अर्थशास्त्र / Economics

कीन्स के रोजगार सिद्धान्त की आलोचना | कीन्स का सिद्धान्त तथा अल्पविकसित देश

कीन्स के रोजगार सिद्धान्त की आलोचना | कीन्स का सिद्धान्त तथा अल्पविकसित देश

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कीन्स के रोजगार सिद्धान्त की आलोचना

अल्प रोजगार के विचार को प्रतिष्ठित विद्वानों के पूर्ण रोजगार के विचार की अपेक्षा अधिक मान्यता प्राप्त है परन्तु फिर भी कीन्स की धारणा आलोचनाओं से दोषमुक्त नहीं है। इनकी आलोचना प्रमुख रूप से प्रो० हेबरलर, हिक्स, लियोन्तीफ आदि विद्वानों ने की है। इसके अलावा प्रो० शुम्पीटर तथा हैरिस (Prof. Schumpter and Harri’s) आदि ने भी कीन्स के विचारों की आलोचना की है। कीन्स के सिद्धान्त की आलोचनाएँ निम्नलिखित आधारों पर की जाती है-

  1. अल्प-रोजगार के साम्य की दशा स्थाई साम्य नहीं है-

प्रो० हैजलिट, हेबरलर तथा लियोन्तीफ आदि विद्वानों का कहना है कि अल्प रोजगार साम्य कभी भी स्थाई साम्य नहीं हो  सकता। वास्तविक साम्य की दशा तो पूर्ण रोजगार अर्थात् स्थाई साम्य पूर्ण रोजगार का बिन्दु ही हो सकता है। प्रो० हैजलिट का कहना है कि बेराजगारी होने पर साम्य की दशा कभी नहीं हो सकती।

  1. पूर्ण प्रतियोगिता की अवास्तविक मान्यता-

आलोचक कहते हैं कि प्रो० कीन्स ने भी प्रतिष्ठित विद्वानों की भांति पूर्ण प्रतियोगिता की मान्यता मानी है जो लुटिपूर्ण है। बाजार की वास्तविक स्थिति एकाधिकार तथा अपूर्ण प्रतियोगिता की होती है। इसलिए कीन्स के विचार अवास्तविक एवं अव्यावहारिक है।

  1. रोजगार स्तर तथा प्रभावपूर्ण माँग के मध्य सीधा सम्बन्ध नहीं होता-

आलोचक कहते हैं कि प्रभावपूर्ण माँग एवं रोजगार के बीच फलनात्मक सम्बन्ध जो कीन्स ने बताया है उसकी पुष्टि सांख्यिकीय तथ्यों के आधार पर नहीं की जा सकती। प्रो० हैजलिट कहते हैं कि रोजगार की मात्रा मुद्रा की पुष्टि, कीमतों तथा मजदूरी की लोचता एवं उनके पारस्परिक सम्बन्धों द्वारा प्रभावित होती है।

  1. प्रवैगिक सिद्धान्त नहीं-

आलोचकों का कहना है कि प्रो० कीन्स ने समय अन्तर (time. lags) की ओर ध्यान नहीं दिया है उदाहरणार्थ आय में वृद्धि आज होती है तो उपभोग में वृद्धि आज हो जाएगी। व्यावहारिक पक्ष यह है कि जब आय बढ़ती है तो इसके प्रभाव से उपभोग में वृद्धि जो होगी उसके बीच कुछ समय लगेगा अर्थात् आय बढ़ने पर उपभोग बढ़ने के बीच कुछ समय लगता है।

  1. एक पक्षीय-

प्रो० कीन्स का दृष्टिकोण व्यापक आर्थिक दृष्टिकोण लिए हुए है इसमें सूक्ष्म आर्थिक दृष्टिकोण की अपेक्षा की गई है इसलिए इनके सिद्धान्त को एकपक्षीय सिद्धान्त की संज्ञा दी जाती है।

