शिक्षक शिक्षण / Teacher Education

शिक्षण की योजना विधि का वर्णन | शिक्षण की योजना पद्धति के आधारभूत सिद्धान्तो एवं गुण-दोषों का वर्णन

शिक्षण की योजना विधि का वर्णन | शिक्षण की योजना पद्धति के आधारभूत सिद्धान्तो एवं गुण-दोषों का वर्णन

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शिक्षण में योजना शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम रिचर्ड ने 1900 में किया। योजना से रिचर्ड का अभिप्राय छात्र द्वारा अपनी वास्तविक समस्या को स्वयं हल करने के लिए विभिन्न पदों के प्रयोग के सम्बन्ध में योजना बनाने से था। इसके  पश्चात् 1908 में स्टीवेन्स ने औद्योगिक विश्वविद्यालयों में कृषि के पाठ्यक्रम के सम्बन्ध में इस शब्द का प्रयोग किया। बोर्ड ऑफ स्टेट एजकेशन की रिपोर्ट में 1911 में इस शब्द के विषय में निर्णय लिया गया और माध्यमिक विद्यालयों में योजना विधि से पढ़ाने को मान्यता प्रदान कर दी गयी। 1918 के फ्रैडरेल बोर्ड आफ वोकेशलन एजूकेशन में भी इस विधि का वर्णन मिलता है। वास्तव में योजना विधि ड्यूवी की विचारधारा पर आधारित है। ड्यूवी ने बालक के शिक्षण में प्रयोगात्मक विधि अपनाये जाने पर बल दिया है। उसका मानना है कि शिक्षा के सभी विषयों को एक साथ सम्बन्धित करके योजनाबद्ध तरीके से पढ़ाया जाना चाहिए। ड्यूवी की इस विचारधारा को एक योजना विधि के रूप में प्रतिपादित करने का श्रेय विलियम किलपेट्रिक को जाता है। योजना शब्द का अर्थ समझ लेने के पश्चात शिक्षण की योजना विधि की धारणा स्पष्ट हो जाएगी।

किलपैट्रिक के अनुसार “योजना वह सोद्देश्य क्रिया है जिसे मन लगाकर सामाजिक वातावरण में किया जाए।”

किलपैट्रिक की परिभाषा से योजना की तीन प्रमुख बातें स्पष्ट होती हैं-

  1. प्रत्येक किया (Project) का कोई न कोई उद्देश्य होता है।
  2. इस क्रिया में छात्र की रुचि का होना आवश्यक है।
  3. जिस वातावरण में यह क्रिया की जाए उस वातावरण से सामाजिक उपयोगिता का विकास सम्भव हो।

स्टीवेन्सन के अनुसार, “योजना वह एक समस्या मूलक कार्य है जिसे स्वाभाविक परिस्थिति में पूरा किया जाए।”

