रीतिकाव्य धारा के विकास में केशवदास की भूमिका | हिंदी में रीतिकाल का प्रवर्तक

रीतिकाव्य धारा के विकास में केशवदास की भूमिका | हिंदी में रीतिकाल का प्रवर्तक

रीतिकाव्य धारा के विकास में केशवदास की भूमिका

केशव रीति-परंपरा के प्रथम मार्ग-स्तम्भ-

वैसे केशव के पूर्व भी रीति-परंपरा विकसित हो रही थी, पर केशव ने इसे व्यवस्थित रूप प्रदान किया। केशव ने अपने ‘कविप्रिया’ और ‘रसिकप्रिया’ ग्रंथों के द्वारा हिंदी में संस्कृत की ‘पूर्व-ध्वनि’ और ‘उत्तर-ध्वनि’ दोनों परंपराओं का पांडित्यपूर्ण विवचन उपस्थित किया। इसीलिए वे हिंदी में रीति-परंपरा के प्रथम आचार्य कहे जाते हैं। केशव के पश्चवात् हिंदी में रीति-काव्य परंपरा चल निकली। सेनापति का ‘काव्य कल्पद्रुम’ चिंतामणि का ‘काव्य विवेक’ और ‘कवि कल्पतरू’ भिखारीदास का ‘काव्य-निर्णय’ आदि इसी परंपरा के महत्वपूर्ण ग्रंथ थे। चिंतामणि में केशव की तरह विस्तार और गांभीरर्य नहीं है। चिंतामणि का महत्व तो संयोगवश ही हो गया है। चिंतामणि के समय तक पहुँचते-पहुंचते रीति-ग्रंथों का ताँता-सा लगा और जन्मेरूचि भी इसकी ओर हो गई, पंरतु युग प्रवर्तक का गौरव केशव को ही प्राप्त है।

केशव का आचार्यत्व-

केशवदासी को रीतिकाल का सर्वप्रथम आचार्य माना जाता है। परंतु उन्होंने जिस मार्ग का अवलंबन लिया, वह मार्ग बहुत पुराना था। जिस मार्ग को उन्होंने ग्रहण किया है, वह मार्ग संस्कृत में समृद्ध आचार्यत्व का प्रतीक नहीं था । यही कारण था कि केशव ने जिस मार्ग का द्योतन किया, वह 50 वर्ष भी नहीं चल सका। लक्षण ग्रंथों की जो परंपरा आगे विकसित हुई, उसने केशव के मार्ग को नहीं अपनाया। केशवदासी ने स्वयं सष्ट किया है-

“जदपि सुजाति सुलच्छिनी, सुबरन सरल सुवृत्त।

भूषण बिनु न विराजहीं कविता वनिता, मित्त ।।’

इस समय तक संस्कृत साहित्य पूर्णरूप से समुन्नत हो गयी थी और अलंकार संप्रदाय वक्रोति संप्रदाय, ध्वनि संप्रदाय आदि अनेक संपदाय चल पड़े थे। केशव ने अलंकार संप्रदाय को ही अपनाया। इस संप्रदाय को अपनाने के कारण आपने भामह, उद्भट और दंडी आदि का अनुकरण किया। उन्होंने मम्मट और विश्वनाथ के मार्ग का अवलंबन नहीं किया। आगे चलकर जो परंपरा विकसित हुई उसमें रस की प्रधानता रही। अलंकारों के लिए उन्होंने चंद्रलोक और कुवलवानंद का अनुकरण किया है, भामह और दंडी आदि का नहीं।

केशवदास में मौलिकता कहीं नहीं मिलती। उन्होंने संस्कृत के काव्यशास्त्रियों का ही अनुकरण किया है। कहीं-कहीं तो उन्होंने संस्कृत ग्रंथों से बिल्कुल अनुवाद कर दिया है। आचार्यत्व की दृष्टि से केशवदास जी की दो पुस्तकें है- (1) कविप्रिया (2) रसिकप्रिया। ‘कविप्रिया’ एक प्रकार का लक्षण ग्रंथ हे, जिसमें कविता के गुण-दोष और उनकी कसौटी, अलंकार, बारहमासा नखसिख आदि का विस्तृत विवेचन किया गया है। अलंकार का विवेचन इसमें आचार्यत्व की दृष्टि से ही किया गया है, परंतु आचार्यों ने इस ग्रंथ के विषय और विषय निरूपण को देखकर इसे शास्त्रीय दृष्टि से दूषित माना है, क्योंकि केशवदास ने अलंकारों को न तो लक्षण ही स्पष्ट किए हैं और न उसके उदाहरण ही उनके अनुकूल बना सके हैं। अलंकारों के भेद भी स्पष्ट नहीं है और उनके लक्षण भी नहीं दिए हैं। इस विषय में केशवदास ने जो भूलें की हैं और जो अस्पष्ट रूप से विषय का विवेचन किया है, उससे स्पष्ट हो जाता है कि केशव को वर्णन विषय-अलंकारशास्त्र का पूर्ण ज्ञान नहीं था।

