अर्थशास्त्र / Economics

कीन्सीय अर्थशास्त्र | कीन्सीय अर्थशास्त्र में का आलोचनात्मक मूल्यांकन | कीन्सीय अर्थशास्त्र में प्रस्तुत आय | कीन्सीय अर्थशास्त्र में रोजगार माडल

कीन्सीय अर्थशास्त्र | कीन्सीय अर्थशास्त्र में का आलोचनात्मक मूल्यांकन | कीन्सीय अर्थशास्त्र में प्रस्तुत आय | कीन्सीय अर्थशास्त्र में रोजगार माडल

कीन्सीय अर्थशास्त्र

1936 में “जनरल थ्योरी” में प्रस्तुत मन्दीकालीन अर्थशास्त्र के अन्तर्गत कीन्स का केन्द्र बिन्दु अल्प रोजगार साम्य था। प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों की मान्यता पूर्ण रोजगार की थी, उन्होंने अल्प रोजगार की स्थिति का विवेचन किया तो था परन्तु उनका कहना था कि स्वतः ही अर्थव्यवस्था के मजदूरी, कीमतों तथा ब्याज की दरों के माध्यम से अल्प-रोजगार समाप्त हो जायेगा। कीन्स ने प्रतिष्ठित विद्वानों के पूर्ण रोजगार साम्य की आलोचना की है और बताया कि वास्तविक स्थिति अल्प रोजगार की है। पूर्ण रोजगार से कम रोजगार की स्थिति सभी देशों में पाई जाती है और इसकी कठिनाइयों को सरकारी हस्तक्षेप की नीति के द्वारा दूर करके पूर्णरोजगार की प्राप्ति के लिए प्रयल करना चाहिए।

कीन्सीय अर्थशास्त्र में का आलोचनात्मक मूल्यांकन

कीन्सीय अर्थशास्त्र की निम्नलिखित दृष्टिकोणों से मूल्यांकन किया जा सकता है-

  1. बेरोजगारी का स्वरूप एवं प्रतिनिदान-

विकासशील देश की आर्थिक समस्याएँ, आर्थिक विशेषताएँ, राजनीतिक एवं सामाजिक परिवेश विकसित देशों से भिन्न होता है। विकासशील देशों में प्राकृतिक साधनों की बहुलता है किन्तु पूँजी के अभाव में उनका समुचित विदोहन नहीं हो पा रहा है, अत: बेराजगारी भी है और गरीबी भी। कृषि की प्रधानता है व अधिकांश जनता का निवास गाँवों में होता है। ग्रामीण जीवन एवं कृषि व्यवसाय होने से अनेक सामाजिक बन्धन बड़े जटिल हो गये हैं जो आर्थिक विकास के मार्ग में बाधक होते हैं। पिछड़ी प्रविधि, गतिशीलता का अभाव, शिक्षा व प्रशिक्षण का नीचा स्तर, भाग्यवादिता, महत्वाकांक्षा का अभाव, भ्रष्ट मेतृत्वपूर्ण शासन व प्रशासन ने इन देशों को गरीबी के कुचक्र में डाल रखा है। जहाँ तक बेराजगारी का प्रश्न है विकासशील देशों में तीन प्रकार की बेरोजगारी पाई जाती है-

(i) स्थायी बेरोजगारी- जनसंख्या का दबाव अधिक है। औद्योगीकरण, मशीनीकरण एवं शहरीकरण न होने से रोजगार के अवसरों का अभाव है अत: जनसंख्या का एक बड़ा प्रतिशत स्थाई रूप से बेरोजगार है।

(ii) छुपा हुआ बेरोजगार- विकासशील देश प्रायः कृषि प्रधान देश है। कृषि इनके लिए व्यवसाय नहीं वरन् जीवनयापन का एक ढंग है। सभी लोग कृषि में लगे रहते हैं चाहे उनकी कृषि में आवश्यकता हो या न हो। कुटीर वैकल्पिक उद्योगों का अभाव, शहरों में रोजगार के अवसरों की अनुपलब्धता, बढ़ती जनसंख्या एवं घटती. प्रति व्यक्ति भूमि की मात्रा ने धीरे-धीरे छिपे हुए बेरोजगार व्यक्तियों की संख्या में वृद्धि की है। ये वे व्यक्ति हैं जो रोजगार से प्रतीत होते हैं किन्तु उनकी सीमान्त उत्पादकता शून्य होती है।

