इतिहास / History

सांची का स्तूप | सांची का बड़ा स्तूप | सांची के अन्य स्मारक

सांची का स्तूप | सांची का बड़ा स्तूप | सांची के अन्य स्मारक

सांची (सांची का स्तूप)

मध्य भारत राज्य की राजधानी भोपाल के पास भिलसा गाँव बौद्ध स्मारकों के लिए प्रसिद्ध है। इसके चारों ओर-सोनारी, सतधारा, पिपलिया, अन्धेर, सांची आदि में बहुत से बौद्ध स्मारक पाए गए हैं। इनमें सबसे ज्यादा और महत्त्वपूर्ण स्मारक सांची में पाये गये हैं। सांची भिलसा से दक्षिण-पश्चिम की ओर कोई 7 मील दूर है। सेन्द्रल रेलवे की मुख्य लाइन पर यह भोपाल और भिलसा स्टेशनों के बीच पड़ता है। भिलसा बेस और बेतवा के संगम पर बसा है। इसका प्राचीन नाम विदिशा है जो पूर्वी-मालवा की राजधानी थी। सांची (प्राचीन कनखेड़) इसी के अन्तर्गत था। गुप्त सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय के सांची लेख के अनुसार चौथी शती के आस-पास इसका नाम काकनादबोत भी मिलता है।

समय व इतिहास

सांची का प्रारम्भिक इतिहास तीसरी शती ई०पू० से मिलता है, जब कि युवराज अशोक उज्जैन का शासक था। महावंश के अनुसार अशोक ने विदिशा के नगर सेठ की पुत्री देवी से विवाह किया था जिससे दो पुत्र-उज्जेनिय और महेन्द्र तथा एक पुत्री संघमित्रा उत्पन्न हुई थी। देवी विदिशा की होने के कारण विदिशा देवी शाक्यकुमारी कहलाती थी। महेन्द्र और संघमित्रा अपनी युवावस्था में बौद्ध धर्म का प्रचार करने लंका चले गये थे। देवी कट्टर बौद्ध धर्मावलम्बी थी। उसी की प्रेरणा से विदिशागिरि पर उसकी पूजा के लिए स्तूप बनवाया गया। बाद में भिक्षुओं के रहने के लिए यहाँ एक विहार भी बनवाया गया। अशोक ने बाद में और भी बहुत से स्मारक यहाँ बनवाये। यहाँ की खुदाई में अभी तक अशोक का केवल एक स्तम्भ मिला है, जिस पर उसका लघु लेख खुदा है। लेख से ज्ञात होता है कि अशोक के समय में यहाँ एक बहुत ही बड़ा और महत्त्वपूर्ण विहार था। सम्राट को डर था कि इस संघ में कहीं फूट न पड़ जाय और इसी कारण इस लेख में भिक्षु और भिक्षुणियों को संघ में किसी तरह की फूट डालने के विरुद्ध चेतावनी दी गयी है। अशोक का यह स्तम्भ पहले 40 फीट था, लेकिन अब इसके टुकड़े ही रह गये हैं। स्तम्भ के ऊपर चार सुन्दर सिंहों की मूर्तियाँ थीं, लेकिन अब बहुत ही नष्टप्राय हालत में अलग से पड़ी हुई हैं। फिर भी इनकी आँखों, पैरों की फड़कती हुइ नसों आदि का चित्रण भारतीय स्थापत्य कला का बहुत ही उत्तम नमूना है। इसका प्रत्येक भाग बहुत ही सुन्दरता से तराशा गया है। स्तम्भ आदि की पालिश आज भी जगमगाती है। सबसे आश्चर्य की बात तो यह है कि इस विशालकाय स्तम्भ को पाटलिपुत्र से लाया गया और फिर इस ऊँची जगह पर इसको खड़ा किया गया था। उस काल के शिल्प विशारदों की प्रज्ञता प्रशंसनीय है। अशोक के बाद यहाँ शुंगों ने अशोक के स्तूप पर दोहरी शिलायें लगवायीं। इनके साथ ही स्तम्भ संख्या 25, बड़े स्तूप का आंगन वाला परिक्रमा पथ और दूसरे और तीसरे स्तूप इसी काल में बने। इस काल की मूर्तियों में विशेष सजीवता दिखाई नहीं पड़ती है। मूर्तियाँ अकड़ी-झकड़ी सी लगती हैं। मूर्तियों का चित्रण चिपटा और कम उभारदार है। इस समय तक बुद्ध की मूर्तियाँ बननी आरम्भ नहीं हुई थीं। इसके बदले पूजा के लिये सांकेतिक चिन्हों का प्रयोग होता था।