 योजना पद्धति के सिद्धान्त

योजना पद्धति निम्न आधारभूत सिद्धान्तों पर आधारित है-

  1. प्रयोजनशीलता (Purposiveness)- किसी प्रयोजन अथवा उद्देश्य से ही बालक किसी कार्य में रुचि लेते हैं। बालकों को इस बात का पूर्ण ज्ञान होना चाहिए कि जो क्रियायें वह कर रहे हैं उनसे किन उद्देश्यों की पूर्ति सम्भव होगी। एक योजना की पूर्ति से बालकों की किसी न किसी समस्या का समाधान होता है। यही प्रयोजनशीलता का सिद्धान्त है।
  2. उपयोगिता (Utility)- योजना पद्धति में जीवन से सम्बन्धित ऐसी समस्याओं का चुनाव किया जाता है जो छात्रों के लिए उपयोगी हों और छात्र रुचि के साथ इन क्रियाओं में भाग ले सकें। यही उपयोगिता का सिद्धान्त हे।
  3. वास्तविकता (Reality)- योजना पद्धति से दी जाने वाली शिक्षा जीवन की वास्तविक परिस्थितियों के अनुकूल होती है और विद्यालय का सम्बन्ध जीवन की आवश्यकताओं के साथ जोड़ने का प्रयास किया जाता है। ड्यूवी ने तो जीवनयापन के द्वारा ही सीखने पर बल दिया है। यही वास्तविकता का सिद्धान्त है।
  4. सामाजीकरण (Socialization)- योजना पद्धति में छात्र सामूहिक क्रियाओं में भाग लेते हैं और सामूहिक रूप से कार्य करते हुए किसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए प्रयास करते हैं जिससे उनमें सहयोग, सहकारिता, स्नेह, सद्भावना आदि गुणों का विकास सम्भव होता है।
  5. क्रियाशीलता (Activity)- बालकों में क्रियाशीलता एक सहज प्रवृत्ति है। जो बालक क्रियायें नहीं करते उन्हें सामान्य बालकों की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। योजना पद्धति में करके सीखो अर्थात क्रिया द्वारा शिक्षा दिये जाने के सिद्धान्त पर बल दिया गया है। यहां यह उल्लेखनीय है कि योजना पद्धति में बच्चों द्वारा की जाने वाली क्रियायें उनके वास्तविक जीवन से संबंधित होती हैं।
  6. व्यक्तिगत भिन्नता (Individual Dispanty)- प्रत्येक बालक में समान क्षमतायें एवं योग्यतायें नहीं होगी। भिन्न-भिन्न बालकों में ये योग्यतायें भिन्न होती हैं| इन्हीं व्यक्तिगत भेदों के आधार पर शिक्षा दिये जाने की व्यवस्था योजना पद्धति करती है। प्रत्येक छात्र को उसकी योग्यताओं, रुचियों एवं अभिरुचियों के अनुसार कार्य दिया जाता है। से सम्बन्धित होती हैं।
  7. स्वतन्त्रता (Independence)- शिक्षण की इस पद्धति में बच्चों को क्रियायें करने की पूर्ण स्वतंत्रता होती है। उन्हें योजना चुनने, उसका क्रियान्वयन करने और मूल्यांकन करने की पूर्ण स्वतंत्रता दी जाती है। उनके कार्यों में शिक्षकों द्वारा किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं किया जाता बल्कि आवश्यकता पड़ने पर उनका मार्गदर्शन ही किया जाता है।
  8. सह-सम्वन्ध (Co-relation)- इस पद्धति में पाठ्य विषयों के बीच सह-संबंध स्थापित करने का प्रयास किया जाता है। योजना को पूर्ण करने में छात्र अपनी आवश्यकता ओर रुचि के अनुसार भिन्न-भिन्न विषयों से सम्बन्धित क्रियाएं करते हैं। अपने लिए विभिन्न विषयों की पुस्तकों आदि का चुनाव भी स्वयं करते हैं और किस समय किस विषयवस्तु को पढ़ना है इसका चुनाव भी छात्रों द्वारा स्वयं ही किया जाता है।

 योजना पद्धति के गुण

योजना पद्धति में निम्न गुण या विशेषतायें विद्यमान हैं-

  1. योजना पद्धति पूर्ण रूप से शिक्षा मनोविज्ञान पर आधारित है। इसमें शिक्षण के प्रमुख सिद्धान्तों करके सीखना, रुचि का सिद्धान्त, व्यक्तिगत भिन्नता का सिद्धान्त जीवन से सन्बन्ध स्थापित करने का सिद्धान्त आदि नियमों का पालन किया गया है यह पद्धति बालकों को स्वतन्त्र रूप से सोचने विचारने और क्रियाएं करने के अवसर प्रदान करती है। बच्चे स्वयं योजना का चुनाव करके और करके सीखो के सिद्धान्त का पालन करते हुए आगे बढ़ते हैं जिससे उनकी सीखने में सदा ही रुचि बनी रहती है। योजना को पूर्ण करने के लिए सभी छात्र शारीरिक और मानसिक रूप से सक्रिय रहते हैं। स्पाष्ट है यह पद्धति पूर्ण रूप से शिक्षा मनोविज्ञान के सिद्धान्तों पर आधारित है।
  2. यह सीखने के नियमों पर आधारित पद्धति है। यार्नडाइक द्वारा प्रतिपादित सीखने के नियमों का इस पद्धति में अनुसरण किया गया है। यार्नडाइक के सीखने के नियमों में पहला नियम तत्परता का नियम है। इस पद्धति में सीखने का नियम पूर्ण रूप से लागू होता है। यार्नडाइक का दूसरा नियम अभ्यास का नियम है। इस पद्धति में बालक स्वयं क्रियायें करते हुए अभ्यास करते हैं। अत: थार्नडाइक का बह नियम भी इस पद्धति में सम्मिलित है। थार्नडाइक का तीसरा नियम प्रभाव का नियम है इस पद्धति में बह नियम भी लागू होता है क्योंकि छात्र अपनी योजना को समाप्त करने के पश्चात् जब उसका मूल्यांकन करते हैं तो उन्हें सन्तोष और गर्व का अहसास होता है साथ ही साथ वे अपनी कमियों का भी पता लगा पाते हैं।
  3. क्रिया को इस पद्धति में ज्ञान का आधार माना गया है। इस पद्धति में रटने को कोई स्थान नहीं दिया गया है बल्कि बालक स्वयं क्रिवायें करते हुए सीखते हैं। स्वयं क्रियायें करके सीखा गया ज्ञान स्थायी होता है।
  4. योजना पद्धति एक प्रजातांत्रिक पद्धति है। क्योंकि इस पद्धति में छात्रों को अपनी रुचि, अभिरुचि, योग्यता और क्षमता के अनुसार क्रियायें करने की पूर्ण स्वतन्त्रता होती है। इसके अतिरिक्त सामूहिक क्रियायें करते हुए छात्र सहकारिता, सामूहिकता आदि के गुणों को भी ग्रहण करते हैं जिससे उनमें सामाजिकता की भावना विकसित होती है।
  5. यह पद्धति छात्रों के चारित्रिक विकास में भी बहुत सहायक है। इस पद्धति में चूंकि बालकों को मानसिक और शारीरिक दोनों ही प्रकार से सक्रिय रहना होता है जिससे एक और तो उनकी शारीरिक शक्तियों का विकास होता है दूसरी ओर उनकी मानसिक शक्तियां भी विकसित होती है।
  6. इससे बालकों में स्व-अनुशासन की भावना का विकास होता है।
  7. इस पद्धति में वास्तविक योजना को वास्तविक परिस्थितियों में स्वाभाविक रूप से पूरा करने पर बल दिया गया है। ऐसी परिस्थिति में बालकों का कार्य तथा जीवन में सम्बन्ध स्थापित हो जाता है। अतः बालक कार्य में रुचि लेने लगते हैं और उनमें किसी कार्य को विधि पूर्वक व सही ढंग से करने की क्षमता विकसित होती है।
  8. इस पद्धति से बालकों में अनुशासनहीनता की समस्या पैदा नहीं होती। छात्र अपनी-अपनी क्रियाओं में लगे रहते हैं और अनुशासन बना रहता है।

