अर्थशास्त्र / Economics

पीगू प्रभाव | पीगू प्रभाव की क्रियाशीलता | पीगू प्रभाव की आलोचना

पीगू प्रभाव | पीगू प्रभाव की क्रियाशीलता | पीगू प्रभाव की आलोचना

पीगू प्रभाव

प्रो० जे०बी०से द्वारा प्रतिपादित रोजगार का प्रतिष्ठित सिद्धान्त अर्थव्यवस्था में पूर्णरोजगार की परिकल्पना करता है क्योंकि उनके अनुसार वस्तु एवं साधन बाजार में माँग एवं पूर्ति के मध्य स्वचालन की प्रक्रिया स्वतः पूर्ण रोजगार की स्थापना करेगी परन्तु समकालीन अर्थशास्त्री ए०सी० पीगू ने यह स्पष्ट किया कि अल्पकाल में बेरोजगारी हो सकती है किन्तु इसका कारण है मजदूरी की अतिशय माँग जिसके परिणामस्वरूप रोजगार स्तर में कमी आना स्वाभाविक है। अत: पूर्ण रोजगार के बिन्दु को प्राप्त करने के लिए पीगू का मत था कि मजदूरी दर में कमी करना आवश्यक है। इस प्रकार रोजगार के प्रतिष्ठित सिद्धान्त को अन्तिम रूप प्रदान करने का श्रेय पीगू को है जिसने से के नियम को श्रम मार्किट के प्रसंग में सूत्रबद्ध किया। पीगू के अनुसार, स्वतन्त्र प्रतियोगिता के अन्तर्गत आर्थिक प्रणाली की प्रवृत्ति यह रहती है कि श्रम मार्किट में अपने-आप पूर्ण रोजगार प्रदान करे। मजदूरी के ढांचे में कठोरता तथा स्वतंत्र मार्किट-अर्थव्यवस्था के कार्यकरण में हस्तक्षेप से बेरोजगारी आती है। ‘जब ट्रेड यूनियनों को मान्यता देकर और न्यूनतम मजदूरी नियम आदि बनाकर राज्य हस्तक्षेप करता है तथा श्रम एकाधिकारात्मक रवैया अपना लेता है, तो मजदूरी बढ़ जाती है और बेरोजगारी आती है। यदि सरकार के हस्तक्षेप हटा दिये जाएं और प्रतियोगिता की शक्तियों को स्वतंत्रता से कार्य करने दिया जाए, तो मजदूरी-दरों को घटाने-बढ़ाने से पूर्ण रोजगार हो जाएगा। जैसा कि पीगू ने लक्ष्य किया है, “पूर्ण रूप से स्वतंत्र प्रतियोगिता के रहते…सदैव एक ऐसी प्रवृत्ति प्रबल रूप से कार्यशील रहेगी जिससे मजदूरी की दरें मांग के साथ इस तरह सम्बद्ध हों कि प्रत्येक व्यक्ति रोजगार में लगा रहे।”

पीगू द्वारा प्रस्तुत समीकरण N=qY/w समस्त प्रस्थापना की व्याख्या कर देता है। इस समीकरण में N रोजगार में लगे श्रमिकों की संख्या है, q मजदूरी तथा वेतनों के रूप में अर्जित राष्ट्रीय आय का भाग है, Y राष्ट्रीय आय है और W मजदूरी की दर है। W को घटाकर N को बढ़ाया जा सकता है। इस प्रकार, पूर्ण रोजगार की कुंजी यह है कि मुद्रा-मजदूरी घटा दी जाए। इसे चित्र से स्पष्ट किया गया है। चित्र के भाग (A) में S श्रम का पूर्ति वक्र है और D श्रम के लिए मांग वक्र है। E पर दोनों वक्रों का कटान पूर्ण रोजगार के बिन्दु N0 को तथा वास्तविक मजदूरी W/P को प्रकट करता है जिस पर कि पूर्ण रोजगार उपलब्ध होता है। यदि वास्तविक मजदूरी को अपेक्षाकृत अधिक ऊंचे स्तर W/P1 पर रखा जाए, तो श्रम के लिए मांग से पूर्ति sd बढ़ जाती है और N0NF श्रम बेरोजगार रहता है। तभी बेरोजगारी समाप्त होती है और पूर्ण रोजगार का स्तर प्राप्त होता है जबकि मजदूरो को घटाकर W/P पर ले आया जाए। यह चित्र के भाग (B) में दिखाया गया है। MPL श्रम की सीमान्त उत्पादकता का वक्र है, जो मांग वक्र की तरह नीचे की ओर ढालू है। इसका कारण यह है कि जब अधिक श्रम रोजगार पर लगाया जाता है तो उसकी सीमान्त उत्पादकता कम हो जाती है। क्योंकि हर श्रमिक को मजदूरी उसकी सीमान्त उत्पादकता के बराबर ही प्राप्त होती है इसलिए मजदूरी के W/P1 से W/p होने पर अर्थव्यवस्था पूर्ण रोजगार के स्तर NF को प्राप्त होती है।