ई0पू0 77 के लगभग आंध्रों ने पूर्वी मालवा पर अधिकार कर लिया था। इनके समय में शिल्प कला का पूर्णतया विकास हुआ। भारतीय कला के उत्कृष्ट नमूने इसी काल के हैं। पश्चिमी भारत में मिले स्मारकों में सबसे प्रसिद्ध बड़े स्तूप के चारों तोरण हैं। इसी के आस-पास मिले कुछ शिलापट्ट और तीसरे स्तूप का तोरण आंध्र काल के ही हैं। आंध्र नरेश शतकर्णि का, बड़े स्तूप के दक्षिणी द्वार पर खुदा एक लेख इन तोरणों को प्रथम शती ई०पू० में होना प्रकट करता है। तोरण विविध प्रकार की मूर्तियों और शिल्पकला के नमूनों से अलंकृत है। आकृतियाँ पूर्णतया सजीव और प्राकृतिक हैं। इन पर बने कुछ उड़ते जानवरों तथा कुछ फूलों की शैली इन कला-कुशल शिल्पकारों किया जान पड़ता है। पत्थरों के रूप में बौद्ध धर्म की पूर्ण कथा यहाँ खुदी मिलती है।

आंध्रों के बाद पूर्वी मालवा पर क्षहरातों और बाद में पश्चिमी क्षत्रपों का राज्य हुआ। क्षत्रप कुशानों के अधीन थे। क्षत्रपों के समय की कुछ मूर्तियाँ यहाँ मिली हैं। यह सब ही मथुरा शैली पर बनी हैं। एक मूर्ति पर कुशान सम्राट वासिष्क के राज्य वर्ष 28 का लेख भी मिला है। इसी काल के कुछ सिक्के भी यहाँ मिले हैं। सम्पूर्ण मालवा पर सर्वप्रथम चन्द्रगुप्त द्वितीय का अधिकार हुआ। उसके समय गुप्त संवत् 93 (ई० सन् 412-13) का बड़े स्तूप की चहारदीवारी पर एक लेख भी हैं। गुप्तों का राज्य पश्चिमी मालवा पर ई० सन् 480 तक रहा जबकि हूणों ने उसको विजय कर लिया, लेकिन पूर्वी मालवा पर गुप्तों का राज्य ई० सन् 500 तक बना रहा जबकि उस पर भी तोरमाण ने अधिकार कर लिया। हूणों की विजय भी स्थायी न रही। थानेश्वर के बैस राजा हर्षवर्धन ने सातवीं शती के आरम्भ में इसको विजय कर लिया और अपने साम्राज्य में मिला लिया। गुप्त तथा उसके बाद के समय के स्मारक ज्यादातर सांची पहाड़ी की ऊपरी सतह पर मिले हैं। इनकी वही शैली है, जैसी कि हम उत्तरी भारत के स्मारकों में पाते हैं। सब ही मूर्तियाँ पूर्णतथा सजीव और कलापूर्ण हैं। मूर्तियों के अलंकरण में चमत्कार और कौशल का पूर्ण परिचय मिलता है। गुप्त सम्राट् हिन्दू धर्मावलंबी थे। अतः स्तूपों की जगह मन्दिरों ने ली। मूर्तिपूजा का आरम्भ पहली शती से ही आरम्भ हो गया था। सांची में बुद्ध की मूर्ति इसी प्रकार के मन्दिरों में मिली है। बौद्धों के ये चैत्य पूर्णतया हिन्दू शैली पर बने हुए हैं। मन्दिरों का ऐसा बाह्य अलंकरण तक इनमें पाया जाता है, जो बौद्ध मन्दिरों में नहीं पाया जाना चाहिये। मूर्तियों में पूर्णतया सुडौलता और अवयवसंगति है। यह सुन्दरता इसके पहले की मूर्तियों में नहीं है। कला और विचारों का इनमें पूर्णतया मिश्रण है।

