इतिहास / History

लुई अठारहवें का शासन | लुई अठारहवें के शासन काल की घटनाओं का विवरण

लुई अठारहवें का शासन | लुई अठारहवें के शासन काल की घटनाओं का विवरण

लुई अठारहवें का शासन

(The Reign or Louis 18th.)

1814 ई० में नेपोलियन के राज्य छोड़ने तथा ऐलवा द्वीप में निष्कासित होने के पश्चात् फ्रांस के सिंहासन पर लुई अठारहवें को बैठाया गया। लुई अठारहवाँ सोलहवें का भाई था और गद्दी पर बैठने के समय उसकी आयु 59 वर्ष की थी। वह अस्वस्थ था तथा गठिया रोग से पीड़ित था। वह अश्वारोहण भी नहीं कर सकता था, परंतु वह अपने भाई लुई सोलहवें से अधिक समझदार तथा बुद्धिमान था। वह जानता था कि जनता की इच्छा की अवहेलना करके चूर्वो राजवंश की स्थापना की गई है, परंतु विजेताओं के सामने विवश था । समय की प्रवृत्ति को जानते हुए भी निरंकुश राजतन्त्र का छत्र धारण कर लिया था। उसे यह भी ज्ञान था कि क्रान्तिपूर्ण नई लहरों को अब किसी भी प्रकार नहीं कुचला जा सकता। इस कारण वह युग की आवश्यकताओं को समझते हुए अपने आपको उनके अनुकूल बनाकर फ्रांस पर शासन करना चाहता था।

ये कुछ ऐसे कारण थे जो सत्य की लकीर पर टिके हुए थे। अत: लुई ने अपने शासन-काल में जनता की भावनाओं तथा क्रांतिकारी विचारों का विरोध न करने की नीति को अपनाया। वह 6 वर्ष तक इंगलैंड में रहा था, अतः उसे उदार संस्थाओं का अनुभव भली भाँति हो गया था। सन् 1818 में उसने कहा था, “जिस प्रणाली को मैने स्वीकार किया है और जिसका मेरे मंत्री बड़े परिश्रम से पालन कर रहे हैं, वह इस कहावत पर आधारित है कि दो प्रकार की जनता का राजा होना भी उचित नहीं है। चूंकि इस समय प्रजा के दो भाग हैं, अत: मेरे शासन का पूर्ण प्रयल है कि इस भेद को क्रमशः खत्म कर दिया जाए।

  1. संवैधानिक आज्ञा-पत्र (Constitutional charter of 1814)

लुई अठारहवें ने 2 जून, 1814 ई० को सिंहासन पर बैठते ही एक संवैधानिक आज्ञा-पत्र (Constitutional Charter) निकाला। उसकी प्रस्तावना में कहा गया था- “अपने पूर्ववर्ती राजाओं के आदर्श का अनुकरण करते हुए हमारा यह कर्तव्य है कि हम ज्ञान की बराबर उन्नति के परिणामों, इस प्रगति द्वारा समाज उत्पन्न नये सम्बन्धों, पिछली आधी शताब्दी में जन-साधारण के विचारों पर इसके द्वारा डाले गए प्रभावों और इस अवधि में हुए महत्वपूर्ण परिवर्तनों का सम्मान करें। प्रजा की इस इच्छा को मान्यता देते हुए हमने ध्यान रखा है कि यह संविधान हमारी और जिस जनता पर हम शासन करते हैं, उसकी शान के उपयुक्त हो।”

सन् 1814 के इस घोषणा-पत्र द्वारा लुई ने संवैधानिक राजसत्ता की स्थापना की। इसमें उन सभी सिद्धान्तों को मान लिया गया जो क्रांति द्वारा प्रतिष्ठित हुए थे। फ्रांस में-

(1) वैध राजसत्तावाद, (2) उत्तरदायी मंत्रीमंडल तथा (3) दो सदन वाली विधान सभा की व्यवस्था की गई। विधान सभा के ऊपरी सदन को अभिजात वर्गीय सभा (chamber of Peers) और निचले सदन को प्रतिनिधियों की सभा (Chamber of Deputies) कहा गया। ऊपरी सदन के सदस्य जीवन भर के लिए चुने जाते थे। जबकि प्रतिनिधि सभा के सदस्य जनता द्वारा चुने जाते थे। सदस्य चुनने का अधिकार सब व्यस्क को प्राप्त न था। मताधिकार केवल उन्हीं को प्राप्त था जिनकी आयु कम से कम 30 वर्ष की हो और जो राज्य को कम से कम 300 फ्रेंक वार्षिक कर देते हों।

