परस्पर अन्तःक्रिया प्रतिमान सिद्धान्त

परस्पर अन्तःक्रिया प्रतिमान सिद्धान्त |परस्पर अन्तःक्रिया प्रतिमान की विशेषतायें

परस्पर अन्तःक्रिया प्रतिमान सिद्धान्त
परस्पर अन्तःक्रिया प्रतिमान सिद्धान्त

परस्पर अन्तःक्रिया प्रतिमान सिद्धान्त | परस्पर अन्तःक्रिया प्रतिमान की विशेषतायें | Interactive interaction model theory | Features of interactive interaction model

परस्पर अन्तःक्रिया प्रतिमान सिद्धान्त पर संक्षिप्त लेख

परस्पर अन्तःक्रिया प्रतिमान  को फ्लैन्डर ने 1960 में विकसित किया। इस प्रतिमान में शिक्षण को छात्र और शिक्षक के बीच चलने वाली पारस्परिक क्रिया स्वीकार किया गया है। फ्लैन्डर ने कक्षा में शिक्षक और छात्र के बीच चलने वाली’ पारस्परिक क्रियाओं को दस भागों में विभक्त किया है। इन दस क्रियाओं को निम्न सारणी के माध्यम से प्रस्तुत किया जा सकता है-

परस्पर क्रिया प्रतिमान सिद्धान्त

उपरोक्त सारणी से पता चलता है कि शिक्षक के व्यवहार से सम्बन्धित क्रियाओं का पता 1, 2, 3 के द्वारा ओर पहल का पता 5, 6, 7 के द्वारा चलता है। जब किसी शिक्षण व्यवहार में 1, 2, 3 की आवृत्तियां 5, 6, 7 वर्ग की तुलना में अधिक होती हैं तो शिक्षक का व्यवहार परोक्ष माना जाता है। इस प्रकार के व्यवहार से छात्रों की सीखने की प्रक्रिया में वृद्धि होती है इस प्रतिमान के स्वरूप का संक्षिप्त विवरण निम्न है-

  1. उद्देश्य (Aims) – शिक्षण प्रतिमान के इस स्वरूप में शिक्षण के उद्देश्यों का पूर्व कथन व्यवहारिक शब्दावली में नहीं किया जाता। छात्रों एवं शिक्षकों की परस्पर अन्तःक्रिया के द्वारा ही शिक्षण के उद्देश्य प्रकट होते रहते हैं और शिक्षक तथा छात्र के बीच होने वाली अन्तःक्रियायें ही शिक्षण के उद्देश्यों को बताती हैं।
  2. प्रारम्भिक व्यवहार (Primary Behaviour) – इस प्रतिमान में छात्रों के प्रारम्भिक व्यवहार के साथ शिक्षक को समायोजन करने का कोई निर्दश नहीं दिया जाता। किन्तु छात्र अपने पूर्व ज्ञान के स्तर पर शिक्षक को लाने के लिए वबाव डाल सकते हैं। इस प्रतिमान में छात्र शिक्षण की दशा तथा सीखने के अनुभवों को नियन्त्रित करने में सक्षम होते हैं। इस प्रतिमान में छात्रों के पूर्व ज्ञान के स्तर, अनुभवों तथा विचारों को शिक्षण प्रक्रिया में सम्मिलित ही नहीं किया गया बल्कि उन्हें महत्वपूर्ण स्थान प्रदान किया गया है।
  3. प्रस्तुतीकरण (Presentation) – इस प्रतिमान में तथ्यों के प्रस्तुतीकरण के लिए सुनिश्चित अनुदेशात्मक प्रक्रिया का कोई प्रावधान नहीं किया गया है और न ही इस दिशा में किन्हीं सोपानों को निर्धारित किया गया है। इसका कारण यही है कि शिक्षक की अन्तःक्रियाओं के दौरान परस्पर क्रियायें कौन सा रूप धारण कर लेंगी इस बारे में भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से चलने वाली अन्तःक्रियायें ही प्रस्तुतीकरण के स्वरूप को निर्धारित करती है।
  4. मूल्यांकन (Evaluation) – अन्तःक्रिया प्रतिमान के अन्तिम सौपान मूल्यांकन में छात्रों के व्यवहार का मूल्यांकन अभिवृत्ति और उपलब्बि परीक्षणों द्वारा किया जाता है। मूल्यांकन द्वारा प्राप्त निष्कर्षों के आधार पर उद्देश्यों और प्रस्तुतीकरण आदि में परिवर्तन के बारे में भी कोई स्पष्ट निर्देश इस प्रतिमान में नहीं दिये गये हैं। शिक्षक मूल्यांकन के निष्कर्षों को प्राप्त कर लेने के पश्चात् व्यवहार का विश्लेषण करते हैं और शिक्षण को प्रभावशाली बनाने के लिए विश्लेषण के निष्कर्षों का समय-समय पर प्रयोग करते हुए शिक्षण की प्रक्रिया को उद्देश्यपूर्ण बनाने का प्रयास करते हैं।

