पद्मावत् के नागमती का विरह वर्णन | नागमती का विरह संपूर्ण भक्ति कालीन कविता में अद्वितीय है
पद्मावत् के नागमती का विरह वर्णन | नागमती का विरह संपूर्ण भक्ति कालीन कविता में अद्वितीय है
पद्मावत् के नागमती का विरह वर्णन
हिन्दी-साहित्य में विरह-वर्णन-
सृष्टि के प्रारम्भ से ही विश्व-साहित्य में विरह का महत्त्वपूर्ण स्थान है। विशेष रूप से कवि समाज में तो विरह का बहुत ही महत्त्व है। विरह ही प्रेम की कसौटी है, जिस पर सच्चे प्रेम की परख होती है। विरह की अग्नि में तपा हुआ प्रेम अत्यन्त शुद्ध और निर्मल होता है।
नागमती का वियोग वर्णन-
जायसी का नागमती-वियोग हिन्दी-साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। जायसी का चित्त जितना संयोग में रमा है, उससे अधिक पूर्वराग में और पूर्वाराग से अधिक वियोग में संयोग-वर्णन में जायसी के भावुक हृदय ने स्वकीया नागमती के पावन और पुनीत प्रेम के सौंदर्य को भली भाँति परखा है। नागमती आदर्श विरहिणी के रूप में हमारे सामने आती हैं यही जायसी की सबसे बड़ी विशेषता है कि नागमती को इस प्रकार चित्रित किया है कि वह वियोगावस्था में अपना रानीपन भी भूल जाती है और एक साधारण स्त्री के रूप में दिखायी देती है। उसका विरह ‘प्रवास-जन्य’ हैं उसका प्रियतम उसको भूलकर परदेश में बैठा है। नागमती अपने प्रिय के विरह में उसके पथ को पलकों से बुहारती है और उस पथ पर शीश के बल चलना चाहती है-
वह पथ पलकन्ह जाइ बुहारौं।
सीस चरण कै चलौं सिधारौं।
बहुत दिन बीत जाने पर भी रत्नसेन जब सिंहद्वीप से नहीं लौटा तो नागमती का धैर्य लुप्त होने लगा और उसने अपनी आँखों प्रियतम की राह में बिछा दीं। राह देखते-देखते उसे अशुभ की आशंका होने लगी-
नागमती चितउर पथ हेरा। पिउ जो गए पुनि कीन्ह न फेरा॥
नागर काहु नारिबस परा। तेई मोर प्रिय मो सों हरा।।
जायसी की विरह-व्यंजना में सर्वत्र भारतीयता की गहरी छाप है। नागमती भारतीय नारी है जो अन्दर ही अन्दर घुटती रहती है। वह गीली लकड़ी की तरह सुलगती रहती है, मन की पीड़ा और दाह को चुपचाप पीती है और अपने होंठ तक नहीं हिलाती। इस स्थिति को अभिव्यंजना जायसी ने बड़े सुन्दर ढंग से की है-
बदन पिअर जल जगमग नैना।
परगट दुखइ प्रेम के बैना॥
जायसी ने विरहिणी के प्रेमी हृदय की उस विलक्षण दशा का चित्र बड़ी सुन्दरता से उपस्थित किया है, जिसमें दर्द को सहते-सहते स्वयं दिल में भी दर्द हो जाता है। वह उस दर्द से छुटकारा नहीं पाना चाहती। यदि विरही विरह की पीड़ा से भाग जाना चाहे तो वह प्रेम ही क्या है? सच्चा प्रेम तो तभी है, जब जल-जलकर भी पतंगे की तरह बार-बार जलने की इच्छा तीव्रतर होती जाये-
जरत बजागिनि करूँ प्रिय! छाँहा।
आर बुझाउ अंगारन्ह मांहा।
नागमती एक आर्दश पतिव्रता नारी है। विरहाग्नि से दगध वियोग की तीव्र और असहनीय पीड़ा से कराहती और तड़पती नागमती केवल प्रियतम का दर्शन चाहती है, उसे वासना की लिप्सा नहीं है। तभी तो उसका वियोगी हृदय कह उठता है-
मोहि भोग सो काज न वारी।
सोंह दीठि के चाहनहारी॥
बारहमासा-
अधिकांश कवियों ने प्रकृति को उद्दीपन रूप में चित्रित किया है। प्रिय के संयोग के समय जो वस्तुएँ सुखदायी लगती थी, वे ही वियोग में दाहक बन गयी हैं। इस दृष्टि से जायसी का बारहमासा बहुत प्रसिद्ध है। बारहमासा अपनी अद्भुत वर्णन-शैली, निष्कपट विरह- निवेदन तथा हिन्दू-दाम्पत्य जीवन के करुण एवं मार्मिक चित्रों के लिए हिन्दी-साहित्य में अनुपम है। बारहमासे में भिन्न-भिन्न मासों में होने वाली आन्तरिक मनोव्यथा का चित्रण मिलता है। जायसी ने नागमती के वियोग-वर्णन के लिए बारहमासा का आश्रय लिया है। इस बारहमासा में कवि ने साल के बारह महीनों में होने वाले ऋतु-परिवर्तनों के वर्णन के साथ-साथ विरहिणी नागमती के हृदय की अनुभूतियों का भी सुन्दर चित्रण किया हैं। प्रत्येक माह अपनी भिन्न आकृति लेकर आता हैं विरहिणी नायिका प्रकृति को अपने प्रतिकूल देखकर तड़प उठती है। बारह महीनों में नागमती की दशा देखिए-
