अर्थशास्त्र / Economics

माल्थस के जनसंख्या सिद्धान्त का आलोचनात्मक मूल्यांकन | माल्थस के जनसंख्या सिद्धान्त का महत्त्व

माल्थस के जनसंख्या सिद्धान्त का आलोचनात्मक मूल्यांकन | माल्थस के जनसंख्या सिद्धान्त का महत्त्व

माल्थस के जनसंख्या सिद्धान्त का आलोचनात्मक मूल्यांकन

(Critical Evaluation of the Malthusian Theory of Population)

जहाँ माल्थस के जनसंख्या सिद्धान्त को तात्कालिक प्रसिद्धि प्राप्त हुई, वहाँ वह अति उग्र और अनेक आलोचनाओं का पात्र भी बना। आरकिबाल्डबेल (Archibaldbell) जैसे विद्वानों ने इस सिद्धान्त की सराहना करते हुए इसे मानव समाज को एक महान् समस्या को सुलझाने वाला बताया। दूसरी ओर, सदे (Soutoay), कोलरिज (Coleridge) और कोबैट (Cobbet) जैसे विद्वानों के अनुसार, माल्थस ‘शैतान के एक नये अवतार थे’ जो विश्व को आशाओं और खुशियों को नष्ट करने हेतु उत्पन्न हुए हैं। विलियम गॉडविन (William Godwin) ने माल्थस सिद्धान्त को “वह काला और भयानक राक्षस’ घोषित किया जो कि मनुष्य समाज को आशाओं पर कुठाराघात करने के लिए सदैव तैयार हैं। एलेक्जेण्डर ग्रे (Alexander Gray) के अनुसार, “यह नितान्त सत्य है कि किसी भी सम्मानित नागरिक को इतनी गालियाँ नहीं दी गई और इतना अधिक अपमानित नहीं किया गया, जितना कि माल्थस को। यह अपमान ऐसे लेखकों द्वारा भी किया गया है जो न तो अपनी घृणा के उद्देश्य को समझते हैं और न इसे उन्होंने पढ़ा ही है।” माल्थस के सिद्धान्त की जितनी आलोचना हुई है और जितना अधिक समर्थन उसे मिला है, उतना किसी अन्य सिद्धान्त को नहीं। यह आर्थिक विचारों के इतिहास में सबसे लम्बे चलने वाले विवाद का विषय बना, जिसकी समाप्ति अभी भी नहीं हुई है। अनेक उग्र आलोचनाओं के होते हुए भी इस सिद्धान्त का अर्थशास्त्र में एक विशेष स्थान है और अन्य सिद्धान्तों की अपेक्षा इसे अधिक उत्साह के साथ पढ़ा जाता है। माल्थस के सिद्धान्त की विभिन आलोचनायें निम्न प्रकार हैं-

  1. जनसंख्या वृद्धि का गुणोत्तर अनुपात त्रुटिपूर्ण है- आलोचकों का कहना है कि माल्थस के इस कथन पर विश्वास नहीं किया जा सकता कि जनसंख्या में वृद्धि गुणोत्तर अनुपात में होती है। 25 वर्ष की अवधि में जनसंख्या के दगने होने का अर्थ है कि प्रत्येक परिवार में इस समयान्तर में कम-से-कम 4 व्यक्ति विवाह योग्य आयु के हो जाना और यह तब ही सम्भव है कि जब परिवार में 5 या 6 शिशुओं का जन्म हो, क्योंकि 1 या 2 शिशु बाल-मृत्यु से समाप्त हो सकते है। आलोचकों का कहना है कि यह एक बहुत ऊँची जन्म दर है और साधारणत: ऐसा नहीं होता।