(iii) अर्द्ध-बेराजगार- जिन्हें रोजगार मिला भी है उनकी पूरी कार्यक्षमता का उपयोग नहीं होता है। कुछ लोग बहुत योग्य होते हुए भी छोटे पदों पर कार्य करने के लिये मजबूर हो जाते हैं जिससे उनमें कुण्ठा ही विकसित होती है। अनेक व्यवसाय, वर्ष भर कार्य नहीं दे पाते हैं; जैसे-कृषि, चीनी उद्योग आदि। अत: ऐसे श्रमिकों को अर्द्ध-बेरोजगार कहा जाना चाहिये।

कीन्स के रोजगार सिद्धान्त में केवल चक्रीय बेरोजगारी की समस्या का समाधान ढूँढ़ा गया है। कीन्स की धारणा है कि बेरोजगारी माँग की कमी के कारण पैदा होती है और माँग में वृद्धि से समाप्त हो जाती है अर्थात् विकसित राष्ट्रों में रोजगार के अवसर होते हैं किन्तु लाभ के न मिलने से उन अवसरों को रिक्त ही रखा जाता है। विकासशील देशों में अवसर ही नहीं हैं। अत: यहाँ पहले अवसरों का निर्माण करने के लिए पूँजी को प्राकृतिक साधनों के साथ विनियोग कर आय सृजन करना होगा, जिसे उत्पादन कहा जाता है। अत: हमारी समस्या का हल माँग बढ़ाना नहीं अपितु उत्पादन बढ़ाना है। उत्पादन बढ़ाने के मार्ग में एक ही रुकावट है पूँजी की कमी, अत: पूँजी- निर्माण विकास की पूँजी है। इस विश्लेषण के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि कीन्स का रोजगर सिद्धान्त विकासशील देशों की बेरोजगारी की समस्या को हल नहीं कर सकता है। वह तो मन्दी का अर्थशास्त्र है। माँग की कमी विकसित देशों की समस्या है। हमारे जैसे देशों में माँग अधिक है पूर्ति कम, अतः हमें पूर्ति पक्ष को अधिक महत्व देना होगा।

प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों ने उत्पादन बढ़ाने, बचत बढ़ाने एवं विनियोग बढ़ाने को अच्छा अर्थशास्त्र कहा। प्रतिष्ठित अर्थशास्त्र विकसित देशों में लागू नहीं होता किन्तु उसके कई अंग विकासशील देशों के लिए उपयोगी है। उन्होंने बेरोजगारी की समस्या को सुलझाने के लिए बचत एवं पूँजी निर्माण पर बल दिया था। उनका सुझाव यह था कि देश के नवीन उद्योगों के विकास के निमित्त चालू आय में से अधिक बचतें करके आवश्यक पूँजी का निर्माण करना चाहिए। पिछड़े हुए देशों के करोड़ों बेरोजगार व्यक्तियों को रोजगार दिलाने का एकमात्र रास्ता पूँजी- निर्माण में वृद्धि करना है। कीन्स द्वारा प्रस्तावित व्यय वृद्धि का सिद्धान्त तो बचतों में कमी करेगा, विनियोग योग्य पूँजी का अभाव हो जायेगा और पूँजी निर्माण की दर में कमी आने से उत्पादन एवं रोजगार में भी कमी आ जायेगी। अतः जो विकसित अर्थ-व्यवस्था के लिए अमृत है वही हमारे लिए विष है।

