इतिहास / History

कुषाण वंश का इतिहास | कुषाण कौन थे? | भारत में प्रमुख कुषाण शासक | कनिष्क का राजत्व काल

कुषाण वंश का इतिहास | कुषाण कौन थे? | भारत में प्रमुख कुषाण शासक | कनिष्क का राजत्व काल

कुषाण वंश का इतिहास

इतिहास के अनेक विवादग्रस्त प्रश्नों की भाँति कुषाण जाति का उद्गम एवं मूल निवास स्थान भी एक विवादग्रस्त प्रश्न है। इतना निश्चित है कि भारत पर आक्रमण करने वाली विदेशी जातियों में कुषाण भी एक थे। चीनी इतिहासकारों के अनुसार कुषाण यूची जाति की ही एक शाखा थे। ये लोग खानाबदोश थे तथा आजकल के चीन के सीमान्त प्रदेशों में रहते  थे। हूण जाति से परास्त होकर ये लोग तिब्बत तथा बैक्ट्रिया में आकर बस गये थे। बैक्ट्रिया में आकर बसने वाले यूची बाद में पाँच भागों में बँट गये थे। ये पाँच भाग थे-(1) हियुमी, (2) चुआग-मी, (3) कुएई-चुआंग, (4) ही-तुम, (5) कारुओफ।

ईसवी शताब्दी के आरंभ में कुएई-शुआंग का राज्य कुषाण नामक सरदार को मिला। उसने अपनी शेष चार शाखाओं (राज्यों) को पराजित कर अपने अधीन कर लिया और एक विशाल राज्य का निर्माण किया। कुषाण की अधीनता में हो जाने पर समस्त यूची जाति को कुषाण कहा जाने लगा लेकिन डॉ० बैजनाथ पुरी ने अपनी पुस्तक ‘इण्डिया अण्डर द कुषान्स” में लिखा है कि, ‘कुषाण प्राचीन शक कुल की ही एक शाखा के थे, उन्हें तुखारी या तुखार कहते थे। वे बैक्ट्रिया के निकट और उसके दक्षिण में रहते थे। जब यहूची लोग इस भाग में आये, तो कुछ समय के लिए यहूचियों से उनका सम्बन्ध स्थापित हुआ, किन्तु बाद में उन्होंने अपने आपको अलग कर लिया। उन्होंने अपनी जाति को संगठित किया और दक्षिण पूर्व की ओर बढ़े।” परन्तु अधिकांश विद्वान डॉ० पुरी के मत से सहमत नहीं हैं और वे कुषाणों को यूची जाति की ही एक शाखा मानते हैं। उनमें शकों का रक्त अवश्य मिश्रित हो गया था। जिस कुषाण शासक ने विशाल राज्य का निर्माण किया था। उसका नाम कुजुल कैडफिसिज (Kujula Kahdphises) था। कुजुल केडफिसिज ने अन्तिम यूनानी सम्राट को पराजित किया। उसने गान्धार प्रदेश पर राज्य कर रहे पल्लवों को पराजित कर वहाँ अपना अधिकार स्थापित कर लिया।

भारत में प्रमुख कुषाण शासक

(1) कुजुल केडफिसिज-

केडफिसिज प्रथम या कुजुल केडफिसिज भारत में पहला कुषाण शासक था। डॉ० वी०ए० स्मिथ ने लिखा है कि केडफिसिज प्रथम ने की-पिन और काबुल प्रदेश पर अपना राज्य स्थापित किया था। उसने अपने साम्राज्य को सुदृढ़ बनाने के साथ-साथ उसका विस्तार भी किया। उसने हिन्दूकुश पर्वत पार कर पार्थियन प्रदेश पर अधिकार कर लिया। उसने काबुल की घाटी तथा गान्धार प्रदेश पर भी अधिकार कर लिया। उसने ‘महाराज’, ‘राजाधिराज’, ‘महन्त’ आदि की उपाधियाँ धारण कीं। 80 वर्ष की आयु में उसका देहान्त हो गया।