[किन्तु माल्थस के पक्ष में यह कहा जा सकता है कि उसने जिस परिस्थिति की कल्पना की है उसमें जनसंख्या 25 वर्ष में दूनी हो सकती है। यह परिस्थिति जनसंख्या के निर्वाध बढ़ने की है। अनियन्त्रित जनसंख्या (unchecked population) का अभिप्राय एक ऐसे समाज से है, जिसमें युद्ध नहीं होते, बीमारियों की रोकथाम कर ली गई है, बाल विवाह के मार्ग में कोई अड़चनें नहीं है और परिवार को सीमित रखने के कृत्रिम उपाय प्रयोग में नहीं लाये जाते हैं। ऐसे समाज में जनसंख्या 25 वर्ष में दूनो होना बिल्कुल सम्भव है। कुछ विद्वानों ने बताया है कि 100 वर्ष की अवधि को माल्थस के समान 25-25 वर्ष की चार पीढ़ियों के बजाय 33-33 वर्ष की तीन पीढ़ियों में विभाजित करना अधिक विवेकपूर्ण होगा।

[किन्तु यह आलोचना माल्थस के बुनियादी निष्कर्ष (जनसंख्या गुणोत्तर दर से बढ़ने) का समर्थन करता है, खण्डन नहीं, क्योंकि इस प्रकार के परिवर्तन से वृद्धि दर में मामूली अन्तर पड़ेगा, अर्धात् वृद्धि होने की प्रवृत्ति यथावत् रहेगी।]

(2) जीवन-निर्वाह की सामग्री में गणितीय दर से वृद्धि होने की मान्यता त्रुटिपूर्ण, स्वेच्छाचारी और पुनरोत्पादन के नियम के विरुद्ध है- विद्वानों ने जीवन निर्वाह सामग्री में वृद्धि होने की भी आलोचना की है। उनका कहना है कि जीवन निर्वाह सामग्री में वनस्पति और पशु- पक्षियों को भी सम्मिलित करना चाहिए और इनकी वृद्धि मनुष्यों की अपेक्षा अधिक तेज गति से होती है।

[इस आलोचना के उत्तर में यह कहा जा सकता है कि जीवन निर्वाह सामग्री की पुनरोत्पादन शक्ति निवास-योग्य पृथ्वी की मात्रा के द्वारा सीमित है। उचित भरण-पोषण की आवश्यकता और निम्न श्रेणियों के जीवों में प्रचलित जीवन-संघर्ष के कारण उक्त शक्ति और भी अधिक सीमित हो जाती है। इसका जवाब फिर आलोचक यह देते हैं कि हमें एकपक्ष के साथ-साथ दूसरे पक्ष के अपवादों को भी मान लेना चाहिए। उनका कहना है कि हमारे सामने दो विभिन्न प्रमाणित तथ्य हैं। इनमें पहले तथ्य से तो यह पता चलता है कि पौधों और जीव-जन्तुओं में पुनरोत्पादन दर मनुष्यों को अपेक्षा कम नहीं होती है और दूसरे तथ्य से इस बात की पुष्टि होती है कि जनसंख्या की अनन्त वृद्धि के मार्ग में आने वाली विघ्न-बाधायें पौधों और पशुओं की अनन्त वृद्धि के मार्ग में आने वाली विघ्न-बाधाओं से किसी प्रकार कम नहीं है।

