सन् 1848 की क्रांति | सन् 1848 ई० की क्रांति के कारण | सन् 1848 की क्रांति की असफलता के कारण

सन् 1848 की क्रांति | सन् 1848 ई० की क्रांति के कारण | सन् 1848 की क्रांति की असफलता के कारण

सन् 1848 की क्रांति

(The Revolution of 1848)

लुई फिलिप की गृह-नीति तथा विदेश-नौति ने जनता में असफलता की भावना के साथ-साथ असंतोष की भावना को भर दिया। लुई फिलिप ने आन्दोलनकारियों के दमन के लिए अनेक कार्य किए। परन्तु अब फ्रांस की जनता उसकी मनमानी सहने को तैयार नहीं थी। दिसम्बर 1847 में लुई फिलिप ने यह घोषणा की कि “संवैधानिक राजतंत्र फ्रांस की सभी आवश्यकताओं को पूर्ण करता है, अत: सुधारों की कोई आवश्यकता नहीं है।” विरोधी दलों ने इस घोषणा का विरोध किया, परन्तु फिलिप के मंत्रियों ने इसकी कोई चिन्ता नहीं की। अत: जनता का विरोध आन्दोलन का स्वरूप धारण कर लिया। क्रांतिकारियों के नेता अधिक से अधिक संख्या में जनता का समर्थन पाने के लिए चेष्टा करने लगे। यह योजना बनी कि जनता से हस्ताक्षर करवाकर सुधार की मांग करने वाला प्रार्थना-पत्र राजा को दिया जाये ताकि पता चल जाये कि जनता सुधार चाहती है।

अब देश भर में सुधार के लिए हस्ताक्षर होने लगे। इन सुधार हस्ताक्षर ने यह सिद्ध कर दिया कि जनता सुधार चाहती है। पर राजा के कानों पर इस कार्य की जूं तक नहीं रेंगी। उसने सुधार की मांग स्वीकार करने से साफ इंकार कर दिया। उसने सरकारी अनुमति के बिना दावतों पर रोक लगा दी।

क्रांति का आरम्भ और लुई फिलिप का पलायन-

हस्ताक्षर कराने वाली दावतों पर रोक लगाने से जनसाधारण में रोष फैल गया। निषेधाज्ञा के बाद भी पेरिस में एक विशाल भोज समारोह का आयोजन किया गया । 22 फरवरी से कुछ घंटे पहले रात में सरकार की ओर से जुलूस निकालने और समारोह पर कड़े प्रतिबंध लगा दिए गए। पुलिस ने भोज पर भी रोक लगा दी, तब भोज में बुलाये गए व्यक्ति पेरिस् के एक भवन में इकट्ठे हुए। उन्होंने प्रधानमंत्री गिजो की नीति के विरुद्ध सभा की। सभा केवल विरोध का प्रदर्शन करना चाहती थी। परन्तु भीड़ में उत्तेजना फैल गयी और पेरिस की गलियों में मोर्चाबंदी कर दी गयी। 22 फरवरी को जुलूस निकाला गया और “गिजो का नाश हो – ‘गणतन्त्र जिन्दाबाद’ के नारे लगाये जाने लगे। जुलूस सारे शहर में फैल गया।

दूसरे दिन 23 फरवरी को स्थिति गम्भीर हो गयी। मजदूरों की बस्तियों में मोर्चाबंदी कर ली गयी, सिपाहियों ने उत्तेजित भीड़ पर गोलियां चला दी। कुछ सिपाहियों ने भीड़ का साथ् दिया। अब राजा को स्थिति का ज्ञान हुआ। अतः उसने गिजो को पद से हटा दिया और सुधारों को लागू करने की घोषणा की, परन्तु अब देर हो चुकी थी, क्रान्ति को टाला नहीं जा सकता था। क्रान्तिकारियों ने गिजो के भवन को घेर लिया गया। रक्षक सैनिकों ने भीड़ पर गोली चला दी। 23 व्यक्ति मारे गए। अब तो क्रांतिकारी मरने-मारने पर उतारू हो गए। 24 फरवरी का लाशों का जुलूस निकाला गया। हैजेन के शब्दों मे, “इस गोली कांड ने राजतंत्र का सितारा डुबो दिया।”

