शिक्षाशास्त्र / Education

मूल्यों का वर्गीकरण | मूल्य वैयक्तिक हैं | मूल्यों के प्रकार | शिक्षा के उद्देश्यों के निर्णय करने में मूल्यों की भूमिका

मूल्यों का वर्गीकरण | मूल्य वैयक्तिक हैं | मूल्यों के प्रकार | शिक्षा के उद्देश्यों के निर्णय करने में मूल्यों की भूमिका | Classification of Values in Hindi ​​| Values ​​are personal in Hindi | Types of values in Hindi | Role of values ​​in deciding the aims of education in Hindi

मूल्यों का वर्गीकरण

(Categories of values)

प्रायः मूल्यों की अपनी श्रेणियाँ तथा स्तर होता है। वह मूल्य निम्न है जो उन इच्छाओं पर आधारित है जो पशुओं तथा मनुष्य के समान है। बौद्धिक इच्छायें उच्च हैं क्योंकि पशुओं में उनका अभाव है तथा केवल मनुष्यों में ही वे सम्भव हैं। बौद्धिक इच्छाओं की भी दो श्रेणियाँ हैं- (1) नैमित्तिक तथा (2) आन्तरिक ।

जिन विषयों का चुनाव, व्यक्तिगत निर्णय पर निर्भर है वे नैमित्तिक विषय कहे जाते हैं और उनका स्तर उच्च नहीं हो सकता। इसके विपरीत जो विषय अपने में पूर्ण हैं तथा बिना किसी अन्य की इच्छा पर निर्भर हुए स्थिर रह सकते हैं वे नैमित्तिक विषय नहीं होते हैं उनमें आन्तरिक मूल्य हैं तथा इसलिए वे श्रेष्ठ भी हैं।

हम ऊपर यह देख चुके हैं कि जिन वस्तुओं में उनकी पूर्ण रूपरेखा निहित हो चुकी है और जिन्हें पुद्गल की भी कम आवश्यकता है वे श्रेष्ठ हैं इसलिए यह विषय जो नैमित्तिक मात्र है तथा जो व्यक्तिगत मान्यताओं पर निर्भर है, और जिसके विषय में पूर्व निश्चय असम्भव है वह निम्न स्तर का है।

विषयों के चुनाव में किसी शिक्षा प्रणाली का चुनाव या किसी विशेष पद्धति का चुनाव कठिन है क्योंकि प्रणाली या पद्धति का प्रभाव दूर-दूर तक अपनी छाप छोड़ता है। उदाहरण के लिए इस बेकारी की समस्या को ले सकते हैं। प्रश्न उठता है कि क्या हम आगे बढ़ने वाले छात्रों के लिए व्यावसायिक शिक्षा का उचित मात्रा में प्रबन्ध करें या पिछली बेकारी दूर करने के लिए आगे की शिक्षा को शुल्क मुक्त तथा संकीर्ण कर दें? इन प्रश्नों में से किस प्रश्न का चुनाव किया जाये? किस समाधान को अधिक श्रेष्ठ माना जाये? इन प्रश्नों या समाधानों में से किसी एक का चुनाव हमें करना होगा। हमारा चुनाव साधारणतः मूल्यों की समस्या से प्रभावित होगा। इसके प्रभाव को व्यापकता का अन्दाज इसी बात से लग सकता है कि समाज की कोई समस्या चूँकि अपने में ही सीमित नहीं रहती इसलिए उसके हल का प्रभाव भी सीमित नहीं होगा।

नैमित्तिकतावादी शिक्षाशास्त्री (Instrumental educationist) भली-भांति जानता है कि किसी भी मूल्य को पहले से निश्चित नहीं किया जा सकता। वह किसी भी समस्या के प्रस्तुत कारणों का पता लगायेगा, तथा हल निकाल लेगा। वह किसी बात के अन्तिम उद्देश्यों पर बल न देकर प्रस्तुत समस्या पर ही विचार करना उचित समझेगा वह अपने में पूर्ण उद्देश्यों की परवाह नहीं कर सकता आन्तरिक मूल्यों के सम्मुख तो नैमित्तिक मूल्यों की बात हो हेय हो जाती है। फिर भी यह बात नितान्त असल्य होगी कि आन्तरिक मूल्य वाले प्रत्येक विषय समान महत्व वाले ही हैं। जैसे, विज्ञान के छात्र के लिए विज्ञान तथा कला के छात्र के लिए करता ही मूल्यवान है। इसलिए, यह कहना गलत न होगा कि विज्ञान तथा कला के विषयों की तुलना भी सम्भव नहीं।

