समाजीकरण व्यक्ति को मनुष्य में बदलने की प्रक्रिया | विद्यालय समाजीकरण का एक अभिकरण | शिक्षा समाजीकरण की प्रक्रिया के रूप में
समाजीकरण व्यक्ति को मनुष्य में बदलने की प्रक्रिया | विद्यालय समाजीकरण का एक अभिकरण | शिक्षा समाजीकरण की प्रक्रिया के रूप में
समाजीकरण व्यक्ति को मनुष्य में बदलने की प्रक्रिया
व्यक्ति जन्म के समय तक प्राकृतिक जीव या प्राणी होता है। शैशवावस्था से आगे वह धीरे-धीरे विभिन्न बातों को सीखता एवं ग्रहण करता है। ज्यों-ज्यों प्राकृतिक प्राणी समूह के जीवन में प्रविष्ट करता है त्यों-त्यों उसे अधिक सीखना पड़ता है उसी के अनुरूप उसका समाजीकरण होता जाता है। समाज के अनुसार उसका रूपान्तरण, सम्परिवर्तन एवं सम्विकास होता है। इस प्रकार से व्यक्ति “मनुष्य” में बदल जाता है अर्थात् समझबूझ कर अपने उत्तरदायित्व को निभाने वाला हो जाता है। समाजीकरण की प्रक्रिया इस प्रकार से मूलतः बालक को सामाजिक मनुष्य बनाने से सम्बन्धित होती है और मनुष्य के समस्त जीवन में चलती रहती है जिससे कि व्यक्ति मनुष्य की भाँति अपनी नवीन परिस्थितियों के साथ अनुकूलन करने में सफल होता है।
मूल व्यक्ति किस प्रकार मनुष्य बनता है ? इस प्रश्न के उत्तर में हमें यह ध्यान में रखना पड़ता है कि समाजीकरण व्यक्ति को क्या प्रदान करता है। विद्वानों ने लिखा कि “समाजीकरण के परिणामस्वरूप व्यक्ति अपने आवेगों पर नियंत्रण करना सीखता है, कुछ निश्चित प्रकार की अभिवृत्तियों का विकास करता है और जीवन के विभिन्न पहलुओं के बारे में ज्ञान प्राप्त करता है। व्यक्ति लोक-रीतियों, विधियों एवं नियमों का पालन करता है। समाज की मान्यताओं को जीवन में अपनाता है। इस प्रकार समाजीकरण व्यक्ति को सामाजिक तथा सांस्कृतिक संसार में प्रवेश कराता है। दूसरे शब्दों में उसके सामाजिक व्यक्तित्व का विकास होता है वह “पूर्ण मनुष्य” (Full man or person) हो जाता है जिससे कि वह समाज तथा समूह में सहभागी सदस्य बन जाता है। अब स्पष्ट है कि समाजीकरण व्यक्ति को मनुष्य में बदलने की प्रक्रिया होती है।
विद्यालय समाजीकरण का एक अभिकरण
समाजीकरण की विभिन्न प्रविधियाँ होती हैं जैसे दण्ड और पुरस्कार, नैतिक शिक्षा, अनुकरण, तादात्मीकरण, सामाजिक अधिगम, सामाजिक आकांक्षाएँ, आदि। इनके अलावा समाजीकरण के औपचारिक एवं अनौपचारिक अभिकरण भी बताए गए हैं जैसे विद्यालय, परिवार, समवयस्क बाल समूह, युवा संगठन, धर्म की संस्था, राजनैतिक एवं आर्थिक संस्थाएँ, साहित्यिक गोष्ठियाँ, रेडियो, चल-चित्र, समाचार-पत्र आदि । यहाँ पर हमें विद्यालय के सम्बन्ध में विचार करना है।
विद्यालय समाज की एक औपचारिक संस्था है। प्रो० रॉस ने लिखा है कि “विद्यालय सभ्य मनुष्यों द्वारा समाज के सुसमायोजित, योग्य सदस्यता के लिए युवाजनों को तैयार करने में सहायता देने के प्रयोजन से बनाई गई संस्थाएँ हैं।” यह कथन पूर्णतया सत्य है।