उपर्युक्त रेखाचित्र में वास्तविक मजदूरी (W/P) का निर्धारण माँग पक्षी तथा पूर्ति समीकरण से इस प्रकार किया जा सकता है-

D = D (W/P) तथा S = S (W/P)

चूँकि श्रमिकों की माँग पूर्ति वास्तविक मजदूरी पर निर्भर करती है अतः उसे घटाने से मांग बढ़ेगी तथा मजदूरी बढ़ाने से माँग घटेगी।

पीगू के अनुसार यदि अर्थव्यवस्था की स्वचालकता को बनाये रखा जाय तो रोजगार सन्तुलन एवं पूर्ण रोजगार की स्थापना स्वयमेव हो जाएगी। उत्पादन का पूर्ण रोजगार स्तर इसी स्तर तक मांग पैदा करेगा। समस्त मांग में वृद्धि ही स्फीति का कारण होती है। लेकिन ब्याज की दर का प्रभाव समस्त मांग को कुल उत्पादन से अधिक बढ़ने से रोकता है। पुनः स्फीति इस कारण भी होती है जब मुद्रा की मात्रा में इतनी वृद्धि होती है कि बढ़ रहा उत्पादन उसे खपा नहीं सकता। लेकिन यह भी संभव नहीं है क्योंकि मुद्रा की मात्रा में वृद्धि केवल निरपेक्ष कीमत स्तर बढ़ाती है न कि सापेक्ष कीमतें। अतः क्लासिकी प्रणाली में बिना स्फीति के पूर्ण रोजगार पाया जाता है।

पूर्ण प्रतिष्ठित मॉडल

सुगम रूप में, क्लासिको सिद्धान्त में उत्पादन और रोजगार का निर्धारण अर्थव्यवस्था के श्रम, वस्तुओं और मुद्रा बाजारों में होता है।

श्रम बाजार में, श्रम की मांग और श्रम की पूर्ति अर्थव्यवस्था में रोजगार का स्तर निर्धारित करती हैं। दोनों वास्तविक मजदूरी दर (W/P) के फलन हैं। श्रम के मांग और पूर्ति वक्रों का कटान बिन्दु संतुलन मजदूरी दर और पूर्ण रोजगार का स्तर निर्धारित करता है। वे चित्र 2.2 में W/P और NF हैं।

दूसरी ओर, पूंजी स्टॉक और प्रौद्योगिकी ज्ञान दिये होने पर कुल उत्पादन रोजगार के स्तर पर निर्भर करता है। इसे उत्पादन फलन Q=f (K,T,N) द्वारा दिखाया गया है जो चित्र में कुल उत्पादन OQ को पूर्ण रोजगार स्तर NF के अनुरूप है तथा यह चित्र 2.2 के पूर्ण रोजगार स्तर NF के बराबर है।

रोजगार के क्लासिकी मॉडल में, मुद्रा-मजदूरी तथा वास्तविक मजदूरी में परिवर्तन प्रत्यक्षता सम्बद्ध तथा समानुपाती होते हैं। जब मुद्रा-मजदूरी में कटौती होती है तो वास्तविक मजदूरी भी उतनी ही मात्रा में घट जाती है, जो बेरोजगारी को कम कर देती है और अन्त में अर्थव्यवस्था में पूर्ण रोजगार ले आती है। यह सम्बन्ध इस धारणा पर आधारित है कि कीमतें मुद्रा की मात्रा के समानुपातिक होती हैं। तर्क यह दिया जाता है कि प्रतियोगितामूलक अर्थव्यवस्था में मुद्रा-मजदूरी में कमी उत्पादन की लागत तथा वतुओं की कीमत घटा देती है जिससे उनकी मांग बढ़ जाती है। वस्तुओं की बढ़ी हुई मांग को पूरा करने के लिए, उनका उत्पादन करने को अधिक श्रमिक रोजगार पर लगाए जाते हैं।

