इतिहास / History

फ्रांस की पुरातन व्यवस्था की प्रमुख विशेषताएं | Main features of the archaic system of France in Hindi

फ्रांस की पुरातन व्यवस्था की प्रमुख विशेषताएं | Main features of the archaic system of France in Hindi

फ्रांस की पुरातन व्यवस्था की प्रमुख विशेषताएं

पुरातन व्यवस्था-

कान्ति जब एक घटना के रूप में घटती है तो आकस्मिक अवश्य लगती है, लेकिन उसके बीज वर्षों से पनपते रहते हैं। एक लम्बी तैयारी के बिना विद्रोह तो सम्भव है लेकिन क्रान्ति नहीं। फ्रांस की क्रान्ति के बीज उस समाज में बिखरे हुए थे जो सैकड़ों वर्षों से पार और खोखला होता जा रहा था। क्रांति के पहले की इस व्यवस्था को पुरातन् व्यवस्था (आलियाँ रेजीम) कहते हैं। इस आलियाँ रेजीम का अध्ययन करने पर ही स्पष्ट हो सकेगा कि कैसे धीरे-धीर फ्रांस क्रान्ति के कगार पर आ खड़ा हुआ।

राजनीतिक दशा-  

‘मैं ही राज्य हूँ’ कहने वाले लुई चतुर्दश की जब मृत्यु हुई तो इतने केन्द्रित एकतंत्र को संभालने के लिए मजबूत कंधों की आवश्यकता थी। लुई पंचदश लोकप्रिय था। लोग उसे परमप्रिय लुई (बियने में तुई) कहकर सम्बोधित करते थे, लेकिन वह एक आमोदुनिय और अदूरदर्शी शासक सिद्ध हुआ। इसलिए जब वह मरा तो उसकी प्रजा ने खुशियां मनाई। वह चापलूसों और रखैलों से घिरा रहता था लेकिन दुस्साहस भी करता था। उसके समय में वर्साई पेड्यन्त्रों का केन्द्र था। उसको उत्तराधिकार में युद्ध और लड़खड़ाता अर्थतंत्र मिला था। युद्ध ने कर्ने की सलाह मिली थी। लेकिन उसने सामर्थ्य न होते हुए भी आस्ट्रिया के उत्तराधिकार के और फिर सप्तवर्षीय युद्ध में हिस्सा लिया। इन युद्धों का व्यापक परिणाम निकला। यूरोप के फ्रेडरिक महान् द्वारा रासबाज में उसकी पराजय ऐतिहासिक थी। फ़्रांस को भारतवर्ष में भी मुंह की खानी पड़ी और उसके अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार को भारी क्षति पहुंची। उसके राज्य की नीवें तक हिल गई। लोगों में विरोध भी बढ़ने लगा, उसे मरने से पहले लगा कि स्थिति नाजुक है, इसलिए तो उसने कहा, “मेरे बाद प्रलय होगी” (आफ्टर मी द डिल्युज)।

प्रल्य आने में सोलह साल और लग गए। लुई षोडश जो 1773 में गद्दी पर बैठा, एक संभ्रान्त और सदाशय व्यक्ति था लेकिन योग्य शासक नहीं। विशेष रूप से संकटपूर्ण स्थितियों में तो वह निकम्मा साबित होता था वर्साई के महलों में एक गृहस्थ की जिन्दगी जीता वह वास्तविकताओं से अनभिज्ञ खिड़की पर बैठकर पालतू हिरनों का शिकार करने या बिगड़े तालों की मरम्मत करने में व्यस्त रहता था। उसकी पत्नी आस्ट्रिया की राजकुमारी थी और कभी पूरी तरह फ्रांस की नहीं हो पाई। लोगों ने उसे हमेशा दूर और विदेशी समझा। वह न केवल शाही खर्च और पेंशन का केन्द्र थी, राजनीति में भी हस्तक्षेप करती थी। षड्यंत्रों से बाज नहीं आती थी। राजकुमारी को उसकी माँ और भाई ने बराबर यही सलाह दी कि वह फ्रांस के लोगों में दिलचस्पी ले, वहाँ की राजनीति में नहीं। उसे आगाह किया गया कि उसने अपनी आदत नहीं बदली तो वह अपना हाथ जला लेगी। वह नहीं मानी और अपनी जान गवाँ दी। जनता से और वास्तविकता से भी वह जितनी दूर थी इसका इससे बड़ा प्रमाण क्या होगा कि जब उससे कहा गया कि रोटी अनुपलब्ध हो रही है तो उसने जवाब दिया-यदि रोटी नहीं मिलती तो लोग केक क्यों नहीं खाते। स्पष्ट है कि ऐसी पत्नी और रानी दोनों अपने पति व देश दोनों के लिए बोझ थी।

