अर्थशास्त्र / Economics

विदेशी विनिमय दर | क्रय शक्ति समता सिद्धान्त का अर्थ एवं परिभाषा | क्रय शक्ति समता सिद्धांत | विनिमय दर निर्धारण के क्रयशक्ति समता सिद्धान्त का आलोचनात्मक मूल्यांकन

विदेशी विनिमय दर | क्रय शक्ति समता सिद्धान्त का अर्थ एवं परिभाषा | क्रय शक्ति समता सिद्धांत | विनिमय दर निर्धारण के क्रयशक्ति समता सिद्धान्त का आलोचनात्मक मूल्यांकन | foreign exchange rate in Hindi | Meaning and definitions of purchasing power parity theory in Hindi | Purchasing Power Parity Theory in Hindi | Critical Evaluation of Purchasing Power Parity Theory of Exchange Rate Determination in Hindi

विदेशी विनिमय दर

(Exchange foreign rate)

विदेशी विनिमय दर अथवा विनिमय दर वह दर होती है जिस पर एक करेंसी का दूसरी करेंसी से विनिमय किया जाता है। यह दर एक करेंसी में दूसरी करेंसी की कीमत होती है। इसे व्यक्त करने का प्रचलित तरीका यह है कि घरेलू करेंसी के रूप में विदेशी करेंसी की एक इकाई की कीमत डालर तथा पाउण्ड के बीच विनिमय दर बताती है कि एक पाउण्ड खरीदने के लिए कितने डालरों की आवश्यकता पड़ेगी। इस प्रकार डालर तथा पाउण्ड के बीच विनिमय दर संयुक्त राज्य अमेरिका के दृष्टिकोण से यों व्यक्त की जाती है डालर 2.50 = 1 पाउण्ड ($2.50 = £1)। ब्रिटेन के लोग इसे व्यक्त करने के लिए कहेंगे कि एक डालर खरीदने के लिए कितने पाउण्ड चाहिए और ऊपर दी गई विनिमय दर को इस रूप में व्यक्त करेंगे कि 0.40 पाउण्ड = 1 डालर (£.40 = S1 )।

क्रय शक्ति समता सिद्धान्त का अर्थ एवं परिभाषा

(Meaning and Definition of Purchasing Power Parity Theory)

अपरिवर्तनशील पत्र- मुद्रा के अंतर्गत विनिमय दर का निर्धारण क्रय शक्ति समता सिद्धान्त के द्वारा होता है। इस सिद्धान्त की रूपरेखा सन् 1802 में जॉन व्हीटले (John Wheatley) तथा 1810 में विलियम ब्लेक (William Black) ने तैयार किया। प्रो० गुस्टाव ने इस सिद्धांत का पूर्ण रूप से विकास किया।

गुस्टाव कैसल- दो वस्तुओं में विनिमय दर अवश्य ही इतनी आन्तरिक क्रयशक्ति के भागफल पर निर्भर करती है।

The rate of exchange between two currency must stand essentially on the quotient of the internal purchasing power of these connection.

क्रय शक्ति समता सिद्धांत

(Purchasing Power Parity Theory)