रोजगार जब बढ़ता जाता है तो कुल उत्पादन भी बढ़ता है जब तक कि पूर्ण रोजगार की स्थिति नहीं प्राप्त होती। परन्तु जब अर्थव्यवस्था पूर्ण रोजगार स्तर पर होती है तो कुल उत्पादन स्थिर हो  जाता है। अत: पूंजी का स्टॉक, प्रौद्योगिकी ज्ञान और साधन दिये होने पर कुल उत्पादन और रोजगार की मात्रा में एक निश्चित सम्बन्ध पाया जाता है। कुल उत्पादन मजदूरी की संख्या का बढ़ता फलन है। इसे चित्र 2.3 में दिखाया गया है जहां Q=f (K’T’N) जिसमें कुल उत्पादन Q फलन (f) है पूंजी स्टॉक K का, प्रौद्योगिको ज्ञान T का और मजदूरों की संख्या N का। यह उत्पादन फलन दर्शाता है कि कुल उत्पादन, पूंजी स्टॉक तथा प्रौद्योगिकी ज्ञान दिये होने पर, मजदूरों की संख्या का बढ़ता फलन है। चित्र में कुल उत्पादन OQ चित्र के पूर्ण रोजगार स्तर NF के अनुरूप है।

क्लासिकी अर्थशास्त्री यह विश्वास रखते थे कि सामान्य प्रतियोगी हालात में बिना स्फीति के पूर्ण रोजगार कायम किया जाएगा। मालिकों में मजदूर काम पर लगाने के लिए आपस में प्रतियोगिता होने पर भी मजदूरी पूर्ण रोजगार स्तर से अधिक नहीं हो सकती और अर्थव्यवस्था में लागत-स्फीति की कोई विना नहीं होगी।

पीगू प्रभाव की क्रियाशीलता

“The Classical stationary State (1943) में प्रस्तुत ‘पीगू प्रभाव’ या वास्तविक नकदी प्रभाव (Real Balance Effect) सुप्रसिद्ध केम्ब्रिज अर्थशास्त्री आर्थर सैसिल पीगू की (Arthur Cecil Pigou) की देन है। इसके अन्तर्गत मूल्य-स्तर, नकदी परिसम्पत्ति तथा उपभोग के मध्य सम्बन्ध बताया जाता है। इस प्रभाव का प्रतिपादन इस प्रतिष्ठित तर्क को समर्थन देने के लिए किया गया था कि अर्थशास्त्र में मजदूरी में सामान्य कटौती करने से बेरोजगारी को कम किया जा सकता है। पीगू की इस मान्यता की कीन्स ने कटु आलोचना करते हुए इस बात से इंकार किया था कि मजदूरी में सामान्य कटौती करने से रोजगार में वृद्धि करना सम्भव है। जैसा कि स्पष्ट है, पीगू या वास्तविक नकदी-प्रभाव, अन्य बातें स्थिर रहते हुए, मांग पर लोगों की वास्तविक जमा में हुए परिवर्तन का प्रभाव की जांच करता है। पीगू का तर्क था कि मूल्यों में सामान्य कमी तथा साथ ही साथ मजदूरी में सामान्य कटौती करने के फलस्वरूप लोगों की नकद जमा का मूल्य (vlaue) बढ़ जाएगा। इनके परिणामस्वरूप कुल मांग में वृद्धि होगी एवं उपभोग फलन का ऊपर की ओर को विवर्तन हो जाएगा। यदि वास्तव में धन के वास्तविक मूल्य में वृद्धि होने से उपभोग व्यय बढ़ता है तो यह स्वीकार किया जा सकता है कि मूल्यों एवं मजदूरी में एक निर्दिष्ट कटौती करने के फलस्वरूप उपभोग में पर्याप्त वृद्धि होगी तथा कुल मांग में विद्यमान कमी को समाप्त करना सम्भव होगा।

