इतिहास / History

लुई फिलिप का शासन | लुई फिलिप की आन्तरिक तथा बाह्य नीति | लुई फिलिप की गृह-नीति | लुई फिलिप की विदेश नीति

लुई फिलिप का शासन | लुई फिलिप की आन्तरिक तथा बाह्य नीति | लुई फिलिप की गृह-नीति | लुई फिलिप की विदेश नीति

लुई फिलिप का शासन

(1) लुई फिलिप का राज्यारोहण-

सन् 1830 की क्रांति के समय चार्ल्स दशम फ्रांस के सिंहासन को खाली छोड़कर भाग गया। ऐसी दशा में राजनीतिक दलों के सामने यह समस्या उठ खड़ी हुई कि फ्रांस का भावी शासक कौन हो? गणतंत्रवादी फ्रांस में गणराज्य की स्थापना करना चाहते थे। उदारवादी ओर्लियंस वंश के राजकुमार लुई फिलिप को राजसिहांसन पर विठाना चाहते थे। इस प्रकार सभी दल अपने-अपने पक्ष के व्यक्तियों को सत्ता दिलाने की चेष्टा में संलग्न थे। परंतु जुलाई क्रांति के नेता लफायत ने किसी प्रकार स्थिति को सुधार लिया और सभी से वचन लिया कि देश में फिलिप के नेतृत्व में शासन की बागडोर चलनी चाहिये। उसने समझाया कि उदारवादी राजकुमार के अधीन राजसत्ता सबसे उत्तम गणतंत्र व्यवस्था होगी। इस निश्चय के अनुसार 7 अगस्त 1830 को फ्रांस की राष्ट्र प्रतिनिधि सभा में प्रस्ताव लाया गया कि देश का शासन भार संभालने के लिए फिलिप को बुलाया जाये। इस प्रकार उसे सर्वसम्मति से फ्रांस का राजा बना दिया गया।

(2) लुई फिलिप की कठिनाइयाँ-

सिंहासन पर बैठने के पश्चात् राजा लुई फिलिप की स्थिति बड़ौ नाजुक थी। फ्रांस को प्रतिनिधि सभा ने उसे सिंहासन दिलाया था। और सभा के 430 सदस्यों में से केवल 252 सदस्यों ने उसे राजा बनाने वाले प्रस्ताव पर हुए मतदान में भाग लिया था। इनमें से 219 ने उसके पक्ष में मतदान दिया था। शेष ने तटस्थता की नीति अपनाई थी। इसके अतिरिक्त जनता के मतदाताओं की कोई राय नहीं ली गई थी।

लुई फिलिप के सामने बड़ी कठिनाई यह थी कि चारों ओर उसके विरोधियों की संख्या अधिक थी, जो दैवी सिद्धांत को मानते थे किन्तु लुई फिलिप उस सिद्धांत का समर्थक नहीं था। कुछ विरोधी नेपोलियन के वंशज को फ्रांस की गद्दी का अधिकारी मानते थे। परन्तु फिलिप का सबसे प्रबल विरोधी गणतंत्र दल था। यह दुल 1830 की क्रांति के समय ही फ्रांस में गणराज्य स्थापित करना चाहता था पर लफ़ायत के कारण देश में राज्यतंत्र की स्थापना हो चुकी थी। कुछ समय पश्चात् गणतंत्रवादियों को अपनी भूल का अनुभव हुआ और वे लुई फिलिप के कट्टर विरोधी हो गए। फ्रांस की कैथोलिक जनता तथा समाजवादी भी उससे असंतुष्ट थे। व्यावसायिक नगरों के मजदूर समाजवादी नेता लुई ब्लां के नेतृत्व में अलग तैयारी कर रहे थे। मध्यम वर्ग के लोग भी लुई फिलिप के शासन को समाप्त कर देना चाहते थे। फ्रांस का कुलीन वर्ग भी फिलिप की सत्ता स्वीकार करने को तैयार नहीं था।