ऐसे कमजोर केधों पर एकता का बोज्ञ कैसे रिकता। राजा स्वये अक्षम था और ऐसे व्यक्ति तथा संस्थाएं थीं नहीं जो भार वहन करतीं। उत्तरदायित्व बाद भी कौन? रिशलिउ और कोल्बेर जैसे योग्य और स्वामिभक्त मंत्री अबु उपलब्ध नहीं थे। स्वायत्त संस्थाएँ थी नहीं। प्रतिनिधि तथा स्टेट्स जनरल का सैकड़ों वर्षों से अधिवेशन नहीं बुलाया गया था। लोग भूल भी गए थे कि उनको कोई हिस्सेदारी है शासन में। सामंतों को रिशलिउ ने ही अकर्मण्य बना दिया था। लेकिन उनके कर्तव्य कम् हुए थे अधिकार नहीं। उन्हें अधिकार ही नहीं विशेषाधिकार भी प्राप्त थे और इस कारण वे अनावश्यक बोझ थे। मध्यवर्ग से पूरा सहयोग लेने के लिए राजा तैयार नहीं थे। सामंत उन्हें आगे बढ़ने देना नहीं चाहते थे। वह स्वयं अब केवल कभी-कभी बहुत हिस्सेदारी के लिए तैयार नहीं था। अब तो मध्यवर्ग पूरी तरह सत्ता पर अधिकार के लिए तैयार था।

ऐसी स्थिति में शासन को जिम्मेदारी पूरी तरह नौकरशाहो पर थो। वैसे भी केन्द्रीय एकतंत्र और तानाशाहो में कर्मचारियों का महत्व बढ़ जाता है। वास्तव में कर्मचारियों की भूमिका जनता और सरकार के बीच की कड़ी होती है लेकिन जैसा कि इतिहासकार जार्ज रूदे का मत है वंशानुगत नौकरशाही का विस्तार हो रहा था और उसको स्वतन्त्रता बढ़ रही थी। वह धीरे-धीरे जनता और सरकार के बीच की कड़ी बनने के बजाय उनके बीच व्यवधान बनती जा रही थी (दि ब्यूरोक्रेसी हेरेडिटरी आफिस होल्डर्स, ऐज इट पिड बिटवीन गवर्नमेष्ट एण्ड दि पीपुल)। कर्मचारियों की ताकतु इसलिए भी बढ़ गई थी कि उनके उगाहे पैसों पर राजा और राज्य का खर्च चलता था और वे स्वयं प्रत्यक्ष रूप से राजा को सहायता करते थे। उन पर न स्थानीय नियंत्रण था न केंद्रीय। मंत्री तो राजा के करीब होते थे और थोड़ी सी नाखुशी पर बदले जा सकते थे लेकिन कर्मचारी तो दूर-दूर फैले हुए थे और अनिवार्य थे। उन्हें अच्छा सा मंत्री भी पूरी तरह नियंत्रित नहीं कर पाया।

ऐसे कर्मचारी, जिनकी भर्ती और जिनके प्रशिक्षण के नियम में हो, जिनकी शक्ति निस्सीम हो, जिन पर नियंत्रण अनुपस्थित या अयोग्य हो फिर भी जो राज्य के लिए परमावश्यक हों, वे निश्चित ही शासन की जड़ों में घुन लगते हैं।

प्रान्तीय और स्थानीय प्रशासकों पर नियंत्रण दीला पड़ गया था, इसलिए भ्रष्टाचार बढ़ रहा था। सारा देश तरह-तरह की इकाइयों में बंटा हुआ था। न कानून की एकरूपता थी न प्रशासन की। शासन कैसे चल रहा था, इसे समझना आसान नहीं था। स्वार्थ और ईर्ष्या के कारण जो नियम थे भी उनका मनमाना इस्तेमाल होता जा रहा था। पद खरीदे जाते थे। एक प्रकार के मीसा वारंट (लेव द काशे) की परम्परा थी जिसके आधार पर किसी को गिरफ्तार किया जा सकता था और बिना मुकदमा चलाए जेल में रखा जा सकता था।

जिन मंत्रियों ने शासन को संभालने की कोशिश की जैसे दुगों, उन्हें दरबारी षड्युत्र ने पदच्युत कर दिया। राजा अयोग्य; शासन तंग, भ्रष्ट और जुर्जर, कर्मचारी लालची और ईर्ष्यालु, शासन के समर्थक व्यक्तियों और वर्गों का अभाव, ऐसे में एक निरंकुश तंत्र चल नहीं सकता था केवल उत्पीड़क बन सकता था। क्रान्ति के पहले का फोस ऐसा ही था।

