सम्पत्ति प्रभाव | सम्पत्ति प्रभाव पर डॉन पैटिन किन की व्याख्या | मुद्रा की पूर्ति में वृद्धि का प्रभाव
सम्पत्ति प्रभाव | सम्पत्ति प्रभाव पर डॉन पैटिन किन की व्याख्या | मुद्रा की पूर्ति में वृद्धि का प्रभाव
सम्पत्ति प्रभाव
पीगू प्रभाव के समान राष्ट्रीय उत्पादन, रोजगार, आय एवं उपभोग से सम्बन्धित एक अन्य प्रभाव सम्पत्ति प्रभाव है इस प्रभाव की चर्चा भिन्न-भिन्न समय में अनेक अर्थशास्त्रियों ने की है जिनमें से कुछ प्रमुख हैं- हैवेलमो, डॉन पैटिन किन तथा जेम्स टॉबिन । इस प्रभाव का स्वरूप इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है।
आय के बाद संपत्ति को उपभोग का दूसरा सर्वाधिक महत्वपूर्ण निर्धारक माना गया है। इसके दो कारण हैं। प्रथम, स्वायत्त आय की प्राप्ति मानवीय तथा गैर-मानवीय दोनों प्रकार की संपत्ति से होती है। द्वितीय, सम्पत्ति को संचित किया जा सकता है तथा इससे प्राप्त आय को श्रम की आय में होने वाले नियोजित एवं अप्रत्याशित परिवर्तनों को दुरुस्त करने में प्रयुक्त किया जा सकता है।
उपभोक्ताओं की कुल सम्पत्ति को उपभोग व्यय का एक प्रमुख निर्धारक माना जाता है। एडम स्मिथ ने Wealth of Nations में उपभोक्ता व्यवहार पर संपत्ति के संभावित प्रभाव का उल्लेख किया है। प्रोफेसर पीगू ने भी उपभोग पर सम्पत्ति के प्रभाव की विस्तृत व्याख्या की है। हिक्स ने भी अपनी पुस्तक ‘Value and Capital’ में इसका उल्लेख किया है। यहाँ तक कि कीन्स ने भी ब्याज की दर में परिवर्तन एवं पूंजीगत लाभों के संदर्भ में, “सम्पत्ति प्रभाव” पर विचार किया है। उन्होंने सम्पत्ति प्रभाव के इन दोनों पक्षों की प्रकृति एवं महत्व पर काफी बल दिया है हालांकि अपने मॉडल में उन्होंने केवल आय को उपभोग-व्यय का निर्धारक घटक माना है। कीन्स के अधिकांश अनुगामी यह मानने को तैयार नहीं हैं कि संपत्ति का उपभोग-व्यय पर कोई प्रभाव हो सकता है। जेम्स टोबिन के मतानुसार, आय के पश्चात् विभिन्न व्यक्तियों अथवा परिवारों के पास विद्यमान सम्पत्ति का उपभोग पर सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है। सम्पत्ति में समय-क्रम में वृद्धि होने पर अल्पकालीन अथवा परिक्षेत्रीय उपभोग फलन में ऊपर की ओर विवर्तन होता है और साथ ही उपभोग-आय अनुपात भी पूर्वापेक्षा बढ़ जाता है, भले ही आय अपरिवर्तित रहे।
“धन की हास्समान उपयोगिता” की मान्यता के आधार पर ही धन के परिमाण को उपभोग व्यय का निर्धारक माना जाता है। इसका यह आशय है कि जैसे-जैसे धन का स्टॉक बढ़ता है, इसकी सीमांत उपयोगिता घटती जाती है। फलस्वरूप, उपभोग में कटौती करके धन-संचय की लालसा भी कम होती जाती है। संक्षेप में, अन्य बातों के समान रहने पर, बचत का परिमाण बढ़ने के साथ अधिक बचत करने की इच्छा कमजोर होती जाती है। यदि दो व्यक्तियों की जरूरतें, रुचियां एवं आय समान हैं परन्तु उनके पास सम्पत्ति की मात्रा में अन्तर है तो जिसके पास अधिक संपत्ति है उसकी बचत करके सम्पत्ति को और अधिक बढ़ाने की आकांक्षा दूसरे व्यक्ति की अपेक्षा कम होगी। मान लीजिए कि राम एवं श्याम दोनों की स्वायत्त वार्षिक आय 6,000 रुपए हैं तथा दोनों की रुचियां एवं आवश्यकताएं भी एक जैसी हैं। अब मान लीजिए कि श्याम के पास 1 लाख रुपए की तथा राम के पास 5,000 रुपए की संपत्ति है। ऐसी स्थिति में यदि श्याम 500 रुपए बचाता है तो राम उसी वार्षिक आय में से 500 रुपए से बहुत अधिक राशि बचाएगा। अन्य शब्दों में, सम्पत्ति के परिमाण में वृद्धि से उपभोग फलन (जो आय व उपभोग के सम्बन्ध को व्यक्त करता है) में ऊपर , की ओर विवर्तन हो जाता है. जिससे यह स्पष्ट होता है कि अधिक सम्पत्तिधारी कम सम्पत्तिधारी की अपेक्षाकृत (आय समान रहने पर) उपभोग पर अधिक व्यय करता है। इस प्रकार, संपत्ति प्रभाव की मूल धारणा इस प्रभाव की व्यापकता (परिमाण) के बारे में कुछ नहीं बताती है। यह प्रभाव थोड़ा हो सकता है या बहुत अधिक। वस्तुत: केवल संपत्ति प्रभाव का होना पर्याप्त नहीं है। उपभोग व्यय को जो बात प्रभावित करती है, वह है संपत्ति प्रभाव की व्यापकता (परिमाण), जो उपभोग फलन पर सीमित या पर्याप्त प्रभाव डालती है।
डॉन पैटिन किन की व्याख्या