हर्ष के बाद का सांची का इतिहास अन्धकारमय है। सांची मध्यकालीन युग में कनौज के मिहिर भोज, मालवा के परमारों, अनहिलवाड़ा (पाटन) के चालुक्यों (सोलंकियों) आदि के अधिकार में रहा। इस काल के बहुत स्तूप और मूर्तियाँ मिली हैं। बौद्ध धर्म और स्थापत्य कला की अवनति इनमें पूर्णतया टपकती हैं। 11वीं शती के लगभग बने एक बौद्ध मन्दिर में हिन्दू शैली का काफी प्रभाव पड़ा दिखाई देता है। कलाकार यहाँ इस समय कला से केवल खिलवाड करते प्रतीत होते हैं। इनमें गुप्तकाल जैसी सुडौलता और अवयव संगति नहीं है। 13वीं शती के लगभग सांची बहुत ही मामूली-सा गाँव रह गया। इसी समय के लगभग मुसलमानों के यहाँ आक्रमण हुये, जिन्होंने यहाँ के धार्मिक स्थानों को तोड़-फोड़ डाला। सन् 1818 में जनरल टेलर ने सर्वप्रथम इसकी सुन्दरता का अनुमान कर, इसके प्राचीन गौरव को प्रकाश में लाने का प्रयत्न किया। इसके बाद तो इस पर कई लेख लिखे गये, जिससे लोगों का ध्यान उधर गया। सन् 1822 ई0 में सर्वप्रथम कैप्टन जानसन ने बड़े स्तूप की खुदाई आरम्भ की। इसके बाद सन् 1851 में कनिंघम ने भी यहाँ खुदाई का दुस्साहस किया। इन खुदाइयों में यह स्मारक और भी ज्यादा नष्ट हो गये। सन् 1912 और 1919 में सर जॉन मार्शल ने सुव्यवस्थित और व्यापक रूप से इसकी खुदाई की। इनके प्रयत्न से बहुत-सी भूगर्भस्थ वस्तुएँ प्रकाश में आईं थी जो यहाँ के संग्रहालय में रखी हुई हैं। अन्य स्मारकों की भी मरम्मत करवाई गई। इस प्रकार साँची पुनः कला प्रेमियों का एक दर्शनीय तीर्थ स्थान हो गया। आधुनिक ढंग पर एक बौद्ध मन्दिर 1950 ई० में बनाया गया और पुनः सांची को बौद्धायन का केन्द्र बनाने की परम्परा शुरू हुई।

सांची का बड़ा स्तूप

सांची का बड़ा स्तूप सबसे पहले अशोक या विदिशा के प्रारम्भिक शाक्यों के समय में बना था। मूल स्तूप पर दोहरी शिलाएँ बाद में आंध्रों के समय लगाई गई थीं जबकि इसके तोरण भी बने थे। प्रारम्भिक स्तूप के मौर्यकाल में बनने की साक्षी उसकी ईंटें देती हैं। यह ईंटें दूसरे मौर्य कालीन स्मारकों की ईंटों की तरह 16″ × 10″ x 3″ नाप की हैं। ऊपरी तथा नीचे वाली वेदिका भी इसी काल में बनी। मूल स्तूप की ऊँचाई आदि के विषय में कुछ भी कहा नहीं जा सकता, क्योंकि वह दूसरी शिलाओं से पूर्णतया ढका हुआ है। वर्तमान स्तूप का तले का व्यास 120′ तथा ऊंचाई 54′ है। स्तूप के चारों ओर ऊँची मेधि है, जो प्रदक्षिणा पथ का काम देती है। इस मेधि पर पहुंचने के लिए दोहरी सोपान है। तले पर दूसरा प्रदक्षिणापथ है। दोनों प्रदक्षिणापथों को धेरै वेदिकाएँ हैं। ये वेदिकाएँ किसी लकड़ी के कटे नमूने की नकल पर बनी हैं। इन वेदिकाओं पर इनके दान देने वालों के नाम आदि अंकित हैं। बहुत से लेख प्रारम्भिक ब्राह्मी या गुप्ता ब्राह्मी लिपि में लिखे हुए हैं। प्रदक्षिणापथ की फर्श में लगी शिलाओं पर भी दान देने वालों के नाम लिखे हैं। ऊपरी वेदिका कलात्मक चित्रणों से अंकित है। वेदिका स्तूप के चारों ओर चहारदीवारी का काम देती है, जिसके निम्नलिखित चार भाग होते हैं-