सामाजिक स्थिति-

सारा समाज तीन भागों में बंटा हुआ था-पादरी, सामान्त और तृतीय वर्ग। पादरी वर्ग का प्रभाव राजधानी से लेकर छोटे-छोटे गांवों तक था। फ्रांस की कैथोलिक बहुल जनता का जीवनु उनके बिना चल नहीं सकता था, इनमें भी कुछ बहुत प्रतिष्ठित और धनी पादरी थे और दूसरे साधारण पादरी। धन हो तो पद और प्रतिष्ठा खरीदी जा सकती थी। इसलिए छोटे पादरियों का प्रभाव नहीं था।

इसी प्रकार दूसरा वर्ग सामन्तों का था। इनके पास फ्रांस की अधिकांश जमीन थी। रिशलिड और माजारे ने इन्हें पंगु कर दिया था। तब से इनमें संपन्न लोग वर्साई को शोभा बढ़ाते थे। नीचे के समान्त कहलाने को तो कुलीन थे लेकिन आर्थिक दृष्टि से विपन्न थे।

पादरी और सामंत विशेषाधिकार सम्पन्न थे। विशेषाधिकारों का सोत मध्ययुग में मिलता है। उस समय समाज का एक निश्चित कार्य करने के कारण इन्हें कुछ अधिकार दे दिए गए थे। अब उनकी कोई उपयोगिता नहीं थी फिर भी उन्हें कोई छीन नहीं सका था। इसी से समाज में कुलीनता का सबसे अधिक महत्व था। परम्पराओं के बल पर निकम्मे, मूर्य और लालची लोग अपना स्थान बनाए नुए पे जमकि मध्यवर्ग अपनी योग्यता, क्षमता, महत्वाकांक्षा और राजभक्ति के बाद भी वह स्थान नहीं प्राप्त कर सकता था।

तृतीय वर्ग ऐसे लोगों का था जोन पादरी न सामंत अर्थात समाज का बहुमत । इसमें किसान, मजदूर, नौकरी पेशा वाले लोग, वकील, पाकार सभी शामिल थे। सबकी अलग-अलग समस्याएँ थीं लेकिन वे सब एक बात में जुड़ते थे, इन्हें सामाजिक समानता नहीं प्राप्त थी। सार्वजनिक स्थानों से लेकर व्यक्तिगत जीवन तक इन्हें अपनी हेयता का आभास रहता था।

इस तरह समाज में बहुत तनाव था। छोटे बड़े पादरी छोटे बड़े गामत में और कुलीनों के विरुद्ध सामान्य मध्यवर्गीय लोगों में असंतोष था कि जो दूसरे को सामाजिक स्तर पर प्राप्त है वह उसे क्यों नहीं प्राप्त है। यह सामाजिक असंतोष तभी से पार और मुखर होने लगा था जब से समाज में चेतना आई थी। आर्थिक विषमता और शोषण ने इसे और बल दिया था। ज्यो ज्यों विचारकों का प्रभाव बढ़ रहा था लोग यथास्थिति से असंतुष्ट होते जा रहे थे और परिवर्तन की इच्छा बढ़ रही थी।

आर्थिक व्यवस्था-

किसी देश की आर्थिक व्यवस्था को वहाँ की कृषि, उद्योग, व्यवसाय, कर-व्यवस्था आदि के सहारे समझा जाता है। राजकोष की आमदनी का स्रोत करते थे। फ्रांस में विशेषाधिकारों की परम्परा ने समाज के सबसे सम्पन्न लोगों को करमुक्त कर रखा था। करीब तीन लाख सामंतों और पादरियों के बीच समाज की अधिकांश सम्पत्ति बटी हुई थी। सामंत लोग प्रत्यक्षय कर से मुक्त थे लेकिन ये स्वयं किसानों पर कर लगा सकते थे। जहाँ चाहे शिकार खेल सकते थे। किसानों के इस्तेमाल के लिए इनके यहाँ तंदूर, बूचड़खाना और शराब की मिलें होती थीं जिनें इस्तेमाल करने पर किसान कर देता था। नमक तक पर कर लगता था। इसी प्रकार पादरी भी सामान्य कर नहीं देता था। उल्टे वह स्वयं धर्म कर वसूलता था। शिक्षा और समाचार पत्रों पर उसका नियंत्रण था।