  1. कीन्स का सिद्धान्त मन्दी का सिद्धान्त है-

आलोचक कहते हैं कि प्रो० कीन्स का सिद्धान्त मन्दीकालीन सिद्धान्त है अर्थात् प्रो० कीन्स ने मन्दीकाल में व्याप्त बेरोजगारी के निराकरण के लिए सुझाव दिए हैं। वर्तमान समय में मन्दी के स्थान पर स्फीतिक स्थितियाँ दिखलाई देती हैं। मन्दी-स्फीति या आर्थिक जड़ता के साथ स्फीति (Stagflation) जैसी स्थितियाँ भी विभिन्न देशों में देखने को मिलती हैं। तेजी के साथ बेरोजगारी दिखाई देती है। संघर्षक बेरोजगारी तथा प्राविधिक बेरोजगारी (Frictional unemployment and technological unemployment) आदि के समाधान के लिए भी प्रो० कीन्स का सिद्धान्त कुछ नहीं कहता। कीन्स की विचारधारा तो पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में व्याप्त चक्रीय बेरोजगारी को दूर करने के लिए सुझाव प्रस्तुत करती है।

  1. कीन्स का रोजगार सिद्धान्त एक सामान्य सिद्धान्त नहीं है-

आलोचकों का कहना है कि प्रो० कीन्स के रोजगार सिद्धान्त को एक सामान्य सिद्धान्त की संज्ञा देना सरासर गलत है। यह सभी प्रकार की अर्थव्यवस्थाओं में लागू नहीं होता। इसकी उपयोगिता केवल पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में तो हो सकती है साम्यवादी देशों या नियोजित अर्थव्यवस्था में इसकी उपयोगिता संदिग्ध रहती है क्योंकि इन देशों में सरकारी हस्तक्षेप नीति के प्रभाव के कारण विनियोगों में अस्थिरता उत्पन्न नहीं होने पाती। इसलिए चक्रीय बेरोजगारी की स्थिति दिखाई नहीं देती। प्रो० हैरिस का कहना है कि यदि साम्यवाद आता है तो कीन्स भी रिकार्डों की तरह मर जाएगा।”

  1. रोजगार में वृद्धि के लिए केवल विनियोगों को महत्व-

आलोचक कहते हैं कि प्रो० कीन्स ने रोजगार में वृद्धि अथवा बेरोजगारी दूर करने के लिए विनियोगों को बढ़ाने पर जोर दिया है। जबकि रोजगार के निर्धारक तत्व प्रभावपूर्ण माँग पर उपभोग प्रवृत्ति का भी प्रभाव पड़ता है जिसे कीन्स ने अल्पकाल में स्थिर मान लिया है। इसके अलावा प्रभावपूर्ण माँग के निर्धारक और भी अनेक तत्व हैं जिनकी व्याख्या कीन्स ने नहीं की है।

  1. कीन्स का सिद्धान्त अल्पकालीन है-

आलोचक कहते हैं कि कोन्स ने अल्पकाल में  उत्पादन तकनीक, संगठन, श्रम की पूर्ति तथा उसकी कार्य कुशलता तथा उपभोग प्रकृति को स्थिर मान लिया है जो उचित नहीं है। इन तत्वों में परिवर्तनशीलता का गुण पाया जाता है जिसकी कीन्स ने उपेक्षा की है।

  1. उपभोग प्रवृत्ति की असंतोषजनक व्याख्या-

प्रो० हैजलिट (Prof. Hazlit) का कहना है कि प्रो० कीस की उपभोग क्रिया (Consumption Function) की व्याख्या संतोषजनक नहीं है। आधुनिक अर्थशास्त्रियों को इसमें कमियों के कारण पर्याप्त सुधार करने पड़े हैं।

  1. भुगतान सन्तुलन की उपेक्षा-

आलोचक कहते हैं कि किसी क्षेत्र में आय तथा रोजगार का स्तर बहुत कुछ उस देश का अन्य देशों के साथ भुगतान सन्तुलन द्वारा निर्धारित होता है जिसके बारे में प्रो० कीन्स खामोश हैं।