इस प्रकार लुई फिलिप के सामने कठिनाइयों का ढेर लगा था। फ्रांस में केवल संविधान वादियों का ही समर्थन उसे प्राप्त था। मैटर्निख के शब्दों में, “उसे न जनता का समर्थन प्राप्त था, उसे पुनः सत्ता स्थापना (वैधता) का ऐतिहासिक अधिकार भी प्राप्त नहीं था। उसे गणतंत्र का सर्वमान्य समर्थन भी प्राप्त नहीं था। और न नेपोलियन के साम्राज्य का सैनिक गौरव ही प्राप्त था। उसका शासन केवल आकरिमक घटनाओं पर निर्भर था।

(3) लुई फिलिप की गृह-नीति-

लुई फिलिप ने संविधानिक राजा बनना अवश्य स्वीकार कर लिया उसका इरादा राज्य करने के साथ-साथ शासन करने का भी था। उसने अपने मंत्रियों को खुली छूट नहीं दी थी। इस प्रकार जब मंत्रियों ने उसकी नीति का विरोध किया तो उसने उन्हें उनके पद से हटा दिया। प्रतिनिधि सभा के बराबर विरोध करने के बाद भी उसने मोल (Molc) को दो साल तक प्रधानमंत्री बनाये रखा। विदेश नीति पर भी उसने सरल नीति को नहीं अपनाया।

लुई फिलिप को गृह-नीति की विशेषताएँ निम्नलिखित थीं।

(i) स्वर्णिम मध्यम नीति- लुई फिलिप ने वैध राजतंत्रवादियों तथा उग्र गणतंत्रवादियों के बीच के मार्ग पर चलने का प्रयत्न किया। वादे प्रदेश में वैध राजतंत्रवादियों ने विरोध किया। लुई ने उसे कठोरता से दबा दिया। इसी प्रकार पेरिस और लियोंस में गणतंत्रवादियों ने हड़तालें और उपद्रव किए। लुई फिलिप ने उनका भी कठोरता से दमन किया। वह जानता था कि वैध राजतंत्रवादी और गणतंत्रवादी आपस में मिलकर एक नहीं हो सकते। इसी प्रकार नेपोलियन बोनापार्ट के भतीजे लुई नेपोलियन ने फ्रांस में आकर राजसत्ता हथियाने का प्रयत्न किया, तब दोनों बार उसने आसानी से उसे हरा दिया। लुई फिलिप की यह मध्यम मार्ग पर चलने की नीति स्वर्णिम मध्य मार्ग’ की नीति कहलाती है। इस नीति का रचने वाला प्रधानमंत्री कासिमीर पैरिये (Casimir Perier) था। उसी के शब्दों में, “क्रांति अब पूर्ण हो चुकी है। अब से आगे विकास अब धीरे-धीरे होगा, जो समझौते द्वारा तय किया गया है। संविधान की रक्षा करते हुए सरकार आर्थिक मामलों में उदार नीति अपनायेगी। विदेशी मामलों में सरकार शांति की नीति अपनायेगी।”

लुई फिलिप ने अपने शासन के अंतिम समय तक इसी नीति का अवलम्बन किया।

(ii) दमन की नीति- साउथ गेट ने लिखा है, “राजा लुई फिलिप राजा बनने के बाद उतना लोकप्रिय नहीं रहा, जितना कि वह राजा बनने से पहले था। राजनीतिक या सामाजिक अशान्ति के कारण जो भी उपद्रव हुए उनका उस्ने कठोरतापूर्वक दुमन किया।” लोगों ने आवाजें लगाना शुरू कर दिया था, लुई फिलिप देशवासियों की उसी प्रकार हत्या कर रहा है, जिस प्रकार चार्ल्स दशम करता था। उसे भी वहीं भेजो जहाँ चार्ल्स दशम गया है।” प्रारम्भ में समाचार-पत्रों पर से सेंसर हटा लिया गया था, बाद में फिर थोप दिया गया। दमन की इस नीति से प्रजा असंतुष्ट हो गई।