किसान अपनी आमदनी का अस्सी प्रतिशत राजकोष, सामंतों और चर्च को कर देने में खर्च कर देता था। इसके बाद भी भ्रष्ट राजकर्मचारी की मुट्ठी को गर्म करना पड़ता था। साथ ही कई बार कई तरह के उपहार देने पड़ते थे। निश्चित था कि उत्पादन बढ़ाने को उनके पास कोई प्रेरणा नहीं थी। खड़ा खेत सामन्तों के कबूतर चुग लेते थे या उधर से सामंत का शिकारी दल गुजर जाता था उन्हें सड़कों पर बेगार करना पड़ता था। अविवाहितों को सेना में भर्ती होना पड़ता था। इन सबके ऊपर था कर का बोझा । इसे भी वह शायद वाहन कर लेता लेकिन उसे या एहसास था कि सम्पन्न राज्य उसे कुछ भी नहीं दे रहा है और सारे लाभ उठा रहा है। दूसरी ओर किसान सब कुछ दे रहा है और बदले में उसे कुछ भी नहीं मिल रहा है। इस स्थिति में उसका असंतोष यदि बढ़े तो स्वाभाविक ही था।

राज्य की समृद्धि का वास्तविक आधार कृषि और उद्योग ही होते हैं। इन दोनों क्षेत्रों में कभी स्थिर और स्थाई नीति नहीं अपनाई गयी। सल्ली और कोल्बेर के सुधार स्थायी नहीं साबित हुए। उद्योग अधिकतर धनिक वर्ग की आवश्यकताओं तक सीमित थे। निर्यात नीति फ्रांस में कभी दूरदर्शिता के आधार पर नहीं बनाई गई । इंग्लैण्ड ने अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में फ्रांस को बराबर चुनौती दी। आंतरिक व्यापार भी विभिन्न प्रतिबन्धों और चुंगी कर के कारण अवरुद्ध रहता था। युगनों के पलायन से पटु लोगों का अभाव हो गया था। कुल मिलाकर फ्रांस का उत्पादन और व्यवसाय अन्य देशों के मुकाबले में खराब नहीं था लेकिन जितना हो सकता था उतना नहीं होता था।

वर्साई की भव्यता और शान-शौकत के मुकाबले में साधारण जनता गरीबी की हालत में रहती थी। शोषण और गैर जिम्मेदारी पर आधारित वर्साई के वैभवशाली शासक और प्रशासक जनता से बिलकुल कटे हुए थे। उनके लिए जनता कामधेनु थी, जब जो चाहा वसूल लिया। यूटों का क्रम समाप्त नहीं होता था। वैदेशिक नीति राष्ट्रहित में नहीं, शासकों की सनक से संचालित होती थी। जब अमेरिका का स्वतन्त्रता संग्राम अंग्रेजों के विरुद्ध शुरू हुआ तो दुश्मन के दुश्मन की मदद करने के लिए फ्रांस ने अमरीका की भरपूर मदद की। इससे आर्थिक दबाव और बढ़ा।

करदाताओं की एक सीमा होती है, जब वहाँ से वसूली बढ़ने की सम्भावना नहीं रही, धनिकों पर कर लगाने की दृढ़ नीति लागू नहीं की जा सकी और राज्य के खर्चे पूरे नहीं पड़ते थे तो स्थिति डावाँडोल हो गई। फ्रांस में आमदनी का तरीका ढूंढा जाता था। ऐसे में राज्य ऋण लेने पर मजबूर था। राज्य का जनता से ऋण लेना असाधारण बात नहीं है लेकिन ऋणु तभी तक मिलता है जब तक राज्य की उधार चुकाने की शक्ति पर विश्वास बना रहता है। फ्रांस में ऋण हद से अधिक बढ़ गए थे और उनके वापस मिलने की आशा नहीं बची थी, धीरे-धीरे राज्य दिवालिया हो रहा था। राज्य का दिवालिया होना संकट की सीमा होती है।

पुरातन व्यवस्था की स्थिति फ्रांस में अन्य देशों की अपेक्षा बेहतर थी। इतिहासकार तोक्विल का मत है कि फ्रांस के लोगों ने इसलिए क्रांति नहीं की कि वे भूखे थे। ऐसा उन्होंने इसलिए किया कि उनका पेट भरा था और वे जागरूकता के कारण स्थिति को समझ सकते थे।