(1) कुछ अष्टकोणी सीधे स्तम्भ।।

(2) दो खम्भों के बीच लगने वाला आड़ा पत्थर जो सूची कहलाता है।

(3) दो सीधे स्तम्भों को जोड़ने वाला उन पर रखा सिर दल जो उष्णीय कहलाता है।

(4) पिण्डिका जिसमें सीधे खंभे फंसे रहते हैं।

स्तूप अर्द्ध गोलाकार है, जो ऊपर जाकर मिल जाता है। इसको खंड कहते हैं। शिखर पर छत्र है, जिसको चौकोर वेदिका घेरे हैं। छत्र के दण्ड को सम्हालने के लिए एक चौकोर हर्मिका है। इस स्तूप की हर्मिका एक बड़ा सन्दूक है, जो 18 फीट ऊँचा है, जिसमें कभी भगवान् बुद्ध के अवशेष रखे थे।

स्तूप के चारों दिशाओं में चार बड़े तोरण हैं, जिन पर अनेक दृश्यों का सुन्दरता से अंकन किया गया है। चारों तोरण लगभग एक ही समय आंध्र काल के हैं, जैसा कि पश्चिमी और दक्षिणी तोरण पर एक ही दानी बलमित्र के नाम से ज्ञात होता है। प्रत्येक तोरण दो चौकोर स्तम्भों से बना है जो 14, 14 फीट ऊँचे हैं। इन पर शिखर भी हैं। शिखर चौमुखे हाथी, सिंह, बौने आदि से बने हैं। कुछ कमानीदार तेहरी बडेरिया का भार लिये हैं। इनके सिरे गोल हैं। बडेरियों को एक दूसरे से अलग करने के लिये चार चौकोर शिलायें हैं। इनके बीच की जगह में भाँति-भाँति के दृश्य दिखाये गये हैं। तोरण के शिखर पर बौद्ध चिन्ह, धर्म चक्र, त्रिरत्न, सिंह, हाथी आदि बने हैं। तोरण के दोनों स्तम्भ और बडेरियों आदि जातक कथाएँ, बुद्ध के जीवन की मुख्य घटनाएँ अंकित हैं। यह सब ही उभरे चित्र हैं, जिनमें पूर्ण सजीवता और बारीकी का चित्रण है। प्रत्येक बडेरी का भार उसके नीचे वाली बडेरी सम्हाले है। सबसे नीचे वाली बडेरी का भार यानी तीनों का भार तोरण स्तम्भों पर के बने चौमुखे हाथियों या बौनों तथा सालभजिंका पर है। तोरणों पर दान देने वालों के नाम अंकित हैं, लेकिन इन पर भरहुत की तरह मूर्तियों के विषय निर्देशक लेख नहीं हैं। इस कारण इनका विषय पहचानने में बढ़ी कठिनाई पड़ती है।