यहाँ यह प्रश्न इसका उठता है कि इन मूल्यों के मानने का आधार क्या है? जो आन्तरिक मूल्यों में विश्वास करते हैं उनका कथन है कि मनुष्य तार्किक तथा बुद्धिशील है इसलिए विषयों का इसी आधार पर होना चाहिए। चूंकि का आधार बौद्धिक है इसलिए विषय भी उसी के अनुरूप भुनने होंगे जो विश्व का करा दे। परन्तु जो बाहा तथा निमित्तवादी है ये किसी निश्चित उद्देश्य की पूर्ति के लिए छात्र की पसंद का सहारा लेकर विषयों का चुनाव करेंगे। आन्तरिक मूल्यवादी के लिए बालक की जिज्ञासा तथा उसकी आवश्यकतायें अधिक महत्व के लिए अपूर्व सत्यों के लिए किसी अपरिचित उद्देश्य या अनजान मूल्य के लिए छात्र को अपनी रुचि के विरुद्ध मेहनत करनी होगी।

मूल्य वैयक्तिक हैं

(Values are Individual)

प्रायः मूल्यों को व्यक्तिगत रुचि तथा चुनाव का विषय मानते हैं। वे मूल्यों को आन्तरिक मानते हैं और पुस्तकों, पाठन विधि आदि सबको ही व्यक्तिगत रूप से परखते हैं। किन्तु कुछ व्यक्ति मूल्यों को बाह्य तथा अवैयक्तिक मानकर उन पर किसी का भी प्रभाव नहीं मानते हैं। मूल्य इच्छाओं से परे होते हैं। यदि मूल्य व्यक्तिगत इच्छाओं पर आधारित हैं, तो किसी भी विषय का पठन-पाठन इसी बात पर निर्भर होगा कि अमुक विषय को छात्र मूल्यवान हैं अथवा नहीं। यदि मूल्य अवैयक्तिक है तो उन पर किसी की रुचि तथा पसन्द का भाव नहीं पड़ेगा तथा मूल्यवान विषयों को पढ़ना ही पड़ेगा।

मूल्यों के प्रकार (Types of Values)

मूल्य कई प्रकार के होते हैं। प्रश्न उठता है क्या इच्छित है तथा इच्छा के योग्य है। वांछित एवं वांछनीय में अन्तर हो सकता है। इच्छाओं द्वारा शरीर की आवश्यकताओं का प्रकटीकरण होता है। शिक्षा के मूल्य केवल चुनाव ही नहीं वरन् बुद्धिमत्तापूर्ण चुनाव है। यदि किसी बालक की इच्छा है कि वह कला सीखे तो उसे विज्ञान के विषय पढ़ाना उत्तम न होगा। इसकी इच्छाओं को केवल कला ही पूर्ण कर सकेगी। वैसे स्कूल का प्रत्येक कार्य मूल्यवान है किन्तु छात्र को तो चुनाव करना ही पड़ता है।

साधारणत: मूल्य दो प्रकार के होते हैं-

(1) नैमित्तिक (Instrumental) तथा (2) आन्तरिक (Intrinsic)।

नैमित्तिक मूल्य किसी विशेष प्रयोजन के द्वारा होते हैं। विषयों के चुनाव में कौन से विषय छात्र के भविष्य के लिए सफलता के सूत्र बन जायेंगे, इस बात का निर्णय नैमित्तिक मूल्य के आधार पर करना होगा। कुछ मूल्य आन्तरिक होते हैं और उनका चुनाव किसी मान्यता के आधार पर नहीं होता।

वे मूल्य किन्तु केवल मूल्य हैं। अपने अतिरिक्त उनका कोई अन्य प्रयोजन नहीं। उदाहरण के लिए भेज को ही लें जैसे उसी में पिरो दिया गया है। मेज अपने मूल्य के कारण ही कक्षा में है, न कि किसी अन्य मूल्य के कारण।

क्या आन्तरिक तथा नैमित्तिक मूल्य किसी एक ही वस्तु में एक साथ भी सम्भव हो सकते हैं। नैमित्तिक मूल्यों को मानने वाले तो इसका उत्तर सरकार से ही देंगे। आन्तरिक मूल्य पर विश्वास  करने वालों के लिए यह बात सम्भव है। मेज का मूल्य उससे लिखने-पढ़ने का काम लेकर ही देखा जा सकता है। किन्तु यदि हम उस पर बैठ जाये तो कुछ समय के लिए उसका नैमित्तिक मूल्य हो जायेगा।