  1. आर्थिक निवास एवं गुणक प्रक्रिया-

कीन्स ने अपने विनियोग गुणक के माध्यम से यह स्पष्ट करना चाहा कि विनियोग में वृद्धि से राष्ट्रीय आय में कई गुना वृद्धि होती है। यह तभी सम्भव है जबकि माँग, बढ़ने से उत्पादन बढ़े, अर्थात् पूर्ति-वक्र लोचदार हो। पूर्ति-वक्र लोचदार से आशय है कि कीमतें बढ़ने पुर पूर्ति बढ़ाई जा सके। ऐसा तभी सम्भव है जबकि उत्पादन के साधनों का पूर्ण विदोहन न किया गया हो अर्थात् उनमें अतिरिक्त उत्पादन क्षमता विद्यमान हो, जैसे कोई मशीन तीनों शिफ्ट में चलाई जा सकती है, किन्तु उसमें दो ही शिफ्ट चल रही है। ऐसी स्थिति में माँग बढ़ने पर उससे तीसरी शिफ्ट भी चलायी जा सकती है।

क्या विकासशील देशों में ऐसी अतिरिक्त उत्पादन क्षमता पाई जाती है। यदि हम विकासशील देश का पूर्ति-वक्र बनाएँ तो वह प्रभावपूर्ण माँग बढ़ने से एक सीमा तक बढ़ता है और उसके बाद x-अक्ष के समानान्तर हो जाता है। अर्थात् प्रभावपूर्ण माँग बढ़ने के बावजूद भी उत्पादन नहीं बढ़ता है। ऐसा इसलिए होता है कि पूँजीगत विनियोगों की कमी होती है जब तक उन विद्यमान मशीनों में अतिरिक्त क्षमता होती है उनके उपयोग से उत्पादन बढ़ता है। एक सीमा के बाद उस मशीन का और अधिक उपयोग नहीं हो पाता है तथा नई मशीन लगाने के लिए साधक नहीं होते हैं। अतः विकास के प्रत्येक चरण का पूर्ति-वक्र एक सीमा के बाद बेलोच हो जाता है। उपर्युक्त चित्र में OP एवं KP दो विकास अवस्थाओं में पूर्ति वक्र है प्रथम अवस्था में 0→M क्षेत्र में माँग बढ़ने से उत्पादन बढ़ता है। जब माँग OM की उत्पादन OT2 था। माँग बढ़कर OM1 हो गई तो उत्पादन OT1 हो गया। कीन्स का गुणक सिद्धान्त केवल 0→K क्षेत्र में ही लागू होता है इनके बाद K→P क्षेत्र में नहीं।

गुणक सिद्धान्त के सफलतापूर्वक कार्य करने के लिए यह भी आवश्यक है कि अर्थव्यवस्था में लोच हो। माँग बढ़ने से-कीमत बढ़े-कीमत बढ़ने से लाभ बढ़े-विनियोग बढ़े-रोजगार बढ़े। किन्तु विकासशील देशों में माँग बढ़ने से कीमत की वृद्धि होती है। कीमत वृद्धि से मजदूरी व महंगाई भत्ते में वृद्धि तथा माँग बढ़ने से उद्योगपति को लाभ नहीं होता है अत: वह विनियोग बढ़ाने के लिए प्रेरित नहीं होता है। इसी प्रकार कीमत बढ़ने से मजदूरी बढ़ाकर उपभोग बढ़ जाता है-बचत से विनियोग नहीं बढ़ता है इसलिए कीन्स का गुणक का सिद्धान्त भी विकासशील देशों में लागू नहीं होता है।

विकासशील देशों में जब आय बढ़ती है तो इसी बढ़ी हुई आय से बचत एवं विनियोग नहीं बढ़ता वरन् उपभोग बढ़ता है क्योंकि अधिकांश आवश्यकताएँ अतृप्त रहती हैं तथा आय माँग की लोच अधिक होती है। पाश्चात्य देशों का प्रभाव, शहरीकरण की प्रक्रिया से दिखावा प्रभाव अधिक बलवान हो जाता है अतः गुणक प्रभावी नहीं होता है।

सीमान्त उपभोग प्रवृत्ति के माध्यम से विनियोग के गुणक प्रभाव की अर्थशास्त्र में सार्थकता इसलिए भी धूमिल पड़ जाती है कि इन देशों में कृषि की प्रधानता है जहाँ उत्पादन एक निश्चित अवधि के बाद होता है। अत: कीमतें बढ़ने से मुद्रा-प्रसार को जन्म मिलता है न कि रोजगार को।

डॉ० वी०के०आर०वी० राव ने लिखा है-

“My conclusion therefore is that multiplier principle as enunciated by Keynes does not operate in regard to the problem of under-developed economy.”