रसों के सम्यक निरूपण में भी वे सफल नहीं हो पाये हैं। वे उन आचार्यों के शिष्य नहीं थे जो ‘वाक्य रसात्मक काव्यम् ‘ के सिद्धांत को अपनाने वाले थे। केशवदासजी तो रस, रीति आदि सभी को अलंकारों के अंतर्गत ही मानते थे। यद्यपि वे रसहीन कवि नहीं थे, परंतु वे रस का सम्यक प्रयोग नहीं जानते थे, उनमें अनुभूति और सूक्ष्म निरीक्षण का अभाव था। बदलते हुए छंदों के कारण भी रस परिपाक में बड़ी बाधा उपस्थित हुई है। ‘रामचंद्र की चंद्रिका बहुत से छंदों का ‘अजायबघर’ ही बनकर रह गई। ‘रसिकप्रिया’ में केशवदास जी ने संपूर्ण रसों को श्रृंगार रस में ही लाने का प्रयत्न किया है इससे श्रृंगार रस के दोनों पक्षों का विस्तार से विवेचन हुआ है परंतु रस के विभावादि का सम्यक निरूपण नहीं हो पाया। शास्त्रीय विवेचन के दृष्टिकोण से केशवदासजी की यह रचना मौलिक नहीं है। श्रृंगार के अतिरिक्त अन्य रसों का पूर्ण विवेचन नहीं है। डॉ. श्यामसुंदरदास जी ने केशव के आचार्यत्व पर विस्तृत विचार करते समय निम्नलिखित अभिमत दिया है-

“आचार्य पद के योग्य जिस गंभीर अध्ययन और सूक्ष्म बुद्धि की आवश्यकता होती है उनका केशव में अभाव है। केशव यदि हिंदी में ग्रंथों का सफल अनुवाद भी कर लेते तो वे हिंदी-साहित्य को एक बड़ी वस्तु प्रदान कर जाते, पर उनको तो आज हम उनकी कृतियों के आधार पर एक सफल अनुवादक भी नहीं कह सकते, फिर आचार्य किस प्रकार कहे? केशवदास जी की दूसरी पुस्तक जिसके आधार पर उनके प्रेमी उनके आचार्यत्व की दुहाई देते हैं। वह ‘रसिकप्रिया’ है। कुछ संस्कृत के आचार्यों के अनुकरण पर केशव ने शृंगार रस का आचार्यत्व सिद्ध करने का प्रयत्न किया और उन्हें किसी अंश में सफलता भी मिली है। उनकी ‘रसिकप्रिया’ रस का ग्रंथ होने के स्थान पर केवल श्रृंगार रस मात्र का ग्रंथ हो गई है। इस ग्रंथ को यदि ध्यान से देखा जाय और केशव के प्रति उनकी ख्याति का जो प्रभाकर मंडल है, उसका ध्यान थोड़ी देर के लिए छोड़ दिया जाय तो एक बार फिर स्पष्ट और अप्रिय सत्य कहना ही होगा कि इसमें विभाव और संचारी भाव का शास्त्रीय विवेचन नहीं किया गया है। इसका काव्य से क्या संबंध है? भावों और रसों में कौन-सी एकता है? रसभाव क्या है? भावाभास क्या है? इन सब की ओर इस ग्रंथ में ध्यान नहीं दिया। केवल संयोग श्रृंगार, विप्रलम्म श्रृंगार, नायिक-दर्शन, नायिक भेद, सात्विक-भाव, सखी-शिक्षा आदि का बड़े विस्तार से वर्णन किया गया है। ये दोनों पुस्तकें किसी प्रकार भी केशव को आचार्यत्व प्रदान करने में उनका साथ नहीं देती हैं। इन्हें ‘रामचंद्र-चंद्रिका’ के साथ मिलाकर देखने पर केशव के पक्ष में निर्णय होना कठिन प्रतीत होता है। इस प्रकार लिखित प्रमाण के विरूद्ध केशव को आचार्यत्व प्रदान करना न्याय छोड़कर और सब कुछ ही कहा जायेगा।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अनेक उदाहरण देकर यही सिद्ध किया है कि वे चमत्कारी कविचे और उन्हें आचार्यत्व प्रदान नहीं किया जा सकता। पं. कृष्णशंकर भी उनके माव-पक्ष की हीनता ही प्रकट करते हैं। पांडित्य प्रदर्शन करने के लिए केशव ने एक-एक पद में तीन-तीन अर्थों की व्यंजना की है। मार्मिक स्थलों को पहचानकर भद्दे और असुंदर वर्णन किए हैं। काव्यात्मक सौंदर्य का उनमें अभाव-सा मिलता है। डॉ. रामकुमार वर्मा ने लिखा है-

“अपनी अलंकारप्रियता से केशव ने रस के उद्रेक में बाधा पहुंचाई है। जहाँ श्रृंगार रस है, वहाँ का स्थायी भाव विरोधी-संचारी भावों के द्वारा स्पष्ट हो जाता है और पूर्ण रस की सृष्टि नहीं हो पाती। समस्त वर्णन किसी रस में न होकर भिन्न-भिन्न भावों में ही विशृंखल रीति से उपस्थित किया जाता है।” उपर्युक्त विवेचन से हम इस परिणाम पर पहुंचते हैं कि आचार्यत्व की दृष्टि से केशवदास सफल नहीं हो सके हैं।

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