 योजना पद्धति के दोष

  1. योजना पद्धति के द्वारा सभी विषयों की शिक्षा देना सम्भव नहीं है। जब सभी विषयों का शिक्षण सही अनुपात में नहीं होता तो बालकों के विकास का सन्तुलन बिगड़ जाता है। और उनका सर्वांगीण विकास सम्भव नहीं हो पाता।
  2. इस पद्धति के माध्यम से साहित्य की शिक्षा नहीं दी जा सकती क्योंकि इस पद्धति में पूरा जोर समस्या पर दिया गया है।
  3. योजना को पूरा करने के लिए पर्याप्त धन एवं समय की आवश्यकता होती है और विद्यालयों के पास पर्याप्त धन उपलब्ध नहीं होता। अधिकतर विद्यालय तो धन के अभाव में ही चल रहे हैं। ऐसे में योजना पद्धति का कोई विशेष लाभ विद्यार्थियों को नहीं हो पाता।
  4. 4. उपलब्ध सभी पाठ्य पुस्तकें परम्परागत शिक्षा के आधार पर लिखी गयी हैं। नियोजन के आधार पर लिखित पुस्तकों का पर्याप्त अभाव है। पुस्तकों के अभाव के कारण योजना पद्धति द्वारा शिक्षण की प्रक्रिया बाधित होती है।
  5. पाठशाला परिवर्तन के समय छात्रों को विशेष कठिनाई का सामना करना पड़ता है। क्योंकि अधिकतर विद्यालयों में शिक्षण कार्य परम्परागत ढंग से हो रहा है। यदि एक छात्र योजना पद्धति से शिक्षा ग्रहण कर रहा हो और उसे किसी कारणवश विद्यालय बदलना पड़े और नये विद्यालय में शिक्षण का स्वरूप परम्परागत हो तो छात्र को बहुत कठिनाई का सामना करना पड़ता है।
  6. योजना के चुनाव की कठिनाई, भी इस पद्धति की एक समस्या है। अधिकतर योजनायें जो बालकों के सम्मुख प्रस्तुत की जाती हैं वे उनके जीवन से सम्बन्धित नहीं होतीं। ऐसे में बालकों को आकर्षित करना कठिन हो जाता है।
  7. इस पद्धति की सबसे बड़ी कमी यह है कि इसमें पुनरावृत्ति के लिए कोई स्थान नहीं है।
  8. छात्रों की अधिक संख्या के लिए यह विधि पूर्ण रूप से अनुपयोगी है क्योंकि 40 या 50 बच्चों को एक ही योजना पर कार्य कराना बहुत कठिन है और न ही इसका कोई लाभ छात्रों को मिल सकता है।
  9. इस पद्धति में क्योंकि समय बहुत अधिक खर्च होता है अतः पाठ्यक्रम निर्धारित समय में पूर्ण नहीं हो पाता जिससे बच्चों का विषय सम्बन्धी ज्ञान अधूरा रह जाता है और परीक्षाएं आ जाने पर उन्हें बहुत कठिनाई का सामना करना पड़ता है।
  10. इस पद्धति में चूंकि विभिन्न विषयों का ज्ञान आंशिक रूप से टुकड़ों में मिलता है अतः विभिन्न विषयों के ज्ञान के बीच सामंजस्य स्थापित करना कठिन कार्य है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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