24 फरवरी को पेरिस में उपद्रव तथा संघर्ष आरम्भ हो गए। रात को ही जनता अस्त्र-शस्त्र लेकर निकल पड़ी। अब उत्तेजित भीड़ ने राजमहल को घेर लिया और गोलियाँ चलानी आरम्भ कर दी। सेना ने लुई की रक्षा करने से इन्कार कर दिया। लुई फिलिप घबरा गया और उसने अपने नाती पेरिस के पक्ष में सिंहासन छोड़ दिया और स्वयं वेश बदलकर इंगलैण्ड भाग गया। 2 वर्ष बाद क्लेयरमौंट में लुई फिलिप की मृत्यु हो गयी।

द्वितीय गणतन्त्र की स्थापना

राजा ने तो सिंहासन छोड़ दिया पुन्तु गणतन्त्रवादी और समाजवादी राजतन्त्र को बनाये रखने के लिए तैयार नहीं थे। उन्होंने एक स्थायी सरकार बनायी जिसमें दोनों दलो के सदस्य सम्मिलित हुए। लामातेन इसका प्रमुख बना तथा लुई ब्लॉ एक सदस्य के रूप में सम्मिलित हुआ। अस्थायी सरकार ने तुरन्त गणराज्य की घोषणा कर दी। शर्त यह रखी गयी कि जनता को इच्छा पर ही इसे स्थायी किया जायेगा।

इस प्रकार फ्रांस में राजतंत्र का एक बार पुनः अन्त हो गया और उसके स्थान पर गणतन्त्र युग का आरम्भ हो गया।

सन् 1848 की क्रांति के कारण

(Causes of the Revolution of 1848)

सन् 1848 में फांस तथा उसके बाद यूरोप के अनेक देशों में क्रांतियाँ हुईं, जिनके कारण यह वर्ष क्रांतियों का वर्ष कहलाने लगा। यद्यपि सभी देशों की क्रांतियों का उद्देश्य एक ही था, तथापि विभिन्न देशों में परिस्थितियों के अनुसार क्रांति के कारण भी अलग-अलग थे.

(1) निष्क्रियता की नीति- फ्रांस में 1848 की क्रांति मुख्यतया लुई फिलिप की गृह तथा विदेश नीति के कारण हुई। इन दोनों ही क्षेत्रों में उसने अकर्मण्यता का परिचय दिया। फ्रांस राजनीतिक तथा सामाजिक दोनों दृष्टियों से चेतन हो चुका था।

जनता शासन से अधिक से अधिक पाना चाहती थी। मताधिकार को उदार करने की मांग भी तेजी से बढ़ रही थी। परन्तु राजा लुई फिलिप तथा प्रधानमंत्री गिजो की सरकार किसी भी प्रकार का सुधार नहीं लाना चाहती थी।

(2) मध्यम वर्ग के हितों का ध्यान- लुई फिलिप मध्यम वर्ग की सहायता से सिंहासन पर बैठा था, अतः उसका शासन मध्यम वर्ग का राजतन्त्र कहलाता है। इसी वर्ग को मताधिकार भी दिया गया था। शासन की नौति भी इसी वर्ग के हितों को ध्यान में रखकर बनाई गई थी। मजदूरों को शोषण से बचाने के लिए कुछ भी नहीं किया गया था। इस कारण जनता में फिलिप के विरुद्ध उत्तेजना की भावना जाग उठी।

(3) आर्थिक सुधारों की माँग- औद्योगिकरण बड़ी तेजी से बढ़ रहा था अत: देश में श्रमिक वर्ग उत्पन्न हो गया था जो अपनी दशा सुधारना चाहता था। समाजवादी लेखकों सेंट साइमन, लुई ब्लॉ आदि विचारों ने आर्थिक सुधारों की मांग की। परन्तु लुई फिलिप ने इस ओर ध्यान नहीं दिया।