इस घोषणा-पत्र के द्वारा क्रांति के समय के अधिकारों को मान्यता दे दी गई। सरकारी पदों पर योग्यतानुसार नियुक्ति करने का निश्चय किया गया। अब रोमन कैथोलिक धर्म के साथ अन्य धर्म के मानने वालों को भी स्वतन्त्रता प्रदान की गई, प्रेस पर लगे प्रतिबन्धों को भी समाप्त कर दिया गया। यह भी घोषणा की गई कि बिना किसी अपराध के किसी भी व्यक्ति को बन्दी नहीं बनाया जाएगा।

लुई ने यह भी स्पष्ट किया कि राजा ही कानूनों को पारित करेगा। राजा द्वारा विधियों के प्रस्ताव पर व्यवस्थापिका अपनी इच्छानुसार उसे स्वीकार या अस्वीकार कर सकती है। यदि व्यवस्थापिका कोई कानून बनाना चाहे और राजा उसे न बनाना चाहे तो व्यवस्थापिका राजा से उसे पारित करने के लिए प्रार्थना कर सकेगी। यदि राजा प्रार्थना अस्वीकार कर दे तो दुबारा प्रार्थना उस अधिवेशन के दौरान नहीं की जा सकती।

आलोचना- संवैधानिक घोषणा-पत्र प्रगतिशील विचारों से ओत-प्रोत था, परन्तु उसमें कुछ कमियाँ थीं-

(1) घोषणा-पत्र में राजा को ही समस्त अधिकारों का स्रोत समझा गया था, जो अलग जनतन्त्रीय भावना के विरुद्द थी।

(2) निर्वाचन पद्धति आर्थिक योग्यताओं पर आधारित थी, साधारण नागरिकों को उसमें कम अधिकार दिए गए थे।

(3) चुनाव कराने की कोई घोषणा नहीं की गई थी।

हेजेन ने इसकी आलोचना इन शब्दों में की है तथापि इस शासन का स्वरूप नेपोलियन के शासन का उदार स्वरूप मात्र भर था, परन्तु इंगलैंड के अतिरिक्त यूरोप में अत्यन्त उदार शासन् था।”

आगे हेजेन ने संवैधानिक आज्ञा-पत्र की आलोचना इस प्रकार की है, इस दशा से फ्रांस अब भी विशेषाधिकार का क्षेत्र बना हुआ था।”

इन गलतियों के होते हुए भी यह स्वीकार करना होगा कि संवैधानिक घोषणा-पत्र ‘जनता के अधिकारों का श्रेष्ठ आज्ञा-पत्र था। इसने क्रांति के सभी सिद्धान्तों को मान्यता देकर उदारता का परिचय दिया था।

प्रो० साउथ गेट ने लिखा है, इस घोषणा-पत्र के दो महत्वपूर्ण कार्य थे-

(1) उसने क्रांतिकारी और नेपोलियन-युग की बहुत सी विशेषताओं को कम से कम ऊपरी रूप में स्वीकार कर लिया जैसे धार्मिक स्वतन्त्रता, समानता, नेपोलियन-कोड और पोप के साथ समझौता; (2) उसने दैविक अधिकारों के सिद्धान्त को भी इस तरह मान्यता दी कि उदारवादी सिद्धान्तों का महत्व कम नहीं हुआ। वास्तव में आज्ञा-पत्र प्रजा की सद्भावना का प्रतीक था।”

  1. राजनीतिक दल (Political Parties)

लुई अठारहवाँ शान्ति का पोषक था और शान्तिपूर्वक शासुन करना चाहता था। परन्तु उस समय के राजनीतिक दलों ने उसकडे सामने अनेक समस्याएँ उत्पन्न कर दी थीं। मुख्य समस्या उदारवादी दलों (Moderates) तथा कट्टर राजसत्तावादी दलों (Ultra Royalists) की थी। फ्रांस में उस समय निम्नलिखित दल थे-