तोरणों का चित्रण

सांची के तोरण और वेदिकायें भरहुत की तरह यद्यपि पत्थर की रचनायें हैं, फिर भी इनकी बनावट पूर्णतया काठ के नमूनों की नकल पर है। बहुत-सी मूर्तियाँ तथा दृश्य दोहराये गये हैं, लेकिन फिर भी विभिन्न तोरणों में काफी विभिन्नता है। यहाँ की ज्यादातर मूर्तियों का बुद्ध के जीवन से सामान्य होते हुए भी इनमें कहीं बुद्ध की मूर्ति नहीं पायी जाती है। इस काल तक भगवान् बुद्ध की मूर्ति पूजा नहीं होती थी, इस कारण बुद्ध के दर्शन के लिए उनके सांकेतिक चिन्हों का उपयोग किया जाता था। यहाँ भी भरहुत तथा अन्य ईसा के पूर्वकालीन स्मारकों की तरह बुद्ध की उपस्थिति सांकेतिक चिन्हों बोधिवृक्ष, धर्मचक्र, आसन आदि से की गई है। बुद्ध के जीवन की मुख्य पांचों घटनाओं—जन्म, महल से अभियान, निर्वाण, प्रथम उपदेश और परिनिर्वाण को चारों तोरणों पर बहुतायत से दिखाया गया है। जन्म का दृश्य कमल या दो नामों के मध्य कमलासीन माया देवी द्वारा दिखाय गया है। दोनों ओर से हाथी उसके सिर पर पानी गिरा रहे हैं। किसी में वह खड़ी दिखाई गई है। प्राचीन बौद्धिक विचारों के अनुसार बुद्ध की प्रतिमा इनमें नहीं दिखायी गई है। बुद्ध घोड़े पर कपिलवस्तु को छोड़ते भी दिखाये गये हैं। एक ओर शहर है, घोड़ा भागा जा रहा है। बुद्ध के बदले घोड़े पर छत्र बना है। घोड़े की टापों की आवाज को रोकने के लिए देवगण टाप को हाथों पर सम्हाल रहे हैं। बुद्ध का निर्वाण प्राप्त करना पीपल वृक्ष के नीचे रखे सिंहासन से दिखाया गया है। जिसमें कुछ लोगों को पूजा करते दिखाया गया है। बुद्ध अपना प्रथम उपदेश सारनाथ में देते सिंहासन पर रखे धर्मचक्र द्वारा दिखाये गये हैं। मृगदाव को दिखाने के लिए दो मृग खड़े हैं। बुद्ध की मृत्यु का दृश्य स्तूप के द्वारा दिखाया गया है, जिसकी कुछ लोग पूजा कर रहे हैं।

इन दृश्यों के अलावा अपने सहायकों के साथ अन्य दृश्य भी बहुधा दोहराये गये हैं। बहुत से पशु–बैल, घोड़ा, सिंह, हाथी, बकरी, ऊँट आदि तथा पक्षी-मोर, हंस आदि की भी मूर्तियाँ हैं। नाना प्रकार की बेलें, कमल आदि भी बहुत ही सुन्दरता व कलापूर्ण ढंग से दिखाई गई हैं। प्रदक्षिणा पथ पहुंचने के पहले पूर्वी तोरण पर अशोक द्वारा बोधिवृक्ष की पूजा दिखायी गई है। राजा अपने राजसीठाठ के साथ रानी सहित हाथी से उतर रहा है। एक दृश्य में शुद्धोधन अपने पुत्र का आदर सत्कार कर रहे हैं। राजा बिम्बिसार भी एक दूसरे दृश्य में राजगृह से बुद्ध के दर्शन के लिए जा रहे हैं। खम्भों पर सातों बुद्धों को अनेक बोधिवृक्षों के नीचे रखे सिंहासनों द्वारा सांकेतिक रूप दिखाया गया है। उनके स्तूप भी बने हैं, जिनकी पूजा की जा रही है। एक दृश्य में बुद्ध नैरंजना नदी को पार कर रहे हैं। दक्षिणी तोरण पर निम्नलिखित दृश्य दिखाये गये हैं-

(1) अशोक रामग्राम (नेपाल तराई) के स्तूप के दर्शन कर रहा है।

(2) सातों बुद्धों के लिए तीन स्तूप और चार बोधिवृक्ष बने हैं।

(3) बुद्ध के अवशेषों के लिए सात राज्यों का कुशीनारा के मल्लों से युद्ध हुआ था। इस दृश्य में कुशीनारा का घेरा पड़ा है। दूसरी तरफ अवशेषों को जीत कर ले जा रहे हैं।

(4) अशोक को अपनी रानियों के साथ मृगदाव में दिखाया गया है।

(5) अशोक बोधगया में भी रानियों के साथ है।

(6) छदन्त जातक। हाथियों का गिरोह दिखाया गया है।

इस तोरण के दृश्य सबसे सुन्दर हैं। जैसी कुशलता और कला इसमें दिखाई पड़ती है, वैसी और किमी तोरण में नहीं है। पश्चिमी तोरण भी कलापूर्ण है। इसमें चारों तोरणों के सामान्य दृष्यों के अलावा निम्नलिखित दृश्य देखने योग्य हैं-