(4) लुई फिलिप की विदेश नीति- लुई फिलिप की विदेश नीति से भी फ्रांस की जनता सन्तुष्ट नहीं थी। फ्रांस की जनता सरकार से राष्ट्रीय गौरव को बढ़ाने वाले कार्य की अपेक्षा करती थी। उदाहरण के लिए, सरकार को अन्य देशों में चल रहे आन्दोलनों में सहायता देने का कार्य करना चाहिये। परन्तु इन नीतियों के अपनाने से बड़े देशों से युद्ध छिड़ जाने का खतरा था। लिप्सन के शब्दों में, “यदि लुई फिलिप ने जनता की इच्छा का अनुसरण करके राष्ट्रों के मामलों में हस्तक्षेप किया होता तो उसका फल निश्चय ही विनाशकारी होता। आस्ट्रिया, प्रशिया तथा रूस फ्रांस के विरुद्ध संगठित हो जाते और फ्रांस उनकी सम्मिलित शक्ति का सामना नहीं कर सकता था।” अत: भले ही लुई फिलिप की शांति प्रियता को नीति विवेकपूर्ण रही हो, किन्तु वह फ्रांस की जनता को पसन्द नहीं थी।

(5) दमन की नीति- लुई फिलिप ने कभी इस बात की चेष्टा नहीं की कि जनता में असंतोष बढ़ रहा है। उसने सदैव दमन की नीति का अनुसरण करके जनता का मुंह बन्द कर दिया। समाचार-पत्रों पर भी प्रतिबन्ध लगा दिए गए। जो लोग सभा करना चाहते थे उनकी पहले सरकार से अनुमति लेनी पड़ती थी। उसके इन कार्यों ने जनता को क्रांति की ओर बढ़ा दिया।

अन्य देशों पर सन् 1848 की क्रांति का प्रभाव

1848 की क्रांति का प्रभाव केवल फ्रांस पर ही नहीं पड़ा, वरन् सम्पूर्ण यूरोप पर इस क्रांति के कलेवर में आ गया। सन् 1848 में यूरोप में कुल मिलाकर 17 क्रांतियां  हुई। फ्रांस के बाद बियना, हंगरी, बोहेमिया, क्रेटिया, इलीरिया, इटली, जर्मनी, प्रशा आदि में विद्रोह की चिनगारियाँ उठीं। स्विटजरलैंड, हालैंड आदि कई देश इसके प्रभाव में आ गए। इस क्रांति से विशेष रूप से मध्य यूरोप प्रभावित हुआ। इसका प्रमुख कारण यह था कि मध्य यूरोपीय देशों में असंतोष की आग पहले से ही फैल रही थी। जनता पुरानी प्रतिक्रियावादी नीति का जुआ कंधे से उतारकर फेंकना चाहती थी। फ्रांस की क्रांति का अनुसरण करते हुए यूरोप के अन्य देशों में जो क्रांतियाँ हुई वे थोड़ी आगे-पोछे हुई।

(1) आस्ट्रिया पर क्रांति का प्रभाव- फ्रांस की क्रांति का सबसे अधिक प्रभाव आस्ट्रिया के सामाज्य पर पड़ा। आस्ट्रिया में 1848 से पूर्व ही राजनीतिक दलों ने उपद्रव शुरू कर दिये थे। 1846 में गैलेशिया में किसानों और मजदूरों ने विद्रोह की आग भड़का दी थी। ये विद्रोह बाद में राष्ट्रवादी बन गए। 18 मार्च 1848 को वियना में विद्रोह की आग भड़की। यह विद्रोह छात्रों तथा श्रमिकों द्वारा भड़काया गया था। उपद्रवी तत्व समाचार-पत्र से प्रतिबन्ध हटाना चाहते थे तथा संविधान का निर्माण कराने की मांग कर रहे थे। छात्रों तथा श्रमिकों ने जुलूस निकालकर मैटर्निख के विरुद्ध नारे लगाये और उसके भवन को घेर लिया, जिससे सरकारी सैनिकों तथा जनता में लड़ाई हुई ।