  1. उत्पत्ति नियमों को ठीक से नहीं समझा गया है- ऐसा प्रतीत होता है कि माल्थस ने अपने गणितीय का आधार ह्रासमान प्रतिफल के नियम को माना था। किसी एक भूखण्ड पर लगाई जाने वाली श्रम और पूँजी को अतिरिक्त इकाइयों द्वारा भूमि की उपज में आनुपातिक वृद्धि नहीं होती है। अत: माल्थस ने यह धारणा बना ली कि खाद्यपूर्ति में अधिक-से-अधिक गणितीय अनुपात में वृद्धि हो सकती है, परन्तु उन्होंने यह भुला दिया कि कृषि के बेहतर ढंगों (जैसे) रासायनिक खाद का अधिकाधिक प्रयोग, यांत्रिक प्रणाली, सिंचाई के कृत्रिम साधनों की व्यवस्था) के द्वारा खाद्य सामग्री का उत्पाद बहुत बढ़ाया जा सकता है और अनेक देशों में बढ़ाया भी गया है। माल्थस ने सीनियर के साथ विवाद में यह माना था कि कुछ दशाओं में खाद्य सामग्री जनसंख्या को अपेक्षा तेज गति से बढ़ती है, किन्तु वे इन दशाओं को अपवादस्वरूप समझते थे। इस प्रकार वह वृद्धिमान प्रतिफल के नियम (Law of Increasing Returns) को उचित महत्त्व नहीं दे सके।
  2. इतिहास ने माल्थस के भय की पुष्टि नहीं की है- माल्थस का कहना था कि जनसंख्या की प्रवृत्ति खाद्य सामग्री से आगे निकल जाने की होती है। किन्तु विश्व का अब तक का इतिहास उनके इस भय की पुष्टि नहीं करता। पाश्चात्य देशों में कभी जनाधिक्य की समस्या नहीं रही। फ्रांस में जनसंख्या मामूलो गति से बढ़ी और अन्य देशों में वह काफी बढ़ी है लेकिन धनोत्पत्ति के मुकाबले वह कहीं भी आगे नहीं बढ़ सकी है। अमेरिका और आस्ट्रेलिया जैसे नये देशों में तो जीवन निर्वाह के साधन जनसंख्या से बहुत आगे है। इंग्लैण्ड में तो जनसंख्या की वृद्धि इतनी तेज गति से हुई है कि माल्थस भी उससे आश्चर्य में पड़ जाते किन्तु वहाँ भी सम्पत्ति और समृद्धि तेजी से बढ़ी है। इस प्रकार, तथ्यों से माल्थस का मत गलत प्रमाणित हो गया है।

[माल्थस के पक्ष में यह कह सकते हैं कि उसका सिद्धान्त तो ठीक है, किन्तु उसके आधार पर निकाले हुए निष्कर्ष वास्तविक घटनाओं द्वारा सत्य प्रमाणित नहीं हुए। यह सभी स्वीकार करेंगे कि निर्बाध बढ़ते रहने पर जनसंख्या साधनों की सीमाओं को पार करने की प्रवृत्ति रखती है। पाश्चात्य देशों में यह प्रवृत्ति इसलिए कार्यशील नहीं हो सकी, क्योंकि वहाँ ऐच्छिक नियन्त्रणों (voluntary control) द्वारा जनसंख्या को तेज गति से बढ़ने से रोक लिया गया। दूसरी ओर, भारत, चीन व अन्य अल्प-विकसित देशों में जनाधिक्य का भय पूर्णरूप से विद्यमान है। यदि सम्पूर्ण विश्व को एक साथ देखें, तो बहुत जल्दी ही ऐसा समय आने की आशंका है, जबकि जनसंख्या की वृद्धि जीवन निर्वाह के साधनों से आगे निकल जायेगी। इस प्रकार की आशंकायें हाल ही में जनसंख्या के विशेषज्ञों द्वारा प्रगट की गई हैं।]

  1. जनसंख्या की समस्या केवल आकार की नहीं, वरन् वितरण की भी समस्या है- माल्थस के अनुसार यदि देश में प्राकृतिक प्रतिबन्ध (natural checks) लागू हो रहे हों, तो वहाँ जनाधिक्य समझना चाहिए। किन्तु यह धारणा गलत है। जनसंख्या के कम होते हुए भी देश में प्राकृतिक प्रतिबन्ध लागू हो सकते हैं, क्योंकि सम्भव है कि देश में उत्पादन कम किया गया हो अथवा यदि उत्पादन अधिक हुआ हो, तो उसका वितरण उचित रूप से न किया गया हो। सैलिगमैन के अनुसार, “जनसंख्या की समस्या केवल आकार बड़ा होने की नहीं है, वरन् कुशल उत्पादन न्यायोचित वितरण की भी समस्या है।”
  2. प्राकृतिक संकटों की सूची व्यापक नहीं है- अकाल, युद्ध और बीमारियों का तो खाद्य सामग्री से सम्बन्ध दिखाई देता है, किन्तु अन्य संकटों का भी सम्बन्ध खाद्य से है, जो दिखाई नहीं देता। अतः माल्थस द्वारा बनाये गये प्राकृतिक संकटों की सूची को संशोधित करना आवश्यक है।
  3. आधुनिक युग में खाद्य का उत्पादन किसी देश के लिए अनिवार्य नहीं है- अन्य उपयोगी वस्तुओं का उत्पादन करके भी देशी-विदेशी व्यापार के द्वारा खाद्य प्राप्त कर सकता है, जैसा कि एक बड़ी सीमा तक इंग्लैण्ड करता रहा है। माल्थस ने इस बात को विचार में न लेकर त्रुटि की है।