पीगू के कथन को कई अर्थों में व्यक्त किया जाता है। उन्होंने लिखा है कि, “जब द्रव्य मजदूरी में कमी होती है तो द्रव्य आय में भी कम होनी चाहिए और यह कमी निरन्तर जारी रखना चाहिए। इसका अर्थ यह है कि रोजगार एवं परिणामस्वरूप वास्तविक आय स्थिर रहते हुए मौद्रिक मजदूरी में कमी होने के कारण मूल्यों में भी कमी होती जाएगी। इसका अन्य शब्दों में यह भी अभिप्राय है कि वास्तविक आय के रूप में मापित मुद्रा के स्टॉक का अर्थ बढ़ता जाएगा। परन्तु जिस सीमा तक एक सामान्य (प्रतिनिधि) व्यक्ति भविष्य आय के अतिरिक्त अन्य किसी प्रयोजन से बचत करता है, वह इस बात पर निर्भर करेगा कि वर्तमान में वास्तविक आय के रूप में मापित जमा का परिमाण कितना है। जैसे-जैसे यह जमा बढ़ती है, निर्दिष्ट वास्तविक आय में बचत की राशि घटती जाएगी तथा अन्तः लुप्त हो जाएगी, जिससे हम उस स्थिति में वापस आ जाते हैं…जहां ब्याज की ऋणात्मक दर असम्भव हो जाती है।”

पीगू प्रभाव किस प्रकार कार्य करता है? मान लीजिए कि निवेश में कमी हो जाती है जिसके फलस्वरूप अर्थव्यवस्था में आय एवं रोजगार में भी कमी हो जाती है। बेरोजगारी होने पर मौद्रिक मजदूरी में कमी होगी जिसके फलस्वरूप लागतों एवं मूल्यों में कमी हो जाएगी। संक्षेप में, मजदूरी एवं मूल्यों में कमी सारी अर्थव्यवस्था को प्रभावित कर लेती है। इसका परिसम्पत्ति स्वामियों की परिसम्पत्ति पर क्या प्रभाव पड़ेगा? परिसम्पत्ति स्वामियों का सम्पूर्ण धन विभिन्न प्रकार की  वास्तविक तथा मौद्रिक सम्पत्ति के रूप में संचित होता है। जहां तक इन व्यक्तियों को वास्तविक परिसम्पत्ति भूमि भवन, शेयर आदि का सम्बन्ध है, इनके मल्यों में अन्य वस्तुओं के मूल्यों में कमी होने के साथ कमी होगी। परिणामस्वरूप, इन परिसम्पत्तियों के वास्तविक मूल्य स्थिर रहेंगे। परन्तु सभी वस्तुओं एवं सेवाओं की कीमतों में कमी होने के फलस्वरूप मुद्रा, बचत जमाओं, सरकारी बाँड आदि स्थिर मौद्रिक परिसम्पत्ति का वास्तविक मूल्य बढ़ जाएगा। इन परिसम्पत्तियों का वास्तविक मूल्य बढ़ने से परिसम्पत्ति स्वामी अपनी आय का अधिक अनुपात अथवा भाग उपभोग पर व्यय करेंगे। जिससे कुल उपभोग फलन ऊपर की ओर विवर्तित हो जाएगा। उपभोग फलन में ऊपर की ओर विवर्तन होने से कुल-समर्थ मांग का स्तर बढ़ेगा जिससे उत्पादन एवं रोजगार में भी। वृद्धि होगी। इससे मूल्य-स्तर में कुछ कमी होगी। इसके फलस्वरूप निर्दिष्ट परिमाण में विद्यमान मौद्रिक परिसम्पत्ति से वास्तविक मूल्य में उतनी वृद्धि होगी कि उपभोग फलन एवं तदनुसार कुल समर्थ भाग फलन में ऊपर की ओर इतना पर्याप्त विवर्तन हो जाये कि अर्थव्यवस्था में पूर्ण रोजगार की अनुरूपी वास्तविक साम्य आय प्राप्त हो सके।