मैटर्निख ने परिस्थिति को विपरीत देखकर अपने पद से त्याग पत्र दे दिया, वह भागकर इंगलैण्ड चला गया। सम्राट फर्डिनेण्ड ने जनता को शांत करने के लिए नये संविधान की रचना की। परन्तु इससे क्रांतिकारी संतुष्ट नहीं हुए। वे पूर्ण लोकतंत्र की स्थापना करना चाहते थे। अतः उन्होने उग्र आन्दोलन जारी रखा। अब सम्राट के सामने विकट समस्या आ गयी, वह वियना छोड़कर इन्सबुक (Insbruk) भाग गया। जनता द्वारा नया संविधान बनाने की योजना बनाई गयी। इसके लिए वयस्क मताधिकार पर चुनी गयो राष्ट्रीय सभा बनी। महासभा ने सम्राट को वियना लौट आने के लिए आमंत्रित किया। सम्राट लौट आया और महासभा संविधान निर्माण में लग गयी।

इसी बीच क्रांति आस्ट्रिया के अन्य प्रदेशों में फैल गई। युद्ध-मंत्री की हत्या कर दी गयी। सम्राट फिर वियना से भाग गया। जाते-जाते उसने उपद्रवियों को गोली से उड़ा देने की आज्ञा दे दी। सम्राट के वफादार सैनिकों ने क्रांतिकारियों को हरा दिया और वियना पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार सम्राट पुनः वियना लौट आया और क्रांति असफल रही।

हंगरी में क्रांति का प्रभाव- वियना क्रांति के समाचार से हंगरी में भी क्रांति भड़क उठी। उस समय हंगरी आस्ट्रिया के सम्राट के अधीन था। हंगरी में सामंतों के कारण जनता दुःखी रहती थी। उस समय अपने लोकप्रिय नेता कोसुथ (Kossuth) तथा डोक (Denk) के नेतृत्व में जनता सुधारवादी आन्दोलन चला रही थी। हंगरी के लोग अपनी मांग पूरी न होने पर.क्रांति के लिए उतर पड़े। इस पर सम्राट ने शासन सुधार की मांगें मान ली। तथा अनेक सुधार किए, जिनमें मुख्य थे; हंगरी के लिए अलग मन्त्रिमंडल, कुलीनों के विशेषाधिकारों की समाप्ति, प्रेस तथा धर्म की स्वतन्त्रता । इन सुधारों के फलस्वरूप हंगरी की अपनी सरकार हो गयी। हंगरी अर्ध-स्वतन्त्र हो गया। कुछ समय बाद हंगरी के लोगों ने आस्ट्रिया से अपना सम्बन्ध विच्छेद कर गणतन्त्र की घोषणा कर दी। रूस ने आस्ट्रिया का साथ दिया। हंगरी इस शक्ति का सामना न कर सका, अत: आस्ट्रिया फिर से अधीनस्थ राज्य बन गया।

बोहेमिया में क्रांति- हंगी की भाँति बोहेमिया में भी पहले सुधार आन्दोलन हुआ । बोहेमिया के आन्दोलनकारियों ने स्वतन्त्रता की मांग की। सम्राट की सेवा में एक मांग-पत्र पेश किया गया। सम्राट घबड़ा गया, अतः उसने मांग मान ली। बोहेमिया में अनेक जर्मन रहते थे, जो अल्पसंख्यक थे। उनमें तथा स्ला बहुसंख्यकों में नहीं पटती थी। अत: जर्मनी को आशंका हुई कि बोहेमिया के स्वतः होते ही स्लाव लोग उन्हें कुचल देंगे, अत: उन्होनें सुधारों का विरोध किया और घरेलू झगड़ा शुरू हो गया। ऐसी दशा में एक सम्मेलन बुलाया गया, परन्तु सम्मेलन में एकत्रित लोगों ने आस्ट्रिया के सेनापति के विरुद्ध नारे लगाये। आस्ट्रिया सेनापति ने कठोरतापूर्वक विद्रोह को दवा दिया।