[किन्तु सम्पूर्ण संसार के बारे में विचार करें तो यह मानना पड़ेगा कि खाद्य समस्या उत्पादन से ही सुलझती है, व्यापार से नहीं। विश्व में भूमि की मात्रा बहुत व्यय करके भी एक मामूली अंश में ही बढ़ाई जा सकती है। विज्ञान ने खाद्य-संकट को काफी घटा दिया है, किन्तु यह समस्या का अस्थाई समाधान है। स्थायी समाधान तो जनसंख्या के नियन्त्रण द्वारा ही सम्भव है।]

  1. आत्म-संयम के साथ-साथ शक्तिशाली अवरोधों की भी आवश्यकता है- आजकल केवल आत्म-संयम से, जिसका आदेश माल्थस ने दिया है, जनसंख्या की वृद्धि पर नियन्त्रण रखना कठिन है। इसके लिए शक्तिशाली अवरोधों (अप्राकृतिक साधनों) को भी अपनाना जरूरी है।

[हमारी सम्पत्ति में अप्राकृतिक साधनों पर अत्यधिक निर्भरता हानिप्रद है, क्योंकि बुद्धि एवं शक्ति को बढ़ाने वाला वीर्य तो नष्ट होता रहेगा और उससे समाज में अनेक दोष उत्पन्न हो जायेंगे, जो फिर उत्पादन को घटाकर समस्या को अधिक जटिल बना सकते हैं। अत: ऐसा सामाजिक और नैतिक वातावरण बनाना जरूरी है, जिससे आत्म-संयम से चलना कठिन न हो।]

  1. उपभोक्ताओं के साथ-साथ उत्पादकों की संख्या भी बढ़ती है- प्रो० कैनन का कहना है कि जन्म लेने वाला शिशु खाने के लिए केवल मुख नहीं लाता, वरन् काम करने के लिए दो हाथ भी लाता है । इस प्रकार, जहाँ उपभोक्ताओं की संख्या बढ़ती है वहाँ उत्पादक (श्रमिक) भी तो बढ़ते हैं । श्रमिकों की संख्या बढ़ने पर अच्छा श्रम विभाजन किया जा सकता है और इसके फलस्वरूप उत्पत्ति हास नियम के बजाय उत्पत्ति वृद्धि नियम क्रियाशील होने लगता है। माल्थस का यह कहना गलत है कि जीविकोपार्जन के साधनों में वृद्धि सदा जनसंख्या की वृद्धि के अनुपात से कम होती है।

[इस आलोचना के उत्तर-में हम कह सकते हैं कि शिशु जन्म लेते हो उत्पादन नहीं करने लगता, किन्तु उपभोक्ता तत्काल ही बन जाता है। पुनः यह बात कि श्रमिकों को संख्या बढ़ती है गलत नहीं है, किन्तु उत्पत्ति बढ़ाने के लिए अन्य साधनों का बढ़ना भी जरूरी होता है।]