  1. अल्पकालीन प्रस्तुति-

कीन्स का अर्थशास्त्र एक अल्पकालीन विश्लेषण है कीन्स ने पूर्ति फलन के विश्लेषण को केवल इसलिए छोड़ दिया कि पूर्ति के विभिन्न घटकों में अल्पकाल में परिवर्तन कर पाना सम्भव नहीं है। किन्तु विकास एक दीर्घकालीन प्रक्रिया है। पिछड़े देश की समस्याएँ एक योजनाबद्ध एवं समयबद्ध कार्यक्रम के अन्तर्गत सतत् प्रयास से हल हो सकती है अत: इसके लिए दीर्घकालीन विश्लेषण की आवश्यकता है।

  1. पूँजी निर्माण एवं आय वितरण-

कीन्स ने आय के पुनर्वितरण से माँग बढ़ाने की चर्चा की है। विकासशील देशों में पूँजी का निर्माण असमान आय वितरण में अधिक सम्भव है।

  1. बचत की भूमिका

कीन्स ने बचत को खलनायिका माना है। बढ़ती बचतें बेरोजगारी लाती हैं क्योंकि उससे माँग घटती है। विकासशील देश में बचत बढ़ाना विकास की पहली कुंजी है। बचत बढ़ाकर विनियोग बढ़ाना ही पूँजी निर्माण कहलाता है।

  1. राजकोषीय प्रतिनिदान-

कीन्स ने घाटे का बजट बनाकर सार्वजनिक निर्माण के ऐसे कार्यों में व्यय करने की संस्तुति की है जो प्रत्यक्ष व तुरन्त उत्पादन नहीं करते हैं किन्तु भारत जैसे देशों में तुरन्त उत्पादन देने वाले उद्योगों में विनियोग करना आवश्यक है। यदि विनियोग एवं उत्पादन के बीच का काल लम्बा होगा तो मुद्रा-प्रसार फैल जायेगा जिससे विकास के समस्त प्रयत्न बेकार हो जायेंगे।

  1. मूल्य-उत्पादन सम्बन्ध-

विकासशील देश में उत्पादन वक्र का ढाल (सामूहिक पूर्ति- वक्र) विकसित देश के विपरीत लचीला नहीं होता है अर्थात् कीमत वृद्धि के परिणामस्वरूप उत्पादन में तेजी से वृद्धि नहीं होती है। दूसरे शब्दों में सामूहिक पूर्ति वक्र बेलोचदार होता है। इसका कारण यह है कि अर्द्धविकसित देश में प्रारम्भिक निवेश के परिणामस्वरूप बढ़ी हुई माँग के अनुपात में उपयोग वस्तुओं का उत्पादन जितना बढ़ना चाहिए, उतना नहीं बढ़ पाता है और बेरोजगार लोगों को अतिरिक्त रोजगार नहीं मिल पाता है। इसी कारण अर्द्धविकसित देशों में गुणक कार्यशील नहीं हो सकता है। इस सन्दर्भ में प्रो० ए०के दास गुप्ता ने ठीक ही कहा है-

“प्रो० कीन्स से अपने सामान्यः सिद्धान्त में जिस अर्थ में सामान्य शब्द का प्रयोग किया है उसकी ‘सामान्यता’ चाहे कुछ भी क्यों न रही हों, किन्तु सामान्य सिद्धान्त की उपयोगिता अर्द्धविकसित देशों के लिए सीमित है।” शुम्पीटर का विचार है, “व्यावहारिक कीन्सीयवाद एक ऐसा पौधा है जिसे विदेशी भूमि में ले जाकर नहीं उगाया जा सकता यदि अन्य देशों में इसे लगाया जाता है तो सूख ही नहीं जाता वरन् विषाक्त हो जाता है। केवल अंग्रेजी मिट्टी में ही यह फलता- फूलता है।”

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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