प्रशा में क्रांति- फ्रांसीसी क्रांति का प्रभाव प्रशा में भी गहरा पड़ा मैटर्निख के पतन को सुनकर बर्लिन के लोगों ने घी के दीपक जलाए। प्रशा जर्मनी का सबसे बड़ा राज्य था। क्रांति के समाचारों से उत्साहित होकर जनता ने राज्य के प्रासाद का घेरा डाल दिया। राजा विलियत फेडरिक ने आज्ञा दी कि राजप्रासाद से क्रांतिकारियों को भगा दिया जाए। अतः रक्षकों ने गोलियों से कुछ मनुष्यों को भून डाला। इस घटना से क्रांतिकारी भड़क उठे। उन्होने बर्लिन नगर में विद्रोह का झंडा ऊंचा किया। देश-भक्तों तथा सैनिकों के बीच खून की होली खेली गयी। अतः राजा ने संविधान सभा बुलाई। सभा ने एक संविधान बनाया जो लोकतन्त्र के आदर्शों पर आधारित था।

जर्मनी के अन्य राज्यों में क्रांति- प्रशा के साथ-साथ जर्मनी के अन्य छोटे-छोटे राज्यों जैसे- बेडेन बर्टमवर्ग, बवेरिया हेलीकासलु बेमार आदि में भी सरकारों के विरुद्ध आन्दोलन छिड़ गया। इस आन्दोलन की तीन मांगे थीं- राजनीतिक अधिकार, प्रेस की स्वतन्त्रता तथा संवैधानिक शासन। सैक्सोनी, हनोवर, बवेरिया और प्रशा को छोड़कर अन्य सभी राज्यों में जनता की मांगे पूरी कर दी गयीं। इन सभी राज्यों में उदार संविधान की स्थापना कर दी गयी। परन्तु क्रांति के परिणाम् अधिक समय तक स्थायी नहीं रह सके । आस्ट्रिया के राजा ने क्रांतिकारियों का खुला विरोध करना शुरू कर दिया। अब जर्मन के अन्य राज्यों में भी जन विरोधी रुख के विरोध में सैक्सोनी, बेडेन, हनोवर आदि में क्रांतियाँ हुई, परन्तु प्रशा की सेना ने उन्हें कुचल दिया। इस प्रकार प्रशा के राजा के प्रति छोटे-छोटे राज्य आभारी हो गए।

इटली में क्रांति- इटली में देशभक्तों में भी साहस की कमी नहीं थी। वियना कांग्रेस ने उत्तरी इटली में आस्ट्रिया का प्रभुत्व स्थापित कर दिया था। मध्य तथा दक्षिण इटली में विभिन्न निरंकुश राज्य थे। इटली के देशभक्त समस्तु इटली को स्वतन्त्र देश के रूप में देखना चाहते थे। मैटर्निख के पतन के पश्चात् जब देशभक्तों ने अवसर देखा तो सबसे पहले लोम्बार्डी और वेनेशिया में क्रांति की लहर उठाई।

इन दोनों राज्यों ने आस्ट्रिया के विरुद्ध विद्रोह करके आस्ट्रिया की फौजों को मार भगाया और अपने को स्वतन्त्र घोषित कर दिया। इस घटना से इटली वासी बड़े प्रसन्न हुए। अतः सुधार आन्दोलनों को सम्पूर्ण इटली में शुरू कर दिया गया। ऐसा प्रतीत होने लगा कि इटली के सभी राज्यों की आस्ट्रिया के अंकुश से सदा को मुक्ति मिल जायेगी। परन्तु आस्ट्रिया की सेना ने अपनी शक्ति बटोरकर क्रांतिकारियों को हरा दिया। लोम्बार्डी और वेनिस की क्रांतियों का दमन कर दिया गया। यह देखकर अन्य छोटे राज्यों के शासकों ने भी संविधान वापस ले लिए। सार्डिनिया को छोड़कर शेष सम्पूर्ण इटली की दशा पूर्ववत् हो गयी।