(Approach of Don Patin Cin)
मुद्रा के मूल्य की व्याख्या में प्रो० डॉन पैटिन किन ने एक नया विचार दिया है। उनकी विचाराधारा प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों के मुद्रा मूल्य के परिमाण व्याख्या की आलोचनाओं के ही परिणामस्वरूप हमारे समक्ष आई है। प्रो० किन का कहना है कि उन्होंने प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों का मूलभूत मान्यताओं को त्यागे बिना उसमें पर्याप्त संशोधन करके उसे अधिक तर्कसंगत एवं वास्तविक बनाने का प्रयास किया है। डॉन पैटिन किन ने मुद्रा के मूल्य निर्धारण में वास्तविक बाजार में मांग और पूर्ति फलन द्वारा, जो कि सापेक्षिक कीमतों एवं नकद शेषों (Cash Balances) पर निर्भर रहते हैं, प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों की विचारधारा को संशोधित एवं पुनर्गठित किया जा सकता है तथा वास्तविक एवं मौद्रिक तत्वों के बीच खाई को पाटा जा सकता है।
डॉन पैटिन किन का मुख्य योगदान यह है कि उन्होंने वास्तविक शेष प्रभाव (Real Balance Effect) के विचार को अपनी मुद्रा मूल्य की व्याख्या के के लिए अपनाया। वास्तविक शेष प्रभाव का आशय उस स्थिति, जिसमें कीमत-स्तर में परिवर्तन का प्रभाव वास्तविक मौद्रिक शेषों और व्यय पर होने वाले प्रभाव से होता है। प्रो० पैटिन किन ने प्रो० किन्स के इस विचार का खण्डन किया है कि लोग मुद्रा के संचय हेतु उसकी मांग नहीं करते। प्रो० किन का कहना है कि मुद्रा की मांग उसकी क्रयशक्ति के आधार पर की जाती है। प्रो० किन ने स्पष्ट करते हुए कहा है कि मुद्रा की वास्तविक शेषों तथा सापेक्षिक कीमतों पर निर्भर करती है। यदि कीमत-स्तर बढ़ता है तो वास्तविक शेषों में कमी हो जाती है और वास्तविक शेषों को अपने पास रखने के लिए लोग व्यय में कमी करते हैं। परिणामस्वरूप कीमतों में गिरावट आती है। प्रो० किन की यह व्याख्या यह बताती है कि वास्तविक शेषों की मांग पर किस प्रकार प्रभाव पड़ता है। प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों की मुद्रा परिमाण की यह व्याख्या कि मुद्रा की मात्रा तथा कीमतों का आनुपातिक सम्बन्ध होता है असंगत प्रतीत होता है। प्रो० किन की व्याख्या प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों की इस मान्यता को स्वीकार करती है कि मुद्रा की मात्रा से आर्थिक प्रणाली का वास्तविक सन्तुलन प्रभावित नहीं होता वरन् कीमत-स्तर अवश्य प्रभावित होता है।
मुद्रा की पूर्ति में वृद्धि का प्रभाव
प्रो० पैटिन किन का विचार है कि जब लोगों के पास मुद्रा के स्टॉक में वृद्धि होती है तो वास्तविक शेषों में भी वृद्धि हो जाती है। यदि हम यह मान लें कि अर्थव्यवस्था सन्तुलन की स्थिति में है और वास्तविक शेषों में वृद्धि से असन्तुलन की स्थिति को वस्तुओं की पूर्ति द्वारा प्रतिस्थापित करके दूर किया जा सकता है। वस्तुओं की मांग बढ़ने से कीमत भी बढ़ती है। लोग वास्तविक शेषों में वृद्धि होने पर बॉण्ड्स भी खरीदते हैं जिनसे इनकी कीमतें बढ़ जाती हैं तथा उन पर ब्याज की दर कम हो जाती है। प्रो० कीन्स का विचार था कि लोग मुद्रा का प्रयोग बॉण्डस् खरीदने पर अधिक करेंगे जिससे ब्याज के रूप में होने वाली आय कम हो जाती है। प्रो० पैटिन किन कीन्स के इस विचार को स्वीकार करते हुए इतना कहते हैं कि मुद्रा का प्रयोग बॉण्ड्स को खरीदने के लिए किया जाता है। पैटिन किन कहते हैं कि बॉण्ड्स के अलावा मुद्रा का प्रयोग वस्तुओं को खरीदने के लिए भी किया जाता है। इस प्रकार बॉण्ड्स (bonds) पर मिलने वाली व्याज की दर कम होगी तथा वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि हो जाएगी।
प्रो० पैटिन किन के विचार का मुख्य विषय यह है कि व्यक्ति अपनी आय का एक भाग नकद रूप में रखते हैं। वास्तविक शेष एवं व्यय धनराशि के अनुपात का प्रभाव कीमतों पर पड़ता है उदाहरण स्वरूप यदि कीमतों में कमी होने से वस्तुओं एवं सेवाओं की माँग के बढ़ने के साथ तथा अप्रत्यक्ष रूप से वित्तीय परिसम्पत्तियों की मांग बढ़ जाती है। इसका परिणाम यह होता है कि विनियोग तथा उपभोग दोनों में वृद्धि होती है।
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