(1) कुशीनारा के मल्ल नेता हाथी पर बुद्ध के अवशेष ले जा रहे हैं। नगर द्वार के पास साल वृक्ष दिखाया गया है, जिसके नीचे बुद्ध ने परिनिर्वाण प्राप्त किया था। मल्ल लोग इस अवसर पर हर्ष मना रहे हैं।

(2) इस दृश्य में अवशेषों के लिए युद्ध हो रहा है। प्रत्येक राज्य के छत्र दिखाये गये हैं, जो अपने-अपने राज्य के सूचक हैं।

(3) छदन्त, महाकवि और श्याम जातक की कथा के दृश्य।

(4) बुद्ध का सिंहासन पीपल के वृक्ष के नीचे है। मार की सेना हार कर भाग रही है। देवता इस विषय पर हर्ष मना रहे हैं।

सबसे आखिरी तोरण के उत्तर का, जहाँ कि यात्रा की परिक्रमा समाप्त होती है। इस द्वार के अंकित दृश्य दूसरे तोरणों के दृश्य की भाँति कलापूर्ण नहीं है। इस पर निम्नलिखित दृश्य दिखाये गये हैं-

(1) सातों बुद्धों के सिंहासन वृक्ष के नीचे दिखाये गये हैं। दूसरे पास के दृश्य में पाँच स्तूप और दो वृक्ष हैं।

(2) मार अपनी कन्याओं और सेना की सहायता से बुद्ध को विचलित करने के प्रयत्न में है। बुद्ध बोधिवृक्ष के नीचे वज्रासन में बैठे हैं।

(3) अलम्बुसा वेस्सन्तर और छदन्त जातक के दृश्य।

(4) बुद्ध अपनी माता माया देवी को स्वर्ग में उपदेश दे संकाश्य में उतर रहे हैं।

(5) राजा शुद्धोधन बुद्ध से कपिलवस्तु के बाहर मिल कर उन्हें तथा उनके संघ को एक उपवन दान कर रहे हैं।

(6) एक बन्दर बुद्ध को शहद भरा प्याला दे रहा है।

(7) अनाथ पिंडक सेठ बुद्ध को जेतवन दान कर रहा है। सोने के सिक्के चारों ओर फैले हैं।

(8) कौशल नरेश प्रसेनजित बुद्ध से मिलने जा रहा है।

(9) बुद्ध श्रावस्ती में अपना अलौकिक चमत्कार दिखा रहे हैं।

सांची के अन्य स्मारक

सांची पहाड़ी पर इस बड़े स्तूप के चारों ओर बहुत से स्तूप हैं। यह स्तूप बाद में बड़े स्तूप की खुदाई के समय साफ कर दिये गये। अब बहुत ही कम स्तूप रह गये हैं। इन स्तूपों में बहुत से गुप्तकाल के भी हैं। एक स्तूप में सारिपुत्र और महामोगालान के अवशेष थे। इस स्तूप का केवल एक ही तोरण है। इस तोरण के अलंकरण की शैली बड़े स्तूप के तोरणों के समान ही है। इसके बनने का समय भी लगभग यही था।

दूसरे स्तूप इतने महत्त्व के नहीं हैं। स्तूप संख्या 12 में एक चौकी पर लेख मिला है जिससे ज्ञात होता है कि यहाँ कुशाण काल में बोधिसत्व मैत्रेय की मूर्ति स्थापित की गई थी। मूर्ति का ऊपरी भाग गायब है।