रोम की क्रांति- रोम का अपना विशेष महत्व था। यह पोप का राज्य था। इटली की क्रांति के समय पियस (Pius)नवम शासक था। वह शासन सुधार तथा उदार विचारों का पोषक था। सन् 1846 ई० में सिंहासनासीन होते ही उसने राजनैतिक कैदियों को छोड़ दिया। इसके साथ ही इटली में क्रांतिकारी तत्वों के उजागर होते ही उसने जनता को संविधान प्रदान किया। परन्तु जब सार्डिनिया ने आस्ट्रिया के विरुद्ध इटली में राष्ट्रीय युद्ध छेड़ा तो पोप ने इस राष्ट्रीय संघ में सम्मिलित होने से इन्कार कर दिया, क्योंकि वह व्यर्थ में जनता का रक्त नहीं बहाना चाहता था। कैथोलिक चर्च का प्रधान होने के नाते पोप चर्च के मित्र से युद्ध करना नहीं चाहता था।

पोप के मना कर देने से जनता के विचार उसके विषय में बिल्कुल बदल गए। अब जनता उसे राष्ट्रीयता का शत्रु मानने लगी। फलस्वरूप रोम में उसके विरूद्ध विद्रोह की लपटें उठ निकली। 5 नवम्बर, 1848 को पोप के एक मंत्री रोसी (Rossi) का वध कर दिया गया। पोप नेपल्स की ओर भाग गया। रोम में मेजनी के नेतृत्व में गणतन्त्र की स्थापना कर दी गयी

परन्तु यह गणतन्त्र स्थायी नहीं रह सका। फ्रांस के नये राष्ट्रपति नेपोलियन ने पोप को पुन: रोम की गद्दी पर बिठा दिया । फ्रांसीसी सेना ने मेजिनी के गणतन्त्र को समाप्त करके पोप के पुराने शासन को वहाली के दिन दिखा दिए।

स्विटजरलैण्ड पर प्रभाव- स्विटरजरलैण्ड के प्रान्तों का शासन सभी कैन्टनों में मध्य श्रेणी के धनवान व्यक्तियों के हाथों में था। वे लोग अपने वर्ग के लोगों का ही ध्यान रखते थे। जिससे साधारण जनता दुःखी रहती थी। धार्मिक मतभेदों के कारण उस समय स्विटजरलैण्ड के दो टुकड़े हो गए थे। देशभक्तों को यह विभाजन पसंद नहीं था, इसी समय फ्रांस की क्रांति का समाचार उन्हें मिला। वे उप आन्दोलन की ओर बढ़ गए। उन्होने संगठित होकर प्रतिक्रियावादी कैथोलिक संघ पर आक्रमण कर दिया। अब सम्पूर्ण देश में उदार शासन की स्थापना की गयी। 1848 का संविधान संशोधनों के साथ आज भी मौजूद है।

हालैण्ड पर प्रभाव- फ्रांस की क्रांति का समाचार सुनकर हालैण्ड के उदारवादी निरंकुश शासन के विरुद् ध्वज लेकर खड़े हो गए। राजा विलियम द्वितीय ने विद्रोहियों का दमन करना चाहा परन्तु उसे सफलता नहीं मिली। अन्त में उसे वैधानिक शासन स्वीकार करना पड़ा। एक नये मंत्रिमंडल का निर्माण किया गया जो अपने कर्तव्यों के लिए व्यवस्थापिका सभा के प्रति उत्तरदायी था। प्रेस, लेख, भाषण, समाचार-पत्रों आदि से प्रतिबन्ध हटा लिए गए। जनता को शासन-सम्बन्धी अधिकार प्राप्त हो गए। इस प्रकार फ्रांस की क्रांति से हालैण्ड को लाभ हुआ।

इंगलैण्ड पर प्रभाव- इंगलैण्ड् पर क्रांति का प्रभाव पड़ा। सन् 1832 में जो सुधार अधिनियम पारित हुआ था उससे केवल मध्यम वर्ग को ही लाभ पहुंचा था, मजदूर तथा कृषक उससे वंचित रह गए थे। अतः साधारण जनता ने आन्दोलन कर दिया था। सन् 1838 में जनता का अधिकार पत्र (The People Charter) तैयार किया गया। जिसे संसद ने स्वीकार नहीं किया। यह चार्टिस्ट आन्दोलन (Chartist Movement) जोर पकड़ता गया। जब फ्रांस की क्रांति का समाचार इंगलेण्ड पहुंचा तो लगभग पांच लाख व्यक्तियों ने 10 अप्रैल को लंदन में एक विशाल सभा की। आन्दोलन उग्र रूप धारण करता गया। सरकार ने आन्दोलन को दबाने के लिए विशेष सैनिक दस्ते तैयार कराये। दुर्घटना से भयभीत होकर चार्टिस्टों ने जुलूस आदि नहीं निकाला। कुछ दिनों बाद आन्दोलन स्थगित हो गया। लेकिन सर्वसाधारण की मांगे मान ली गयी।