(iii) निष्क्रियता की नीति- लुई फिलिप के शासन में मंत्रिमंडल बहुत शीघ्रता से बदलते रहे। गिजो (Guiz0) के अतिरिक्त सभी मंत्रियों को त्यागपत्र देना पड़ा। गिजों इसी कारण शासन में बना रहा कि उसने राजा की किसी भी इच्छा का विरोध नहीं किया। वह पूजा को चिन्ता न कर राजा की चिंता करता था। वह देश में किसी भी प्रकार के परिवर्तन को मानने को तैयार नहीं था। वह 1814 के अधिकार-पत्र के संशोधन से लेकर सन् 1830 ई० तक के अधिनियम को ही श्रेष्ठ समझता था। मजदूरों की दशा सुधारने के लिए भी यह कानून बनाने को तैयार नहीं था। उसका कहना था कि सब असंतोष मूर्खतापूर्ण तथा दिखावटी हैं। इस निष्क्रियता की नीति से जनता में असंतोष बढ़ गया। ला मार्तेन ने इस दशा का वर्णन करते हुए कहा था, “फ्रांस इससे ऊब गया है।”

(iv) भ्रष्ट शासन- गिजों का अपना जीवन तो पवित्र था परन्तु राजनीतिक में भ्रष्टाचार और रिश्वत उसका प्रधान अस्व था। वह मंत्रिमंडल तथा प्रतिनिधि सभा को रिश्वत के द्वारा अपने वश में रखता था। उसने इस सभा के कुल 430 सदस्यों में से 200 सदस्यों को ऊंचे पदों पर नियुक्त कर रखा था। एक प्रतिनिधि ने कहा था, “प्रतिनिधि सभा बाजार है, जहाँ प्रतिनिधि अपना ईमान बेचते है।”

(v) उद्योगों को प्रोत्साहन- लुई फिलिप की सरकार मध्यम वर्ग की सरकार थी, अत: राजा की ओर से मध्यम वर्ग के धनी लोगों का ही ध्यान रखा जाता था। उद्योग-धन्धों को प्रोत्साहन दिया गया तथा इंगलैण्ड से मशीनें मंगाकर कारखाने लगाये गए। पेरिस सेल हाब्रे तक रेल लाइन बिछाई गयी।

(vi) मजदूरों की दुर्दशा- देश के औद्योगीकरण के साथ-साथ उसमें बुराइयाँ भी आयीं। मजदूरों की दशा बड़ी शोचनीय थी। उनका वेतन कम था तथा काम के घण्टों का कोई निश्चय नहीं था। मजदूर अपना संगठन नहीं बना सकते थे। यदि सरकार से इस दशा को सुधारने के लिए कहा जाता तो वह बिल्कुल ध्यान नहीं देती थी।

(vii) धार्मिक नीति- विशपों तथा पादरियों को राज्य की ओर से वेतन मिलता था। राज्य धर्म निरपेक्ष नीति को अपनाता था। यहूदी, कैथोलिक, प्रोटेस्टेन्ट सबको राज्य की ओर से समान आश्रय दिया जाता था।

(viii) शिक्षा का प्रसार- लुई फिलिप ने शिक्षा-प्रसार पर कोई ध्यान नहीं दिया। प्राथमिक शिक्षा का प्रवन्ध चर्च द्वारा होता था, परंतु माध्यमिक तथा उच्च शिक्षा राज्य के नियन्त्रण में थी। आन्तरिक तथा सामाजिक शांति बनाये रखने की शिक्षा देना सभी शिक्षा संस्थाओं का कर्त्तव्य था।

