अर्थशास्त्र / Economics

सन्तुलित एवं असन्तुलित विकास | सन्तुलित विकास की तुलनात्मक श्रेष्ठता | असन्तुलित विकास की तुलनात्मक श्रेष्ठता | सन्तुलित एवं असन्तुलित विकास के बीच विवाद की निरर्थकता | सन्तुलित एवं असन्तुलित विकास के विवाद की आलोचनात्मक समीक्षा

सन्तुलित एवं असन्तुलित विकास | सन्तुलित विकास की तुलनात्मक श्रेष्ठता | असन्तुलित विकास की तुलनात्मक श्रेष्ठता | सन्तुलित एवं असन्तुलित विकास के बीच विवाद की निरर्थकता | सन्तुलित एवं असन्तुलित विकास के विवाद की आलोचनात्मक समीक्षा | Balanced and unbalanced development in Hindi | Comparative superiority of balanced development in Hindi | Comparative superiority of unbalanced development in Hindi | The futility of the dispute between balanced and unbalanced development in Hindi | Critical Review of the Controversy of Balanced and Unbalanced Development in Hindi

सन्तुलित एवं असन्तुलित विकास

विकास की व्यूह रचना के सम्बन्ध में दो परस्पर विरोधी विचारधारायें प्रचलित हैं- सन्तुलित विकास तथा असन्तुलित विकास। सन्तुलित विकास की व्यूह रचना के समर्थक निवेश का ऐसा स्वरूप सुझाते हैं, जिससे अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों का समकालिक एवं सन्तुलित  विकास सुनिश्चित हो सके। दूसरी ओर, असन्तुलित विकास की व्यूह रचना के समर्थक यह मानते हैं कि कुछ महत्वपूर्ण उद्योगों में निवेश केन्द्रित करके त्वरित गति से आर्थिक विकास सम्भव है।

सन्तुलित विकास की तुलनात्मक श्रेष्ठता

निम्न तर्कों के आधार पर सन्तुलित विकास की व्यूह रचना को असन्तुलित विकास की व्यूह रचना से श्रेष्ठ ठहराया जाता है-

  1. बाजार की लघुता से उत्पन्न कठिनाइयों का निवारण- अल्पविकसित देशों के विशिष्ट उद्योगों में निजी निवेश से सम्बन्धित रुकावट इसलिये उपस्थित होती है, क्योंकि उन उद्योगों द्वारा उत्पादित माल के लिये मण्डी का आकार अत्यन्त संकुचित होता है। परस्पर पोषक उद्योगों में समकालीन निवेश द्वार मण्डी की लघुता से उत्पन्न रूकावट समाप्त की जा सकती है।
  2. अनुपूरकता का सम्बन्ध- सन्तुलित विकास की व्यूह रचना अनुपूरकता के उस सम्बन्ध पर आधारित है, जो उत्पादन की विभिन्न अवस्थाओं, आवश्यकताओं, उत्पादन के साधनों, साधन तथा उत्पादित वस्तुओं के बीच पाया जाता है। यह अनुपूरकता अनेक बाहरी बचतों को जन्म देती है। उदाहरण के लिये, नये उद्योगों की स्थापना या वर्तमान उद्योगों के विस्तार से अन्य अद्योगों के निर्मित माल हेतु बाजार उत्पन्न हो जाता है या विस्तृत हो जाता है क्योंकि नये क्षेत्रों द्वारा अर्जित आय अमुक वस्तुओं की खरीद पर खर्च की जाती है।
  3. उपलब्ध साधनों का इष्टतम प्रयोग- असन्तुलित विकास की व्यूह रचना में पदार्थों का अपव्यय होता है तथा जनशक्ति निष्क्रिय बनी रहती है। सन्तुलित विकास की व्यूह रचना के अन्तर्गत उपलब्ध साधनों को इष्टतम प्रयोग सम्भव होता है।
  4. मन्दी से ग्रस्त अर्थव्यवस्था के लिये लाभदायक- सन्तुलित विकास की तकनीक मन्दी से ग्रस्त अर्थव्यवस्था के लिये लाभदायक सिद्ध होती है। परस्पर-पोषक क्षेत्रों में समकालीन निवेश बाजार के विस्तार, व्यापारिक आशावादियों तथा पूँजी की सीमान्त उत्पादकता में वृद्धि लाकर अर्थव्यवस्था को पुनरुद्धार की अवस्था में पहुँचा देता है।
  5. कृषि एवं उद्योग का साथ-साथ विकास- असन्तुलित विकास की व्यूह रचना के अन्तर्गत कृषि की उपेक्षा के कारण या तो अर्थव्यवस्था गतिहीन हो जाती है या विकास की गति धीमी पड़ जाती हैं, सन्तुलित विकास की व्यूह रचना के अन्तर्गत कृषि एवं उद्योगों का साथ-साथ विकास सम्भव होता है। फलतः कृषि क्षेत्र में विद्यमान अदृश्य बेरोजगारी समाप्त हो जाती है।
  6. सामाजिक लाभ में वृद्धि- असन्तुलित विकास के कारण सामाजिक लाभ का स्तर व्यक्तगत लाभ के स्तर से नीचा रह सकता है। सन्तुलित विकास द्वारा व्यक्तिगत एवं सामाजिक लाभ का अन्तर घट जाता है। यह भी सम्भव है कि कई क्षेत्रों में समकालीन निवेश से व्यक्तिगत लाभ का स्तर नीचा रह जाये, किन्तु सामाजिक लाभ का स्तर ऊँचा हो जाये।