जिस सीमा तक पीगू प्रभाव के माध्यम से साम्य आय को बढ़ाना संभव है, वहां तक संभवतः पीगू इस प्रतिष्ठित तर्क की रक्षा करने में सफल हुए हैं कि मूल्य एवं मजदूरी लचीली होने पर पूर्ण रोजगार की साम्य स्थिति प्राप्त की जा सकती है। जब तक वस्तुओं के मूल्य, मजदूरी की दरें एवं ब्याज की दरें ऊपर एवं नीचे दोनों दिशाओं में लचीली हैं, अर्थव्यवस्था की क्षमता पूर्ण रोजगार की स्थिति में पहुंचने की रहेगी। समष्टि स्थैतिक विश्लेषण में स्थायी बेरोजगारी केवल उसी दशा में विद्यमान होगी जब इन तीनों चरों में से कोई एक चर अपरिवर्तनीय होगा। अपरिवर्तनीय मौद्रिक मजदूरी होने के कारण अर्थव्यवस्था में स्थायी बेरोजगारी का जन्म होता है। यही प्रभाव अपरिवर्तनीय मूल्य-स्तर एवं अपरिवर्तनीय ब्याज की दर का भी होगा। अन्य शब्दों में, मौद्रिक आय, मूल्य-स्तर तथा ब्याज की दर अपरिवर्तनीय होने पर भी वास्तविक जमा प्रभाव से अर्थव्यवस्था में बेरोजगारी की समस्या हल हो सकती है। संक्षेप में पीगू ने यह सिद्ध करके कि यदि मजदूरी एवं कीमतें लचीली हैं तो अर्थव्यवस्था में स्वतः पूर्ण रोजगार की स्थिति विद्यमान हो जाएगी प्रतिष्ठित अर्थशास्त्र के लिए विजय प्राप्त की थी।

पीगू प्रभाव की आलोचना-

आधुनिक अर्थशास्त्रियों की पीगू एवं प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों की इस धारणा में कोई आस्था नहीं है तथा अनेक प्रकार से “पीगू प्रभाव” की आलोचना की गई है। परिणामस्वरूप, कीन्स के प्रहार से वे प्रतिष्ठित विचाराधारा को नहीं बचा पाए हैं। स्वयं पीगू ने भी यह स्वीकार किया है कि उनकी धारणा केवल एक बौद्धिक कसरत है तथा “विचारों को स्पष्ट करने की सीमित उपादेयता के अतिरिक्त व्यावहारिक जीवन में इसका कोई महत्व नहीं है।” उन्होंने यह भी स्वीकार किया है कि कुल मांग की कमी को समाप्त करने तथा वास्तविक जमा प्रभाव को वास्तव में प्रभावशाली बनाने के लिए कोई भी सरकार मौद्रिक मजदूरी में व्यापक कटौती नहीं करना चाहेगी।