इस प्रकार उनके लिए एक ही वस्तु में दोनों मूल्य सम्भव है। इसी प्रकार पाठ्यक्रम में कौन सा विषय नैमित्तिक मूल्य के कारण रखा गया है कौन सा विषय आन्तरिक मूल्य के कारण है, इसका निर्णय सरल नहीं है। दोनों प्रकार के मत मिल जाते हैं। जैसे संस्कृत को भारतीय विद्यालयों के पाठ्यक्रम में नैमित्तिक मूल्य के कारण सम्मिलित किया गया है अथवा आन्तरिक मूल्य के कारण इसके विषय में दोनों प्रकार के मत मिलते हैं।

अत: कुछ मूल्य सौन्दर्यशास्त्र से भी सम्मिलित होते हैं। वैसे इनका क्षेत्र शिक्षाशास्त्रियों की संकीर्णता के कारण संकुचित ही रह गया है। प्रायः इसी कारण सौन्दर्यशास्त्र में केवल संगीत, कला, चित्रकला इत्यादि को ही सम्मिलित किया गया है। फिर भी हम भली भाँति जानते हैं कि प्रत्येक विषय की अपनी उपयोगिता होती है तथा उसको प्रशंसा करने का अपना मापदंड होता है यही बात सौन्दर्यशास्त्र सम्बन्धी विषयों के लिए भी सच है। वैसे- सौन्दर्यशास्त्र के मूल्य अपने पैरों पर भी खड़े हो सकते हैं किन्तु उन्हें जीवन के कार्यों से अलग नहीं होना चाहिए। प्रत्येक पाठक में उनका योग आवश्यक है।

निश्चित तथा त्वरित उद्देश्य (Definite and immediate aims)–

हरबर्ट स्पेन्सर के समय से आज तक बहुत से उद्देश्यों का वर्णन हो चुका है तथा इस दिशा में प्रयत्न जारी हैं। नेशनल एजूकेशन एसोसियेशन (संयुक्त राज्यों) ने शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्य बताये हैं-(1) स्वास्थ्य, (2) पढ़ना-लिखना तथा गणित, (3) गृह की सफल सदस्यता, (4) व्यवसाय, (5) राजनैतिक ज्ञान, (6) अवकाश के समय का उपयोग तथा (7) नैतिक चरित्र ।

नैतिक चरित्र को धर्म के बिना सम्भव मानकर ही कदाचित धर्म की बात यहाँ नहीं कही गयी है। वास्तव में उक्त उद्देश्य माध्यमिक उद्देश्य हैं क्योंकि समीपवर्ती उद्देश्य तो प्रत्येक पग पर निश्चित करने होंगे इसलिए उनको व्याख्या असम्भव है। शिक्षा एक अमूर्त विषय है इसलिए उसके उद्देश्यों का निश्चय सम्भव नहीं हो सकता। प्रत्येक नवीन चरण के उद्देश्य नवीन होंगे।

कुछ भी हो आन्तरिक मूल्य वालों के लिए 12 वर्ष की अवस्था तक पाठन सामग्री में प्रत्येक छात्र के लिए कम ही परिवर्तन करना होगा यद्यपि यह सत्य है कि लिंग भेद, औद्योगिक दशा सामाजिक स्थिति के कारण परिवर्तन आवश्यक है। इस अवस्था के पश्चात् ही विशेष योग्यता की बात आती है और उसी समय परिवर्तन तथा संशोधन आवश्यक है।

यदि राज्य व्यक्तिगत भलाई का ध्यान रख सके तथा एक नियम से पाठ्यक्रम निश्चित कर सके तो राज्य का अधिकार है कि वह पाठन-सामग्रो के चुनाव में बोले अन्यथा उसे कोई अधिकार नहीं है।

इस अन्तिम बात के पश्चात् हम इस समस्या को छोड़ देंगे कि विचारवादियों के लिए सत्यम शिवम् तथा सुन्दरम् अन्तिम तथा मुख्य मूल्य है और शिक्षा को इनकी प्राप्ति के लिए प्रयत्न करना चाहिए। जिस शिक्षा ने उक्त मूल्यों को प्राप्त कर लिया है वह छात्रों को उन मूल्यों की प्राप्ति करा सकता है पर शिक्षक बालक पर अपने विश्वास धोपता नहीं है वरन् सत्य बोलकर दूसरों के कल्याण तथा सौन्दर्योपासना द्वारा उनको प्राप्ति के साधन बताता है।

कनियम का विश्वास था कि बुद्धि को अनुशासित करने के लिए भी विषयों को ध्यान में रखना होगा। अतः विषयों का चुनाव करने में सतर्कता बरतनी ही चाहिए।