असन्तुलित विकास की तुलनात्मक श्रेष्ठता

निम्न तर्कों के आधार पर असन्तुलित विकास की व्यूह रचना को सन्तुलित विकास की व्यूह रचना से श्रेष्ठ ठहराया जाता है-

  1. अल्पविकसित देशों में साधनों की न्यूनता- सन्तुलित विकास की तकनीक लागू करने के लिये अल्पविकसित देशों में पूँजी, निपुण-श्रम, प्रबन्ध-कौशल, कच्चा माल आदि साधनों की पूर्ति पर्याप्त नहीं होती। इसलिये सिंगर (singer) ने अल्पविकसित देशों के लिये सामाने से प्रहार करने की अपेक्षा छापामार युद्ध की कला अधिक उपयोगी बतायी है।
  2. ऐतिहासिक आधार- विभिन्न देशों का आर्थिक इतिहास दर्शाता है कि बहुधा आर्थिक विकास असन्तुलित हो रहा है। उदाहरण के लिये, इंगलैण्ड में औद्योगिक क्रान्ति सन्तुलित विकास सिद्धान्त के अनुरूप नहीं हुई, यद्यपि इसका अन्तिम परिणाम सन्तुलित विकास रहा।
  3. न्यूनताओं एवं बाधाओं द्वारा आविष्कारों तथा नव-प्रवर्तनों की प्रेरणा- ‘आवश्यकता’ आविष्कार की जननी है। उत्पत्ति के साधनों को कुछेक उद्योगों में केन्द्रित कर देने से बड़े पैमाने के उत्पादन की बचतें प्राप्त हो सकती है। चूंकि समूचे औद्योगिक क्षेत्र में तकनीकी प्रगति एकरूप नहीं होती, इसलिये उत्पत्ति के उपलब्ध साधनों को अच्छे-दूरे दोनों तरह के उद्योगों में लगाने की बजाय ऐसे उद्योगों में केन्द्रित करना लाभदायक होगा, जो अधिक विकसित हो। अन्तुलित विकास का स्वरूप प्रदर्शित करने वाली न्यूनतायें एवं बाधायें आविष्कारों एवं नव- प्रवर्तनों को शक्तिशाली प्रेरणा देने वाली होती हैं।
  4. तुलनात्मक लागत सिद्धान्त के अनुरूप- ततुलनात्मक लागत सिद्धान्त क अनुसार, प्रत्येक देश को उन वस्तुओं के उत्पादन में विशिष्टता प्राप्त करनी चाहिये, जिनमें उसे तुलनात्मक लाभ अधिक हो। तुलनात्मक हानि वाली वस्तुओं का उसे आयात कर लेना चाहिये। असन्तुलित विकास की तकनीक तुलनात्मक लागत सिद्धान्त के अनुरूप है, जबकि सन्तुलित विकास की तकनीक इस सिद्धान्त से मेल नहीं खाती।
  5. स्फीति के भय का निवारण- अनेक उद्योगों में समकालीन निवेश के फलस्वरूप उपलब्ध साधनों पर भारी दबाव पड़ता है तथा उनकी कीमतें बढ़ जाती है। इससे ‘लागत-प्रेरित स्फीति’ को प्रोत्साहन मिलता है। असन्तुलित विकास की तकनीक अपनाकर स्फीति के भय का निवारण सम्भव है।
  6. सीमित राजकीय हस्तक्षेप- सन्तुलित विकास की सफलता राजकीय शक्ति के प्रयोग पर निर्भर होती है। फलतः ‘समाजवाद’ पिछले दरवाजे से प्रवेश कर जाता है असन्तुलित विकास की तकनीक ‘मिश्रित अर्थव्यवस्था’ की समर्थक है; क्योंकि इसके अन्तर्गत सरकार सामाजिक उर्ध्वस्थ पूँजी में ही निवेश करती है, जिससे प्रत्यक्ष उत्पादक क्रियाओं में निजी प्रवेश प्रोत्साहित होता है।