इस प्रकार लुई फिलिप की गृहनीति ने प्रजा में उसे अप्रिय बना दिया था। लोगों में आर्थिक चेतना की स्वतंत्रता की भावना भी जाग चुकी थी। निर्धन वर्ग की सामाजिक तथा आर्थिक दशा में सुधार की मांग बढ़ती जा रही थी, किन्तु उसकी उपेक्षा की गयी। लोगों के राजनीतिक अधिकार छीन लिए गए थे, परन्तु उनको आर्थिक उन्नति नहीं हो पाई थी। लुई फिलिप केवल संवैधानिक राजा की स्थिति से सन्तुष्ट नहीं था। अतः मध्यम मार्ग भी उससे असंतुष्ट हो गया, फलस्वरूप उसका समर्थन नहीं के बराबर हो गया और सन् 1848 की क्रांति ने शीघ्र ही उसे सिंहासन से हटा दिया।

(4) लुई फिलिप की विदेश नीति-

लुई फिलिप के प्रधानमंत्री कासिमीर ने अपनी सरकार की विदेश नीति के दो आधारभूत सिद्धांत घोषित किए थे।

(1) शांतिप्रियता तथा (2) क्रांतिकारी उदार आन्दोलनों का समर्थन (विदेश आन्दोलनों के प्रति)।

(i) क्रांतिकारी आन्दोलनों के प्रति विचार- ई० लिप्सन के शब्दों में, सन् 1789,1830 और 1848 में पेरिस यूरोप में क्रांति के तूफानों का केंद्र बना रहा। फ्रांस की राजधानी में होने वाली क्रांति की उथल-पुथल का प्रभाव यूरोप के हर राज्य पर पड़ा और उससे यूरोप का हरेक राज्य-सिंहासन डॉवांडोल हो उठा।”

अतः 1830 में बूबोन वंश का पतन होते ही अन्य देशों में भी क्रांति की आग भड़क उठी। बेल्जियम ने स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। पोलैण्ड ने रूस के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। जर्मनी तथा इटली में भी राष्ट्रीय एकता के लिए आन्दोलन हुए। लुई फिलिप को यह सोचना था कि वह इन आन्दोलनों के प्रति क्या रुख अपनाये।

साउथ गेट ने लिखा है, “फ्रांस में किसी भी दुर्वल सरकार को मजबूत बनाने का सबसे पक्का उपाय यह था कि उग्र और सशक्त विदेश नीति अपनाई जाये। फ्रांसीसी लोग सदा ही कीर्ति और गौरव से आकर्पित होते रहते हैं।”

लुई फिलिप के शासन काल में सन् 1832 से 1836 तक थिये (Thiers) प्रमुख मंत्री रहा । सन् 1840 में वह प्रधानमंत्री बना। वह उप विदेश नीति का समर्थक था। स्पेन के क्रान्तिकारियों को सहायता देने और टर्की के सुल्तान के विरुद्ध मिस्त्र के मेहमत अली का समर्थन करने के प्रश्नों पर वह युद्ध करने को तैयार था।

(ii) शांतिप्रिय शासक- लुई फिलिप एक शांतिप्रिय शासक था। वह शांति बनाये रखने का समर्थक था। अतः सन् 1840 में उसने थिये को पदच्युत कर दिया था। गिजो को प्रधानमंत्री का पद दिया गया जो शांतिप्रिय नीति का समर्थक था।

(iii) बेल्जियम का प्रश्न- बेल्जियम के सबंध में लुई फिलिप की नीति असफल रही। बेल्जियम के लोग फिलिप के दूसरे पुत्र निर्मश को राजा बनाना चाहते था, परंतु इंगलैण्ड इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं था क्योंकि इससे फ्रांस का गौरव बढ़ जाता। अत: इंगलैण्ड ने घोषणा की कि वह बेल्जियम पर अब फ्रांस के अधिकार को कभी सहन नहीं करेगा। फिलिप इस घोषणा से डर गया। अब बेल्जियम की गद्दी महारानी विक्टोरिया के चाचा राजकुमार लियोपोल्ड को दी गयी। यह घटना फ्रांस के राष्ट्रीय गौरव का अपमान करने वाली थी। फ्रांस की जनता की नजरों में यह अपराध की बात थी। प्रो०लिप्सन के शब्दों में, “लुई फिलिप ने फ्रांस को युद्ध की स्थिति से बचाकर बुद्धिमता का परिचय दिया।”