(2) विम केडफिसिज (Weme Kahdphises)- 

कुजुल केडफिसिज के बाद कुषाणों का राजा विम केडफिसिज बना। वह भी अपने पिता कुजुल केडफिसिज की तरह एक साहसी, वीर एवं महत्वाकाँक्षी था। उसने भी अपने साम्राज्य का और विस्तार किया। वह तक्षशिला तथा पंजाब पर अधिकार करके मथुरा तक बढ़ गया। इस प्रकार उसने पंजाब, सिन्ध, काश्मीर तथा उत्तर प्रदेश के कुछ भागों पर अधिकार कर लिया। डॉ० विमलचन्द्र पाण्डेय का मत है कि “विम केडफिसिज ने एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की थी जो पार्थिया की सीमा से लेकर मथुरा तक अवश्य फैला हुआ था।” विम केडफिसिज ने महाराज, राजाधिराज, महेश्वर आदि की उपाधियाँ धारण कीं। उसके सिक्कों से ज्ञात होता है कि वह शैव धर्मावलम्बी था। डॉ० वी०ए० स्मिथ ने लिखा है कि विम केडफिसिज ने अपने पिता द्वारा आरम्भ किए गए उत्तरी भारत के विजय के कार्य को पूरा किया। डॉ० बी०एन० पुरी का ऐसा मत है कि विम केडफिसिज के समय में कुषाण साम्राज्य पूर्व में वाराणसी तक और पार्थिया के सीमान्त तक फैल गया था।

(3) कनिष्क प्रथम-

विम के बाद कनिष्क कुषाण वंश का शासक हुआ। कुषाण वंश का वह सबसे अधिक प्रतापी और शक्तिशाली शासक था। कनिष्क कौन था? विम के साथ उसके क्या सम्बन्ध थे? वह कब सिंहासन पर बैठा? यह सभी विवादपूर्ण प्रश्न है। निश्चित नहीं कहा जा सकता कि कनिष्क विम का उत्तराधिकारी था या उसका गवर्नर था। इतना अवश्य निश्चित है कि कनिष्क कुषाण वंश का शासक था तथा सभी कुषाण शासकों में वह सर्वाधिक पराक्रमी, महान् विजेता एवं एक कुशल प्रशासक था। कनिष्क एक महत्त्वाकाँक्षी विजेता था और बौद्ध धर्म स्वीकार करने के बाद उसने युद्धों द्वारा विजय नीति का त्याग नहीं किया था। अपने पूर्वजों के साम्राज्य को अधिक विस्तृत करने का श्रेय उसी को है। कनिष्क प्रथम के राजत्व काल, उसकी राजधानी तथा उसकी उपलब्धियों का विवेचन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया गया है-

(i) कनिष्क प्रथम का राजत्व काल- यद्यपि कनिष्क के राज्यारोहण के सम्बन्ध में विद्वानों में विवाद है तथापि अधिकांमश विद्वान इस मत से सहमत हैं कि कनिष्क का राज्यारोहण लगभग 78 ई० में हुआ था। उसने कम से कम 23 वर्ष तक शासन किया। इस प्रकार उसकी मृत्यु लगभग 101 ई० के लगभग हुई थी।

(ii) कनिष्क के राज्य की राजधानी- कनिष्क के सिंहासन पर बैठते समय कुषाण साम्राज्य मध्य एशिया, अफगानिस्तान तथा उत्तरी-पश्चिमी भारत में फैला हुआ था। शासन की कुशलता एवं युद्ध की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए उसने पुरुषपुर (आजकल- पेशावर) को अपने साम्राज्य की राजधानी बनाया। वह स्थान उसके साम्राज्य के मध्य में स्थित था।

(iii) कनिष्क की विजयें- कनिष्क एक वीर योद्धा और महान् विजेता था। वह अपने पूर्वजों की भाँति अपने साम्राज्य की सीमाओं का दूर-दूर तक विस्तार करना चाहता था। अतः उसने कुछ ही वर्षों में अपने बाहुबल से एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की। उसकी प्रमुख विजयों का वर्णन निम्नलिखित है-

(अ) कश्मीर- कनिष्क ने कश्मीर को जीतकर अपने साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया। कल्हण की पुस्तक “राजतरंगिणी” के अनुसार कनिष्क ने कश्मीर को जीत लिया और वहाँ अनेक स्मारक बनवाये। उसने कश्मीर में श्रीनगर के निकट “कनिष्कपुर” नामक एक नगर बसाया जो आज भी एक छोटे से गाँव के रूप में विद्यमान है। उसने कश्मीर में बौद्धों की चौथी महासभा आयोजित की और बहुत से विहारों का निर्माण करवाया।