  1. त्वरक सिद्धान्त की उपेक्षा-

आलोचक कहते हैं कि प्रो० कीन्स की विचारधारा गुणक (Multiplier) के द्वारा प्रभावित है। जबकि त्वरक सिद्धान्त भी उतना महत्वपूर्ण है जितना कि गुणक का सिद्धान्त कीन्स ने गुणक के माध्यम से विनियोगों के प्रभाव को आय तथा रोजगार (उपभोग) तक माना है जबकि त्वरक इस महत्वपूर्ण तथ्य की व्याख्या करता है कि उपभोग में होने वाले परिवर्तनों का प्रभाव विनियोगों को किस प्रकार प्रभावित करता है। वास्तविकता यह है कि गुणक तथा त्वरक के पारस्परिक क्रिया द्वारा ही अर्थव्यवस्था में उच्चावचन आते हैं। इस प्रकार प्रो० कीन्स द्वारा त्वरक सिद्धान्त की उपेक्षा करना त्रुटिपूर्ण ही नहीं वरन् अधूरी व्याख्या है।

  1. रोजगार वृद्धि के उपाय अधूरे तथा त्रुटिपूर्ण हैं-

प्रो० कौन्स द्वारा बेरोजगारी दूर करने तथा पूर्ण रोजगार की दशा प्राप्त करने हेतु जिन उपायों अथवा नीतियों को अपनाने की जो सलाह दी गई हैं वह अधूरी एवं त्रुटिपूर्ण है। उदाहरणार्थ उन्होंने मंदी-काल में सस्ती मुद्रा नीति और घाटे के वित्त व्यवस्था के जो सुझाव दिये हैं वे अपर्याप्त हैं। कीन्स द्वारा राजकोषीय नीति से चक्रीय उच्चावचन सेकने का जो प्रयास किया गया है वह अधूरा है क्योंकि राजकोषीय नीति के साथ-साथ मौद्रिक नीति को भी अपनाना चाहिए। किसी भी देश की अर्थव्यवस्था के सन्तुलन में दोनों प्रकार की नीतियों को साथ-साथ अपनाना चाहिए।

  1. कीन्स के विचारों में मौलिकता का अभाव-

कुछ आलोचकों की ऐसी मान्यता है कि प्रो० कीन्स के विचारों में कोई मौलिकता नहीं है। प्रो० डब्लू०एच० हट (Prof. WH. Hutt) “मेरी ऐसी मान्यता है कि जहाँ कहीं भी वह सही थे वहाँ मौलिक नहीं थे और जहाँ कहीं वे मौलिक थे वे गलत थे।”

“I shal maintain that where he (Keynes) was right he was not original, and that where he was original he was wrong.”  W.H. Hutt

प्रो० कीन्स के सिद्धान्त प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों के सिद्धान्त के ऊपर एक सुधार अवश्य है परन्तु इसे एक पूर्ण सिद्धान्त की संज्ञा नहीं दी जा सकती। कीन्स का दृष्टिकोण केवल पूँजीवादी तथा विकसित अर्थव्यवस्था के लिए तो थोड़ा बहुत सही हो सकता है, साम्यवादी तथा नियोजित अर्थव्यवस्था वाले देशों में इसकी क्रियाशीलता प्राय: संदिग्ध रहती है। इसी प्रकार अर्द्धविकसित देशों में भी यह लागू नहीं होता। इतना सब कुछ होते हुए भी कीन्स की विचाराधारा व्यापक आर्थिक विश्लेषण (Analysis) के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है।

कीन्स का सिद्धान्त तथा अल्पविकसित देश

(Under developed Countries and Keynes Theory)

अल्प विकसित देशों के लिए कीन्स का रोजगार सिद्धान्त निम्न कारणों से लागू नहीं होता-

  1. अल्प विकसित देशों में बेरोजगारी का स्वरूप अलग होता है-

प्रो० कीन्स का सिद्धान्त विकसित तथा पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के लिए तो सही है परन्तु अल्प विकसित देशों के लिए यह सही नहीं है क्योंकि ऐसे देशों में बेरोजगारी की समस्या आर्थिक उच्चावचनों के कारण नहीं आती। ऐसे देशों में बेरोजगारी परम्परागत एवं लगातार पाई जाने वाली होती है। इन देशों में अदृश्य बेरोजगारी तथा अल्प रोजगार की समस्या अधिक होती है साथ ही संयुक्त परिवार प्रणाली और सामाजिक रीतियों के कारण भी बेरोजगारी पाई जाती है। इसके अलावा श्रम की अधिकता तथा अन्य साधनों की न्यूनता बेरोजगारी का प्रमुख कारण है। इसलिए प्रो० कीन्स का सिद्धान्त अल्प विकसित देशों में बेरोजगारी दूर करने के लिए कारगर नहीं है।

