीर्षक उनकी लीड अर्थात् समाचार का सूत्रपात ऐसे रूप में होना चाहिये कि पाठक उसे आगे भी पढ़ने को उत्सुक हो जाय। अखबारी समाचार-लेखन का एक परमावश्यक तत्त्व है। भाषा की सरलता, सुबोधता में यदि कमी भी हो तो पाठक उसे झेल भी लेता है, परन्तु नीरसता को वह नहीं झेल पाता।
‘वस्तुनिष्ठ’ अच्छे समाचार लेखन का मूल मन्त्र है। समाचार को प्रारम्भ से ही अपनी मूल सूचना को सामने ले आना चाहिये। विभिन्न घटनाओं के सम्बन्ध में लिखते समय सम्वाददाता के लिये हालांकि यह सम्भव नहीं रह पाता कि वह अपनी पसन्द या नापसन्द से तटस्थ रह सके। परन्तु सिद्धान्त यह है कि उसे अपने भावेगों तथा पूर्व-धारणाओं का समावेश समाचार में नहीं करना चाहिये। उसे केवल मूलभूत ‘सत्य’ का सीधा आलेख लिखना चाहिये। गाडियन (मैनचेस्ट) के सम्पादक सी. पी. स्काट ने लिखा है कि “समाचार-संग्रह समाचार-पत्र का प्रथम कर्तव्य है। कोई समाचार भले ही उसकी भावना पर आघात करता हो किन्तु उसे उस समाचार को दूषित नहीं होने देना चाहिये। समाचार-पत्र जो कुछ समाचार दे, चाहे ने दे, या चाहे जिस ढंग से उसे प्रस्तुत करे, सत्य को ठोस नहीं पहुंचनी चाहिये। सत्य पवित्र है, व्याख्या स्वतन्त्र है।”
समाचार-लेखन में आडम्बरपूर्ण शैली भी सराहनीय नहीं होती। वह चाहे समाचार की आत्मा को प्रच्छन्न न करे, लेकिन उसके शरीर को तो आहत कर ही देती है। सम्वाददाता को यह ध्यान में रखना चाहिये कि सरल और स्पष्ट शैली में लिखे गये समाचार विद्वान पाठकों के लिये भी उतने ही रुचिकर होते हैं, जितने साधारण पाठकों को, लेकिन आडम्बरपूर्ण शैली को तो विद्वान पाठक भी पसन्द नहीं कर पाते। अतः सम्वाददाता को अपना पाण्डित्य प्रदर्शित नहीं करना चाहिये। एक बार जवाहरलाल नेहरू ने सम्पादकों के सम्मेलन में समाचार-पत्रों की हिन्दी के बारे में शिकायत की थी कि उसे चतुर्थवर्गीय कर्मचारी नहीं समझ पाते। हालाँकि उनकी वह शिकायत उचित हो सकती है, लेकिन उपयुक्त नहीं है, क्योंकि हर भाषा की अपनी प्रकृति अलग होती है। हिन्दी की प्रकृति उर्दू या उर्दू-मिश्रित हिन्दी जैसी नहीं है। इस कारण उसके लेखन में विषय-वस्तु के हिसाब से कुछ शब्द ऐसे भी लिखने होते हैं, जो बोझिल लगते हैं, परन्तु सटीक भाव को प्रदर्शित करने के लिये यदि कोई शब्द गम्भीर रूप से कठिन भी है तो भी उसे प्रयोग करना ही होगा। आमतौर से यह शिकायत हिन्दी पत्रों के सम्बन्ध में बहुत से पढ़े-लिखने लोग करते रहते हैं, लेकिन इस शिकायत का मूल कारण हिन्दी की प्रकृति को नहीं समझ पाना ही है।
व्याख्यात्मक समाचार-लेखन-
समाचार-लेखन के लिये यह भी आवश्यक है कि वह समाचार के सपाट तथ्यात्मक कलेवर की व्याख्या भी करे। पाठक यदि समाचार माना गया है तो उसकी तृप्ति मात्र घटना के विवरण से नहीं होगी। उसे उसकी व्याख्या भी चाहिये, जो उसके तथ्यात्मक सत्य को प्रत्याशित करने वाली हो। एक प्रसिद्ध पत्रकार का कथन है कि “व्याख्यात्मक समाचार बीते कल को आज के समाचार से सम्बन्धित करता है जिससे कि आने वाले कल का अर्थ निकाला जा सके।”
“व्याख्या, तथ्य और मत से भिन्न होती है। नये तथ्य वे होते हैं, जिन्हें आप देखते हैं, पृष्ठभूमि वह होती है जिसे आप जानते हैं और मत वह होता है जो आपके अपने मस्तिष्क में उभरता है।”
(के. पी. नारायण- सम्पादन कला)
अन्वेषणात्मक लेखन-
किसी घटना के केन्द्र-बिन्दु तक पहुंचने के लिये सत्य का अन्वेषण आवश्यक होता है, तो संवाददाता को समाचार में एक कला तत्त्व प्रदान करता है, दूसरी ओर उसके पत्रकारिता धर्म की कसौटी भी बनता है। साधारण रूप से संवाददाता घटना के घटित ब्यौरे एकत्र करता है, उसके साथ अन्वेषण करके कारणों का पता लगाना भी समाचार को पूर्ण रूप देने के लिये जरूरी अन्वेषण क्रिया. घटनाओं की प्रकृति पर आधारित होती है।
क्या, कब, कहाँ, किसने, क्यों और कैसे-हर समाचार का यथार्थ इन छः बिन्दुओं से जुड़ा होता है। संवाद लेखक के सामने समाचार में सजीवता लाना बहुत आवश्यक समस्या होती है और उसके प्रारम्भिक वाक्य या वाक्यों में घटना के प्रति पाठक की उत्सुकता पैदा करने के लिये समाचार की रूपरेखा की झलक किन शब्दों में प्रस्तुत करें, इस पर विचार करना पड़ता है। सामान्यतः घटना से सम्बन्धित- क्या, कब, कहाँ, किसने, क्यों और कैसे की जानकारी पाठक को अविलम्ब कराने वाली परम्परा समाचारों का सूत्रपात करने से जुड़ी हुई है। इसे समाचार का सूत्रपात अर्थात् पत्रकारिता की भाषा में ‘लीड’ कहा जाता है। अतः समाचार का चरित्र उसकी लीड के कलापूर्ण ढंग से समाहित कर देना आवश्यक होता है। इसके लिये समाचार के पहले पैराग्राफ को समाचारीय-सारांश से युक्त कर देना आवश्यक होता है। इसके लिये समाचार के पहले पैराग्राफ को समाचारीय-सारांश से युक्त कर देना उपयुक्त है। इसे लिखते हुए संवादाता को बहुत स्पष्ट होना चाहिये। समाचार पर टिप्पणी क्रिया उसके बाद होनी चाहिये।
चित्रात्मक पत्रकारिता-
चित्र स्वभावतः पाठक को आकर्षित करते हैं और उनकी उपादेयता तब और पढ़ जाती है, जब उनके माध्यम से समाचार की बारीकी प्रकट हो रही हो। वर्तमान युग चित्रात्मक पत्रकारिता का समय है। अत: समाचार के साथ सार्थक फोटो भी दिया जाय तो वह पाठक की रुचि को उसके प्रति जागृत कर देता है।
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