(ब) साकेत और पाटलिपुत्र- बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार कनिष्क ने पाटलिपुत्र पर भी आक्रमण किया और वहाँ के कोटकुल नरेश को पराजित करके उससे युद्ध का हर्जाना माँगा। इस पर कोटकुल-नरेश ने हर्जाने के बदले में कनिष्क को अश्वघोष नामक बौद्ध विद्वान तथा भगवान बुद्ध का जल-पात्र भेंट किये। इन दोनों को पाकर कनिष्क सन्तुष्ट हो गया और वह अपनी राजधानी पुरुषपुर (पेशावर) लौट आया। कनिष्क के समय की कुछ मुद्रायें प्राप्त हुई हैं। जिनसे ज्ञात होता है कि उसका साम्राज्य पाटलिपुत्र तक फैला हुआ था।

(स) पार्थियनों पर विजय- कुषाणों और पार्थियनों में बहुत पहले से शत्रुता चली आ रही थी। कनिष्क के पहले कुजुल केडफिसिस ने पार्थियनों को पराजित किया था। अतः अपनी पराजय का बदला लेने के लिए पार्थियनों ने कनिष्क पर आक्रमण कर दिया, परन्तु उन्हें पराजय का मुँह देखना पड़ा। डॉ० राजबली पाण्डेय का कथन है कि, “जिस समय कनिष्क पूर्वी भारत पर आक्रमण कर रहा था, सम्भवतः उसी समय पार्थिया के राजा ने उसे पर आक्रमण कर दिया। किन्तु कनिष्क ने उसका सफल प्रतिरोध कर उसे पीछे धकेल दिया।

(द) चीन पर विजय- कनिष्क ने चीन के सम्राट के पास अपना एक राजदूत भेजा और माँग की कि चीन की एक राजकुमारी का विवाह सम्राट कनिष्क के साथ कर दिया जाए। चीनी सम्राट ने इसे अपना अपमान समझा और उसने कनिष्क के राजदूत को बन्दी बना लिया। इस पर कनिष्क ने अपने सेनापति को 70 हजार घुड़सवारों के साथ चीन पर आक्रमण के लिए भेजा। दोनों पक्षों में घमासान युद्ध हुआ, जिसमें कनिष्क की सेना की बुरी तरह पराजय हुई। कनिष्क को सन्धि करनी पड़ी जिसके अनुसार उसने चीनी सम्राट को वार्षिक कर देना स्वीकार कर लिया। कुछ समय पश्चात् चीनी सेनापति पान-चाओ की मृत्यु हो गई। इस अवसर का लाभ उठाते हुए कनिष्क ने चीन पर आक्रमण कर दिया और चीनी सेनापति पान-यांग को पराजित कर दिया। इस पराजय के फलस्वरूप चीनी सम्राट को एक सन्धि करनी पड़ी जिसके अनुसार उसे यारकन्द, खोतान और काश्गर के प्रदेश कनिष्क को देने पड़े। एक विजेता के रूप में कनिष्क की यह एक महान् उपलब्धि थी।

(iv) कनिष्क का साम्राज्य विस्तार- कनिष्क के अभिलेखों एवं सिक्कों से ज्ञात होता है कि वह एक विशाल साम्राज्य का स्वामी था। भारत में उसका अधिकार आधुनिक उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तरी पश्चिमी सीमा प्रान्त, कश्मीर तथा भागलपुर राज्य पर था। मथुरा भी उसके राज्य में सम्मिलित था। चीनी साक्ष्यों के अनुसार साकेत और पाटलिपुत्र पर भी उसका अधिकार था। पूर्व में वाराणसी तक उसका साम्राज्य फैला हुआ था। कनिष्क के साम्राज्य में भारत के बाहर अफगानिस्तान, बिलोचिस्तान, बैक्ट्रिया, खोतान, यारकन्द तथा काश्गर सम्मिलित थे। डॉ. विमल चन्द्र पाण्डेय के अनुसार, “कनिष्क का राज्य मध्य एशिया से सारनाथ तक अवश्य विस्तृत था।” डॉ० पी० एल० भार्गव के अनुसार, ‘कनिष्क की विजय सम्बन्धी अनुश्रुतियों और उसके अभिलेखों तथा सिक्कों की प्राप्ति के स्थानों के आधार पर हम कह सकते हैं कि उसका साम्राज्य पश्चिम में खुरासान से पूर्व में बिहार तक और उत्तर में काश्गर तक और दक्षिण में मालवा तक फैला हुआ था। इस विशाल साम्राज्य की राजधानी पुरुषपुर अथवा पेशावर थी।”