स्पष्ट है शिक्षण के इस प्रतिमान में किन्हीं पूर्व निर्धारित शिक्षण उद्देश्यों की चर्चा नहीं की गयी है बल्कि शिक्षक और छात्रों की तात्कालिक आपसी अन्तःक्रियाओं को ही इस प्रतिमान का आधार माना गया है।

परस्पर अन्तःक्रिया प्रतिमान की विशेषतायें

फ्लैण्डर का मानना था कि शिक्षण व्यवहार पूर्ण रूप से सामाजिक होता है अतः उसमें होने वाली अन्तःक्रियाओं को ही शिक्षण माना जाना चाहिए। शिक्षण की यह अन्तःक्रिया छात्र व शिक्षक की पहल से सम्पन्न होती है। फ्लैण्डर के अन्तःक्रिया प्रतिमान की प्रमुख विशेषतायें निम्न हैं-

  1. इस प्रतिमान के आधार पर शिक्षक तथा छात्रों के बीच होने वाली अन्तःक्रियाओं को क्रमिक घटनाओं के आधार पर देखा जा सकता है। यह अन्तःक्रियायें कक्षा की परिस्थिति में क दूसरे के व्यवहार को प्रभावित करती हैं और छात्रों में सीखने की प्रक्रिया को सुदृढ़ बनाने में इनका महत्वपूर्ण योगदायन रहता है।
  2. शिक्षण का यह प्रतिमान शिक्षक के प्रत्यक्ष व्यवहार के अतिरिक्त परोक्ष व्यवहार पर भी बल देता है।
  3. इस प्रतिमान के अनुसार यह माना जाता है कि शिक्षक को प्रत्यक्ष व्यवहार के साथ साथ अपने परीक्ष व्यवहार का भी अन्तःक्रियाओं से अधिक प्रयोग करना चाहिए।
  4. इस प्रतिमान में शिक्षण का स्वरूप शिक्षा के उद्देश्यों शिक्षण के रचना कौशलों, विधियों आदि से प्रभावित न होकर शिक्षक और छात्र की अन्तःक्रियाओं पर निर्भर करता है।
  5. इस प्रतिमान के लिए जिन यूक्तियों, विधियों, कौशलों, अभिप्रेरणाओं आदि को प्रयोग में लाया जाता है उन्हें प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से इस्तेमाल किया जा सकता है।
  6. शिक्षक का व्यवहार बालकों की सीखने की प्रक्रिया को सुदृढ़ बनाता है।
  7. यह प्रतिमान यह मानकर चलता है कि सीखने की प्रक्रिया में किसी अनुदेशात्मक पद्धति का प्रयोग नहीं किया जा सकता। अतः इस प्रतिमान में शिक्षण के उद्देश्यों का पहले से निर्धारण नहीं किया जाता।

निःसन्देह फ्लैण्डर का अन्तःक्रिया प्रतिमान अधिगम प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है और शिक्षक भी इससे लाभान्वित होकर शिक्षण की प्राप्ति की दिशा में आगे बढ़ते हैं। अतः प्रत्येक शिक्षक को चाहिए कि वह अन्तः क्रिया विश्लेषण की विधि से सम्बन्धित ज्ञान का प्रशिक्षण प्राप्त करे और इन्हीं के आधार पर व्यवहारों की व्याख्या करने का प्रयास करें। ऐसा करने से निश्चित ही शिक्षा के उद्देश्यों को प्राप्त किया जा सकेगा।

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