इतिहास / History

उदारवादी विचारधारा सिद्धान्त | उदारवादियों के साधन | उदारवादियों की दुर्बलताएँ | उदारवादियों का मूल्यांकन

उदारवादी विचारधारा सिद्धान्त | उदारवादियों के साधन | उदारवादियों की दुर्बलताएँ | उदारवादियों का मूल्यांकन

उदारवादी विचारधारा सिद्धान्त

(Moderates and their Approaches to Politics)

कांग्रेस का प्रारम्भिक इतिहास उदार विचारधारा तथा सिद्धान्तों का प्रतीक माना जाता है। उदारवादियों का प्रमुख सिद्धान्त इस प्रकार है :

(1) ब्रिटिश न्यायप्रियता में आस्था- कांग्रेस के उदारवादी नेताओं का यह दृष्टिकोण था कि अंग्रेज न्यायप्रिय, सभ्य और उदार जाति है। अतः हमें अधिक कुशलता से भारत की आवश्यकताएँ शासकों के सम्मुख रखनी चाहिये। उनका विश्वास था कि भारत में ब्रिटिश शासन एक वरदान सिद्ध हुआ है तथा भारतीय पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति के सम्पर्क से लाभान्वित हुए हैं।

(2) राजभक्ति- प्रारम्भिक कांग्रेस के नेता राजभक्ति के सिद्धान्त में विश्वास करते थे। ब्रिटिश ताज की राजभक्ति उनका प्रधान सिद्धान्त था। वे ब्रिटिश शासन का विरोध और विद्रोह कदापि पसन्द नहीं कर सकते थे।

(3) ब्रिटिश संस्थाओं की श्रेष्ठता में विश्वास- उदारवादी नेता ब्रिटिश संस्थाओं की उत्कृष्टता में विश्वास रखते थे और भारत के लिए उसी अँचे का संस्थागत विकास चाहते थे।

(4) भारत और इंगलैण्ड के हितों की सम्बद्धता- उदारवादी नेता भारत और इंगलैण्ड के हितों में घनिष्ठ सम्बन्ध मानते थे। उनके अनुसार भारत का उत्थान और उन्नति शासन के साथ सहयोग करने पर ही निर्भर करती है।

उदारवादियों के साधन

(Methods of Moderates)

उदारवादियों के साधन उग्र न होकर सौम्य तथा उदार थे। उनकी विचार पद्धति की उदारता के फलस्वरूप उनकी कार्य-पद्धति भी उदार बन गई थी। उनके प्रमुख साधन निम्नलिखित थे-

(1) शान्तिपूर्ण तथा संवैधानिक साधनों में विश्वास- उदारवादी कांग्रेस नेता शान्तिपूर्ण तथा संवैधानिक साधनों में विश्वास करते थे। वे अपनी आवश्यकताओं और माँगों की प्राप्ति का वैधानिक मार्ग सर्वथा उचित मानते थे।

(2) प्रार्थना-पत्र तथा प्रतिनिधि मण्डल भेजने का साधन- उदारवादी नेता प्रार्थना-पत्र भेजकर सरकार को जनता की समस्याओं से अवगत कराने में विश्वास करते थे। प्रभावशाली व्यक्तियों के प्रतिनिधि मण्डल भेजकर शासन पर दबाव डालने का भी साधन उन्होंने अपनाया। भारत से कुछ प्रतिनिधि मण्डल इंगलैण्ड भेजे भी गए थे, जहाँ ब्रिटिश संसद और जनता को भारतीय समस्याओं से अवगत कराया गया।

(3) राजनीतिक याचना की प्रक्रिया- उदारवादी शासन के समक्ष बार-बार अपनी माँगें प्रस्तुत करने के साधनों में विश्वास करते थे।