बौद्धिक क्रान्ति-

फ्रांस की स्थिति ऐसी थी कि परिवर्तन की आकांक्षा सर्वत्र व्याप्त है। लेकिन परिवर्तन की रूपरेखा स्पष्ट नहीं थी। इतिहासकार रूदे के अनुसार सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह था था कि राजा के ही अधिकार और बढ़ा दिए जाये ताकि सामंतों पर अंकुश रहे, सामंतों की शक्ति बढ़ाई जाये ताकि राजा पर अंकुश रहे या इन दोनों की शक्ति नियंत्रित करने के लिए जनशक्ति को बढ़ावा दिया जाय। इस प्रकार सवाल राजतंत्र, सामंती व्यवस्था या लोकप्रिय सरकार को शक्तिशाली करने का था। इस प्रश्न का सर्वसम्मत उत्तर न सम्भव था न दूंढा जा रहा था। विभिन्न क्षेत्रों में इसके विभिन्न हल दूढे जा रहे थे।

उत्तर भिन्न-भिन्न भले ही हों, इस प्रश्न का असर था । इसका प्रमाण है, बढ़ती चेतना। वोल्तेयर 1730 से 1778 तक लिखता रहा और उसकी रचनाएँ सारे यूरोप में हर वर्ग में दिलचस्पी से पढ़ी जाती रहीं। रेनाल की पुस्तक “इतिहास दर्शन” के तीन वर्षों में 55 संस्करण प्रकाशित हुए और सभी प्रमुख भाषाओं में उसका अनुवाद हुआ। मोतेस्किउ की पुस्तक “एस्पी दे लुआ के तीन वर्षों में 6 संस्करण हुए और इटली, जर्मनी, इंग्लैण्ड, नीदरलैंड्स, यहाँ तक कि रूस में भी उसका अनुवाद हुआ। रूसो की “सोशल कांट्रेक्ट का एक ही वर्ष में 13 संस्करण प्रकाशित करना पड़ा।

1777 में पहली बार पेरिस में “जूरनाल द पारी” प्रकाशित हुआ। दो वर्षों में ही पेरिस से 79 पत्र-पत्रिकाएँ प्रकाशित होने लगों। क्रान्ति को पूर्वसंध्या पर पेरिस से 169 पत्र-पत्रिकाएँ प्रकाशित हो रही थी। गाँवों और कस्बों तक में इनके पाठक थे और जब गाँव में बाजार लगती थी तो लोग उत्सुकतापूर्वक यही पूछते थे इधर शहर में क्या छपा है? जो भी पाठ्य-सामग्री उपलब्ध होतो तो लोग उसे चाट जाते थे।

ऐसा वातावरण इस बात का सूचक है कि वैचारिक जगत् में जागरूकता तेजी से बढ़ रही थी। सामाजिक परिवर्तन की पृष्ठभूमि वैचारिक धरातल पर बन रही थी और समाज में एक ऐसा वर्ग तैयार हो रहा था जो अग्रणी बनता। यही तैयारी इस बात का प्रमाण है कि अब केवल छिटपुट सुधारों से काम नहीं चलने वाला था। परिवर्तन के वे प्रयास जो घटनाओं में होने वाले थे अब पूरी तरह मानसिक स्तर पर दृढ़ हो चले थे। इसीलिए कुछ इतिहासकारों का विचार है कि वास्तविक क्रान्ति से पहले एक बौद्धिक क्रान्ति हो चुकी थी। यद्यपि बौद्धिक क्रान्ति को आधार मानकर हम फ्रांस के विचार जगत् का अध्ययन करें।

फ्रांस की स्थितियों का विश्लेषण करके कुछ संस्थाओं की निरर्थकता दिखाकर उन पर व्यंग्य करने वाले फ्रांस में पैदा हो रहे थे। यथास्थिति से असंतोष बढ़ गया था। अब परिवर्तन की बात सोची जाने लगी थी। इस परिवर्तन की रूपरेखा स्पष्ट नहीं थी। न ही उसे करने का कोई निश्चित कार्यक्रम था। लेकिन यह अवश्य हुआ कि कुछ लेखकों ने मिलकर ऐसी मानसिकता तो बना ही दी कि फ़्रांस में जो है वह अपर्याप्त या त्रुटिपूर्ण है। उसमें सुधार होना चाहिए और वह हो सकता है । ऐसा वातावरण तैयार करने का श्रेय कुछ व्यक्तियों और कुछ आंदोलनों को है। उनका संक्षिप्त अध्ययन करने से ही बात स्पष्ट हो जायेगी।