इन स्तूपों के अलावा कुछ स्तम्भ और मन्दिर भी यहाँ हैं। स्तम्भ तो काफी ज्यादा संख्या में पाये गए हैं। सबसे मुख्य और महत्त्व का स्तंभ अशोक की लाट है। इस भाग पर चार बैठे सिहों  की मूर्तियाँ थीं। दूसरा स्तम्भ ई०पू० दूसरी शती का है, जैसा कि इसकी शैली बतला रही है। यह स्तम्भ 15 फीट। इंच ऊँचा है। इसके शिरोभाग पर भी शायद सिंह प्रतिमा थी, लेकिन अब वह गायब है। इस पर बाद में एक लेख भी अंकित किया गया था। तीसरा स्तम्भ गुप्तकाल का है. जैसा कि उस अंकित लेख की लिपि से ज्ञात होता है। यह स्तम्भ 22 फीट 6 इंच ऊंचा है। इस पर सिंह शिखर और धर्मचक्र है। इसमें वह सुन्दरता नहीं, जो मौर्य स्तम्भों में है और न इसमें वह सजीवता भी है। उत्तरी तोरण के पास ही गुप्तकाल का एक और विशालकाय स्तम्भ है। इनका तला चौकोर है। स्तम्भ में मौर्यकालीन स्तम्भों की तरह पालिश भी नहीं। पूर्व तोरण के पास ही एक ओर स्तम्भ के टुकड़े मिले हैं। एक परगहे का तथा दूसरा शिखर का टुकड़ा है। यह भी गुप्तकाल के ही हैं।

बड़े स्तूप के दक्षिणी तोरण के सामने नीचे की ओर एक मन्दिर है। इसका नक्शा कार्ली के चैत्यों से काफी मिलता है। मन्दिर के स्तंभों को देखने से यह सातवीं शती का मालूम होता है। इसी काल की यहाँ कुछ मूर्तियाँ भी मिली हैं। एक मूर्ति पर भूमि स्पर्श मुद्रा में कमलासीन बुद्ध दिखाई देते हैं। इस मन्दिर के पास एक और पाँचवीं शती का यूनानी शैली का मन्दिर है। कमलासीन बुद्ध की मूर्ति है। यह भी सातवीं शती के लगभग बना। मन्दिर के प्लेटफार्म (चबूतरे) की खुदाई में यहाँ से एक 76″ की नग्न मूर्ति मिली है। यह मूर्ति पाँचवीं शती के लगभग बनी होगी।

सांची पहाड़ी के पश्चिमी उतार की तरफ एक स्तूप है। इस स्तूप में मौर्यकालीन बौद्ध अर्हतों की अस्थियाँ मिली है। ये सब चार सन्दूकों में प्राप्त हुई है। इनके ढक्कनों पर अर्हतों के नाम अंकित हैं। इन्होंने अशोक की बुलवायी हुई तीसरी बौद्ध सभा में भाग लिया था और बाद में धर्म प्रचारार्थ विभिन्न प्रदेशों को गये थे। अतः यह स्तूप अशोक की मृत्यु के बाद ही बना होगा। यहाँ से मिली वेदिकाओं पर भी बुद्ध के जीवन की चारों मुख्य घटनायें दर्शायी गयी हैं, लेकिन इनमें पहले जैसी सुन्दरता और सजीवता नहीं है। इनके अलावा नागों, यक्षिणियों तथा विविध पशुओं प्राकृतिक और अप्राकृतिक की मूर्तियाँ भी हैं।

समीक्षा

सांची की कला का मुख्य विषय बौद्ध धर्म का प्रचार है। यों तो उसमें धर्म निरपेक्ष तत्वों का समावेश अवश्य है, परन्तु कलाकार का मुख्य ध्येय अपने देवता के विश्वास, चरित्र, सिद्धान्त वह आख्यायिकाओं का चित्रण करना था। कला के क्षेत्र में सांची के स्तूप भरहुत के स्तूपों की तरह महत्त्वपूर्ण हैं। बुद्ध की मूर्तिकला का यहाँ पर भी अभाव रहा। भरहुत की तरह सांची मुसलमानी-युग के विनाशकारी तत्वों से बचा रहा। 19वीं शती के मध्यकालीन अर्द्धशिक्षित पुरातत्व प्रेमियों के कारण सांची की कला-कृतियों का नुकसान हुआ, परन्तु शीघ्र ही भारत सरकार द्वारा संरक्षण मिलने पर भारत की महानता का सूचक बन गया। एक नया विहार आधुनिक कला के ढंग पर सन् 1950 ई0 में सांची में बनाया गया है। आज सांची पुरातत्व पुनर्निर्माण का विजय स्तम्भ है।

इतिहास – महत्वपूर्ण लिंक

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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