सन्तुलित एवं असन्तुलित विकास के बीच विवाद की निरर्थकता

‘अर्थव्यवस्था में सन्तुलन की स्थापना’ दोनों ही विकास की तकनीकों का लक्ष्य है। इस लक्ष्य की प्राप्ति हेतु सन्तुलित विकास की तकनीक के अन्तर्गत अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों का समकालिक विकास किया जाता है। असन्तुलित विकास की तकनीक के अन्तर्गत अर्थव्यवस्था में असन्तुलनों तथा उनसे उत्पन्न प्रेरणाओं एवं दबावों के माध्यम से लख्य तक पहुँचा जाता है। गेराल्ड एम. मायर (Gerald M. Meire) के शब्दों में, “विकास आरम्भ करने वाले देश असन्तुलन से नहीं बच सकते, चाहे वे इसे पसन्द करें या न करें।” पॉल स्ट्रीटन (Paul Strecten) के अनुसार, विकास की सन्तुलित एवं असन्तुलित तकनीकों के बीच विवाद निरर्थक है। दोनों के अपने-अपने दोष हैं। जब कोई देश विकास कार्यक्रम लागू करना चाहता है, तब  उसके सामने असन्तुलित विकास की तकनीक अपनाने के सिवाय अन्य कोई विकल्प नहीं होता। असन्तुलित विकास की व्यूह रचना के अन्तर्गत विकास की दर निश्चय ही ऊँची रहती है, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि समन्वय तथा पूरक निवेश-पक्ष की पूर्णतया अवहेलना कर दी। जाये। दोनों तरह की विकास तकनीकें बाहरी बचतें सृजित करती हैं। दोनों में ही न्यूनाधिक सरकारी नियोजन आवश्यक होता है।

वी. वी. भट्ट के अनुसार, “सन्तुलन का विचार असन्तुलित विकास तकनीक के लिये उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना कि असन्तुलन का विचार सन्तुलित विकास तकनीक के लिये महत्वपूर्ण हैं।” सन्तुलित विकास तकनीक ‘विकास की न्यूनतम सीमा तथा असन्तुलित विकास तकनीक ‘विकास की आधिकतम सीमा निर्धारित करते हुये विकास की सम्भावनायें व्यक्त करती हैं तथा विकास की गति तीव्र करती हैं। प्रारम्भ में अल्पविकसित देशों को असनतुलित विकास तकनीक का ही अनुसरण करना चाहिये। परन्तु जैसे-जैसे साधन विकसित होते जायें तथा पूँजी की मात्रा बढ़ती जाये, वैसे-ही-वैसे अधिक क्षेत्रों में निवेश फैलाना सम्भव होगा। इस तरह, विकासशील देश ‘असन्तुलन से सन्तुलन की ओर अग्रसर होता जायेगा। दूसरी ओर, विकसित देशों में जहाँ पूँजी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है तथा तकनीकी ज्ञान का स्तर ऊँचा है, सन्तुलित विकास तकनीक के आधार पर ही तीव्र गति से विकास सम्भव है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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