आयरलैण्ड का प्रभाव- क्रांति की लहर आयरलैण्ड भी पहुंची। वहाँ भूमि सुधार आन्दोलन चल रहा था। फ्रांसीसी क्रांति ने लोगों को उत्तेजित किया और लोगों ने इंगलैण्ड के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। विद्रोहियों को पूरी सहायता नहीं मिली। अतः विद्रोह शान्त हो गया।

निष्कर्ष (Conclusion)

सन् 1848 की क्रांति की जो गूंज सम्पूर्ण यूरोप में फैली उसे अन्त में शान्त हो जाना पड़ा। प्रशा और सार्डिनिया को छोड़कर 1848 की क्रांति प्रत्येक देश में असफल रही। स्विटजरलैण्ड तथा हालैण्ड में भी क्रांति के प्रभाव सुखद रहे। वहाँ की शासन व्यवस्था में महत्वपूर्ण परिवर्तन किए गए। परन्तु कुल मिलाकर क्रान्ति के परिणाम ठीक ही रहे।

सन् 1848 की क्रांति की असफलता के कारण

(Causes of the Faliure of the Revolution)

सन् 1848 ई० की क्रांति ने सम्पूर्ण यूरोप को हिला दिया। यूरोप का शायद ही ऐसा कोई देश बचा हो जिस पर क्रांति का प्रभाव न पड़ा हो। स्वतन्त्र शासन-प्रणाली तथा विशेषाधिकार को इनसे जबरदस्त चोट पहुँची, फिर भी क्रांति अपने उद्देश्य में सफल नही हो सकी। लगभग सभी देशों में अन्त में असफलता सामने आकर खड़ी हो गयी। इस असफलता के मुख्यतः निम्न कारण थे-

(1) एकता का अभाव- क्रांतिकारियों के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में भिन्न उद्देश्य थे। उनके नेताओं में एकता का अभाव था। हंगरी में राष्ट्रवादी और उदारवादी परस्पर झगड़ा करते रहे । मेजनी इटली में गणतंत्र चाहता था। इसी प्रकार अलग-अलग देशभक्त अलग-अलग राजाओं के नेतृत्व में एकीकरण की ढपली बजा रहे थे। इस प्रकार उद्देश्यों की विभिन्नताओं के कारण क्रांति को असफलता का मुख देखना पड़ा।

(2) संगठन का अभाव- क्रांतिकारियों के उदारवादी दल असंगिठत थे। उनके नेताओं में भी मिल-जुलकर कार्य करने की कमी थी। अतः जहाँ क्रांतिकारियों की शक्ति असंगठित रही वहाँ निरंकुश शासकों ने अपनी संगठित शक्ति द्वारा उन्हें कुचल दिया।

(3) व्यावहारिकता की कमी- क्रांतिकारियों के अधिकांश नेता केवल आदर्शवादी थे, उनमें व्यावहारिकता की सबसे बड़ी कमी थी। ये क्रांति के आदर्शों पर भाषण दे सकते थे परन्तु क्रांति का संचालन करने की योग्यता उनमें नहीं थी। उन्होंने जनता को क्रांतिकारी विचारों द्वारा उत्साहित तो किया परन्तु उन्हें सफल क्रांतिकारी नहीं बनाया। क्रांतिकारी अनुभवहीन थे,योग्य नेताओं के अभाव में वे अपने उददेश्यों में सफल नहीं हो सके। मैटर्निख का पतन हो जाने के बाद भी प्रतिक्रियावादी नेता निर्बल नहीं हुए, क्योंकि सेना प्रतिक्रियावादियों के साथ थी। इसी प्रकार पोप ने इटली में क्रांतिकारियों के साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया। अधिकांश क्रांतिकारी निहत्थे थे। सेनाओं ने अपनी शक्ति से उन्हें कुचल दिया।