विदेशी विनिमय दर के निर्धारिण के क्रय-शक्ति समता सिद्धांत की व्याख्या सर्वप्रथम रिचर्ड ह्वीटले’ (Richard Wheatley) ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘Remarks on Currency and Commerce’ में 1802 में की थी। गस्टव कैसल (Gustav Cassel) द्वारा इस सिद्धांत का विकास प्रथम विश्व युद्ध के प्रारम्भ होने पर स्वर्णमान के खण्डन के पश्चात् किया गया। इस सिद्धांत के अनुसार दो देशों की अपरिवर्तनीय मुद्राओं के मध्य साम्य विनिमय दर उन देशों की मुद्रा इकाइयों की क्रय शक्तियों के अनुपात द्वारा निर्धारित होती है। विनिमय दर दो मुद्राओं की क्रय-शक्तियों के मध्य समानता के बिन्दु पर स्थिर होती है। उदाहरणार्थ, यदि दो देशों-अमरीका तथा इंग्लैंड की मुद्राओं में निश्चित वस्तुओं तथा सेवाओं की एक दी हुई मात्रा में मांग की जाती है, तथा, अमरीका में 800 डालर से उतनी ही वस्तुओं तथा सेवाओं का क्रय किया जा सकता  है, जितना की इंगलैंड में 200 पौण्ड से क्रय किया जा सकता है, तो 800 अमरीकी डालर की क्रय-शक्ति 200 पौण्ड के बराबर है। यदि किसी समय विदेशी विनिमय दर इस समानता दर से विचलित हो जाती है तो तुरन्त आर्थिक शक्तियां क्रियाशील होकर वास्तविक विनिमय दर को इस सामान्य विनिमय दर के समान कर देंगी। उदाहरणार्थ, यदि दोनों देशों में मूल्य-स्तर स्थिर रहते हुये विदेशी विनिमय दर परिवर्तित होकर 1 पौण्ड = 4.5 डालर हो जाती है तो यह प्रदर्शित करती है कि डालर के रूप में पौण्ड-स्टलिंग की क्रय शक्ति बढ़ जाती है। ऐसी स्थिति में ब्रिटेन के आयातकर्ता इस विनिमय दर पर पौण्ड-स्टर्लिंग को डालर में बदलकर अमरीका में 4 डालर के मूल्य के बराबर वस्तुएं, जिनका मूल्य इंगलैंड में 1 पौण्ड स्टर्लिंग है, खरीदकर 1/2 डालर की बचत कर लेंगे। पौण्ड-स्टलिंग को डालर में परिवर्तित करने के कारण ब्रिटेन में अमरीकी डालर की मांग में वृद्धि हो जाएगी जबकि इंगलैंड में डालर की पूर्ति में ह्रास होगा क्योंकि अमरीका के ब्रिटिश निर्यातों में कमी होगी। परिणामस्वरूप, जब तक विनिमय की क्रय-शक्ति समता दर 1 पौण्ड = 4 अमरीकी डालर नहीं हो जाती है तब तक डालर के स्टर्लिंग मूल्य में वृद्धि होगी। इसके विपरीत, यदि इंगलैंड में मूल्य 100 प्रतिशत बढ़ जाते हैं और अमरीका में वे अपरिवर्तनीय रहते हैं तो पौण्ड स्टर्लिंग का डालर मूल्य आधा हो जाएगा। परिणामस्वरूप एक पौण्ड-स्टर्लिंग दो अमरीकी डालर के बराबर होगा क्योंकि नवीन परिस्थिति में इंगलैंड की मुद्रा की दो इकाइयों से इंगलैंड में उतनी ही मात्रा में वस्तुएं एवं सेवाएं क्रय की जा सकती हैं जितनी कि पहले एक इकाई से खरीदी जाती थी। दूसरी ओर, यदि दोनों देशों में मूल्य दुगने हो जाते हैं तो विनिमय की क्रय- शक्ति समता दर अपरिवर्तनीय रहेगी।

गस्टव कैंसल ने इस सिद्धांत के माध्यम से दो देशों में कागजी मुद्रा प्रचलित होने पर विदेशी विनिमय दरों पर मुद्रा स्फीति के पड़ने वाले प्रभावों को स्पष्ट किया है। निम्नलिखित उद्धृत वाक्य कैसल द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत के प्रारम्भिक सूत्र को प्रदर्शित करता है:

व्यापार में दी हुई सामान्य स्वतंत्रता की स्थिति में दो देशों- A तथा B के मध्य विनिमय दर स्वयं ही स्थापित होगी तथा इस दर में मामूली उच्चावचन की उपेक्षा करने पर यह अपरिवर्तनीय रहती है क्योंकि किसी भी देश की मुद्रा की क्रयशक्ति में परिवर्तन नहीं होता और व्यापार पर किसी  विशेष प्रकार की बाधा को थोपा नहीं जाता। परन्तु जैसे ही A देश की मुद्रा में स्फीति आती है तथा इस मुद्रा की क्रय शक्ति में ह्रास होता है, तो B देश में A देश की मुद्रा का मूल्य आवश्यक रूप से उसी अनुपात में कम होगा। फलतः नियमानुसार जब दो मुद्राओं में स्फीति आती है तो नवीन सामान्य विनिमय दर पुरानी दर तथा दोनों देशों की स्फीति के अंशों के भागफल के गुणनफल के बराबर होगी, इस नवीन साम्य दर में सदैव ही उच्चावचन होंगे तथा संक्रमण-काल में अधिक उच्चावचनों की प्रवृत्ति होती है। परन्तु इस प्रकार की गयी दर गणना निश्चित ही मुद्राओं के नवीन दर के समान होगी। इस दर को क्रय-शक्ति समता दर के नाम से सम्बोधित किया जाता है क्योंकि इसका निर्धारण दो देशों की मुद्रा इकाइयों की क्रय-शक्ति के भागफल द्वारा होता है।’

