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रीति सम्प्रदाय | रीति शब्द का अर्थ एंव परिभाषा | रीति का विकास | रीति का अर्थ स्पष्ट करते हुए रीति सम्प्रदाय का परिचय

रीति सम्प्रदाय | रीति शब्द का अर्थ एंव परिभाषा | रीति का विकास | रीति का अर्थ स्पष्ट करते हुए रीति सम्प्रदाय का परिचय

रीति सम्प्रदाय

आजकल हिन्दी में अवधारणा शब्द अंग्रेजी के कन्सेप्शन (Conception) शब्द के पर्याय के रूप में प्रयोग किया जाता है। अंग्रेजी के कन्सेप्शन (Conception) शब्द का अर्थ दिमाग में आना, समझाना आदि है। इस प्रकार रीति की अवधारणा का तात्पर्य यह है कि आप रीति से क्या समझते हैं? रीति सम्प्रदाय के प्रवर्तक आचार्य वामन हैं। इन्होंने रीति को काव्य की आत्मा माना है-

‘रीतिरात्मा काव्यस्य।’

ऐसी बात नहीं है कि आचार्य वामन ने संस्कृत काव्यशास्त्र में रीति शब्द का पहली बार प्रयोग किया हो। रीति शब्द का प्रयोग ऋग्वेद से आरम्भ होकर संस्कृत वाङ्मय में अनेक बार हुआ है, परन्तु काव्यशास्त्र में रीति शब्द का जिस अर्थ में प्रयोग किया जा रहा है, उस अर्थ में इसका प्रयोग सबसे पहले भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में हुआ है। ‘नाट्यशास्त्र’ के रचयिता भरतमुनि ने रीति शब्द का प्रयोग न करके प्रवृत्ति शब्द का प्रयोग किया है, पर इसका तात्पर्य रीति से ही है-

‘चतुरविधा प्रवृत्तिश्च प्रोक्ता – नाट्यप्रयोगतः।

आवन्ती दक्षिणात्या च पाञ्चाली चौड्रमागधी॥’

(नाट्य के प्रयोग में चार प्रकार की प्रवृत्ति बतायी गयी है— आवन्ती, दक्षिणात्या, पाञ्चाली और औडूमागधी। यह औड्रमागधी अर्द्धमागधी ही है।)

रीति शब्द का अर्थ एंव परिभाषा

संस्कृत की रीङ् धातु से बना शब्द ‘रीति’ गति, चलन, मार्ग, पथ, बीथी, शैली, ढंग, कार्यविधि आदि अर्थों का वाचक है। सरस्वती-कंठाभरण’ के रचयिता भोजदेव ने रीति की व्युत्पति के विषय में इस प्रकार लिखा है-

वैदर्भादिकृतः पन्थाः काव्यमार्ग इति स्मृतः ।

रीठताविति घातोःसा व्युत्पत्यारीतिरुच्यते ॥

वैदर्भादि (वैदर्भी एवं गौडी) काव्य-मार्ग कहे जाते हैं। गत्यर्थक रीङ् धातु से व्युत्पत्ति होने के कारण इसे रीति कहा जाता है।

भोजदेव ने रीति के विषय में ‘वैदर्भादि काव्य-मार्ग’ शब्द का प्रयोग इसलिए किया है कि भामह, दण्डी आदि आचार्यों ने रीति के लिए ‘काव्य-मार्ग अथवा गिरा-मार्ग’ शब्द का प्रयोग किया है। काव्यशास्त्र के आदिआचार्य भरतमुनि ने अपने नाट्यशास्त्र में रीति के लिए कृति-प्रकृति’ शब्द का प्रयोग किया है।

रीति का विकास-

डॉ० राजवंश सहाय ‘हीरा’ के अनुसार रीति के विकास की तीन स्थितियाँ हैं—

(1) पहली का सम्बन्ध भौगोलिक दृष्टि से निरूपित काव्यालोचना से ही है।

(2) दूसरी में रीति-तत्व का सम्बन्ध काव्य-गुणों एवं विषय के साथ स्थापित किया गया है।

(3) कुन्तक के अनुसार इसे कवि का वैयक्तिक गुण होने का अवसर प्राप्त हुआ है

(1) ‘महीवरीतिः शवसासरत् पृथक् ।’

यहाँ इसका प्रयोग धारा के अर्थ में है।

(2) ‘तामस्य रीतिः परशोरिव ।’

यहाँ (सायण के अनुसार) इसका प्रयोग स्वभाव या रीति है।

भरतमुनि के ‘नाट्य शास्त्र’ में रीति शब्द के लिए ‘प्रकृति’ शब्द का प्रयोग है। उन्होंने भारतवर्ष में चार प्रकृतियाँ-आँवंती, दक्षिणात्या, पाञ्चाली एवं औडूमागधी का वर्णन किया है जो क्रमशः मध्य देश तथा उड़ीसा-मगध में प्रचलित थीं।

वाणभट्ट ने अपने समय में प्रचलित चार दिशाओं की चार शैलियों का उल्लेख किया है। उनके अनुसार उदीच्य (उत्तर भारत) निवासी श्लेष की, प्रतीच्य लोग अर्थमात्र अथवा अर्थगौरव को, दाक्षिणात्य उत्प्रेक्षा को एवं गौड़ या पूर्वी भारत के लोग अक्षराडंबर को अधिक महत्व देते हैं।

भामह के ‘काव्यालंकार’ में दो प्रमुख मार्गों-वैदर्भी एवं गौड़ीय का उल्लेख किया गया है। उन्होंने दोनों का वर्णन रीति के अर्थ में न करके काव्य-भेद के अन्तर्गत किया है।