  1. अल्प विकसित देशों की प्रमुख समस्या आर्थिक विकास की उच्च दर को प्राप्त करना होता है-

प्रो० कीन्स ने केवल विकसित देशों में व्याप्त होने वाली आर्थिक अस्थिरता की समस्या का अध्ययन किया है। अल्प विकसित देशों के सामने प्रमुख समस्या आर्थिक विकास की होती है जिसके लिए पूँजी निर्माण तथा पूँजी विनियोजन अति आवश्यक है। पूँजी निर्माण बचतों को प्रोत्साहित करके संभव होता है। कीन्स बचत करने को अच्छा नहीं मानते थे।

  1. कीन्स सिद्धान्त की मान्यताएँ अल्पविकसित देशों के लिए सही नहीं हैं-

प्रो० कीन्स की मान्यताएँ दो शीर्षकों के अन्दर आती हैं (i) अल्पकालीन विश्लेषण सम्बन्धित, (ii) गुणक सम्बन्धित । कीन्स कहते हैं कि अल्पकाल में उत्पादन तकनीक श्रमपूर्ति, श्रम की कार्यकुशलता आदि में कोई परिवर्तन नहीं होता। अल्प विकसित देशों के विकास के लिए इन्हीं तत्वों को परिवर्तित करने की आवश्यकता होती है। गुणक सम्बन्धी मान्यताएँ जैसे अनैच्छिक बेरोजगारी, वस्तुओं तथा सेवाओं की लोचपूर्ण पूर्ति, कच्चे माल की लोचपूर्ण पूर्ति उपभोग पदार्थों को निर्मित करने वाले उद्योगों में अतिरिक्त उत्पादन क्षमता का होना आदि अर्द्ध विकसित देशों में नहीं पाई जाती इसलिए इनका सिद्धान्त भी अल्प विकसित देशों में सही नहीं पाया जाता। ऐसे देशों में अल्प-रोजगार, अदृश्य बेरोजगारी तथा अर्थ-व्यवस्था की अकुशलता से गतिशील होना आदि बातें गुणक की क्रियाशीलता में बाधा पहुँचाती हैं।

  1. घाटे की वित्त व्यवस्था और सस्ती मुद्रा नीति का लाभकारी न होना-

अल्प विकसित देशों में सस्ती मुद्रा नीति और घाटे की वित्त व्यवस्था अपनाकर विनियोगों को बढ़ाकर बेरोजगारी दूर करना लाभप्रद नहीं है। इनसे स्फीतिक स्थितियों को जन्म मिलता है। अर्द्ध विकसित देशों में बचतों को बढ़ाकर पूँजी निर्माण द्वारा धन जुटाकर विकास को बढ़ाना संभव होता है। प्रो० कीन्स बचतों को बढ़ाने के विरोध में थे।

  1. अर्द्ध विकसित देशों का विकास योजनाबद्ध कार्यक्रमों के द्वारा संभव है-

प्रो० कीन्स की विचारधारा अर्द्ध विकसित देशों के लिए लाभकारी नहीं हो सकती। वर्तमान समय में अर्द्ध विकसित देश योजनाबद्ध तरीके से अर्थात् नियोजित अर्थव्यवस्था को अपनाकर अपने विकास के लिए प्रयत्नशील है। ऐसे देशों में उपभोग प्रवृत्ति बढ़ाकर तथा विनियोगों को बढ़ाकर ही विकास करना संभव नहीं है। ऐसे देशों में जनसंख्या की अधिकता के कारण उपयोग पर अंकुश लगाकर तथा प्राथमिकता के आधार पर विभिन्न क्षेत्रों में पूर्ण विनियोजन का सहारा लिया जा रहा है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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