(4) राजनीतिक और नैतिक तनाव डालना- उदारवादी अपनी मांगों को मनवाने के लिए शासन पर राजनैतिक व नैतिक प्रभाव डालते थे। वे शासकों के प्रति सच्ची भक्ति प्रस्तुत करके अपना हृदय परिवर्तन करना चाहते थे तथा साथ ही साथ तार्किक दृष्टि से शासन को समझाने में विश्वास करते थे।

(5) क्रमिक परिवर्तन में विश्वास- उदारवादी धीरे-धीरे क्रमिक परिवर्तन चाहते थे। वे हिंसा या क्रान्ति द्वारा आकस्मिक विस्फोट तथा राजनीतिक परिवर्तन नहीं चाहते थे। वे भारतीय संस्थाओं में सुधार चाहते थे, न कि उनकी समाप्ति।

प्रमुख उदारवादी नेता- कांग्रेस के दो दशकों (1885-1905) का नेतृत्व करने वाले उदारवादी नेताओं में उमेश चन्द्र बनर्जी, फिरोजशाह बनर्जी, सुरेन्द्र नाथ बनर्जी, गोपाल कृष्ण गोखले, दादा भाई नौरोजी, आर० सी० दत्त इत्यादि प्रमुख हैं। इनका ब्रिटिश शासन की उदारता, न्यायप्रियता में अधिक श्रद्धा थी। वे भारत पर ब्रिटेन के शासन को सौभाग्यपूर्ण समझते थे और ब्रिटेन के प्रति स्वामिभक्ति रखते थे।

उदारवादियों की दुर्बलताएँ

(Weakness of Moderates)

उदारवादियों की अनेक दुर्बलताएँ परिलक्षित होती हैं:-

(1) पाश्चात्य शिक्षा तथा सभ्यता को आवश्यकता से अधिक महत्त्व- उदारवादी नेता प्राचीन भारतीय सांस्कृतिक विरासत के मूल्य तथा सजीवता को न समझ सके क्योंकि व पाश्चात्य शिक्षा तथा सभ्यता के महत्त्व को आवश्यकता से अधिक जोर देते थे। निःसन्देह वे भारत के अतीत के लिये अपने हृदय में बहुत प्रेम और सम्मान रखते थे, परन्तु अभाग्यवश वे प्रेरणा के लिए उसकी और नहीं देखते थे। भारत का आधुनिकीकरण करने की तीव्र इच्छा के कारण उन्होंने अपने प्राचीन आस्थाओं को खो दिया था। उदारवादियों की एक सबसे बड़ी दुर्बलता यह थी कि उनका दृष्टिकोण पश्चिम से अधिक प्रभावित था।

(2) त्याग और बलिदान का अभाव- उदारवादी नेताओं में कष्ट सहन करने, देश के लिए त्याग और बलिदान करने की प्रबल वेगवती भावना का अभाव था। इसी कारण उनके साधन बड़े सौम्य तथा वैधानिक थे।

(3) भिक्षावृत्ति के साधन- उदारवादी नेताओं ने प्रार्थना-पत्र, याचना-पत्र तथा प्रतिनिधिमण्डल के साधनों में ही अपने कर्तव्यों की इतिश्री मान ली थी। ये सब तरीके इतने विनम्र थे कि शासन ने सदैव उनकी उपेक्षा की।

(4) जनता में गहरी पैट का अभाव- उदारवादी नेताओं का आन्दोलन शिक्षित वर्ग तक के सीमित था। वे जनआन्दोलन के प्रतीक न बन सके और कांग्रेस को जनसाधारण का संगटन न बना सके।

(5) स्वतन्त्र भारत के दृष्टिकोण का अभाव- उदारवादी नेता स्वतन्त्र भारत का न तो सपना दे सके और न विचार ही। वे तो भारत और ब्रिटेन के हित समान मानते थे, भारत में ब्रिटिश संस्थाओं का सुधार चाहते थे, न कि परतन्त्रता की बेड़ियों को काटना। यह उनकी सबसे बड़ी दुर्बलता थी।