  1. पीगू के तर्क स्थिर मुद्रा परिसम्पत्ति के सन्दर्भ में सर्वथा अनुपयुक्त है। मूल्य-स्तर कम होने पर यदि ऋणदाताओं के लिए इन पावनों के वास्तविक अर्थ में वृद्धि हो भी जाय, तब भी ऋणियों के लिए इस मूल्य वृद्धि के फलस्वरूप ऋण का भार बढ़ जाएगा। परिणामस्वरूप, ऋणदाताओं की औसत उपभोग प्रवृत्ति (APC) में वृद्धि एवं ऋणियों की औसत प्रवृत्ति में गिरावट परस्पर निरस्त हो जाएगी तथा कुल APC अपरिवर्तित रहेगी।
  2. पीगू प्रभाव इस मान्यता पर आधारित है कि सम्पत्ति स्वामियों की धन के प्रति रुचि इसके स्टॉक में वृद्धि होने पर भी अपरिवर्तित रहती है। प्रो० जी० कटोना ने यह तर्क दिया है कि साधारणत: धन के स्टॉक में वृद्धि होने के साथ-साथ धन के प्रति रुचि भी प्रबल होती जाती है। यदि ऐसा होता है तो पीगू प्रभाव के सम्पूर्ण आधार को चुनौती दी जा सकती है।
  3. मूल्य-स्तर में कमी इस आशा को जन्म दे सकती है कि मूल्यों में और कमी होती जाएगी। ऐसी आशंकाओं के कारण उपभोक्ता अनेक वस्तुओं की खरीद को स्थगित कर देंगे क्योंकि उन्हें अपनी मुद्रा के स्टॉक की क्रय-शक्ति निरन्तर बढ़ने की आशा है। परिणामस्वरूप, उपभोग फलन में ऊपर को ओर को विवर्तन नहीं होगा। ऐसी स्थिति में पीगू के तर्कों के विपरीत यह भी संभव है कि इस उपभोग फलन में नीचे की ओर को विवर्तन हो जाय। ऐसी सम्भावना होने पर मूल्यों में हास्य की नीति अनेक ऐसी भ्रांतियों को जन्म दे सकती है जो अर्थव्यवस्था में बेरोजगारी कम करने के स्थान पर इसे बढ़ाती है।
  4. पीगू प्रभाव केवल तुलनात्मक स्थैतिकी से संबन्धित एक कसरत है। यह हमें धीमी गति से हुए मूल्य-हास से संबद्ध गत्यात्मकता जो वस्तुतः आय एवं सम्पत्ति वितरण में अवांछनीय पुनर्वितरण करके निष्क्रिय वर्ग को प्रश्रय देती है और सक्रिय एवं उद्यमशील वर्ग पर प्रतिकूल प्रभाव डालकर रोजगार के अवसरों को कम कर देती है के विषय में कुछ नहीं बताता है। पीगू प्रभाव एक ऐसा तर्क है जो मूल्यों में दीर्घकालीन ह्रास (गिरावट) की उस प्रवृत्ति का समर्थन करता है जिससे व्यापारिक लाभों तथा उपभोक्ता वर्ग की रोजगार-स्थिति पर प्रतिकूल प्रभाव सम्भव है।
  5. वास्तविक-जमा प्रभाव अर्थव्यवस्था के वास्तविक एवं मौद्रिक क्षेत्रों से सम्बद्ध प्रतिपादित नवप्रतिष्ठित विचाराधारा के भी प्रतिकूल है। यदि यह स्वीकार किया जाये (भले ही हमारी मान्यता गलत हो)-जैसा कि प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों ने माना था कि वास्तविक अथवा वस्तु बाजार एवं मौद्रिक बाजार परस्पर पृथक् हैं तो हमें यह देखना होगा कि सामान्य मूल्य-स्तर में होने वाले परिवर्तन कुल वास्तविक मांग को वास्तविक उपभोग व्यय के माध्यम द्वारा किस प्रकार प्रभावित करेंगे। वास्तविक जमा प्रभाव मौद्रिक एवं मूल्य सिद्धांतों को एकीकृत करता है। इसलिए यह स्वाभाविक है कि प्रतिष्ठित मॉडल में वास्तविक-जमा प्रभाव को शामिल करने पर वास्तविक एवं मौद्रिक क्षेत्रों के विषय में नवप्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों द्वारा प्रस्तुत अन्तर के प्रतिकूल निष्कर्ष प्राप्त होंगे। इसके विपरीत, मॉडल से वातविक-जमा प्रभाव को निकालने पर एक विरोधाभास उत्पन्न हो जाता है। इस संदर्भ में इतना बताना पर्याप्त होगा कि साधारण तौर पर एक समष्टि आर्थिक मॉडल द्वयात्मक नहीं होता है क्योंकि साधारणतया आर्थिक प्रणाली को स्व-निहित बाजारों के रूप में पृथक् करना तथा इनसे संबद्ध चरों साम्य-मूल ज्ञात करना सम्भव नहीं होता है। साधारणत: प्रत्येक घटना प्रत्येक दूसरी घटना पर निर्भर रहती है, अर्थात् विभिन्न चरों के मध्य परस्पर निर्भरता होती है, चाहे वे वास्तविक हों अथवा मौद्रिक हों।

अन्त में पीगू प्रभाव सम्पत्तिधारियों के गैर-मुद्रा अथवा वास्तविक-अंश पर मन्दी के होने वाले प्रतिकूल प्रभाव पर कोई ध्यान नहीं देता है। मूल्यों में कमी होने से वास्तविक तथा अन्य वित्तीय परिसम्पत्ति का वास्तविक अर्ध कम हो जाएगा। परिणामस्वरूप, द्रव्य-परिसम्पति पर मूल्यों में कमी होने के अच्छे प्रभाव, गैर-मौद्रिक परिसम्पत्ति पर इसके प्रतिकूल प्रभावों द्वारा नष्ट हो जायेंगे। इन्हीं कारणों से अर्थशास्त्री पीगू प्रभाव का गम्भीरतापूर्वक विवेचन करने की जरूरत नहीं समझते हैं। पीगू प्रभाव के आधार पर यह तर्क नहीं दिया जा सकता कि बेरोजगारी दूर करने के पावन लक्ष्य की सिद्धि हेतु मूल्यों में अधिकतम लचीलेपन का होना आवश्यक है। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि अर्थव्यवस्था में बेरोजगारी की समस्या के व्यावहारिक समाधान के रूप में पीगू प्रभाव का कोई विशेष महत्व नहीं है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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