शिक्षा लेने के लिए बालक विद्यालय में प्रवेश करता है। उस समय उसका परिचय अन्य परिवार के बालकों से होता है। इससे वह समाज के विभिन्न स्तरों तथा वर्गों के लोगों के साथ अन्तक्रिया करता है। विद्यालय में औपचारिक रूप से बालक को विद्यालय के नियम पालन करने पड़ते हैं और अपने आप पर नियंत्रण रख कर व्यवहार करना सीखना पड़ता है। इस प्रकार विद्यालय का पर्यावरण बालक को सामाजिक नियमों के पालन की शिक्षा देता है। सामाजिक नियंत्रण, सामाजिक संगठन, सामाजिक व्यवस्था आदि के सम्बन्ध में बालक क्रमशः सीखता जाता है। विद्यालय में बालक रचनात्मक एवं सृजनात्मक कार्यों के लिये प्रेरणा एवं चेतना ग्रहण करता है जिसको पूरा करने का अवसर समाज के क्षेत्र में ही दिया जाता है। ऐसी दशा में विद्यालय के द्वारा व्यक्ति में सामाजिक अभिवृत्तियों के निर्माण की क्षमता आती है।
विद्यालय में शिक्षार्थी एवं शिक्षक मिलकर कार्य करते हैं जिसमें सामाजिक आदर्शों एवं मूल्यों को सामने रखना पड़ता है। ऐसी दशा में विद्यालय सामाजिक जीवन के लिये आवश्यक आदर्शों एवं मूल्यों का विकास व्यक्ति में करता है। दूसरी ओर व्यक्ति (शिक्षक या शिक्षार्थी) अपने निजी गुणों से, अपने व्यक्तित्व से समाज को भी प्रभावित करता है। इसका परिणाम एक प्रकार का सामाजिक नेतृत्व का विकास हुआ करता है। ऐसी स्थिति [ में विद्यालय समाजीकरण का एक महत्वपूर्ण अभिकरण होता है।
प्रो० अकोलकर ने लिख्या है “विद्यालय में दूसरे बालकों के साथ सम्पर्क बालक को ऐसे अच्छे अवसर प्रदान करता है जिससे कि वह अपनी योग्यताओं एवं सीमाओं को खोज लेता है और इससे वह अपने आपको एक स्थायी तथा सन्तुलित चित्र बना लेता है।” अब सही-सही मालूम होता है कि व्यक्ति का स्वरूप कैसा होना चाहिये। यह समाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा ही उसे ज्ञात होता है। ऐसा विद्यालय के पर्यावरण में ही सम्भव होता है। अतः स्पष्ट है कि विद्यालय समाजीकरण का एक महत्वपूर्ण अभिकरण है।
समाजीकरण और परिवार- विद्यालय का समान परिवार भी एक ऐसा अभिकरण है जो बालक का समाजीकरण करता है। जन्म से लेकर मृत्यु तक बालक का जीवन परिवार में ही बीतता है। परिवार में उसके व्यक्तित्व की नींव पड़ती है, भाषा, चिन्तन, तर्क, कल्पना, भावाभिव्यक्ति का विकास परिवार से ही शुरू होता है तथा काफी हद तक होता है। समाज के लोगों के साथ उठना-बैठना, व्यवहार करना, समाज की क्रियाओं में सहभागिता, दूसरों के सुख-दुःख में सहयोग, सहानुभूति, दया, सहनशीलता आदि सामाजिक गुण, प्रेम, शत्रुता की सीख भी परिवार से मिलती है। बालक इस प्रकार परिवार की परिस्थितियों तथा व्यक्तियों की सहायता से अपने आपको समाजीकृत करने में सफल होता है। समाज के रीतिरिवाज, मूल्य, मान्यता, धर्म और कर्तव्य को अपनाने में परिवार सहायता देता है। समाज की संस्कृति घर से ही ग्रहण की जाती है। परिवार बालक को व्यवसाय भी प्रदान करता है। परिवार की परिस्थिति ऐसी होती है वैसी प्रभाव बालक के समाजीकरण पर पड़ता है। साथ ही साथ बच्चे की ग्रहणशीलता पर भी उसका समाजीकरण निर्भर करता है। बालक अपनी मानसिक व भावात्मक विशेषता के अनुकूल करता है और समाजीकृत करता है। अतएव परिवार के सदस्यों का सबसे महत्वपूर्ण कार्य होता है ऐसी परिस्थितियाँ उपस्थित करना जिससे बालक अपने आपको तदनुकूल बनाने का प्रयत्न करे। उदाहरण के लिये परिवार के सदस्य घर में आए हुए लोगों का स्वागत करते समय बालक को साथ-साथ रखे और उसे भी यदि अपने साथ व्यवहार बातचीत आदि करने का मौका देते रहें तो वह अपने आपको सफल ढंग से समाजीकृत कर लेगा।