(6) वैधानिक आन्दोलन जनसाधारण की समझ के बाहर- राष्ट्रीय आन्दोलन की प्रारम्भिक अवस्था में वैधानिक आन्दोलन चाहे कितना ही उचित तथा उपयोगी रहा हो, जनसाधारण के लिये इसका कोई विशेष अर्थ नहीं था। यह केवल बुद्धिजीवी वर्ग को ही अपील कर सकता था। यही कारण था कि कांग्रेस पर जब तक उदारवादियों का प्रभुत्व रहा तब तक उसकी सदस्यता शिक्षित वर्ग तक ही सीमित रही। अपने में अधिक प्रभावशाली तथा बुद्धिमान व्यक्तियों के होने के अतिरिक्त उदारवादी राष्ट्रीय विषयों पर अधिक प्रभाव न डाल सके क्योंकि इसका आधार संकुचित था।

उपरोक्त दुर्बलताओं के होते हुए भी डा० ईश्वरी प्रसाद ने लिखा है, “अपनी सेवाओं के आधार पर उदारवादी विशेष प्रशंसा के पात्र हैं। इन प्रतिभाशाली तथा उच्च चरित्र वालों ने नौकरशाही के बलशाली तथा दृढ़ होने के अतिरिक्त भी भारत के पुनरुत्थान में बड़ा महत्वपूर्ण कार्य किया।

उदारवादियों का मूल्यांकन

इन उपर्युक्त दुर्बलताओं के होते हुए भी उदारवादी नेता भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन के प्रारम्भिक कर्णधार कहे जाते हैं।

(1) राष्ट्रीयता के जनक- उदारवादी भारत में राष्ट्रीय चेतना के जन्मदाता थे। उन्होंने देश में सार्वजनिक जीवन की नींव डाली और भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस का उसकी शैशवावस्था में पालन- पोषण किया। निःसन्देह उदारवादियों ने राष्ट्रीय आन्दोलन के प्रारम्भिक वर्षों में राजनीतिक शिक्षा, राष्ट्रीय जागृति और भारतीयों को एकता के सूत्र में बाँधने के लिये जो कार्य किया वह अत्यधिक सराहनीय है। इसी कारण उनको राष्ट्रीयता का जनक कहा जाता है।

(2) भारतीयों को राजनैतिक शिक्षा- उदारवादियों की एक महान देन यह है कि उन्होंने भारतीयों को राजनीतिक शिक्षा प्रदान की। इसके द्वारा भारत के विभिन्न भागों के व्यक्तियों में सम्पर्क  स्थापित हुआ। उन्होंने महत्वपूर्ण विषयों पर अपने अधिवेशनों में विचार-विमर्श करके प्रबल जनमत  संगठित करने की भावना भारतीयों में पैदा की। उन्होंने सामूहिक रूप से अपनी मांगों को सरकार के समक्ष प्रस्तुत किया। उन्होंने भारतीयों का ध्यान प्रजातन्त्र के आदर्शों की ओर आकर्षित किया। डा० ईश्वरी प्रसाद के शब्दों में, “उन्होंने राष्ट्रीय जीवन के उत्थान के लिये आवश्यक मानव शक्ति और अन्य साधनों की व्यवस्था की।”

इसके अतिरिक्त सन् 1892 का इण्डियन कौसिल एक्ट भी उदारवादियों की महान सफलता थी। यद्यपि यह एक्ट भारतीयों को सन्तुष्ट न कर सका तथापि वैधानिक विकास की ओर एक उन्नतिशील चरण था। उदारवादियों ने सम्पूर्ण देश में राष्ट्रीयता का सन्देश दिया। उदारवादी नेता अपने समय तथा देश-काल के अनुकूल थे। यदि उस समय वे क्रान्ति का मार्ग अपनाते तो निस्सन्देह शासन उसे कुचल देता और राष्ट्रीयता की भावना के अंकुर रौंद दिए जाते।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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