बोल्तेयर- इतिहास के विद्यार्थी के लिए बोल्लेयर का बहुत महत्व है। आधुनिक काल में उसने सबसे पहले इतिहास की सममता और सांस्कृतिक पहलुओं की महत्ता पर बल दिया था। इतिहासकार होने के साथ ही वह एक बहुत अच्छा साहित्यकार भी था। उसने अपनी पुस्तकों में तत्कालीन भ्रष्ट तन्त्र पर बहुत जहरीला प्रहार किया। वह इंग्लैण्ड से बहुत प्रभावित था और फ्रांस को उसके अनुकूल ले चुलने की सलाह देता था। सामंत हो, दरबार हो या चर्च वह किसी को नहीं बख्शता था। कैथोलिक चर्च की अष्टता, उसके व्यंग्य का सबसे अधिक शिकार होती थी। वह कहा करता था-अव तो कोई ईसाई बचा ही नहीं, एक ही ईसाई था और उसे सलीव पर चढ़ा दिया गया (देयर वाज ओनली वन क्रिश्चियन एण्ड ही डायड आन द क्रास)।

उसने कोई विकल्प नहीं सुझाया। उसने क्रान्ति की भी बात नहीं की। अधिक से अधिक उसने इंग्लैण्ड जैसे सांविधानिक राजतंत्र की प्रशंसा की। लेकिन उसने लोगों के विवेक को उकसाया । तर्क की उपयोगिता बताई। उसने लोगों की तटस्थता और निर्लिप्तता तोड़ दी। लोगों के सामने एक आईना रखकर बताया कि दाग कहाँ लगा है। स्थिति अपरिवर्तनीय है, यह भ्रम उसने तोड़ दिया। उसने पुरातन व्यवस्था के सबसे शक्तिशाली आधारों पर भी प्रहार किया बदले में उसे जेल भी जाना पड़ा, लेकिन उसका साहस दुर्दम्य था। वह सबसे अधिक स्वतन्त्रता को महत्व देता था। वह कहता था- “मैं जानता हूँ कि तुम जो कह रहे हो वह सही नहीं है। लेकिन तुम वह कह सको इस अधिकार की लड़ाई में अपनी जान तक दे सकता हूँ।” इस प्रकार विचार स्वातंत्र्य के लिए जब उस समय के फ्रांस में सम्भव ही नहीं था, उसने पृष्ठभूमि बनाई । यद्यपि वह स्वयं एक सामंत था पर उसका उत्कर्ष मध्यवर्ग के पक्ष में था।

इस तरह बोल्तेयर एक ऐसी कूलम का सिपाही था जिसने परिवर्तन की बात बड़े प्रभावशाली और साहसपूर्ण ढंग से की। यही उसका सबसे बड़ा योगदान है।

मांटेस्क्यू- इतिहास में मातेस्क्यू को पहला राजनीति शास्त्री कहते हैं। उसने पहली बार राज्य और व्यक्ति के सम्बन्धों का विश्लेषण किया। उसने केवल आलोचना ही नहीं की बल्कि विकल्प भी सुझाए। वह भी इंग्लण्ड से बहुत प्रभावित था। लेकिन उसने वोल्तेयर की तरह केवल प्रशंसा नहीं की। उसने विश्लेषण किया कि कैसे कोई राज्य दूसरे से बेहतर हो जाता था।

सबसे पहले काल्पनिक यात्रियों के पत्रों (फारस के खत) के माध्यम से उसने तत्कालीन समाज की आलोचना की। फिर उसने अपनी महत्वपूर्ण पुस्तक कानून का सार (स्पिरिट आफ लाज) में राज्य की सत्ता को समझाने का महत्वपूर्ण प्रयास किया। इसमें मांटेस्क्यू सत्ता के तीन कार्य निर्धारित करता है- (‘व्यवस्थापिका कानून बनाना )। कार्यपालिका कानून लागू करना तथा न्यायपालिका (कानून की परिभाषा करना) यही उसका प्रख्यात शक्ति के विभाजन का सिद्धान्त है। उसके विचार से जब तक ये तीनों कार्य एक व्यक्ति या संस्था द्वारा सम्पन्न होंगे समाज में न्याय नहीं हो सकेगा। वह फ्रांस के शासन की प्रत्यक्ष आलोचना नहीं करता लेकिन चूंकि फ्रांस के एक तंत्र में हर कार्य राजा ही करता था, मांतेस्क्यू की आलोचना व्यवस्था पर प्रहार थी।

उसकी बात इत्नी सारगर्भित थी कि उसे क्रान्तिकारियों ने बाद में भी लागू किया। लेकिन उसके भी पहले अमरीका का संविधान बनाते समय इस सिद्धान्त को ध्यान में रखा गया। इसीलिए आज भी अमरीका में उपर्युक्त तीनों संस्थाएँ एक-दूसरे से अपेक्षतया मुक्त हैं।