विदेशी विनिमय दर का क्रय शक्ति समता सिद्धांत उन देशों में ही लागू होता है जहां पर अपरिवर्तनीय कागजी मुद्राओं का संचलन होता है। स्वर्णमान पर आधारित देशों के संदर्भ में दो देशों की मुद्राओं के मध्य विदेशी मुद्राविनिमय की साम्य के निर्धारण के लिए टकसाली समता नियम ही पर्याप्त है। टकसाली समता तथा क्रय समता में प्रमुख अन्तर यह है कि टकसाली दर एक निश्चित दर है जबकि क्रय-शक्ति समता दर एक गतिशील दर है जो सम्बन्धित देशों के मूल्यों में उच्चावचनों के पाथ-साथ परिवर्तित होती रहती है। बाजार विनिमय दर देश की मुद्रा की मांग  तथा पूर्ति में परिवर्तन के अनुसार ही सामान्य दर से विचलित होती रहती है। बाजार विनिमय दर में इन परिवर्तनों की सीमायें दोनों देशों के मध्य वस्तुओं की परिवहन लागत, निर्यात तथा आयात कर, बीमा तथा बैंकिंग सेवाओं की लागत, संदेहास्पद जोखिमों की लागतें, विदेशी बाजार में वस्तुओं के विज्ञापन प्रचार लागत, इत्यादि द्वारा निर्धारित होती है।

परन्तु ये सीमायें इतनी अधिक स्थिर नहीं होती हैं जितनी की टकसाल समता नियम के अन्तर्गत स्वर्ण-बिन्दुओं द्वारा निर्धारित सीमायें होती हैं। गतिमान दर को चित्र 13.7 द्वारा समझाया गया है। इस गतिमान दर के उच्चावचनों की उच्चतम तथा निम्नतम सीमायें वस्तु निर्यात तथा आयात बिन्दुओं द्वारा निर्धारित होती है। बाजार विनिमय दर विदेशी विनिमय की मांग तथा पूर्ति वक्रों के कटान बिन्दु द्वारा निर्धारित होती है। चित्र में S1S1 पूर्तिवक्र तथा D1D1 मांग वक्र है, विनिमय दर OR1 है जो वस्तु आयात तथा वस्तु निर्यात बिन्दुओं की सीमाओं के मध्य है। जब मांग तथा पूर्ति वक्र परिवर्तित होकर क्रमशः D2D2 तथा S2 S2 हो जाते हैं तो विनिमय दर OR1 से बढ़कर OR2 हो जाती है।

आलोचनाएं

(Criticisms )

  1. विदेशी विनिमय दर पर केवल मुद्रा इकाई की क्रय शक्ति का प्रभाव

(Currency Units and the Rate of Exchange)

इस सिद्धांत के अनुसार मुद्रा इकाइयों की क्रय शक्तियों तथा विदेशी विनिमय दरों में इस प्रकार का प्रत्यक्ष सम्बन्ध है कि मुद्रा इकाई को क्रय शक्ति में परिवर्तन होने पर विनिमय दर में तत्काल परिवर्तन होता है। परन्तु व्यवहार में सदैव ऐसा नहीं होता है। विदेशी विनिमय दर पर, देशों की मुद्रा इकाइयों की क्रय शक्ति के अतिरिक्त अन्य शक्तियों का भी प्रभाव पड़ता है। उदाहरणार्थ विनिमय दर पर प्रशुल्क का प्रभाव पड़ सकता है। यदि एक देश अपने आयातों पर प्रशुल्क लगाता है और दूसरा देश नहीं लगाता तो प्रशुल्क लगाने वाले देश के विनिमय मूल्य में वृद्धि हो जाएगी, यद्यपि उस देश के घरेलू मूल्य स्तर में कोई परिवर्तन नहीं होता है।

  1. विनिमय दर का मूल्य पर प्रभाव

(Exchange Rate and Price)

क्रय शक्ति समता नियम के अनुसार यद्यपि मूल्यों में परिवर्तनों का प्रभाव विदेशी विनिमय  दर पर पड़ता है परन्तु विदेशी विनिमय दर में परिवर्तनों का मूल्य पर प्रभाव नहीं पड़ता है। इस सिद्धांत के अनुसार कारण की कड़ी एकपक्षीय है यह स्वीकार करना कि विदेशी विनिमय दर में परिवर्तनों का प्रभाव देश के मूल्य-स्तर पर नहीं पड़ता है, सत्य नहीं होता है। उदाहरणार्थ यदि इंग्लैंड से भारी मात्रा में सट्टेबाजी की पूंजी का बर्हिगमन होने लगता है तो पौण्ड स्टर्लिंग का विनिमय मूल्य कम हो जाता है तथा कई महीनों तक यह कम ही रहता है जिससे इंगलैंड में होने वाले आयात महंगे हो जायेंगे। परिणामस्वरूप, अमेरिका से गेहूं तथा वस्तुओं के आयातों का भुगतान करने के लिए अधिक पौण्ड की आवश्यकता होगी। जिन ब्रिटिश उद्योगों में आयातित कच्चे माल का प्रयोग किया जाता है, कच्चे माल के मूल्यों में वृद्धि हो जाने के कारण निर्मित वस्तुओं के मूल्यों में भी वृद्धि हो जायेगी। इसी प्रकार ब्रिटिश-निर्यात अमरीकी डालर के रूप में सस्ते जायेंगे जिसके परिणामस्वरूप उनकी मांग में भी होता है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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