(1) कटूटर राजसत्तावादी दल (Ultra Royalists Party)-  इस दल में उच्च वर्ग के लोग थे। ये लोग क्रांति के शत्रु थे। क्योंकि क्रांति ने इन्हें बहुत हानि पहुँचाई थी। इन लोगों को क्रांति ने एक प्रकार से बर्बाद कर दिया था। सम्राट लुई का छोटा भाई आर्नुआ काउन्ट (count of Artois) इनका नेता था। ये कट्टर राजसत्तावादी घोर प्रतिक्रियावादी थे। वे पुरातन व्यवस्था को फिर से लाना चाहते थे। इस दल ने लुई के संवैधानिक घोषणा-पत्र को रद्द करने का परामर्श दिया। इन लोगों ने जुई से यह भी कहा कि लुई (वर्तमान राजा) उन सब अत्याचारियों को बंदी बनाए जिन्होंने लुई सोलहवें को गिलोटिल पर चढाया था। परन्तु लुई अठारहवें ने इन लोगों के परामर्श को नहीं माना क्योंकि इस समय स्थिति बड़ी नाजुक थी। फिर भी अपने प्रभाव के कारण इन लोगों ने शासन पर अपना अधिकार जमा लिया।

(2) उदार राजसत्तावादी दल- इस दल का निर्माण भी कुलीनों, सामंतों तथा उच्च पादरियों के मिलने से हुआ था। परन्तु यह दल प्रतिक्रियावादी नहीं था। यह दल राजसत्ता को निरंकुशता से मुक्त कर जनोपयोगी बनाना चाहता था।

(3) उदार दल- यह दल केवल संवैधानिक घोषणा-पत्र से ही संतुष्ट नहीं था। यह राजा के अधिकारों में कमी तथा जनता के अधिकारों में वृद्धि चाहता था।

(4) गणतन्त्रवादी दल- यह दल नेपोलियन तथा बूर्वो वंश का विरोधी था। यह फ्रांस में गणतन्त्रात्मक शासन चाहता था।

(5) बोनापार्टिस्ट- यह दल नेपोलियन बोपापार्ट के सिद्धान्तों का कट्टर समर्थक था। यह दल फ्रांस की गद्दी पर नेपोलियन के उत्तराधिकारी को बिठाना चाहता था।

  1. श्वेत आतंक (White Terror)

उपरोक्त पांचों दलों में से तीन दल ऐसे थे जो लुई के शासन को बिल्कुल पसुन्द नहीं करते थे। परन्तु कट्टर राजभक्तों ने लुई को शान्तिपूर्वक शासन नहीं करने दिया। जैसे ही वाटरलू के युद्ध नेपोलियन की हार के समाचार पहुंचे, उन्होनें फ्रांस में एक ऐसे ही आतंक राज्य को शुरू कर दिया जो क्रांति के समय के राज्य से भी भयंकर था।

पादरियों, प्रतिक्रियावादी तथा कट्टर राजसत्तावादियों ने नेपोलियन के पक्षपातियों पर हिंसात्मक आक्रमण शुरू कर दिए। नेपोलियन के हजारों समर्थक मारे गए। कैथोलिकों ने प्रोटेस्टेंटों पर धावे बोले, सारे देश में लूट-मार तथा हत्या का आतंक छा गया। इस हिंसक उथल-पुथल के इतिहास में ‘श्वेत आतंक'(White Terror) नाम है।

लुई अठारहवें के शासन काल में बने विभिन्न मंत्री-मंडल- संवैधानिक घोषणा-पत्र के उपरान्त सार्वजनिक निर्वाचन हुए जिनमें कट्टर राजसत्तावादियों की ही जीत हुई । व्यवस्थापिका में बहुमत के बल पर इन राजसत्तावादियों ने राजा द्वारा घोषित सुधारों के विरूद्ध कानून पास करने शुरू कर दिए। आर्नुआ के काउन्ट ने उच्च पदों पर कुलीनों तथा पादरियों को नियुक्त करवा दिया। तिलेरा को उसके पद से हटाकर रिशलू को नियुक्त किया गया, राष्ट्रीय तिरंगे झंडे के स्थान पर बूर्वो वंश का श्वेत झंडा चढ़ाया गया। सेना में भी नेपोलियन के अनुभवी तथा उच्च सेनापतियों को हटाकर उनके स्थान पर कुलीनों की नियुक्ति की गई। नेपोलियन के समर्थकों को जेल में डाल दिया गया तथा अनेकों को मौत के घाट उतार दिया गया।

रिशलू मंत्री मंडल द्वारा शासन सुधार-

(1) फ्रांस की वित्तीय व्यवस्था ठीक करने के लिए कुछ कानून बनाए गए।

(2) पेरिस की दूसरी संधि द्वारा यह तय किया गया कि पेरिस के उत्तरी-पूर्वी भाग पर विदेशी सेनाएँ अपना अधिकार बनाएँ रहेगी, क्योंकि फ्रांस ने अभी तक हर्जाने का धन नहीं चुकाया था। यद्यपि रिशलू ने ऐला शैपल के सम्मेलन में ब्रिटिश प्रतिनिधि को इस बात के समर्थन के लिए राजी कर लिया कि विदेशी सेनाएँ फ्रांस की भूमि से शीघ्र ही हटा ली जाए।