इस प्रकार लुई फिलिप की विदेश-नौति उसके सम्पूर्ण शासनकाल में प्रायः असफल रही।

(iv) पोलैण्ड तथा इटली- लुई के समय में पोलैण्ड तथा इटली में क्रांतियां हो रही थीं। यूरोप के राजाओं के सामने इन क्रांतियों की एक बड़ी समस्या थी। अतः यह भार फ्रांस को सौंप दिया गया, परंतु फ्रांस ने इस कार्य में कोई रुचि नही दिखाई। लुई के इस कार्य से लोग दुःखी हुए क्योंकि वे तो सैनिक युद्धों द्वारा अपना गौरव चाहते थे जबकि लुई फिलिप इसके विरुद्ध था। इतना ही नहीं यूरोप के नये देश भी फ्रांस का विरोध करने लगे।

(v) पूर्वी सुमस्या- विदेशी मामलों में शक्ति की नीति को अपनाकर फ्रांस का गौरव बढ़ाने का एक और अवसर उस समय आया जब मिस्र के पाशा मेहमत अली ने टर्की के सुल्तान के विरुद्ध विद्रोह कर दिया।

टर्की सुल्तान ग्रीस को स्वतंत्र रूप में नहीं देखना चाहता था। अतः ग्रीस के स्वतंत्रता संग्राम को दबाने के लिए उसने मिस्र के पाशा ने मेमत अली से सहायता मांगी। सुल्तान ने उसे वचन दिया कि जीतने पर वह मेहमत अली को मोरिया और सीरिया का पाशा बना देगा। मेहमत अली ने अपने पुत्र इवाहीम के साथ एक सेना भेजकर पीस के विद्रोह को कुचल दिया। सुल्तान ने मेहमत अली को केवल क्रीट का द्वीप देना चाहा, इस पर मेहमत अली ने बलपूर्वक जाफा, गाजा और दमिश्क पर अधिकार कर लिया। सुल्तान की सेना मेहमत अली की सेना से हार गयी। अब सुल्तान ने यूरोप की बड़ी शक्तियों से सहायता मांगी। फ्रांस शुरू से ही मेहमत अली के पक्ष में रहा था। ब्रिटेन तथा आस्ट्रिया सुल्तान को सहायता देने के लिए तैयार नहीं हुए। ब्रिटेन तथा फ्रांस टर्की में रूस का प्रभाव नहीं जमने देना चाहते थे । रूस टर्की की सहायता करने के लिए तैयार हो गया। ऐसी दशा में ब्रिटेन और फ्रांस ने बीच में पड़कर 1833 में एक संधि करवा दी “जिसके अनुसार सीरिया मेसोपोटामिया का कुछ भाग और अदन मिस्र के मेहमत अली को सौंप दिया गया। यहाँ भी लुई फिलिप ने ब्रिटेन का अनुसरण किया।

सन् 1839 में प्रशिया और ब्रिटेन की सहायता से टर्की के सुल्तान ने पाशा पर आक्रमण कर दिया। लुई फिलिप मेहमत अली का समर्थन कर रहा था। युद्ध में मेहमत अली का पलड़ा भारी था। उसी समय सुल्तान का निधन हो गया। ब्रिटेन मिस्र में फ्रांस के और टर्की में रूस के प्रभाव को बढ़ने देने नहीं चाहता था ।अतः उसने सनु 1840 में लन्दन में रूस, आस्ट्रिया, प्रशिया और ब्रिटेन का एक सम्मेलन बुलाया। इसमें फ्रांस को सम्मिलित नहीं किया गया। इस सम्मेलनु ने टर्की की रक्षा को भार अपने ऊपर ले लिया। मेहमत अली को हराकर उसे कठोर शर्तों को मानने के लिए विवश किया गया।