चढ़ा असाढ़, गगन घन गाजा। साजा विरह दन्द जल बाजा॥
साबन बरस मेह अति पानी, भरनि परी, हौ बिरह झुरानी।।
विरह की प्रकृति-
जायसी के विरह की प्रकृति संवेदनात्मक और उद्दीपन रूप में उपस्थित होती हैं नागमती-वियोग में प्रकृति के उपकरण उद्दीपन रूप में हैं विरहिणी नागमती के आँसुओं से सम्पूर्ण प्रकृति गीली हो गयी है। नागमती के विरह की आग में पेड़-पत्ते भी झुलसकर पीले पड़ गये हैं। वसन्त की प्राकृतिक-माधुरी और राग उसके शरीर में होली-सी जला देते हैं प्रिय का सन्देश देने वाला सावन अब मन में पीड़ा-सी उठा जाता है। प्रकृति के कण-कण में उसी विरह की टीस और करुणा के आँसू देखने को मिलते हैं-
कुहुकि-कुहुकि जस कोयल रोई। रकत आँसु घुघुची बन बोई॥
भई करमुखी नैन तत राती। को सेराव विरहा-दुख ताती॥
नागमती के विरह में पशु-पक्षी भी दुखी हैं। विरह की दशा में अपने-पराये का कोई भेद नहीं रहता, विरह दुःख में सभी अपने लगते हैं नागमती भी पेड़ों के नीचे रात-दिन फिरती है और पेड़, पशु, पत्तों, जड़, चेतन सभी से अपनी व्यथा कहती फिरती है। जायसी ने प्रकृति को भी संवेदनशील बताया है। पं. रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में – ” उन्होंने (जायसी ने) सामान्य हृदय तत्व की सृष्टि-वयापिनी भावना द्वारा मनुष्य और पशु-पक्षी सबको एक जीवन-सूत्र में बद्ध देखा है।’’
वियोग की दशाएँ-
जायसी ने विरह की दसों दशाओं का चित्रण किया है। नागमती विरह की दसों दशाओं से गुजरती है। जायसी ने नागमती-विरह में नागमती के विरह की दसों दशाओं को सफलतापूर्वक चित्रित किया है। वह अपने प्रियतम की स्मृति करती हुई कहती है-
जिन्ह घर कनत ते सुखी, तिन गारौ औ गर्व।
कन्त पियारा बाहिरै, हम सुख भूला सर्व॥
इन पंक्तियों में जायसी ने विरहिणी नायिका की अभिलाषा का बड़ा मनोहारी चित्रण किया है-
विदेशी प्रभाव-
जायसी ने ‘पद्मावत’ की विरह-वर्णन शैली में यद्यपि भारतीय पद्धति का ही आश्रय लिया है, तथापि सूफी सन्त होने के कारण कहीं-कहीं उन पर फारसी का प्रभाव परिलक्षित होता है। ‘पद्मावत’ में मसनवी शैली को अपनाया गया है। विदेशी प्रभाव के कारण वियोग-वर्णन में कहीं-कहीं वीभत्स चित्र भी आ गये है-
खाँडै धर रूहिर जनु भरा। करवत लेइ बेनी पर धरा॥
इसके अतिरिक्त माँस का भुनना, रक्त के आंसू गिराना इत्यादि भी भारतीय पद्धति के प्रतिकूल है-
विरह सरागन्हि पूँजेसि माँसू। गिरि-गिरि परत रकत कै आँसू॥
शास्त्रीय रूपरेखा-
जायसी के ‘पद्मावत’ में नागमती आश्रय राजा रत्नसेन आलम्बन पद्मावती का रत्नसेन से मिलने जाना, बारहमासा, ऋतु-परिवर्तन आदि उद्दीपन तथा नागमती का प्रलाप अनुभाव है। शास्त्रीय विवेचन की दृष्टि से ‘पद्मावत’ की यही संक्षिप्त रूपरेखा है।
निष्कर्ष-
उपर्युक्त विवेचन से यह निष्कर्ष निकलता है कि जायसी ने स्वकीया के पुनीत प्रेम के सौन्दर्य को अच्छी तरह समझा है। नागमती का विरह-वर्णन हिन्दी-साहित्य में विप्रलम्भ श्रृंगार की अनुपम निधि है। जायसी ने नागमती के विरह-वर्णन में अत्युक्तियाँ भी की हैं, यहाँ तक कि वह कहीं-कहीं पर ऊहात्मक रूप धारण कर लेती हैं, परन्तु उनमें गाम्भीर्य बना हुआ है। वरिह-वर्णन मजाक की दर तक नहीं पहुंच पाया है। जायसी की प्रकृति अत्यन्त संवेदनशील है। उनहोंने विरह की दसों दशाओं का सफलतापूर्वक चित्रण किया है। जायसी का बारहमासा हिन्दी- साहित्य की उत्कृष्ट कृति है। विदेशी प्रभाव के कारण जायसी ने विरह-वर्णन में कहीं-कहीं वीभत्स चित्रण भी किये हैं जायसी के वियोग-वर्णन की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उन्होंने नागमती को विरह में एक साधारण नारी के रूप में प्रस्तुत किया है। विरह में वह अपने रानीपन को भूल जाती है। हिन्दी-साहित्य के सुविख्यात आलोचक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में- “जायसी को. हम विप्रलम्भ-अंगार का प्रधान कवि कह सकते हैं। जो वेदना, कोमलता, सरलता और गम्भीरता इनके वचनों में है, वह अत्यन्त दुर्लभ है।”
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