सन् 1818 में सदन ने रिशलू को त्यागपत्र देने के लिए विवश कर दिया।

रिशलू के बाद उदारवादी दल बहुमत में आया। जनरल डेसोलेस के नेतृत्व में मंत्री-मंडल का गठन हुआ। परन्तु वास्तविक शक्ति देकाजे (Decazes) के हाथ में रही। 1819 में चुनाव हुए जिसमें उदारवादी दल को बहुमत प्राप्त हुआ। देकाजे निर्वाचन सम्बन्धी नियमों में संशोधन करना चाहता था, परन्तु इसी मध्य फरवरी 1820 में नेपोलियन के एक अनुयायी ने आर्नुआ के काउण्ट के द्वितीय पुत्र बैरी के ड्यूक (Duke of Berry) की हत्या कर दी, फलस्वरूप राजसत्तावादी प्रतिक्रिया पुनः भड़क उठी। एक राजसत्तावादी के शब्दों में, बैरी के ड्यूक को जिस छरे से मारा गया वह उदारवादी विचार था।” इस प्रकार थोड़े समय में ही सहखों उदारवादियों को मौत के घाट उतार दिया गया।

राजसत्तावादियों को अपनी कूटनीति में सफलता मिली, परन्तु परिस्थिति ऐसी बनी की डेकाजे पदच्युत कर दिया गया।

अब प्रतिक्रियावादी रिशलू पुनः प्रधानमंत्री बना।

प्रतिक्रियावादी अधिनियम-

(1) प्रेस की स्वतंत्रता तथा व्यक्तिगत स्वतन्त्रताएँ समाप्त कर दी गयीं।

(2) निर्वाचकों की सम्पत्ति की योग्यताओं को बढ़ा दिया गया।

(3) गुप्त मतदान प्रणाली का अन्त कर दिया गया।

(4) भूस्वामियों (Land Lords) को दो मत (Double Votc) के अधिकार प्रदान किए गए।

इस प्रकार देश में कट्टर राजसत्तावादी दल हो गया। विबेल ने शीघ्र ही घोर प्रतिक्रियावादी नीति का परिचय दिया। 1822 में समाचार पत्रों पर भी कठोर प्रतिबन्ध लगा दिए गए। सम्राट तथा चर्च के प्रचार के लिए शिक्षा का सम्पूर्ण भार चर्च पर डाल दिया, गया। उद्योगपतियों तथा जागीरदारों के हितों को संरक्षण देने के लिए विदेशों से माल के आयात पर भारी चुंगी लगा दी गई। सन् 1823 में स्पेन के सम्राट फर्डिनेण्ड सप्तम् को विद्रोह दमन के लिए सैनिक सहायता दी गई।

इस समय तक लुई अठारहवाँ बहुत वृद्ध हो चुका था। वृद्धावस्था के कारण उसकी शक्ति दिन-प्रतिदिन क्षीण होती जा रही थी। वह राज-काज ठीक ढंग से नहीं कर पाता था। सन् 1824 में उसकी मृत्यु हो गई।

निष्कर्ष (Conclusion)

इस प्रकार लुई अठारहवें का शासन-काल अनेक घटनाओं को अपने में लपेट कर चलता रहा। फ्रांस को विशाल सेना राजसत्तावादियों के संकेत पर स्पेन के देशभक्तों पर भीषण अत्याचार किए तथा उन्हें कठोरतापूर्वक दबाया। प्रतिनिधि सभा से उदारवादियों का बहुमत समाप्त करने के लिए सदस्यों की उपाधियाँ प्रदान की गई। इन सब कार्यों को वृद्ध तथा अशक्त लुई चुपचाप देखता रहा। असल में उसने राज-काज आर्नुआ के काउन्ट पर छोड़ दिया था। जिसके फलस्वरूप फ्रांस में प्रतिक्रिया का ताण्डव हुआ। इस प्रतिक्रिया की फ्रांस में धीरे-धीरे आवाज उठ रही थी। गुप्त क्रांतिकारी संगठन भी एक ध्वज के नीचे इकट्ठे होने लगे थे। यदि सन् 1824 में लुई की मृत्यु न हो जाती तो 1830 की क्रांति का काल उसी के शासन काल में माना जाता।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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