(4) प्रतिक्रियावादी शासकों में सहयोग की प्रधानता- प्रतिक्रियावादी शासक सदा एक-दूसरे की सहायता के लिए तैयार रहते थे। इस कारण क्रांति को सफलता नहीं मिल सकी। इसी सहयोग की भावना के कारण आस्ट्रिया के सम्राट ने अपनी सेना भेजकर उत्तरी इटली के शासकों की सहायता की। क्रांतिकारियों को कुचल दिया गया और क्रांति की अग्नि बुझा दी गयी। रूस के जार ने भी अपनी सेना हंगरी में क्रांतिकारियों का दमन करने के उद्देश्य से भेजी। फ्रांस के शासन नेपोलियन ने अपनी सेना द्वारा रोम में गणतंत्र की स्थापना नहीं होने दी। आस्ट्रिया और प्रशा के शासकों ने भी जर्मनी के छोटे-छोटे राज्यों के शासकों को क्रांति की दल-दल से बाहर निकाला। वहाँ के शासकों ने निरकुंश शासन की फिर से स्थापना की। इस प्रकार क्रांतिकारियों को सहयोग न देकर क्रांति को असफलता के कगार पर ले जाकर बिठा दिया।

(5) कांति नगरों तक सीमित रही- क्रांतियाँ केवुल नगरों तक ही सीमित रहीं प्रामीण जीवन उससे अछूता रहा । यूरोप के नगारों में क्रांतियाँ प्रारम्भ हुई और वहीं वे अपना कार्य करती रही। ग्रामीणों को क्रांति के उद्देश्यों का बिल्कुल ज्ञान नहीं था। वे पूर्व की भांति अपने जिमींदारों पादरियों तथा राज्य कर्मचारियों को आज्ञाओं का पालन करते रहे। नगरों में भी मध्यम वर्ग तथा श्रमिक वर्ग मिल जुलकर नहीं चले। मध्यम वर्गीय पूंजीपति मजदूरों के प्रति अन्याय करते रहे। यही कारण था। कि क्रांति की शक्ति क्षीण हो गयी।

(6) संदेह की भावना- क्रांति के विफल होने का एक बड़ा कारण यह भी था कि विद्रोह करने वाली जातियों में एक-दूसरे के प्रति संदेह था। बोहेमिया में चेक जाति तथा जर्मन जाति में उस समय भी कोई मेल नहीं हो सका जब उदार शासन की स्थापना का अवसर आया। इसका लाभ उठाकर आस्ट्रिया के सम्राट ने वहाँ पुनः निरंकुश शासन की स्थापना की। हंगरी में मण्यार नेताओं ने अपने उदारवादी शासन में वहाँ की रूमानिया क्रीट तथा सर्बियन जाति के हितों की उपेक्षा की जिसका परिणाम यह निकला कि इन अल्पसंख्यक जातियों ने शासन का घोर विरोध किया। इस फूट का लाभ आस्ट्रिया के सम्राट ने उठाया उसने वहां पुनः निरंकुश शासन की स्थापना की।

उपरोक्त सभी कारण ऐसे थे जिनके परिणामस्वरूप क्रांति असफल रही, क्रांति का रूप विस्तारवादी अवश्य हुआ परन्तु वह सच्चे रूप में जन-क्रांति नहीं बन सकी।

निष्कर्ष (Conclusion)

ऊपर लिखे कारणों से स्पष्ट हो जाता है कि क्रांति जिस उत्साह से आरम्भ हुई थी वह उत्साह आगे नहीं रह सका। यही उसकी असफलता थी। उदारवादी दलों की पारस्परिक फूट निरंकुश शासकों में एक-दूसरे से मिलकर कार्य करने की भावना, विभिन्न जातियों का एक-दूसरे के प्रति संदेह, बहुसंख्यक जनता का उसके प्रति उदासीन होना आदि कारणों से सन् 1848 की क्रांति प्रायः यूरोप के सभी देशों में असफल रही।

इतिहास – महत्वपूर्ण लिंक

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