(v) कनिष्क की धार्मिक उपलब्धियों या कनिष्क का धर्म और उसकी सहिष्णु धार्मिक नीति या कनिष्क का बौद्ध धर्म को योगदान- कनिष्क चन्द्रगुप्त मौर्य और समुद्रगुप्त की तरह एक महान् विजेता होने के साथ-साथ अशोक और हर्ष की तरह एक महान् धर्म प्रचारक भी था। कनिष्क के धर्म के सम्बन्ध में कुछ मतभेद हैं। कुछ विद्वान उसके बौद्ध होने पर सन्देह करते हैं। कनिष्क के पहले सिक्कों पर यूनानी देवताओं के चित्र अंकित हैं, दूसरों पर ईरानी देवता अग्नि के चित्र अंकित हैं और तीसरे पर गौतम बुद्ध के चित्र भी मिलते हैं। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि पहले वह यूनानी धर्म, फिर ईरानी धर्म और अन्त में बौद्ध धर्म का मानने वाला था। कुछ विद्वानों ने इससे यह निष्कर्ष निकाला है कि कनिष्क अति सहिष्णु शासक था। इसलिए अपने साम्राज्य के विभिन्न धर्म को मानने वालों के देवताओं के चित्र उसके सिक्कों पर अंकित थे। कनिष्क के बौद्ध धर्मों के योगदान को निम्न बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया गया है-

(क) कनिष्क और बौद्ध धर्म- प्रारम्भ में कनिष्क का कोई अन्य धर्म रहा हो, लेकिन मगध-विजय के बाद उसने निश्चित रूप से बौद्ध धर्म अपना लिया था। वहाँ उसे दार्शनिक अश्वघोष मिला था, जिसके उपदेशों से प्रभावित होकर उसे वह अपने साथ ले गया था। बौद्ध अनुश्रुतियों से भी कनिष्क द्वारा बौद्ध धर्म ग्रहण करने की पुष्टि होती है।

(ब) कनिष्क द्वारा बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार- बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए, अशोक की तरह कनिष्क ने भी अथक प्रयत्न किये। अशोक की मृत्यु के बाद शुंग काल में ब्राह्मण धर्म की तीव्रता से प्रगति हुई थी और ऐसा लगने लगा था कि बौद्ध धर्म भारत से लुप्त हो जायेगा। ऐसे समय में बौद्ध धर्म को नवजीवन देने का श्रेय कनिष्क को ही दिया जाता है। उसने कई विहारों और स्तूपों का निर्माण कराया, पुराने मठों की मरम्मत कराई तथा बौद्ध संस्थाओं और भिक्षुओं को मुक्त हस्त से दान दिया। अशोक और कनिष्क में यह अन्तर अवश्य था कि बौद्ध हो जाने के बाद अशोक ने अहिंसा अपनाकर युद्ध बन्द कर दिये, लेकिन कनिष्क ने बौद्ध हो जाने पर भी युद्धों को साम्राज्य की रक्षा और विस्तार के लिए नहीं त्यागा। कनिष्क ने विदेशों में बौद्ध धर्म का प्रचार करने के लिए धर्म-प्रचार भेजे । परिणामस्वरूप चीन, जापान व तिब्बत आदि देशों में बौद्ध धर्म का काफी प्रचार हुआ। इस प्रकार कनिष्क ने बौद्ध धर्म के प्रसार के लिए अथक्, प्रयास किए। इसलिए कनिष्क को इतिहास में द्वितीय अशोक कहा जाता है।

डॉ० हेमचन्द्र राय चौधरी ने ठीक ही कहा है, “कनिष्क की ख्याति उसकी विजयों पर उतनी आधारित नहीं है, जितनी शाक्यमुनि (महात्मा बुद्ध) के धर्म को संरक्षण प्रदान करने के कारण है।’’

(ग) चतुर्थ बौद्ध संगीति- बौद्ध धर्म से सम्बन्धित कनिष्क के काल की एक प्रसिद्ध और महत्त्वपूर्ण घटना चतुर्थ बौद्ध संगीति का आयोजन है। इस समय तक बौद्ध धर्म पर्याप्त प्राचीन हो गया था और उसमें कुछ मतभेद, दोष और शंकायें उत्पन्न हो गई थीं। इन पर विचार करने और समाधान खोजने के लिए कनिष्क ने कश्मीर के कुण्डल-वन नामक स्थान पर बौद्ध संगीति का आयोजन किया। इस संगीति में लगभग 500 बौद्ध भिक्षु और विद्वान् सम्मिलित हुए। लगभग 6 माह तक यह सम्मेलन चला। वसुमित्र व अश्वघोष इस संगीति के क्रमशः सभापति और उप-सभापति थे। सभा का समस्त कार्य संस्कृत भाषा में सम्पन्न हुआ।