शिक्षा समाजीकरण की प्रक्रिया के रूप में
शिक्षा किस प्रकार समाजीकरण की प्रक्रिया होती है, यहाँ इस सन्दर्भ में विचार करना है। शिक्षा तथा समाजीकरण दोनों ही सामाजिक प्रक्रिया हैं। शिक्षा तथा समाजीकरण दोनों ही जीवन के शुरू से ही चलती हैं और आजीवन चलती रहती हैं। दोनों प्रक्रियाओं का लक्ष्य अच्छे नागरिक तथा उपयोगी सदस्य तैयार करना है। इस प्रकार दोनों में अत्यन्त घनिष्ठ सम्बन्ध है और इस आधार पर यदि शिक्षा को समाजीकरण की प्रक्रिया के रूप में स्वीकार किया जाता है तो उचित ही है।
आधुनिक समय में शिक्षा की प्रक्रिया मनुष्य के स्वभाव, व्यवहार, योग्यता और गुण में सुधार, वृद्धि और नई दिशा प्रदान करती है। इसके फलस्वरूप मनुष्य नई चीजों का निर्माण करता है, नए व्यवहार प्रतिदर्श उपस्थित करता है, समाज को ऊपर उठाता है तथा सभ्य बनाता है। ऐसी दशा में शिक्षा की प्रक्रिया समाज के पुनर्निर्माण की प्रक्रिया होती है, यह भी समाजीकरण का एक रूप है। अतः ऐसी स्थिति में हम शिक्षा को समाजीकरण की प्रक्रिया के रूप में ही मान लें तो अनुचित नहीं है।
प्रो० एस० राधाकृष्णन ने लिखा है कि-“जीवन का मार्ग खुरे की धार पर चलने के समान कठिन होता है। इसके लिये हमें विचार का अनुशासन जरूरी है जो भी कार्य की दिशा तुम स्वीकार करो उसके लिये तुम्हें एक ईमानदार अनुशासित मन को लगाना चाहिये।” जीवन का सम्बन्ध समाज के साथ होता है। अतएव एक अनुशासन या नियंत्रण समाज में रहने वालों के लिए अपेक्षित होता है तभी अच्छा जीवन व्यतीत होता है। यह शिक्षा की प्रक्रिया से ही पूरा होता है। जहाँ ऐसा नियंत्रण एवं अनुशासन होगा वहीं समाजीकरण की प्रक्रिया भी पूरी होगी। अब हम कह सकते हैं कि शिक्षा इस दृष्टि से भी समाजीकरण की प्रक्रिया के रूप में होती है, और यह सत्य है।
शिक्षा की प्रक्रिया के दो पक्ष होते हैं-(1) व्यक्तिगत, (2) सामाजिक । व्यक्तिगत पक्ष सामाजिक पक्ष में अन्तर्विष्ट पाया जाता है ऐसी दशा में शिक्षा की प्रक्रिया को सामाजिक माना जाता है। शिक्षा की प्रक्रिया मनुष्य और समाज दोनों का महत्वपूर्ण कार्य होता है। आधुनिक समाजवादी अभिवृत्ति के बढ़ने से आज की शिक्षा की प्रक्रिया का समाजवादी लक्ष्य अधिक महत्वपूर्ण समझा जा रहा है। इस अभिवृत्ति के कारण शिक्षा की प्रक्रिया का लक्ष्य सामाजिक सेवा होता है। सामाजिक सेवा के द्वारा ही व्यक्ति की आत्मानुभूति उत्तम ढंग से होती है ऐसा विचार प्रो० रस्क का है। सामाजिक प्रक्रिया और उसका सामाजिक लक्ष्य होने से यह स्पष्ट होता है कि शिक्षा समाजीकरण की प्रक्रिया है।
वर्तमान जनतन्त्र की भावना के विकास के कारण सामाजिक दृष्टिकोण से शिक्षा की प्रक्रिया को देखा जा रहा है। प्रो० हुमायूँ कबीर ने लिखा है कि “यदि किसी को समाज का सृजनात्मक सदस्य होना है तो उसे केवल अपनी ही वृद्धि नहीं करनी चाहिये बल्कि समाज की वृद्धि की ओर कुछ योगदान करना चाहिये।” आज स्थिति यह है कि शिक्षा और समाजीकरण दोनों साथ-साथ समझे जाते हैं। बिना समाजीकरण के शिक्षा अपूर्ण होगी और प्रणाली बेकार होगी यदि वह व्यक्ति को समाज के एक उपयोगी सदस्य के रूप में विकसित करने में असफल होती है।
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