काव्यभाषा का स्वरूप | काव्यभाषा एवं सामान्य भाषा में अन्तर

काव्यभाषा का स्वरूप | काव्यभाषा एवं सामान्य भाषा में अन्तर

काव्यभाषा का स्वरूप

काव्य भाषा विश्व साहित्य में हमेशा से ही महत्वपूर्ण रही है। यूनानी विचारकों ने भी कवि कर्म में भाषा को ही प्रधानता दी है और भारतीय काव्यशास्त्र में भाषा को साहित्य में बहुत महत्व दिया है।

आम बोलचाल की भाषा में निरन्तर परिवर्तन के कारण जब परिनिष्ठित और मानक रूप ग्रहण कर लेती है तब वह काव्य भाषा बन जाती है। काव्य भाषा बहुत से उपादानों से मिलकर तैयार होती है। इसका शब्द भण्डार जितना समृद्ध होगा उस भाषा का काव्य साहित्य उतना ही समृद्ध होगा क्योंकि कवि मूलतः शब्दों का ही साधक होता है, क्योंकि कवि की अभिव्यक्ति भाषा के द्वारा नहीं अपितु शब्दों से पूर्णता पाती है। अज्ञेय इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए कहते हैं, “मेरी समस्या की जड़ यही है। मेरी खोज भाषा की खोज नहीं केवल शब्दों की खोज है। भाषा का उपयोग में करता हूं निस्सन्देह। लेकिन कवि होने के नाते जो मैं कहता हूं वह भाषा के द्वारा नहीं केवल शब्दों के द्वारा। शब्दों की भाषा वैज्ञानिक मानी जाती है। काव्य में भाषा प्रयोग के बारे में विविध विद्वानों की राय अलग-अलग है। कवि के लिए शब्दकोश की भाषा भी मान्य है और सामान्य भाषा भी। अजेय का मत है, “आज भी मेरे जो समस्या है जिसका हल पा लेना मैं अपने कवि कर्म की उपलब्धि मानूंगा वह अर्थवान शब्द की समस्या है। काव्य सबसे पहले शब्द है और सबसे अन्त में भी यही वात बच जाती है कि काव्य शब्द है सारे कवि कर्म इसी परिभाषा से निःसृत होते हैं।

सामान्य भाषा

सामान्य भाषा में प्रयुक्त शब्द सामान्य अर्थ की प्रतीति कराने में समर्थ होता है, परन्तु वही शब्द काव्य में नए-नए संदर्भो से युक्त होकर नए-नए अर्थों की सृष्टि करने लगता है। कवि-प्रतिमा, कवि कौशल और कवि की कलात्मक चेष्टा से सामान्य से सामान्य शब्द भी नए-नए अर्थ उदभासित करने लगता है। सामान्य भाषा शब्द के संकेतार्थ को अपना आधार बनाती है। जबकि काव्य-भाषा की विवक्षा का आधार लेती है। काव्य में प्रचलित, अप्रचलित, सरल, क्लिष्ट सभी प्रकार के शब्दों से काम लेना पड़ता है, जबकि सामान्य भाषा में सरल प्रचलित शब्द छिप जाते हैं। काव्य भाष्ज्ञा सामान्य भाषा का उच्चतम विकसित रूप होता है। आचार्य कुन्तक ने अलंकृत वाक्य में ही काव्यत्व माना तथा कवीन्द्र की भी मान्यता वैसी ही है। “जब तक काव्य की रूपसत्ता उपयुक्त अभिव्यंजना या वाणी विधान नहीं प्राप्त करती, तब तक उसमें आह्वदकता का गुण नहीं आ पाता। काव्य-भाषा सामान्य भाषा की ही एक विशिष्ट शैलीगत अभिव्यक्ति है, जहां अपने-अपने स्तरों पर स्थित भाषा की स्वनिष्ठ इकाइयां वस्तुतः अस्वनिष्ठ होकर बहु-स्तरीय बन जाती हैं।”

काव्यभाषा एवं सामान्य (लोकभाषा) में अन्तर

काव्यभाषा एवं सामान्य (लोकभाषा) में अन्तर निम्नलिखित हैं-

(i) काव्य भाषा की रचना सामान्य भाषा से जटिल होती है। उनमें अर्थ की अनेक परतें होती हैं।

(ii) बोलचाल की भाषा मूलतः उच्चारित होती है और काव्यभाषा व्यवहारतः लिखित होती है। इस कारण दोनों में अन्तर देखा गया है।

(iii) सामान्य भाषा का अर्थ रूढ़ और निश्चित होता है काव्यभाषा में अर्थों की श्रृंखला फूटती है जैसे तराशे गये रत्नों से सतरंगी किरणें निकलती हैं।

(iv) काव्य भाषा के संबंध में अजेय कई महत्वपूर्ण संकेत देते हैं सामान्य भाषा में इसको अलग करने के लिए अजेय ने अनुभव की भाषा कहा है।

(v) सामान्य भाषा (लोकभाषा) एक चिन्ह है परन्तु काव्यभाषा नाद एवं बिम्ब में अवतरित आत्मा इसीलिए अभिनवगुप्त ने काव्यभाषा को रस से अभित्र करके देखा था।

(vi) काव्यभाषा एवं सामान्य भाषा (लोकभाषा) का एक मौलिक अंतर यह है कि प्रथम की प्रवृत्ति जहां परीकरण की होती है वहां द्वितीय की प्रवृत्ति विकासमान होती है।

(vii) सामान्य भाषा की अभिधात्मकता एवं काव्यभाषा की संकेतात्मकता के कारण इनके मध्य एक अन्य अंतर आ जाता है। सामान्य भाषा में अर्थ निश्चित होता है और काव्यभाषा का अर्थ निश्चित करना कठिन है।

(viii) सामान्य भाषा सन्देश प्रधान होती है और काव्य भाषा संवेदना प्रधान सामान्य भाषा की अपेक्षा काव्यभाषा अधिक व्यंजक, अलंकृत, लाक्षणिक एवं चमत्कारी होता है।

(ix) सामान्य भाषा में उपकरणों की सीमा स्पष्ट होती है और काव्यभाषा की गरिमा प्रतिष्ठित होती है।

(x) काव्य भाषा का व्याकरण सामान्य भाषा के व्याकरण से विशेष होता है। व्याकरण केवल शुद्ध एवं यथार्थ में घटित प्रयोगों को ग्रहण करता है। परन्तु कविता की भाषा में जो यथार्थ में घटित होता है, वह नहीं होता। मानव की कल्पना में जो घट सकता है वह भी कविता की भाषा में व्यक्त किया जा सकता है। संभवतः कविता की भाषा में विचित्र प्रयोग समाहित हो जाते हैं।

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