रूसो- रूसो एक लेखक और विचारक था, उसे परम्पराओं से कोई लगाव नहीं था। उसने प्रकृति और व्यक्ति की नैसर्गिक अच्छाइयों को सराहा। वह कहा करता था कि व्यक्ति ज्यों-ज्यों सम्पत्ति और संस्थाओं के बंधन में बंधा है, कुटिल होता गया है। मनुष्य को अपना नैसर्गिक विकास करने का मौका मिलना चाहिए। अपनी पुस्तक “एमिले” में उसने इसी आधार पर शिक्षा देने की बात की।

उसकी सबसे महत्वपूर्ण पुस्तक “सोशल कांट्रक्ट” थी। इसमें उसने स्थापित किया कि प्रारम्भिक मनुष्य प्रकृति की अवस्था में रहता था। वह मासूम और गुणवान था, एक समझौते द्वारा राज्य का जन्म हुआ ताकि धनिकों की सम्पत्ति की रक्षा हो सके। उसने परम्परागत समझौते में परिवर्तन करने की अनिवार्यता की बात की, उसके विचार से लोकेच्छा ही सार्वभौम होती है। (जेनरल विल इज सावरेन बिल) लेकिन ऐसा हो नहीं पाता है क्योंकि व्यक्ति स्वतन्त्र पैदा होता है लेकिन हर जगह वह बंधनों में बंधा रहता है। इन बंधनों से मुक्ति का तरीका भी उसने सुझाया। उसने प्रकृति प्रेम (बैंक टु नेचर) और नए समझौते की बात की।

उसके विचार ऐतिहासिक तथ्यों पर नहीं कल्पना पर आधारित थे। वह यथार्थ से दूर एवं कल्पना लोक में रहता था। उसके विचारों की आलोचना भी हुई। कहा जाने लगा कि वह सारी प्रगति को नकार कर व्यक्ति को फिर जानवर बना देना चाहता है। वास्तविकता यह थी कि उसके उर्वर कल्पनाशक्ति और सदाशयता ने एक और समाज की कल्पना की जो सद्गुणों पर आधारित हो। ऐसा कैसे होगा उसने कभी उसकी योजना नहीं प्रस्तुत की।

उसने क्रान्ति की भी बात नहीं की। लेकिन तत्कालीन संस्थाओं और व्यवस्थाओं को नकार कर उसने मार्गदर्शन किया। किसी एक व्यक्ति या संस्था में विश्वास न प्रकट करके उसने मानवमात्र में आस्था प्रकट की थी। सभी व्यक्तियों को उसने स्वतन्त्र और समान माना था। इसीलिए फ्रांस की क्रान्ति के नारे (समानता, स्वतन्त्रता और भ्रातृत्व) उसी के विचारों से प्रेरित थे। क्रांति के समय उसी के विचारों का सबसे अधिक प्रभाव पड़ा। एक प्रमुख किन्तु भटका क्रांतिकारी रोब्सपियर तो “सोशल कांट्रेक्ट” को बाइबिल की तरह पूजता था। इसीलिए रूसो के अस्पष्ट और अव्यावहारिक विचार प्रेरणा दे सकते थे, लेकिन कार्यान्वित नहीं हो सकते थे।

विश्वकोष- फ्रांस में कुछ ऐसे लेखक भी थे जो तत्कालीन संस्थाओं को स्वीकारते तो थे लेकिन उसका विवेक प्रश्न खड़े करता था। दिदरे ऐसे ही लोगों में से था। उसने अन्य सहयोगियों, जैसे दालाबेर की मदद से एक विश्वकोष (एनसाइक्लोपीडियर) संकलित किया। इसमें विभिन्न विषयों का आधिकारिक वर्णन और आलोचना प्रस्तुत की गई। दिदरो ने स्वयं सैकड़ों लेख लिखे। विज्ञान, दर्शन, समाजशास्त्र और राजनीति सम्बन्धी लेखों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाया गया।

किसी परम्परा को इन लेखों में ज्यों का त्यों नहीं स्वीकारा गया। ज्ञानोदय काल की यह एक प्रमुख उपलब्धि थी। दुनिया के इस पहले विश्वकोष ने ज्ञान के भण्डर को एक जगह संकलित और उपलब्ध कर दिया। साथ ही नई परिभाषाएँ और विश्लेषण देकर रूढिवादी विश्वासों पर प्रहार किया। मनुष्य और उसके विवेक को प्रतिष्ठित किया गया। फ्रांस में इस पर प्रतिबंध लगाए गए लेकिन यूरोप की सभी भाषाओं में इसका अनुवाद हुआ। कैथरिन’ इसकी ग्राहक और प्रशंसक थी।