(vi) स्विटजरलैंड की समस्या- सन् 1845 में स्विटजरलैंड में सात कैन्टनों ने अपना एक अलग संघ बनाने का निर्णय लिया। आस्ट्रिया, प्रशिया और फ्रास ने इस नये संघ का समर्थन किया। स्विटजरलैंड की संसद ने संघ को भंग करने की आज्ञा दी। भंग न होने पर युद्ध शुरू हो गया। नया संघ प्रतिक्रियावादियों ने बनाया था। लुई को उसका समर्थन कभी नहीं करना चाहिये था, क्योंकि ऐसा करने से फ्रांस के गणतन्त्रवादी नाराज हो गए। अन्त में नये संघ को खत्म करना पड़ा और फ्रांस को व्यर्थ में ही बदनामी उठानी पड़ी।

(vii) स्पेन का विवाद- सन् 1846 ई० में स्पेन के राजपरिवार में दो कन्यायें विवाह योग्य हो गयी थीं। एक का नाम रानी ईसाबैला तथा दूसरी का मारिया लुइसा (Maria Louisa) था। लुई अपने पुत्र का विवाह मारिया लुइसा से करना चाहता था। यूट्रेक्ट की संधि के अनुसार स्पेन और फ्रांस में एक राजा का शासन कभी नहीं होना चाहिए था। इस विवाह से एक नई समस्या उत्पन्न हो सकती थी। अतः ब्रिटेन ने इस विवाह का विरोध किया। इतने पर भी दोनों बहिनों के विवाह साथ-साथ हुए। इससे ब्रिटेन फ्रांस से नाराज हो गया। और उसने फ्रांस से राजनयिक संबंध विच्छेद कर लिए। लुई फिलिप की इस कारण निन्दा हुई।

द्वारा असंतुष्टि- लिप्सन के शब्दों में, “फ्रांस की जनता अब भी नेपोलियन के राज्य की स्मृतियों में डूबी थी। सन् 1815 के वियना सम्मेलन से उसके गौरव को आँच आई थी, वह सहायता के लिए यूरोप के अन्य देशों की ओर देख रही थी। परन्तु यदि लुई फिलिप उस भावना का आदर करके अन्य राष्ट्रों के घरेलू झगड़ों में हस्तक्षेप करता तो परिणाम विनाशकारी होता।”

ऐसा करने से आट्रिया, प्रशिया तथा रूस तुरन्त एक ध्वज के नीचे आ जाते और फ्रांस को संक्ट का सामना करना पड़ जाता। अत: लुई फिलिप दृढ़तापूर्वक यूरोप के अन्य राष्ट्रों में हस्तक्षेप करने से बचा रहा । उसको इस नीति ने प्रजा को नाराज कर दिया, क्योंकि उसकी गौरव की भावना पूर्ण न हो सकी।

 निष्कर्ष  (Conclusion)

लुई फिलिप की दुर्बल विदेश नीति के कारण अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में फ्रांस की प्रतिष्ठा को दिन-प्रतिदिन बट्टा लगा रहा। इस निम्नता को फ्रांस की जनता सहन नहीं कर सकी क्योंकि उसके मस्तिष्क में तो नेपोलियन की गौरवमयी स्मृति अभी मिटी नहीं थी। अतः एक तरफ तो फ्रांस में लुई फिलिप के शासन के विरुद्ध जनता का आक्रोश बढ़ता रहा और दूसरी तरफ यूरोप के राष्ट्र भी फ्रांस से अप्रसन्न ही रहे । वास्तव में यह दुर्भाग्य की बात थी कि सदाशय और विवेकशील होते हुए भी फिलिप गृह तथा विदेश नीति के क्षेत्र में असफल रहा। फ्रांसीसियों के मन में यह बात घर कर गयो कि एक ओर तो आन्तरिक क्षेत्र में सुधारों की मांग की अवहेलना करके उन्का सम्राट अकर्मण्यता और निरंकुशता का परिचय दे रहा है और दूसरी ओर अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में फ्रांस की प्रतिष्ठा को आघात पहुंच रहा है। जनता को इस मनोभावना के कारण एक बार पुन: फ्रांस क्रांति के कगार पर आ गया।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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