डॉ० हेमचन्द्रराय चौधरी के शब्दों में, “कुषाण-युग महान् साहित्यिक क्रियाशीलता का युग था। इस युग की क्रियाशीलता की एक प्रमुख विशेषता यह है कि इसका रूप एकांगी नहीं था। इस समय केवल विशुद्ध साहित्यिक ग्रन्थों की रचना नहीं हुई, अपितु दर्शनशास्त्र तथा चिकित्साशास्त्र पर भी ग्रन्थ लिखे गये। अश्वघोष नागार्जुन, तथा चरक इस युग की साहित्यिक क्रियाशीलता को विभिन्नि रूपों में अभिव्यक्त करते हैं।”

कनिष्क के उत्तराधिकारी- कनिष्क की मृत्यु के पश्चात् वसिष्क, हुविष्क तथा कनिष्क द्वितीय नाम के शासक कुषाण वंश में हुए, परन्तु इन राजाओं के विषय में अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। कुषाण वंश का अन्तिम शासक वासुदेव था जिसका राज्य केवल मथुरा और उसके आसपास के क्षेत्र में ही था। वासुदेव के काल में ही कुषाण साम्राज्य छिन्न-भिन्न होकर समाप्त हो गया। सम्राट कनिष्क प्रथम के उत्तराधिकारियों की अयोग्यता ही कुषाण वंश के पतन का मुख्य कारण थी। इस प्रकार कुषाण साम्राज्य भारतीय भूमि से अदृश्य हो गया।

कनिष्क प्रथम का मूल्यांकन- हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि कनिष्क प्रथम एक महान विजेता और कुशल प्रशासक, धार्मिक सहिष्णुता से भरा हुआ एक उदार व्यक्ति, कला एवं विद्वता का प्रेमी एवं महान् शासक था। प्राचीन भारत के महानतम शासकों में कनिष्क की गणना भी की जाती है। कनिष्क ने अनेक विजयें प्राप्त कर अपने साम्राज्य का विस्तार किया एवं कुशलतापूर्वक उसको अपने नियंत्रण में रखा, इतने विशाल साम्राज्य का, जिसमें अलग- अलग देशों की प्रजा रहती थी, ऐसे शासन का संचालन करना कनिष्क प्रथम की एक महान् उपलब्धि थी। इतने बड़े साम्रज्य में उसके काल में एक भी विद्रोह नहीं हुआ। वह कला एवं विद्वता को संरक्षण प्रदान करता था। उसके काल की आर्थिक दशा की अधिक जानकारी तो उपलब्ध नहीं है, परन्तु फिर भी उसके शासन काल में देश का आन्तरिक तथा विदेशी व्यापार उन्नत दशा में था।

कनिष्क ने कभी कोई धार्मिक अत्याचार नहीं किया। वह सभी धर्मों के साथ सहिष्णुता का व्यवहार करता था। उसकी तुलना कभी-कभी सम्राट अशोक से की जाती है लेकिन अशोक की तरह कनिष्क ने अहिंसा को अपने शासन का आधार नहीं बनाया। अशोक ने पाटलिपुत्र में बौद्ध संगीति का आयोजन किया था, उसी प्रकार कनिष्क ने कश्मीर में बौद्ध संगीति का आयोजन किया। अशोक की भाँति कनिष्क ने भी भारत के बाहर अन्य देशों में बौद्ध धर्म को फैलाया। इसीलिए कनिष्क को द्वितीय अशोक कहा जाता है, परन्तु अन्य कई हैबातों में तुलना करने पर कनिष्क अशोक के समान महत्त्वपूर्ण एवं महान नहीं ठहरता है। कनिष्क को भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति से इतना प्रेम था और उसमें इतना घुल-मिल गया था कि भारतीय भी उसको भारत का अपना महान् सम्राट कहने में गौरव अनुभव करते थे। इस धार्मिक महासम्मेलन में विभिन्न विषयों और मतभेदों पर विचार किया गया। संगीति की एक परिषद् ने त्रिपटक पर प्रामाणिक भाष्य की रचना की थी। इन्हें कनिष्क ने ताम्रपात्रों पर उत्कीर्ण करवा कर पत्थर की एक मन्जूषा में रख कर उस पर स्तूपों का निर्माण करवाया था। इस संगीति ने बौद्ध धर्म के पारस्परिक मतभेदों में कमी अवश्य की लेकिन यह बौद्ध धर्म को विशाल सम्प्रदायों (हीनयान व महायान) में परिवर्तित होने से नहीं रोक सकी।