  1. निर्धनता के लिए दायित्व निर्धनों का नहीं है- माल्थस का मत है कि निर्धन वर्ग में अधिक बच्चे पैदा होते हैं, जिस कारण जनसंख्या बढ़ जाती है और निर्धनता इसी का दुष्परिणाम है। इस प्रकार, वह निर्धनता के लिए निर्धनों को दोषी ठहराते हैं। मार्क्सवादियों ने इस धारणा की कटु आलोचना की है। उनको सम्मति में निर्धनता का कारण अल्प उत्पादन है और इसके लिये वर्तमान पूँजीवादी अर्थव्यवस्था जिम्मेदार है। पूँजीवादी के अधीन वैज्ञानिक तकनीकें उत्पादन बढ़ाने के लिए उचित रूप में प्रयोग नहीं की जा सकती हैं और औद्योगिक संकट एवं व्यापार चक्र भी बाधायें प्रस्तुत करते रहते हैं। उन्होंने समाजवाद को सर्वोत्तम ढंग बताया है। उनका कहना है कि इसके अन्तर्गत प्राकृतिक प्रसाधनों का उपयोग अधिकतम सीमा तक और प्रत्येक व्यक्ति को लाभ पहुंचाते हुए किया जाता है।

11, सन्तान के लिए इच्छा और कामेच्छा में भेद पर ध्यान नहीं दिया गया है- आलोचकों का कहना है कि माल्थस सन्तान के लिए इच्छा (desire for children) और कामेच्छा (desire for Sexual gratification) में भेद नहीं समझ पाया। कामेच्छा एक प्राकृतिक इच्छा है जो कि हर प्राणी में पाई जाती है और इस पर रोक लगाना कठिन है। किन्तु सन्तान को इच्छा सामाजिक व धार्मिक है, जिस पर नियन्त्रण रखना सम्भव है। अत: यह आवश्यक नहीं है कि प्रत्येक काम वृत्ति का परिणाम सन्तानोत्पत्ति ही हो।

  1. जनसंख्या में होने वाली प्रत्येक वृद्धि बुरी नहीं- माल्थस जनसंख्या वृद्धि को समाज के हित में नहीं मानते। किन्तु आलोचकों का कहना है कि जनसंख्या में होने वाली प्रत्येक वृद्धि पूरी नहीं होती। कुछ दशाओं में जनसंख्या की वृद्धि समाज के लिये लाभप्रद हो सकती है, क्योंकि अच्छे श्रम विभाजन आदि के द्वारा उत्पादन बढ़ जाया करता है। साथ ही, यह भी स्वीकार करना होगा कि जनसंख्या की अनियन्त्रित वृद्धि खाद्य-साधनों पर अत्यधिक दबाव डालती है, जिस कारण उसके नियन्त्रण की आवश्यकता है। माल्थस का सिद्धान्त इस दृष्टि से तो ठीक है, किन्तु दुर्वलता यह है कि उसने यह जानने का प्रयास नहीं किया कि जनसख्या का वाद्ध कब लाभप्रद है और कब अलाभप्रद। ऐसा प्रयास अनुकूलतम सिद्धान्त ने किया है।
  2. भविष्य का अनुमान नहीं लगा सके है- माल्थस यह तो जानते थे कि क्या किया हुआ है और यह भी देखते थे कि क्या हो रहा है, किन्तु आसपास का अर्थात् वर्तमान समय की परिस्थितियों से वह इतने प्रभावित थे कि उनकी दृष्टि में धुंधलापन छा गया और इसलिए जो होने वाला है वह छिपा रह गया। न केवल माल्थस कृषि क्षेत्र में प्रगतियों की कल्पना नहीं कर सके, वरन् सामाजिक क्षेत्र की प्रगतियों का अनुमान भी न लगा सके, जैसे- भविष्य में शिक्षा का विकास, ऊँचे जीवन-स्तर के सुप्रभाव एवं स्त्रियों की स्वतन्त्रता उनकी दृष्टि से ओझल रह गई। इन प्रगतियों का फल यह हुआ कि जनसंख्या वृद्धि पर एक प्रभावशाली नियन्त्रण लग गया है। आज एक दम्पत्ति विशेषत: शिक्षित दम्पत्ति अपने जीवन-स्तर को बनाये रखने हेतु परिवार को सीमित रखने की चेष्टा करता है।