इस प्रकार विश्वकोष के लेखकों ने अभूतपूर्व कार्य किया, उन्होंने फ्रांस और बाद में यूरोप का दृष्टिकोण बहुत हद तक प्रभावित किया। विशेष रूप से मध्यवर्ग के सम्पन्न लोगों को अपने प्रशिक्षण में इन पुस्तकों से बहुत मदद मिली।

अर्थशास्त्री (फिजिओक्रैट्स)- फ्रांस की आर्थिक व्यवस्था से असंतोष तो था लेकिन उसका विस्तार से विश्लेषण नहीं हुआ था। अठारहवीं शताब्दी के मध्य में कुछ ऐसे विचारक हुए जिन्होंने धरती को एकमात्र उत्पादक तत्व बताया। धरती से ही सम्बन्धित कृषि, जंगल और खनिज पदार्थों को ही उत्पादन का साधन माना। ये ही धन के स्रोत माने गए। उन्होंने उद्योग और व्यवसाय को महत्व नहीं दिया। करकेटिलिज्म के विचारों के विरुद्ध उन्होंने राज्य के प्रतिबन्ध हटाकर उन्मुक्त व्यापार का सिद्धान्त प्रतिपादित किया।

इनका विचार था कि भूमि सम्बन्धी समस्याओं का समाधान हो जाए तो देश की अर्थव्यवस्था सुधर जायेगी। इन विचारकों में केने और तूगों जैसे लोग थे, जो कर व्यवस्था का सरलीकरण राज्य का पहला कार्य मानते थे। इन विचारकों से अंग्रेज अर्थशास्त्री ऐडमस्मिथ प्रभावित हुआ था। इन विचारकों ने पहली बार आर्थिक विश्लेषण प्रस्तुत किया था। इन्होंने भी राज्य की अवरोधी जकड़ की निन्दा की थी। इस प्रकार आर्थिक क्षेत्र में भी राज्य की आलोचना होने लगी थी। मध्यवर्ग अपने अधिकारों के लिए हर क्षेत्र में लड़ रहा था। फिजिओक्रेट्स इसी प्रवृत्ति के परिचायक थे।

अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में एक ऐसा वातावरण बन गया था कि लोग विशेषकर मध्यवर्ग, यथास्थिति से क्षुब्ध होकर प्रिवर्तन के लिए सचेष्ट थे । पेरिस तो बहुत ही उद्वेलित था। वर्साई के राजधानी बनजोत से पेरिस के लोग अपने को अपमानित महसूस करत थे। यहाँ मध्यवर्गीय परिवारों की बैठकों में जमकर आलोचना-प्रत्यालोचना होती थी।

इस पूरी जागरूकता का यदि विश्लेषण किया जाए तो एक बात स्पष्ट हो जायेगी। कोई भी विचार्क चाहे उसके विचार सामंतशाही के लिए कितने ही खतरनाक लग रहे हों समाज के निचले तबकों यानी चौथे वर्ग के लिए कोई सहानुभूति नहीं दिखाई थी। कोई भी क्रान्ति के लिए तैयार नहीं था। बहुत सम्भव था कि यदि क्रान्तिकाल में रूसो, जिसे नेपोलियन ने क्रान्ति का जनक कहा था, जिंदा होता तो उसने क्रान्ति का उसी प्रकार विरोध किया होता जिस प्रकार उसी के विचारों से पेरिस किसानों के विद्रोह को मार्टिन लूथर ने दबा देने का आग्रह किया था। इसलिए क्रान्तिकाल में जनता का महत्व इसलिए नहीं बढ़ गया था कि रूसो ने ऐसी शिक्षा दी थी, ऐसा परिस्थितियों के दबाव के कारण ही हुआ था।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि परिवर्तन की आकांक्षा ने, प्रायः क्रांति विरोधी विचारों के प्रचलन के बावजूद, स्थितियों के दबाव के कारण एक क्रान्तिकारी मोड़ ले लिया।

इतिहास – महत्वपूर्ण लिंक

Disclaimer: sarkariguider.com केवल शिक्षा के उद्देश्य और शिक्षा क्षेत्र के लिए बनाई गयी है। हम सिर्फ Internet पर पहले से उपलब्ध Link और Material provide करते है। यदि किसी भी तरह यह कानून का उल्लंघन करता है या कोई समस्या है तो Please हमे Mail करे- sarkariguider@gmail.com

About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

Leave a Comment

(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
close button
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
error: Content is protected !!