(vi) शासन प्रबन्ध अथवा प्रशासनिक उपलब्धियाँ- कनिष्क के शासन प्रबन्ध के बारे में अधिक सामग्री उपलब्ध नहीं है। सिक्कों तथा अभिलेखों से थोड़ी बहुत जानकारी उस समय के शासन-प्रबन्ध के सम्बन्ध में प्राप्त होती है। कुषाण शासन प्रणाली में भारतीय और विदेशी दोनों तत्त्व मिलते हैं। “क्षत्रप” प्रान्तों के वाइसराय या गवर्नर के रूप में कार्य करते थे। कुषाण साम्राज्य विभिन्न इकाइयों में बंटा हुआ था, जैसे- “राष्ट्र'”, “आहार”, “जनपद”, “देश’। कनिष्क एक शक्तिशाली सम्राट था। उसका साम्राज्य अनेक प्रान्तों में विभक्त था तथा उन प्रान्तों का शासन क्षत्रपों द्वारा संचालित होता था। साम्राज्य के पश्चिमोत्तर प्रदेश में वेशपशि तथा लियक नामक क्षत्रप शासन करते थे। मथुरा में खरपल्लान महाक्षत्रप था तथा बनारस में वनस्पर नामक क्षत्रप का शासन था। इतने विशाल साम्राज्य और इसकी विभिन्न जातियों को नियन्त्रण में रखना वास्तव में कनिष्क की एक बड़ी उपलब्धि थी।

(vii) कलात्मक उपलब्धियाँ- कनिष्क ने राजधानी पुरुषपुर (पेशावर) में अनेक विशाल और सुन्दर भवनों का निर्माण करवाया। बुद्ध के अस्थि-अवशेष पर उसने एक बुर्ज बनवाया जो 400 फीट ऊँचा था। उसमें 13 मंजिलें थीं और उस पर एक शिखर था। उसके चारों ओर बुद्ध की अनेक प्रतिमाएँ बनी हुई थीं। छठी शताब्दी तक यह बुर्ज विद्यमान था और इसे देख कर देश-विदेश के लोग आश्चर्यचकित रह जाते थे। कनिष्क ने पेशावर, मथुरा, कश्मीर, आदि अनेक विहारों, स्तूपों का निर्माण करवाया। उसने अनेक नगर भी बसाए। कश्मीर में कनिष्कपुर तथा तक्षशिला में सिरसुख नामक नगर कनिष्क द्वारा ही बसाए गए थे।

कनिष्क के शासन-काल में गान्धार नामक प्रदेश में एक ऐसी मूर्तिकला-शैली का विकास हुआ जिसे गान्धार शैली कहते हैं। इस कला के विषय तो भारतीय हैं परन्तु उनके निर्माण में यूनानी शैली का प्रयोग किया गया है। अतः इसे इण्डोग्रीक कला के नाम से पुकारा जाता है। इस शैली में महात्मा बुद्ध की मूर्तियाँ यूनानी देवता अपोलो से मिलती-जुलती हैं। कनिष्क के शासन काल में मथुरा भी मूर्तिकला का प्रसिद्ध केन्द्र था। मथुरा की मूर्तियाँ अपनी विशालता तथा भौतिकवादिता के लिए प्रसिद्ध हैं। इस शैली में लाल पत्थरों का प्रयोग किया जाता था। मथुरा में कनिष्क की एक विशाल मूर्ति मिली है, जिसके मस्तक नहीं है। यह मूर्तिकला का एक श्रेष्ठ नमूना है।

(viii) साहित्य- कनिष्क सदा विद्वानों और साहित्यकारों को आश्रय देता था। उसका दरबार उच्चकोटि के विद्वानों और साहित्यकारों से सुशोभित रहता था। अश्वघोष उसके दरबार का सबसे महान् साहित्यकार था। वह एक दार्शनिक, कवि, लेखक तथा नाटककार था। उसकी दो रचनाएँ-“बुद्धचरित’ तथा ‘सौन्दरानन्द” बड़ी प्रसिद्ध हैं।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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