माल्थस के जनसंख्या सिद्धान्त का महत्त्व

(Importance of the Theory)

अब प्रश्न यह है कि क्या उपर्युक्त समस्त तर्क माल्थस के प्रसिद्ध सिद्धान्त का खण्डन करते हैं और क्या सचमुच ही उसका कोई प्रभाव या महत्त्व नहीं रह गया है? अनेक आलोचनाओं के बावजूद यह स्वीकार करना होगा कि सिद्धान्त तो आज भी ठीक है, यद्यपि इसके आधार पर निकाले गये निष्कर्ष वास्तविक घटनाओं द्वारा प्रमाणिक नहीं हुए हैं।

इस सत्य से कोई इन्कार नहीं कर सकता कि मनुष्य में अत्यन्त तीव्र गति से वृद्धि करने की शक्ति होती है जबकि निर्वाह सामग्री की पूर्ति मन्द गति से बढ़ती है, क्योंकि उत्पत्ति साधनों (जैसे-कृषि योग्य भूमि) की कमी है। अतः अनियन्त्रित छोड़ने पर जनसंख्या, खाद्य साधनों की सीमा को पार करने पर, प्राकृतिक आपत्तियों में फंस सकती है।

यह भी सत्य है कि विज्ञान की प्रगति के फलस्वरूप, पृथ्वी पर बढ़ी हुई जनसंख्या के लिए निर्वाह साधनों को सदैव बढ़ाया जाता रहेगा, किन्तु विज्ञान की खोज और इसके प्रयोग के बीच विलम्ब होना स्वाभाविक है। इस विलम्ब काल में तो अतिरिक्त जनसंख्या के कारण कष्ट भोगने ही पड़ेंगे। एशिया में अविकसित एवं अल्पविकसित देशों (जैसे कि चीन, भारत आदि) में यही हो रहा है। वहाँ उत्पादन पिछड़ा हुआ है और जनाधिक्य की समस्या विद्यमान है।

इसमें भी सन्देह नहीं है कि पाश्चात्य देशों में ऐच्छिक एवं कृत्रिम अवरोध प्रचलित होते जाते हैं। किन्तु जो यौन समस्यायें वहाँ उत्पन्न हुई हैं और हो रही हैं वह किसी से छिपी नहीं है। सन्तति

निग्रह के साधन घोषित सीमा तक कारगर (सफल) नहीं हुए हैं। आज संसार के प्रत्येक देश में प्रतिबन्धक अवरोधों (preventive checks) पर जो बल दिया जा रहा है, उससे माल्थस के निवारक सिद्धान्त की सर्वव्यापकता और अजेयता ही सिद्ध होती है।

सिद्धान्त में कुछ तार्किक कमियाँ हैं, किन्तु उन्हें यह विचार करके क्षमा किया जाना चाहिए कि ये माल्थस द्वारा समस्या को अति प्रभावशाली एवं ठोस रूप में प्रस्तुत करने की इच्छा का फल है।

यद्यपि सिद्धान्त की आलोचना 1798 से ही की जा रही है, किन्तु मार्शल, रिचार्ड थ्योडोर, ऐली साइमन, नेलसन, पेटन आदि अनेक पश्चिमी अर्थशास्त्रियों ने इसका समर्थन किया है और अपने उत्पादन और वितरण के सिद्धान्तों में इसे उचित स्थान दिया है। वाकर का विश्वास है कि माल्थस का सिद्धान्त क्षेत्र या रंगभेद का विचार किये बिना प्रत्येक समाज पर लागू होता है। वह लिखते हैं कि “उसके विरुद्ध उठाये गये सम्पूर्ण विवादों के मध्य माल्थसवाद अजेय और अविचल रूप से स्थित है। जे०बी० क्लार्क का कहना है कि ‘माल्थस के नियम की बार- बार आलोचना स्वयं इसकी मार्मिकता या सत्यता को प्रमाणित करती है।”

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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