शिक्षाशास्त्र / Education

प्रयोजनवाद में पाठ्यक्रम के सिद्धान्त | प्रयोजनवादी पाठ्यक्रम पर संक्षिप्त लेख | प्रयोजनवाद में पाठ्यक्रम की विषयवस्तु का वर्णन

प्रयोजनवाद में पाठ्यक्रम के सिद्धान्त | प्रयोजनवादी पाठ्यक्रम पर संक्षिप्त लेख | प्रयोजनवाद में पाठ्यक्रम की विषयवस्तु का वर्णन

प्रयोजनवाद में पाठ्यक्रम के सिद्धान्त

(1) पाठ्यक्रम में बालक की रुचि का सिद्धान्त-

प्रयोजनवादियों के अनुसार बालक की रुचियां-उसके विकास के विभिन्न स्तरों पर विकसित होती हैं। अतः पाठ्यक्रम की रचना करते समय इस बात का ध्यान रखा जाए, उदाहरणार्थ-प्रारम्भिक विद्यालय के छात्रों की खोज, रचना कला-प्रदर्शन और बातचीत में रुचि होती है। इसलिए, प्रारम्भिक विद्यालय के पाठ्यक्रम में निम्नलिखित विषय रखे जाने चाहिए-पढ़ना, लिखना, गिनना, हाथ का काम, ड्राइंग और प्रकृति-अध्ययन।

(2) शिक्षा में उपयोगिता का सिद्धान्त-

ये मनुष्यों के उद्देश्यों और इच्छाओं की पूर्ति पर बल देते हैं इसलिए उनका कहना है कि पाठ्यक्रम में ऐसे विषय होने चाहिए, जो बालक को उसके वर्तमान और भावी जीवन के लिए तैयार करें। अतः उनके अनुसार, पाठ्यक्रम में भाषा, स्वास्थ्य-विज्ञान, इतिहास, भूगोल, गणित, विज्ञान और शारीरिक प्रशिक्षण को स्थान दिया जाना चाहिए। बालिकाओं के लिए गृह-विज्ञान होना चाहिए। इसके स्थान पर बालकों के लिए कृषि-विज्ञान होना चाहिए। यह सिद्धान्त भविष्य के लिए किसी व्यवसाय का प्रशिक्षण आवश्यक मानता है। यह इस बात को भी मानता है कि अध्ययन के विषय इस दृष्टिकोण-से चुने जाएं कि वे जीवन की वास्तविक समस्याओं को हल करने में सहायता दें। यह सिद्धान्त, ज्ञान के मुख्य उद्देश्य-मानव प्रगति की अवहेलना नहीं करता है।

(3) जीवन में बालक के अनुभव का सिद्धान्त-

इस विषय पर प्रयोजनवादियों का कहना है कि पाठ्यक्रम का बालक के अनुभवों का भावी व्यवसायों और क्रियाओं के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध होना चाहिए। इसका कारण यह है कि जैसे ही यह सम्बन्ध स्थायी हो जाता है, बालक अपनी इच्छा द्वारा सीखने के लिए प्रेरित होता है। विद्यालय में पढ़ाए जाने वाले सामान्य विषयों के साथ-साथ पाठ्यक्रम में स्वतन्त्र, अर्थपूर्ण और सामाजिक क्रियाओं का भी स्थान होना चाहिए। प्रयोजनवादियों का मानना है कि अनुभव क्रिया पर आधारित है। अतः अनुभव एवं क्रिया पर आधारित पाठ्यक्रम होना चाहिए। इस प्रकार प्रयोजनवाद अनुभव-कीन्द्रित पाठ्यक्रम देता है।

उपरोक्त सिद्धान्त को ड्यूवी ने निम्नलिखित प्रकार से समझाया है-

“विद्यालय, समुदाय का अंग है इसलिए, यदि ये क्रियाएं समुदाय की क्रियाओं का रूप ग्रहण कर लेंगी तो ये बालक में नैतिक गुणों और पहलकदमी तथा स्वतन्त्रता के दृष्टिकोणों का विकास करेंगी। साथ ही, ये उसे नागरिकता का प्रशिक्षण देंगी और उसके आत्म अनुशासन को ऊंचा उठाएंगी”

(4) शिक्षा में एकीकरण का सिद्धान्त-

यह दर्शन बुद्धि की समग्रता और ज्ञान की अखण्डता में विश्वास करता है। अतः उनका कहना है कि वास्तविक ज्ञान अखण्ड होना चाहिए। यही कारण है कि वे पाठ्यक्रम को विभिन्न विषयों में बांटने के पक्ष में नहीं हैं। हमारे इस कथन की पुष्टि रॉस (Ross)के इन शब्दों से हो जाती है।

“प्रयोजनवादी पाठ्यक्रम में विषयों के परम्परागत विभाजन की निन्दा करते हैं । एक विषय को दूसरे विषय से कठोरतापूर्वक अलग करने की भावना का अन्त किया जाना चाहिए। इसका कारण यह है कि मानव-क्रियाएं महत्वपूर्ण हैं, न कि विद्यालय में पढ़ाए जाने वाले विषय और उनके द्वारा सीखने के लिए दी जाने वाली सामग्री। अलग-अलग विषय पढ़ने के बजाय छात्र को वह सब प्राप्त करने के लिए प्रोंत्साहित किया जाना चाहिए जिसका उस क्रिया से सम्बन्ध है, जिसे वह कर रहा है।

साधारण रूप से हम कह सकते हैं कि प्रयोजनवादी लाभप्रद, लचीला, गतिशील और सम्बद्ध पाठ्यक्रम चाहते हैं। ब्रुबेकर के शब्दों में वे ‘क्रिया-प्रधान पाठ्यक्रम’ (Activity curriculum)चाहते हैं। उनका कहना है कि क्रियाएं शिक्षा को जीवन जैसा बनाने और जीवन का सत्य की प्राप्ति के योग्य बनाने के लिए आवश्यक है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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