यहाँ पर शैक्षिक उद्देश्य सम्बन्धी विवरण केवल इसलिए लिखा गया है ताकि मूल्यों का तथा उद्देश्यों का सम्बन्ध स्पष्ट हो जाये।

सामान्य तथा अन्तिम उद्देश्य (General and ultimate aims)-

दर्शन के आधार पर ही इनका निश्चय सम्भव है। धार्मिक व्यक्तियों के लिए विश्व का प्रणेता ईश्वर है तथा शिक्षा का उद्देश्य उसका बोध कराना होगा ईश्वर की आज्ञाओं का पालन करना तथा उसकी प्रतिच्छाया बनकर रहना जीवन का परम लक्ष्य है। इसी से मिलता-जुलता उद्देश्य आत्मबोध है जिसके द्वारा मनुष्य की शक्तियों का पूर्ण विकास महत्वपूर्ण हो जाता है। यह उद्देश्य अस्पष्ट है क्योंकि हम जानते हैं कि छोटे से जीवन में प्रत्येक मनुष्य का विकास सम्भव नहीं है। आत्मबोध का अर्थ क्या आत्म प्रकटीकरण है?

आत्म का अर्थ क्या है? इन प्रश्नों के कारण इस प्रकार के उद्देश्यों को अस्पष्टता दूर नहीं होती। फिर यदि हम मनुष्य की तार्किक तथा बौद्धिक शक्ति में विश्वास कर लें तो शिक्षा का उद्देश्य इन शक्तियों का पूर्ण विकास करना होगा। बुद्धि का विकास भी आत्मबोध का एक रूप हो सकता है तब आत्मबोध का दूसरा रूप मनुष्य का समाज में रहकर अपनी पूर्णता का प्राप्त करना होगा। जिस प्रकार का समाज होगा, शिक्षा का उद्देश्य भी ठीक वैसा हो होगा।

कुछ विद्वान द्वारा शिक्षा को समाज द्वारा संचालित न मानकर उसे स्वतन्त्र रूप देकर शिक्षा के उद्देश्यों को शिक्षा की प्रक्रिया में ही निहित मानते हैं। बाह्य सामाजिक ज्ञान तो शिक्षा को सामग्री देता है पर वह उसके लिए मापदण्ड नहीं देता यदि शिक्षा का उद्देश्य उसकी प्रक्रिया में है तो शिक्षा किसा बाह्य उद्देश्य से प्रभावित न होकर स्वयं उद्देश्य है जीवन तथा शिक्षा एक है। यदि जीवन विकास है तो शिक्षा भी विकास है इसलिए शिक्षा भी अनन्त है। यह उद्देश्य भी अस्पष्ट ही है क्योंकि विकास तथा प्रगति को इसमें समान अर्थों में समझा जाता है।

परन्तु यह बात भ्रामक क्योंकि बीमारी का विकास होने पर हम उसे रोगी को प्रगति नहीं कह सकते। बीमारी एक इच्छा करने योग्य उद्देश्य नहीं है ऐसो प्रगति हम नहीं चाहते। परन्तु सबसे बड़ी कमी इस प्रकार की विचारधारा को यह है कि यह वर्तमान विकास को हो अन्तिम उद्देश्य मानकर चलती है। भविष्य की ओर न देखना उसको भूल है। यद्यपि ये प्रगतिवादी इस बात को मानकर भी सन्तोष रखने की बात कहते हैं तथा उनका विचार है कि हम प्रगति तथा विकास की ओर ध्यान रखकर आगे को बात सोचनी चाहिए। बुरे काम अन्त को और और केवल अच्छ कार्य विकास की ओर ले जाते हैं। इसलिए अच्छे कार्यों का ध्यान उचित है। शिक्षा का उचित उद्देश्य भी वही है जो जोवन-पर्यन्त बालक को विकास की ओर ले जाये।

शिक्षा के उद्देश्य का निर्णय (Decision about aims of education) –

शिक्षा के उद्देश्यों का निर्णय वर्तमान समय को मांगों के आधार पर ही प्रायः होता है। इस प्रकार हम इच्छित उद्देश्यों का पता तो अवश्य लगा सकते हैं पर उन उद्देश्यों का पता नहीं लगा सकते जिनकी इच्छा करनी चाहिए। यद्यपि दार्शनिक सत्यों के विषयों में एकमत नहीं है फिर भी हम बराबर इसी बात पर आ जाते हैं कि शिक्षा के उद्देश्य दर्शन की सहायता द्वारा हो निश्चित हो सकते हैं। दर्शन की सहायता से उद्देश्य सामान्य तथा निश्चित और अन्तिम तथा संमीप को श्रेणियों में बाटे जा सकते हैं।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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