दण्डी ने रीति-सिद्धान्त का विशद् विवेचन किया। उन्होंने रीति में व्यक्तित्व की सत्ता स्थापित करते हुए प्रत्येक कवि की विशिष्ट रीति मानने का विचार व्यक्त किया। उनके अनुसार जिस प्रकार कवि अनेक हैं, उसी प्रकार रीतियों की संख्या भी अनेक है।

इसके अतिरिक्त भी अनेक आचार्यों ने इसका विवेचन किया है-

(1) रुद्रट- डॉ० राजवंश सहाय ‘हीरा’ के अनुसार उनके निरुपम की तीन विशेषताएँ हैं। उन्होंने रीति के भोगौलिक महत्व को हटाकर उनका सम्बन्ध रस के साथ स्थापित किया तथा विषय-भेद या वर्ण्य के औचित्य के आधार पर रीतियों का नियोजन किया। उन्होंने  ‘लाटीया’ नामक चतुर्थ रीति की उद्भावना करके, उनकी संख्या चार कर दी- वैदर्भी, गौड़ीय, पञ्चाली और लाटीया।

(2) अग्निपुराण- इस पुराण में चार प्रकार की रीतियों का उल्लेख है और सम्मत तथा असम्मत पदों के आधार पर ही उनका विभाजन किया गया है।

(3) आनन्दवर्धन- इन्होंने रीति को ‘संघटना’ की संज्ञा प्रदान की है और उसे रस, ध्वनि आदि काव्य के आत्मभूत तत्वों का उपकारक स्वीकार किया है। उनके अनुसार रीति और गुण में न तो अभेद होता है और न ही संघटना या रीति को गुणाश्रित माना जा सकता है। उन्होंने रीति या संघटना के स्वरूप का आधार समास को माना है।

(4) राजशेखर- इन्होंने रीति के -ही-साथ प्रवृत्ति एवं वृत्ति का भी निरूपण किया है। इन्होंने तीन रीतियाँ मानो हैं-गौडीया, पांचाली एवं वैदर्भी। ये वचन-विन्यास को पद-रचना मानते हैं।

(5) भोज- इन्होंने रीतियों की संख्या में वृद्धि करते हुए- ‘आवंतिका’ और ‘मागधी’ नामक दो वृत्तियों का और छःरीतियों का उल्लेख किया-वैदर्भी, गौडीया, पाञ्चाली, लाटीया, आवंतिका एवं मागधी।

(6) मम्मट- इन्होंने उपनागरिका, परुषा एवं कोमला वृत्तियों के नाम से रीतियों का उल्लेख करते हुए कहा है कि वामनादि ने इन्हें ही वैदर्भी, गौड़ी, एवं पाञ्चाली कहा है।

(7) विश्वनाथ- इन्होंने वृत्तियों को अधिक महत्व दिया है और रीति का रस एवं गुण के साथ सम्बन्ध स्थापित किया है।

वामन का रीति-सिद्धान्त-

वामन ने ‘रीति’ को काव्य की आत्मा माना है-

‘रीतिरात्मा काव्यस्य।’

इन्होंने रीति की व्याख्या भी ‘विशिष्ट पद-रचना ही रीति है’ कहकर की है-

‘विशिष्टा पदरचना रीतिः।’

इन्होंने शब्द ‘विशिष्ट’ की भी व्याख्या की कि इसका सम्बन्ध गुणों से है—

‘विशेषो गुणात्मा।’

वामन ने रीति तीन प्रकार की ही मानी हैं—वैदर्भी, गौड़ी और पाञ्चाली। उनके अनुसार वैदर्भी अधिकाधिक गुणसम्पन्न रीति है। गौड़ी में वे ओज और कान्ति-गुण को स्वीकार करते हैं तथा पाञ्चाली में माधुर्य और सुकुमारता को मानते हैं।

(1) वैदर्भी-

‘अपुष्टार्थमवक्रोक्तिः प्रसन्नमृजु कोमलम्,

भिन्नं गेयमिवेदंतु केवलं श्रुति पेशलम् ।’

अर्थात् अलंकार से रहित, वक्रोक्ति से हीन, अपुष्ट, अर्थ वाली वैदर्भी रीति सरल, कोमल, ऋजु पदावली से युक्त, गेय एवं कर्णसुखद होता है।

(2) गौडी-

भामह के अनुसार गौडी रीति इस प्रकार हैं-

‘अलंकार वदनाम्यमर्थ न्याय्यमनाकुलम्,

गौडीयमपि साधीयो वैदर्भमिति नान्यथा।’

अर्थात् अलंकारयुक्त, ग्राम्यदोष से हीन, अर्थ से पुष्ट औचित्य समन्वित एवं शांत गौड़ी रीति (शैली) में रचना करनी चाहिए, किन्तु वैदर्भी भी व्यर्थ अर्थात् काव्य के लिए अनुपयुक्त नहीं है।

दण्डी ने रीति अथवा गिरा मार्ग की संख्या दो (वैदर्भी एवं गौडी) मानने का तीखे शब्दों में  खण्डन करके प्रत्येक कवि की भिन्न रीति मानते हुए रीतियों की संख्या असीमित बताई।

आचार्य रुद्रट ने रीतियों की संख्या चार करके उनका रसों से इस प्रकार सम्बन्ध स्थापित किया है-

‘वैदर्भी पांचाल्यौ प्रेयसि करुण भयानका वुभयोः,

लाटीयगौडीये रौद्री यदि च औचित्यम्।’

अर्थात् वैदर्भी तथा पांचाली रीति का प्रयोग शृंगार, करुण, भयानक एवं अद्भुत रसों में करना चाहिए। लाटी तथा गौड़ी रीतियाँ रौद्र रस के अनुकूल हैं।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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